देते रहने का आनन्द ही कुछ और है

May 1998

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संसार और प्रकृति में देने और लेने की दो प्रमुख क्रियाएँ होती है। जो देता है, बाँटता है, वह लाभ में रहता है एवं अनेकों गुना अधिक परिणाम में प्राप्त करता है, जबकि कृपण अनुदार और स्वार्थी घाटे में रहते है। किसान मक्के का एक बीज बोकर सैकड़ों दाने प्राप्त कर लेता है। पेड़ पौधे हर वर्ष मनुष्यों और पशुओं के लिए फल-फूल पैदा करते और प्रकृति अनुदान के रूप में दूसरे वर्ष फिर उन्हें प्राप्त कर लेते हैं। बादल निःस्वार्थ होकर बरसते है अतः नदियों और समुद्रों का अनुदान उन्हें मिलता रहता है। सूर्य अनादिकाल से ऊर्जा, ऊष्मा और प्रकाश बिखेरता आ रहा है। अस्तु प्रकृति व्यवस्था के अंतर्गत उसका वह भण्डार अक्षय बना हुआ है। एक मनुष्य ही ऐसा है, जो देने में कोताही बरतता है अथवा यदि देता है तो पाने की आकांक्षा रखकर। यह आकांक्षा ही दुःख का कारण बनती है। मनीषियों का कथन है कि जो लेने की जितनी कामना और प्रयास करता है, वह उतना ही दुःखी होता है। ऐसी बात नहीं कि दुःख वासनाओं की असफलता से आता है। सफल वासनाएँ भी दुःख लाती है। अर्थशास्त्र का सिद्धांत हैं-इच्छाएँ अनंत होती है। एक इच्छा पूरी हुई नहीं कि दूसरी आ धमकती है। दूसरी के पूर्ण होते ही तीसरी मुँह बायें खड़ी हो जाती है और इस प्रकार अनंत अभिलाषाएँ कुकुरमुत्तों की तरह उपजने लगती है। धनिकों के पास चूँकि इन लालसाओं की पूर्ति के संभावित साधन होते हैं, इसलिए वे जीवन भर इसी कुचक्र में पड़े रहते है, जबकि निर्धनों की आय सीमित होती है। पिछले दिनों अमेरिका के फोर्ड मोटर्स कम्पनी के मालिक का बेटा घरद्वार छोड़कर इस्कान नामक आध्यात्मिक संस्था में सम्मिलित हो गया। एक अरबपति को इस प्रकार का अभावग्रस्त जीवन जीने के लिए क्यों बाधित होना पड़ा? इसके उत्तर में उन्होंने इतना ही कहा कि जितना सुखी और चैन इस ओढ़ी हुई गरीबी में मुझे मिला है, उतना सम्पन्नता और विलासिता में कहा था। राजकुमार सिद्धार्थ ने भी ऐश्वर्य को लात मारकर मुक्ति का पथ प्रशस्त किया था। राजा भर्तृहरि ने भी इन्हीं परिस्थितियों में राज-पाट त्यागकर जंगल की शरण ली थी।

इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि देने से दीनता घटती है जबकि माँगने से संचय से वह बढ़ती है। यही कारण है कि ऋषि प्रकृति के लोग सदा देते रहते दान करते रहते है। इसमें उन्हें जितना आत्मसंतोष और आनंद मिलता है, उतना और वैसा कोई गड़ा खजाना हाथ लग जाने पर भी कदाचित ही किसी को मिलता हो। विवेकानंद जब धर्म महासभा में भाग लेने अमेरिका गये हुए थे, तो एक दिन कुछ अमेरिकी उनका लिबास देखकर उपहास उड़ाने लगे। इस पर विवेकानंद ने कहा कि आप लोगों को सभ्य आपका दर्जी बनाता है, जबकि हम भारतीय अपनी आँतरिक महानता के कारण सभ्य और सुसंस्कृत कहे जाते हैं। यह सत्य है। बाहरी चमक दमक के आधार पर अंतस् का आकलन करना अविवेकशीलता है, कारण कि बाहर से सम्पन्न दीखने वाले का अंतर भिखारियों जैसा हेय और हीन हो सकता है, जबकि प्रत्यक्ष दरिद्रता के पीछे भी एक महान और विशाल हृदय छुपा हो सकता है। वास्तविक दाता के लिए अंदर की विराटता अनिवार्य है। जो भीतर से संकुचित होगा, वह यथार्थता की अनिवार्य योग्यता से वंचित रहेगा। ऐसा व्यक्ति यदि दान देता दिखलाई पड़े तो वह निष्प्रयोजन नहीं होगा, क्योंकि जो हृदय एकदम निःस्वार्थ नहीं है, उसके द्वारा किया गया परमार्थ भी सर्वथा स्वार्थरहित नहीं होगा। ऐसा दान तामस दान कहलाता है।

अध्यात्म विद्या के आचार्यों ने देश काल, पात्र के आधार पर दान देने की उपयोगिता बतलायी है और कहा है कि जहाँ जब जिसे जैसे दान को सर्वोपरि आवश्यकता हो, तब वैसा ही दान दिया जाना चाहिए। शास्त्रवचन है-

अन्नदानं महादानं विद्यादानं महत्तरम्। अन्नेन क्षणिका तृप्तिर्यावज्जीवं तु विद्यया।

अर्थात् अन्नदान महादान है। विद्यादान और बड़ा है। अन्न से क्षणिक तृप्ति होती है, किंतु विद्या से जीवनपर्यन्त तृप्ति होती है। आज संसार भर में सर्वग्राही संकट दो ही हैं-एक पीड़ा दूसरा पतन। पीड़ा निवारण अन्नदान अर्थदान से ही शक्य हैं, जबकि पतन निवारण विद्यादान के बिना संभव नहीं। इन दोनों में यदि सर्वोपरि सर्वप्रमुख और सर्वाधिक कष्टकारी संकट का चयन करना हो तो वह पतनजन्य पाप ही हो सकता है। क्षुधा-निवारण के लिए कंगालों का विभिन्न उपायों का सहारा लेने की बात तो समझ में आती है पर जो विपुल वैभव के स्वामी हैं, वे वर्जनाओं से विमुख क्यों नहीं हो पाते? यह समझ से परे है। इसलिए सद्ज्ञान दान द्वारा उन्हें यह बात समझानी पड़ेगी कि जब एक जगह टीला खड़ा करना हो, तो यह निश्चित है कि उसके लिए अनेक स्थलों पर गड्ढे खोदने पड़ेंगे। जहाँ एक स्थान पर सम्पत्ति का पर्वत खड़ा हो, वहाँ उसका स्पष्ट मतलब है कि औरों के हितों की हत्या की गई है। अन्यथा नीति की कमाई से स्वल्प जीवन में संपदा का कोठा भर लेना असंभव है। अतएव आज की परिस्थितियों में सद्ज्ञान दान ही सर्वोच्च दान कहा जायेगा। शेष का स्थान इसके बाद ही है।

मूर्धन्य मनीषी जॉन हाल ने कहा है-अपने साधनों के अनुरूप दान करो, अन्यथा ईश्वर तुम्हारे दान के अनुरूप तुम्हारे साधन बना देगा। सच है भगवान के ऐश्वर्य को भगवद् कार्यों के निमित्त ही खर्च किया जाना चाहिए। उसने जो विभूति और सम्पत्ति ज्ञान प्रतिभा कौशल, बल, बुद्धि, विवेक और दौलत के रूप में दी है। उनका नियोजन अपने लिए कम, समाजहित में ज्यादा किया जाना चाहिए, अन्यथा वह अपने अनुदान वापस लेने में भी विलंब नहीं करता। अतः दान की महत्ता और उपयोगिता समझते हुए हमें अभीष्ट का यथेष्ट दान करना चाहिए। समय की माँग यही है।


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