अपने आप से पूछिए ये तीन प्रश्न

May 1998

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संसार में प्रायः तीन प्रकार के व्यक्ति पाये जाते है। एक आत्मविश्वासी दूसरे आत्म-निषेधी और तीसरे संशयी। अपने इन्हीं प्रकार के कारण एक वर्ग के लोग आपने उद्योग और पुरुषार्थ के बल पर समाज पर छाये रहते हैं, अपना स्पष्ट स्थान बनाकर जीवन को सार्थक बनाते और समय के पृष्ठों पर अपनी छाप छोड़ जाते हैं। दूसरा वर्ग अपने प्रकार के कारण निराशा निरुत्साह और निःसाहस के कारण रोते-झींकते भाग्य और विधाता को कोसते हुए जीते और अन्त में एक निस्सार और निरर्थक मौत मरकर चले जाते है।

तीसरा वर्ग अपने प्रकार के कारण तर्कों, वितर्कों, हाँ -ना,, क्रिया - निष्क्रियता में अपना बहुमूल्य समय और शक्ति नष्ट करके हुए- कर रहा हूँ - के भ्रम में कुछ भी न करके एक असन्तोष लेकर संसार से चले जाते हैं। उनकी अपूर्णता उन्हें निष्क्रियता का दोष दिलाने के सिवाय कोई उपचार नहीं दिला पाती।

संसार के समस्त अग्रणी लोग आत्मविश्वासी वर्ग के होते हैं। वे अपनी आत्मा में, अपनी शक्तियों में आस्थावान् रहकर कोई भी कार्य कर सकने का साहस रखते हैं जब भी जो काम अपने लिए चुनते हैं, पूरे संकल्प और पूर लगन में उसे पूरा करके छोड़ते हैं। वे मार्ग में आने वाली किसी भी बाधा अथवा अवरोध से विचलित नहीं होते। आशा, साहस और उद्योग उनके स्थायी साथी होते हैं। किसी भी परिस्थिति में वे इनको अपने पास से जाने नहीं देते।

आत्मविश्वासी सराहनीय कर्मवीर होता है। वह अपने लिए ऊँचा उद्देश्य और ऊँचा आदर्श ही चुनता है। हेयता, हीनता अथवा निकृष्टता उसके पास फटकने नहीं पाती। फटक भी कैसे सकती है? जब आत्मविश्वास के बल पर वह ऊँचे से ऊँचा कार्य कर सकने का साहस रखता है और कर भी सकता है, तो फिर अपने लिए निकृष्ट आदर्श और पतित मार्ग क्यों चुनेगा? आत्मविश्वासी जहाँ अपने लिए उच्च आदर्श चुनता है, वहाँ उच्चकोटि का पुरुषार्थ भी करता है। वह अपनी शक्तियों और क्षमताओं का विकास करता, शुभ संकेतों द्वारा उनमें प्रखरता भ्रता और यथायोग्य उनका पूरा-पूरा उपयोग करता है। नित्य नए उत्साह से अपने कर्तव्यपथ पर अग्रसर होता, नए-नए प्रयत्न और प्रयोग करता, प्रतिकूलताओं और प्रतिरोधों से बहादुरी के साथ टक्कर लेता और अन्त में विजयी होकर श्रेय प्राप्त कर ही लेता है। पराजय, पलायन और प्रगमन से आत्म-विश्वासी का कोई सम्बन्ध नहीं होता, संघर्ष उसका नारा और कर्तव्य उसका शस्त्र होता है। निसर्ग ऐसे सूरमाओं को ही विजयमुकुट पहनाया करते है।

आत्मा अनन्त शक्तियों का भण्डार होती है। संसार की ऐसी कोई भी शक्ति और सामर्थ्य नहीं, जो इस भण्डार में न होती हो। हो भी क्यों न? आत्मा परमात्मा का अंश जो होती है। सारी शक्तियाँ, सारी सामर्थ्य और सारे गुण उस एक परमात्मा में ही होते हैं और उसी से प्रकाशित हो-होकर संसार में आते है। अस्तु, अंश आत्मा में अपने अंशी की विशेषताएँ होनी स्वाभाविक हैं। आत्मा में विश्वास करना, परमात्मा में विश्वास करना है। जिसने आत्मा के माध्यम से परमात्मा में विश्वास कर लिया, उसका सहारा ले लिया, उसे फिर किस बात की कमी रह सकती है। ऐसे आस्तिक के सम्मुख शक्तियाँ, अनुचरों के समान उपस्थित रहकर अपने उपयोग की प्रतीक्षा किया करती है।

किन्तु आत्मा का शक्ति -कोश अपने आप स्वयं नहीं खुलता, उसे खोलना पड़ता है। इस उद्घाटन की कुँजी है-शुभ संकेत। अर्थात् ऐसे विचार जिनका स्वर हो कि-” मैं अमुक कार्य कर सकता हूँ। मुझमें उसे पूरा कर सकने का साहस है, उत्साह है और शक्ति भी है। मुझे पुरुषार्थ से अनुराग है, उद्योग करना मेरा प्रियतम व्यसन। विघ्न-बाधाओं से मुझे कोई भय नहीं, क्योंकि संघर्ष को मैं जीवन की एक अनिवार्य क्रिया मानता हूँ। मैं मनुष्य हूँ। मेरे जीवन का एक निश्चित उद्देश्य है। उसे पूरा करने में अपना तन, मन और जीवन लगा दूँगा। सफलता के प्रति आसक्ति और असफलता के प्रति भय मेरी वृत्ति के अवयव नहीं हैं। मैं भगवान कृष्ण के अनासक्त कर्मयोग का अनुयायी हूँ। सफलता मुझे मदमस्त और असफलता मुझे निरस्त नहीं कर सकती। मुझे ज्ञान है कि लक्ष्य की प्राप्ति और उद्देश्य की पूर्ति सफलता, असफलता के सोपानों पर चलकर ही हो सकती है। मैं अखण्ड आत्म-विश्वासी हूँ। मैं यह कार्य अवश्य कर सकता हूँ और निश्चय ही करके रहूँगा

इस प्रकार के शुभ और सृजनात्मक संकेत देते रहने से आत्मा का कमल-कोश खुल जाता है और उसमें सन्निहित शक्तियाँ सुगन्ध की तरह आ-आकर पुरुष में ओत-प्रोत होने लगती है। यह भाव कि” मैं यह कर सकता हूँ” आते ही शरीर, मन और आत्मा की सारी उत्पादक शक्तियाँ एकत्र होकर व्यक्ति की क्रिया में समाहित हो जाती हैं। वह अपने में अक्षय उत्साह, साहस और आशा का अनुभव करने लगता है। उसके मार्ग की बाधाएँ भयभीत होकर हटने लगती है और कदम-कदम पर लक्ष्य स्पष्ट से स्पष्टतर और दूर से सन्निकट होता दिखलाई देने लगता है। शुभ संकेतों से उद्भूत आत्मविश्वास केवल आत्मा तक ही सीमित नहीं रहता, वह क्रियाओं, प्रक्रियाओं और सिद्धि तक फल जाता है।

इसके विपरीत आत्म-निषेधी व्यक्ति अपनी सारी शक्तियों को नकारात्मक बनाकर नष्ट कर लेता है। आत्मनिषेध आसुरी-वृत्ति है और आत्म-विश्वास देववृत्ति। आत्मा की शिव-शक्ति आसुरी वृत्ति वाले का सहयोग कर भी किस प्रकार सकती है। आत्म-निषेध और नास्तिकता एक ही बात है। जो नास्तिक बनकर परमात्मा को छोड़ देते हैं, परमात्मा उसे उससे पहले ही छोड़ दिया, प्रभु जिससे विमुख हो गया, उसके लिए लोक, परलोक, आकाश-पाताल कहीं भी कल्याण की सम्भावना किस प्रकार हो सकती है? ऐसे नास्तिकवादी और आत्म - निषेधी की नाव का भवसागर के बीच डूब जाना निश्चित है।

आत्म-निषेधी की सारी शक्तियाँ, सारे देवतत्व और सारी संभावनायें एक साथ रुक जाती हैं। वह अकेला एकाएक आत्म-बहिष्कृत स्थिति में डूबते व्यक्ति की भाँति व्यर्थ ही हाथ-पैर मारता, थकता और अन्त में अविज्ञात अतल के गहन अन्धकार में डूब जाता है।

आत्म-निषेधी का दुर्भाग्य उसके अन्दर अशुभ एवं नकारात्मक संकेत बनकर किसी प्रेत-पुकार की तरह गूँजता रहता है। उसके मलिन मानस से ध्वनि उठती रहती है कि - “मैं यह काम नहीं कर सकता। मुझमें उसे करने की शक्ति नहीं है। मेरे पास साधनों का अभाव है। समय मेरे अनुकूल नहीं है। मेरी योग्यता कम है। मेरे भाग्य में सफलता का श्रेय नहीं लिखा गया है। इस प्रकार के नकारात्मक संकेत सुन-सुनकर निर्जीव निर्बलताएँ जीवित ही उठती हैं। निराशा, निरुत्साह और भय द्वन्द्व मचाने लगेंगी। तन-मन और मस्तिष्क की सारी शक्ति शिथिल पड़ जाती है। अन्तःकरण अवसन्न होकर निष्क्रिय हो जाता है। शरीर ढीला और मन मुरदा हो जाता है। इस प्रकार का मनुष्य संसार में कुछ भी तो नहीं कर सकता, सिवाय इसके कि वह हारा, पिछड़ा और हताश-सा आगे बढ़ते हुए लोगों को ईर्ष्या से देखे और मन ही मन दबता- सहता हुआ जिन्दगी के दिन पूरे करे।

तीसरे प्रकार के जो संशयी व्यक्ति होते हैं, उनकी दशा तो और भी खराब होती है। आत्म-विश्वासी जहाँ सराहनीय, आत्म-निषेधी दयनीय होता है, वहाँ आत्मसंशयी उपहासास्पद होता है। वह किसी भी पुरुषार्थ के सम्बन्ध में हाँ-न के झूले में झूलता रहता है। अभी उसे यह उत्साह होता है कि वह अमुक कार्य कर सकता है, लेकिन कुछ ही देर बाद उसका संशय बोल उठता है- हो सकता है यह काम मुझसे पूरा न हो। शायद मेरी क्षमताएँ और योग्यताएँ इस काम के अनुरूप नहीं है। लेकिन वह अपने इस विचार पर भी देर तक टिका नहीं रह पाता। सोचता है काम करके तो देखा जाए, शायद कर लूँ। काम हाथ में लेता है तो हाथ-पैर फूल जाते हैं, अपने अन्दर एक रिक्तता और अयोग्यता अनुभव करने लगता है। भयभीत होकर काम छोड़ देता है। फिर बलात् उसमें लगता, थोड़ा-बहुत करता और इस भाव से उसे अधूरा छोड़ देता है कि हो नहीं पा रहा है। बेकार समय नष्ट करने से क्या लाभ।

इस प्रकार संशयी व्यक्ति जीवनभर यही करता रहता है। कार्य आरम्भ करने का साहस नहीं करता और यदि उसमें हाथ डालता है तो कभी पूरा नहीं कर पाता। इसी प्रकार के तर्क-वितर्क और ऊहापोह में उसका सारा जीवन व्यर्थ चला जाता है। शेख-चिल्लियों की तरह अस्थिर मन, मस्तिष्क और अविश्वास वाले संसार में न तो आज तक कुछ कर पाए हैं और न आगे कुछ कर सकते हैं। उपहासास्पद स्थिति में ही संसार से विदा हो जाते हैं।

आत्म-निषेध एक भयंकर अभिशाप है। इस वृत्ति का कुप्रभाव मन, मस्तिष्क पर ही नहीं, सम्पूर्ण जीवन-संस्थान पर पड़ता है। “मैं यह नहीं कर सकता”- ऐसा भाव आते ही मनुष्य का मन और मस्तिष्क तो असहयोगी हो ही जाता है, शरीर पर भी बड़ा कुप्रभाव पड़ता है। रक्त का सहज प्रवाह अवरोधित होने लगता है। उसमें अनेक प्रकार के विकार उत्पन्न हो जाते हैं। रक्त की पोषण-शक्ति क्षीण हो जाती है। सारे तन्तुजाल और नाड़ी संस्थान निर्बल हो जाते हैं। रोग तक उठ खड़े होते हैं और तब बेचारा मनुष्य किसी काम का नहीं रह जाता। आत्म-निषेध मानव- जीवन के लिए विष विधान के समान है। इससे अपनी रक्षा करनी ही चाहिए।

आत्म-निषेध जीवन के लिए संजीवनी शक्ति के समान है। “मैं यह कार्य अवश्य कर सकता हूँ-ऐसा विश्वास आते ही मानव मन में आशा और उत्साह उत्पन्न हो जाता है। सारा जीवन संस्थान संगठित होकर पुरुषार्थ के लिए अपनी शक्ति और सेवाएँ समर्पित कर देता है। रक्त प्रवाह में एक स्वस्थ- उल्लास और शिराजालों में स्निग्धता आ जाती है। जीवनी-शक्ति को सहायता मिलती है और वह सारी कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों की सक्रियता में सहयोग करने लगती है। मन, मस्तिष्क और शरीर के सारे रोग-दोष दूर हो जाते हैं और मनुष्य एक प्रसन्न-पुरुषार्थी की तरह अपने लक्ष्य पथ पर अभय-भाव से बढ़ता चला जाता है।

इस विवेचना के प्रकाश में अपने आपको देखिये कि आप किस वर्ग में चल रहे हैं। आत्म-विश्वासी आत्म-निषेधी अथवा आत्म-संशयी यदि आप अपने आपको आत्म-विश्वासी पाते हैं - तो बड़ा शुभ है। अपने इस विश्वास को और विकसित कीजिए। नये-नये और ऊँचे काम हाथ में लीजिए और अपने जीवन को सम्पूर्ण सफलता की ओर बढ़ाते चले जाइये।

यदि आप अपने को आत्म-निषेधी अथवा आत्म-संशयी के वर्ग में पाते हैं तो तुरन्त ठहर जाइये और सम्पूर्ण शक्ति लगाकर अपनी विचारधारा को मोड़ देने का प्रयत्न करिये। आत्मा में परमात्मा का विश्वास करिये। अपने मन और मस्तिष्क को शुभ संकेत और संकल्प दीजिए। अपनी दिव्य पैतृकता का सहारा लीजिए। परमपिता का स्मरण करिये और साहसपूर्वक श्रेय-पथ पर बढ़ चलिए। आत्मा आपका साथ देगी, परमात्मा आपकी सहायता करेगा।


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