शिवरात्रि का पावन पर्व। मैसूर राजवंश की परम्परा के अनुसार तत्कालीन नरेश कृष्णराज (तृतीय) ओडेयर ने संगीत सम्मेलन का आयोजन किया था। आज के दिन सम्पूर्ण रात्रि भर जागरण करना राजपरिवार की अपनी परम्परा थी।
एक संगीतज्ञ महोदय द्वारा मैसूर में प्रचलित संगीत ‘पल्लवी’ गाया गया, जिसे दोहराने में श्रोता असफल रहे। गायन भी कुछ जमा नहीं। थोड़ी देर के लिए सभा में निस्तब्धता छा गई। राजसभा अपमानित-सी हुई। महाराज को यह सहन नहीं हुआ, उन्होंने राजसभा के सुविख्यात संगीतज्ञ चिकरामप्पा को सम्बोधित करते हुए व्यंग्य बाण फेंका- “क्या हमारे संगीतज्ञ को कंगन, सिन्दूर बाँटा जाय।”
महाराज की यह व्यंग्योक्ति सुनकर संगीतज्ञ का स्वाभिमान फुँकार उठा। उन्होंने धीर-गम्भीर स्वर में उनकी चुनौती स्वीकार करते हुए कहा- “महाराज इस गाने के लिए बड़ों की क्या आवश्यकता, मेरा सात वर्ष का शेषण्णा इसे गाएगा"
संगीत की स्वर-लहरियों को संपादित वातावरण में उठाने वाले इस पुष्पपादप को उसके कलाकार पिता ने अपने हाथों तीन वर्ष की आयु में ही दीक्षित कर दिया था। बालक शैषण्णा गाने लगा। सधा हुआ कण्ठस्वर, मुग्ध कर देने वाली रसयुक्त स्वरलहरी वातावरण में तैरने लगी। सभी श्रोता इस बाल कलाकार की कला साधना पर मुग्ध हो उठे। एक समाँ-सा बँध गया। संगीत की समाप्ति पर महाराज अपने आसन से उठे और बालक को अपनी भुजाओं पर उठा लिया। उन्हें सिंहासन पर अपनी गोद में बिठाकर मूल्यवान शाल के उपहार के साथ-साथ उनके द्वारा शुभाशीष दिये गये। “ हमारी सभा के गौरव की रक्षा करने वाला यह बालक अपने जीवन में यशस्वी संगीतज्ञ बने।”
कृष्णराज ओडेयर की यह शुभकामना साकार होकर रही। यह बालक आगे चलकर विश्वविख्यात पाश्चात्य संगीत सम्राट विथोवन तथा मोजार्ट की सानी का संगीतज्ञ बना। संगीत की चमत्कारी शक्ति के बारे में बैजूबावरा एवं संगीतराज तानसेन से जुड़ी जो बातें प्रचलित हैं कि संगीत की स्वर लहरियों में हिरन अपनी सुध-बुध खो बैठता है, मनुष्य अपने आन्तरिक विकारों को भूल जाता है, दीपक राग गाने से बुझे दीपक जल उठते हैं, मेघ-मल्हार गाने पर शारीरिक ताप मिट जाता है, ऐसे ही अनेक चमत्कारों की शक्ति उनके संगीत में विद्यमान थी।
ऐसा ही एक अवसर दिसम्बर,1924 के बेलगाम में हुए अखिल भारतीय काँग्रेस के अधिवेशन में आया। महात्मा गाँधी तथा देश के अन्य गणमान्य नेता इस अवसर पर उपस्थित थे। कर्नाटक प्रदेश अपने संगीत के लिए भारत में ही नहीं विदेशों में भी विख्यात है। अतः एक कार्यक्रम कर्नाटक संगीत का भी रखा गया था। अधिवेशन के अन्तिम दिन संगीत कार्यक्रम रखा गया था। इस दिन सोमवार था पूज्य बापू के मौन का दिन। कल डेढ़ घण्टे का संगीत कार्यक्रम था और अन्त में तीस मिनट का महान संगीतज्ञ शेषण्णा का वीणावादन। वीणा पर शेषण्णा की उँगलियाँ नृत्य कर रही थीं और उनसे फूट रही थीं आलोकित स्वर लहरियाँ। इस स्वर सागर में श्रोता मन्त्र होकर हो डूब-उतरा रहे थे। बीन की रागिनी पर लहराते हुए नाग किसी स्थिति में सब समय और स्थिति से अनभिज्ञ एक-दूसरे ही लोक में विचरण कर रहे थे। कलाकार तो अपनी कला के साथ अभिन्न हो चला था। उसकी तन्मयता का कोई छोर नहीं था।
आधा घण्टा बीत गया। समय खींचकर एक घंटे तक पहुँच गया। उसकी सुध न संगीत को थी, न अमृतपान करते श्रोताओं को उसका भान था। एक श्रोता का ध्यान अपनी घड़ी पर गया तो उसे समय का ध्यान आया। उसने पर्ची पर समय बीत जाने की सूचना बापू के पास पहुँचाई, किन्तु वे इस आनन्द से विरत होना नहीं चाहते थे। उन्होंने उत्तर लिखा- “कोई चिन्ता नहीं।” शेषण्णा के नादब्रह्म में लीन बापू ध्यानस्थ हो चुके थे। सचमुच इस साधन ने ‘शब्दब्रह्म’ की उपासना को ही इष्ट मानकर पूरी निष्ठा, श्रम और आत्मिक पवित्रता के साथ यह साधना की थी। उसी का परिणाम था कि वे संगीत की ऊँचाइयों तक पहुँच सके थे।
कार्तिक कृष्ण पंचमी सम्वत् 1952 के दिन जन्मे इस संगीतज्ञ को संगीत की प्रतिभा अपनी पैतृक सम्पदा रूप के मिली थी। एक तो पारिवारिक वातावरण व संस्कारों का प्रभाव था और उससे भी अधिक महत्वपूर्ण उनकी कठोर नियमित साधना और इष्ट का अटूट विश्वास। 25 वर्ष की आयु में उन्होंने भारत भर में भ्रमण करके कर्नाटक संगीत का प्रचार किया। जहाँ भी वे गये, सामान्य जन से लेकर राजा-महाराजा तक उनसे प्रभावित हुए। मान-सम्मान धन-दौलत उपहार सब इस पर न्यौछावर हुए, किन्तु उन सबको उन्होंने निर्लिप्त भाव से ग्रहण किया। अपनी सम्पदा को उन्होंने ब्रह्म की सम्पदा समझकर विद्वानों, समाज सुधारकों व छात्रों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मुक्त हाथों से बाँट दी। ऐसे निष्काम भाव को धारण करके ही उन्होंने वीणा पाणि का वरद्हस्त अपने मस्तक पर धारण किया था। चौदह वाद्ययन्त्रों पर उनका अधिकार था। सबमें वे निष्णात थे, फिर भी वीणावादन में उन्हें विशेषता हासिल थी। देशभर के राजा-महाराजाओं से लेकर जॉर्ज पंचम तक और सामान्य जनता से लेकर तिलक, नेहरू, गाँधी जी, महामना मालवीय, सरोजिनी नायडू और रवीन्द्र नाथ ठाकुर तक उनके वीणावादन पर मुग्ध थे। उनकी ख्याति देश, देशान्तरों में भी फैली। लंदन, पेरिस, बर्लिन आदि नगरों के कला-संस्थाओं से उनके पास आमन्त्रण आये किन्तु वे जा नहीं सके।
इतनी ख्याति पाकर भी वे नितान्त निरभिमानी रहे। स्वयं को जीवन भर संगीत का विद्यार्थी मानते रहे। उनके संगीत की चमत्कारी शक्ति में उनकी भीतर-बाहर की निर्मलता तथा आचरण की पवित्रता का बहुत बड़ा हाथ था। 74 वर्ष की अखण्ड संगीत साधना करके सम्वत् 2026 की आषाढ़ पूर्णिमा के दिन स्वरलहरी विराट नाद में लीन हो गई। संगीत की उच्चता और पवित्रता को आज के वातावरण में संव्याप्त वासना एवं कामुकता के पंक से कलुषित कर उसकी शक्ति का दुरुपयोग करने के पाप से बचने के लिए आज के तथाकथित संगीतकार उनके जीवन से कुछ प्रेरणा लें तो वे संगीत विद्या व संगीतकार दोनों की गरिमा की रक्षा कर सकते हैं।