मनोरोग दिखाई नहीं पड़ते। उनकी हानि प्रत्यक्ष नहीं है। ध्यान देने पर समझ में आती है। साधारणतया तो ऐसा लगता है कि मानसिक रोगी ढीठता दिखाता और उच्छृंखलता बरतता है। यह प्रतीत ही नहीं होता कि यह किसी विकृति से ग्रसित होने के कारण अपनी भौतिक क्षमता गँवाता और विकृतियों के दलदल में फँसता चला जा रहा है। बज रोग का आभास ही नहीं, तो उसका इलाज कौन करे? कई बार महिलाओं की बीमारियों को बहानेबाज़ी कहकर टाल दिया जाता है। मानसिक रोगों की बात तो इसलिए भी उपेक्षा में पड़ी रहती है कि उनकी उपस्थिति की कोई जानकारी तक सर्वसाधारण को नहीं है, फिर भी यह एक तथ्य है कि मानसिक व्याधियों से मनुष्य समाज का जो अहित होता है, वह शारीरिक बीमारियों से होने वाली हानि की तुलना में किसी भी प्रकार कम भयंकर नहीं है। शरीर के पीड़ित या अपंग रहते संसार के असंख्य व्यक्तियों ने अति महत्वपूर्ण काम करने में सफलताएँ पायी हैं, पर ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं हुआ, जो मानसिक दृष्टि से अपाहिज होने पर कुछ कहने लायक सफलता प्राप्त कर सका हो। सच तो यह है कि ऐसे लोग अपनी यात्रा तक शान्ति और सम्मानपूर्वक पूरी नहीं कर पाते।
महर्षि अष्टावक्र आठ जगह से कुबड़े थे। चाणक्य को अति कुरूप कहा जाता है। सुकरात की कुरूपता भी प्रख्यात है। सूरदास और विरजानन्द अंधे थे। प्रसिद्ध खगोलवेत्ता स्टीफनहॉकिन्स अपाहिज हैं, उनकी दोनों टाँगे बेकार हैं और वे पहियेदार कुर्सी पर चलते हैं, इतने पर ही ब्लैकहोल्स के संबंध में उन्होंने जो शोध-अनुसन्धान किए, उसने बौद्धिक प्रखरता की दृष्टि से उन्हें आइन्स्टीन के समकक्ष प्रतिष्ठित कर दिया है। ऐसे असंख्य प्रसंग हैं, जिनमें अस्पतालों में पड़े-पड़े लोगों ने महान कृतियाँ तैयार की हैं। शरीर एक उपकरण है, पर मस्तिष्क की स्थिति सूत्र-संचालक की है। मस्तिष्क लड़खड़ा जाने पर तो मनुष्य अपने और साथियों के लिए भार बन जाता है, जबकि अंधे और अपंग भी अपनी उपस्थिति से परिवार को कई तरह लाभान्वित करते रहते हैं।
पूर्ण पागलों की संख्या तो संसार में इस अनुपात में बढ़ रही है, जिसे देखते हुए दुनिया की सभी बीमारियों की दौड़ उससे पीछे रह गई है। खुले फिरने वाले पागलों की संख्या और उनके द्वारा जनसाधारण को होने वाली असुविधा ऐसी है, जिसे दूर करने के लिए पागलखानों की बड़ी संख्या में आवश्यकता अनुभव की जा रही है। जेलखानों से अधिक पागलखाने बनें, तब उपद्रवी पागलों के द्वारा प्रस्तुत किये जाने वाले संकटों से बचा जा सकता है। अधपगले, सनकी, असंतुलित, अस्त-व्यस्त अव्यवस्थित, अदूरदर्शी लोगों की संख्या तो इतनी बढ़ी चढ़ी है कि मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से सही मनुष्य की संख्या सामान्य आबादी का एक छोटा अंश ही मिल सकेगा। शारीरिक दृष्टि से जितने लोग रुग्ण हैं, मानसिक विकृतियों से ग्रसित रोगियों की संख्या उससे कम नहीं, अधिक ही मिलेगी। इसका अन्दाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि अमेरिकी अस्पतालों में आधे से भी अधिक बिस्तर मानसिक रोगियों के लिए सुरक्षित रहते हैं, जिन पर प्रतिवर्ष एक अरब डॉलर से भी ज्यादा खर्च आता है।
आखिर बढ़ते मनोरोगों का कारण क्या है? फ्राँसीसी मनःशास्त्री हाल्ब वाच्स ने इसका जवाब अपनी पुस्तक ‘लेस काँजेज ड्यू स्यूसाइड’ में दिया है। वे कहते हैं कि निश्चित रूप से इसका निमित्त भौतिक दरिद्रता नहीं है। यदि ऐसी बात रही होती, तो पिछड़े और गरीब कहे जाने वाले देशों में इस परिणति बढ़ी-चढ़ी आत्महत्याओं के रूप में सामने आती, किन्तु अध्ययनों से जो तथ्य सामने आए हैं, वह इस बात के प्रमाण हैं कि समृद्ध देशों में मानस रोगों की व्यापकता अधिक भयावह है। वहाँ नशाखोरी और आत्महत्या का जो अनुपात देखा गया है, वह निर्धन देशों की तुलना में बहुत बड़ा है। ऐसे ही निष्कर्ष सम्पन्न लोगों और अविकसित एवं असभ्य कही जाने वाली जनजातियों के संबंध में भी आए हैं। विपन्न लोगों में आत्महत्याएँ शायद ही कभी होती हों, जबकि सम्पन्न समुदाय इससे बुरी तरह ग्रसित है।
आत्महत्या और मानसिक असंतुलन के बीच संबंध-सूत्र जोड़ते हुए एच. गोल्धमर एवं ए. मार्शल अपने ग्रन्थ ‘साइकोसिस एण्ड सिविलाइजेशन’ में लिखते हैं कि यह सच है कि मानसिक अस्थिरता सदैव आत्महत्या के रूप में सामने नहीं आती, पर अधिकाँश अवसरों पर इसकी अन्तिम परिणति आत्मघात ही होती है। वे कहते हैं कि जब व्यक्ति परिस्थिति और परिवेश से तालमेल बिठाने में असमर्थ होता है, तो उसका मन उस दुरावस्था को छिन्न-भिन्न कर देने के लिए विद्रोह करता है, पर आदमी का स्वयं का मनोबल इतना सुदृढ़ नहीं होता कि वह उस अवस्था से लोहा ले सके। परिणाम यह होता है कि इस निरन्तर द्वन्द्व के कारण उसकी मानसिक संरचना पूरी तरह ध्वस्त हो जाती है, जो अन्ततः आत्महत्या का कारण बनती है।
इस प्रकार किसी भी समाज और समुदाय में आत्महत्याओं और यहाँ तक मद्यपों की बढ़ी-चढ़ी संख्या इस बात का स्पष्ट संकेत है कि उक्त समुदाय बड़े पैमाने पर मानसिक रुग्णता का शिकार है। प्रसिद्ध मनःशास्त्री एरिक फ्राँम ने भी इस तथ्य को परोक्ष रूप से स्वीकारा है। अपनी रचना ‘द सेन सोसाइटी’ में वे लिखते हैं कि यों तो मद्यपान सभ्य समाज में एक प्रकार का फैशन-सा बन गया है, पर फैशन के कारण शराब पीने वालों की संख्या गम गलत करने के लिए इसका सहारा लेने वालों की तुलना में एकदम नगण्य है। वे कहते हैं कि विश्वभर में मद्यपान के आँकड़े इस बात के प्रमाण हैं कि जिन देशों में मद्यसेवियों का प्रतिशत जितना ज्यादा है, वहाँ आत्महत्याओं का परिमाण भी उसी अनुपात में अधिक है। यदि मद्यपान को शौक और सभ्यता का प्रतीक माना जाए एवं उसे ‘स्टेट्स सिम्बल' का प्रमुख आधार भी स्वीकार लिया जाए, तो भी यह स्पष्ट कर पाना मुश्किल होगा कि क्यों शराब पीने वाले अधिकाधिक लोगों के समुदाय में अधिकाधिक आत्मघाती होते हैं। सच्चाई तो यह है कि मौज-मस्ती के लिए कम, दुःख-दर्द भुलाने के लिए इसका अवलम्बन लोग अधिक लेते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका, स्विट्जरलैंड, डेनमार्क, फिनलैण्ड, स्वीडन, फ्राँस आदि में आत्महत्याओं का औसत सर्वाधिक है और तदनुसार मद्यसेवन करने वाले लोगों का प्रतिशत भी विश्व के अन्य राष्ट्रों की तुलना में वहाँ अधिक है। हमारे देश में मद्यनिषेध के कतिपय असफल प्रयासों के बाद अब धीरे-धीरे सारे समाज पर पुनः सुरा की मादकता, साथ में उससे जुड़े रोगों में बढ़ोत्तरी आती जा रही है।
मद्यपान मानव समाज की प्रगति एवं सुव्यवस्था में अवरोध ही कहे जा सकते हैं। खेद इस बात का है कि गरीबी, बीमारी, अशिक्षा, उद्दण्डता से भी अधिक कष्टदायक और भयानक बढ़ती हुई विक्षिप्तता की हानि को समझने और उसकी रोकथाम करने के लिए प्रयत्न नहीं किया जा रहा है।
अपराध भी वस्तुतः एक प्रकार का आवेश है, जिन्हें मनुष्य एक प्रकार के उन्माद में ग्रसित स्थिति में करता है। चोर-उचक्के अपने कुकृत्यों की हानियाँ समझते हैं और उन पर पछताते भी हैं, छोड़ना भी चाहते हैं, भलमनसाहत के रास्ते पर चलने पर लोग कितनी प्रगति कर गए और कितने सम्मानित हुए, यह तथ्य वे आँखों से देखते हैं, दूसरे उन्हें समझाते और वे बात को समझते भी हैं, कुछ समय उनका विवेक जाग्रत भी रहता है और भले आदमियों की तरह रहते भी हैं, फिर कभी ऐसी उमंग उठती है कि रोके नहीं रुकती, यहाँ तक कि व्यक्ति उस छोड़े हुए कार्य को करने के लिए एक प्रकार से विवश ही हो जाता है और फिर उसे कर ही गुजरता है। समाजशास्त्री इस धृष्टता-दुष्टता आदि का नाम दे सकते हैं, पर मनोरोग शास्त्र की दृष्टि से यह व्यक्ति की असहाय स्थिति है, ठीक वैसी ही जैसी सिरदर्द से आक्रान्त मनुष्य की होती है। विश्लेषण करने पर उनकी मनःस्थिति सामान्य लोगों जैसी नहीं होती, वरन् असामान्य और असन्तुलित पायी जाती है।
मानसिक दृष्टि से सन्तुलन और सामंजस्य ही स्वस्थता का चिन्ह है। मस्तिष्क के भीतर अगणित घटक हैं और वे एक दूसरे के साथ सुसम्बद्ध रहकर ही संयुक्त सहयोग से उत्पन्न क्षमता द्वारा अपने हिस्से के कार्य ठीक तरह से पूरे कर पाते हैं। यदि उनकी सुसम्बद्धता कहीं लड़खड़ाती है और तालमेल बिगड़ता है तो फिर चित्र-विचित्र प्रकार के छोटे-बड़े मानसिक रोग आरम्भ हो जाते हैं। मनोवैज्ञानिकों ने संतुलन के चार पक्ष गिनाये हैं- (1) इफेक्ट- सतर्कता, सजगता। (2) थाँठ - विचार प्रवाह, कल्पना। (3) बिहेवियर - व्यवहार, अभ्यास (4) मूड - रुझान, उत्साह। इनमें से किसका सन्तुलन किसके सम्मिश्रण में कितनी मात्रा में गड़बड़ाया, इसी आधार पर मनोरोगों के अनेक स्वरूप बनते और लक्षण प्रतीत होते हैं। इनके लक्षण इस प्रकार देखे जाते हैं-
(1) सतर्कता के अभाव में मनुष्य यह निर्णय नहीं कर पाता कि लोग उसकी किस क्रिया के बारे में क्या करेंगे, क्या सोचेंगे, किस कार्य का परिणाम उसके लिए क्या होगा। अपनी मर्जी ही उसे सबकुछ लगती है। लोगों की प्रतिक्रिया एवं क्रिया के परिणाम उसे सूझते ही नहीं। कल्पना की दौड़ दूर तक नहीं जाती। वर्तमान समय और अपना मन इन दोनों में ही वह उलझकर रह जाता है, फलतः ऐसे कृत्य करता है, जो उपहासास्पद होते हैं, बेतुके और हानिकारक भी।
(2) विचार प्रवाह में गड़बड़ी पड़ जाने से कल्पनाएँ अनियन्त्रित हो जाती हैं। क्या सोचना उपयुक्त है, क्या नहीं? क्या संभव है, क्या असंभव? इस निष्कर्ष पर पहुँचने में वे परले दर्जे की नासमझी बरतते हैं। साधनों और परिस्थितियों का ज्ञान न रहने से वे अपनी हर कल्पना को सफलतापूर्वक संभव हो सकने योग्य मान बैठते हैं। यह भी अनुमान नहीं लगा पाते कि इन कल्पनाओं को पूरा करने के लिए कितना समय लगेगा और क्या साधन जुटाने होंगे। संक्षेप में उनकी मनःस्थिति शेखचिल्ली जैसी हो जाती है, जो कुकल्पनाओं की आदतवश जीवन में लाभ कम, हानि ही अधिक उठाता रहा।
(3) अनुमान तंत्र में गड़बड़ी होने से मनुष्य के लिए यह अन्दाज लगाना कठिन पड़ता है कि दूसरे लोगों का व्यवहार उसके साथ कैसा और किस उद्देश्य से प्रेरित है। शत्रुओं को मित्रवत मानने का पागलपन भी कई बार पाया जाता है और अनेक बार मित्र को शत्रु मानने की मूर्खता कर बैठते हैं एवं भयभीत बने रहते हैं ऐसे लोग निरन्तर इसी उधेड़बुन में पड़े रहते हैं कि अमुक व्यक्ति अपने शत्रु बने हुए हैं, जादू टोना कर रहे हैं, मारने, जहर देने, मिटा देने जैसे षड्यन्त्र रचे हुए हैं। यह वहम अनेक प्रकार का हो सकता है। कितनों को ही दुर्घटना, मृत्यु, आक्रमण, हानि, विछोह, जेल आदि का भय सताता रहता है। मनःशास्त्र की भाषा में इसे ‘फोबिया’ कहते हैं। ऐसे फोबियाग्रस्त लोग हमेशा अशान्त बने रहते हैं और यह निर्णय कर पाने में अक्षम होते हैं कि किस कठिनाई का निराकरण किस प्रकार करना चाहिए एवं किन समस्याओं का समाधान किससे पूछना चाहिए? ऐसे लोग अपने संबंध में तरह-तरह के गलत अनुमान लगाते रहते हैं।
(4) मूड गड़बड़ाने से व्यक्ति नशेबाजों की स्थिति में चला जाता है। कभी तो पूरे उत्साह में, प्रसन्नता में उन्हें पाया जाता है और कभी चिन्ताओं-निराशाओं में इस कदर डूबते हैं, मानो आसमान इन्हीं के ऊपर टूट पड़ा या टूटने वाला है। ‘मूड’ से संचालित व्यक्ति कभी एकरस नहीं रह पाता।
मस्तिष्क यंत्र को प्रकृति ने जितना उपयोगी बनाया है, उतना ही उत्तम उसकी सुरक्षा का प्रबन्ध भी किया है। उसके भीतर ही ऐसी व्यवस्था है, जहाँ छोटी-मोटी गड़बड़ी की कोई पहुँच न हो सके। आमतौर से मस्तिष्क को सोचने का सही तरीका मालूम न होने से ही परेशानियाँ पैदा होती हैं, जो आरंभ में सामान्य और उपेक्षणीय रहते हुए भी बाद में भीषण रूप धारण कर लेती हैं। मनःक्षेत्र का सुसंचालन कर सकने वाला चिन्तन क्रम धर्म और अध्यात्म के तत्त्वज्ञान से जुड़ा हुआ है। उसे अपनाया जा सके, तो संसार में फैले पागलपन और असंतुलन से छुटकारा मिल सकता है।