अपने आपको आप स्वयं ही साधिये

May 1998

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आत्म-सुधार का सबसे अच्छा तरीका यह है कि योगनिद्रा की स्थिति में अचेतन मन से सीधा संपर्क जोड़ा जाए और उस क्षेत्र में जमी हुई विकृत अभिरुचियों, आदतों में आवश्यक सुधार-परिवर्तन किया जाए। ऑटोसजेशन’ अर्थात् स्वसंकेत का एक विज्ञानसम्मत शास्त्र है, जिसके सहारे अपने आपको अभीष्ट दिशा में चल पड़ने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है। दूसरों पर इस विद्या का प्रयोग करके उन्हें शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से सुधारना तो और भी सरल है। स्व-सम्मोहन या स्वसंकेत प्रक्रिया द्वारा यदि व्यक्ति अपने आपको स्वस्थ, निरोग, सामर्थ्यवान, प्रतिभासम्पन्न माने और निरन्तर इसी भावना का संकेत अपनी आत्मा को देता रहे, इसी विचार में निश्चय एवं विश्वास भरकर अपने आपको इसी का संकेत दे, तो वह निश्चय ही तदनुरूप ढलता जाएगा। आवश्यकता केवल निरंतर सूचना या संकेत देने की है। जितने उत्कृष्ट एवं परिपुष्ट संकेत होंगे, उतना ही महान परिवर्तन होगा, उतने ही उत्कृष्ट तत्वों की सिद्धि होगी।

यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि सजेशन-संकेत क्या है? उत्कृष्ट, पुष्ट एवं दृढ़ विचार, स्पर्श, ध्वनि, शब्द, दृष्टि तथा क्रियाओं द्वारा अपने अथवा दूसरों के मन पर प्रभाव डालने और अपनी इच्छा द्वारा कार्य सम्पन्न कराने का नाम ‘संकेत’ करना है। संकेत ऐसे वाक्यों से किया जाता है, जिनमें अपूर्व दृढ़ता, गहन-श्रद्धा शब्द-शब्द में शक्ति भरी रहती है। साधक बारम्बार कुछ शब्दों, वाक्यों तथा सूत्रों को लेता है, मंत्रजप की तरह बार-बार उन्हें मन में उठाता है और उन पर अपनी विचार क्रिया दृढ़ करता है। पुनरावर्तन द्वारा कुछ समय पश्चात् ये विचार स्थायी स्वभाव में परिणत हो जाते है। मन को जिस प्रकार का प्रबोध बार-बार दिया जाता है, कालान्तर में वही उसकी स्थायी सम्पत्ति हो जाती है। मन ही हमारे सम्पूर्ण शारीरिक एवं मानसिक क्रिया–कलापों का संचालक है। यह प्रचण्ड शक्ति वाला यंत्र हैं। विचारों को उत्पन्न, परिवर्तन व परिवर्धन करने का कार्य भी इसी संचालक यंत्र द्वारा होता है। अतः स्वसंकेत का सीधा प्रभाव हमारे मन पर पड़ता है। जब मन इन संकेतों से अपना पूर्ण तादात्म्य स्थापित कर लेता है, उन्हें स्वीकार कर लेता है, तब वह अपने क्रिया-व्यापार व्यवसाय उनके अनुसार करने लगता है, सफलता व सिद्धि तब दूर नहीं रह जाती।

प्राचीनकाल में भारतीय ऋषि-मनीषियों ने इस संबंध में गहन अनुसंधान किए थे और अद्भुत सफलताएँ अर्जित की थीं। आधुनिक विज्ञानवेत्ताओं एवं मनोवैज्ञानिकों के अनुसंधानों ने भी अब उक्त तथ्यों की पुष्टि कर दी हैं। शरीर-विज्ञान और मनोविज्ञान की दृष्टि से क्या-क्या परिवर्तन देखे गए है? इससे हमारी जाग्रत चेतना के गर्भ में अन्य परतों तक पहुँच कैसे संभव है, उस संदर्भ में विख्यात लेखक एवं मनोवैज्ञानिक चार्ल्स टी. टार्ट ने अपनी कृति ‘आर्ल्टड स्टेट ऑफ कान्सिअशनेश में विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है।

अपनी उक्त पुस्तक में टार्ट ने रूस के सरेगी स्विमनीनोफ नामक एक पियानो वादक का वर्णन किया है कि किस तरह ‘ऑटोसजेशन’ के माध्यम से उसने अपनी खोयी हुई क्षमता को अर्जित किया और संगीत की दुनिया में अपना नाम अग्रणी संगीतज्ञों में दर्ज कराया। जब वह इक्कीस वर्ष का था तब अपने प्रथम पियानो कन्सरटो में उसे अच्छी सफलता नहीं मिली, फलतः विकृत चिन्तन का शिकार हो गया। आखिर में उन्होंने हिप्नोटिज्म चिकित्सा के लिए विख्यात चिकित्सक डॉ. निकोलाई दाँल से संपर्क किया। डॉ. दाँल स्विमनीनोफ को तीन महीने तक लगातार आधे-आधे घण्टे तक सेसन्स में सामान्य हिप्नोटिज्म चिकित्सा के साथ-साथ बार-बार एक ही सजेशन-संकेत देते रहे कि “तुम पुनः संगीत की अच्छी तर्ज बना लोगे और सफलता के साथ बड़ी आसानी से उसका प्रदर्शन कर सकोगे।

इस प्रकार का ‘हिप्नोटिज्म सजेशन बहुत ही प्रभावी सिद्ध हुआ। धीरे-धीरे वह क्रमशः फिर से नयी-नयी धुनें बनाने लगा। उसके मस्तिष्क में संगीत की नयी-नयी धुनें विहार करने लगीं, उनकी तर्ज बनने लगी और विस्तृत होकर स्वरमाधुरी से लबालब होने लगीं। सन् 1901 में स्विमनीनोफ ने मास्को में प्रतियोगिता में भाग पियानो और आर्केस्ट्रा प्रतियोगिता में भाग की। क्रमशः उसकी लोकप्रियता और ख्याति बढ़ती गयी। आज भी संगीत समारोहों में स्विमनीनोफ की तर्ज को प्राथमिकता दी जाती है, जिसका नामकरण उसने डॉ. निकोलाई के नाम पर किया था।

विश्व के अनेक देशों में विगत चार दशकों से हिप्नोसिस एवं ऑटोसजेशन पर अनेकों अनुसंधान-कार्य हुए हैं। पाया गया है कि इन प्रक्रियाओं द्वारा प्रसुप्त चेतना की परतें को आसानी से उभारा और परिष्कृत किया जा सकता है। विश्व प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक आँल्डुअस हक्सले के अनुसार मनुष्य का चेतना क्षेत्र समुद्र की गहरा और विशाल है। उसकी अनेकों परतें हैं। ऊपरी सतह से नीचे उतरने पर पायी जाने वाली इन परतों को अचेतन, अवचेतन, सुपरचेतन की परतें कहते है। सक्रिय मस्तिष्क को निद्रित कर देना और अचेतन को क्रियाशील बना देना सम्मोहन एवं स्वसंकेत द्वारा संभव है। इस प्रकार की ‘ऑटोजेनिक ट्रेनिंग नाम दिया गया है।

सम्मोहन में प्रायः सम्मोहित व्यक्ति को दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है और उसके निर्देशों और संकेतों के आधार पर चलना पड़ता है। इससे उसके व्यक्तित्व पर बुरा असर पड़ सकता है। यह कमी ‘ऑटोसजेशन या’ ऑटोजेनिक ट्रेनिंग से दूर हो जाता है। यह एक प्रकार की साइकोथेरेपी है, जो स्वयं द्वारा स्वयं के लिए की जाती है। जर्मनी के मनोवैज्ञानिक जे. एच. शुल्त्ज ने अपनी कृति ‘ऑटोजेनिक आँरगन एक्सरसाइजेज’ में इस संदर्भ में विस्तारपूर्वक लिखा हैं। उसके अनुसार इस ट्रेनिंग में विभिन्न प्रकार के संकेतों के माध्यम से शरीर के विभिन्न अंगों में शिथिलन एवं ऊष्मा का संचार किया जा सकता है। क्रियाओं के कारण होने वाली शारीरिक प्रक्रियाओं में परिवर्तन को शरीरक्रिया विज्ञानियों ने अध्ययन किया हैं। पुराने संस्कारों, आदतों को नष्ट करने और नवीन आदतों तथा संस्कारों को उत्पन्न करने का सबसे सरल और प्रभावकारी तरीका स्व-संकेत का अभ्यास है।


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