अन्ततः एक दुर्योग टला

May 1998

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निजाम के शाही महल में वह बंदी था। आधी रात होने वाली थी। बाहर निस्तब्धता का साम्राज्य फैल रहा था। भव्य ललाट पर चिंता की रेखाएँ दिखायी पड़ रही थीं। दृष्टि नीचे की ओर थी और लम्बे-लम्बे काले केशों की लटें कानों के पास लटक रही थीं। किसी गहरे विचार ने उसे बेहोश-सा कर दिया था।

“मैं आयी हूँ”। वीणा की झंकार-सी कोमल ध्वनि से सारा कक्ष गूँज उठा। वह अपने ही ख्यालों में खोया हुआ था। उसने कुछ नहीं सुना। अबकी कुछ निकट आकर आगंतुक ने कहा-मैं हूँ रोशनआरा।

वह मानो सोते से जग पड़ा। कौन? रोशनआरा? इतनी रात आने का कष्ट क्यों क्यों उठाया शहजादी? उसने प्रश्न किया। यहीं तो मेरी भी समझ में नहीं आता कि मैं यहाँ क्यों आयी? हृदय में तीव्र अकुलाहट थी। एक बेचैनी सी थी और वहीं यहाँ खींच लायी।”

“किंतु...।”

“किंतु क्या?”

किंतु मैं तो रणचण्डी का उपासक हूँ, शहजादी! तलवार से मुझे प्रेम है। जब से समझ आयी है अपने मातृभूमि को ही प्यार किया है। कर्तव्य ही मेरा प्राणाधार है। असहायों, बेबसों की रक्षा में लड़ते हुए मरना या मर जाना ही जिसके जीवन का लक्ष्य हो, वह भला ऐश्वर्य सम्पन्न शहजादी के किस काम आ सकता है।

जानकर भी अंजान न बनो वीर! रोशनआरा के चेहरे पर एक अद्भुत सम्मोहन उभर आया।

“तुम रूपवती हो। तुम्हारे हृदय में प्रेम है। तुम्हारे मुख पर एक तेजोमयी दीप्ति झलक रही है। फिर भी...।

“क्या फिर भी? रुक क्यों गए? शहजादी! अफसोस है कि तुम्हारे प्रेम के लिए मेरे हृदय में कोई स्थान नहीं है। मेरी प्यारी मातृभूमि परतंत्रता के पैरों तले रौंदी जा रही है। नाराज न हों शहजादी। विदेशियों के भीषण अत्याचारों से अब वह त्राहि-त्राहि कर रही है। मातृभूमि को बंधन से मुक्त कराने के लिए तथा भारतमाता का मस्तक पूर्ववत् उन्नत करने के लिए आज देश का बच्चा-बच्चा व्याकुल हो रहा है। उनकी आँखों में आज दुःखी भारत समा रहा है। वे माया, ममता, प्रेम और प्यार भूल गये है। फिर भी मैं जिस पर गो-ब्राह्मण प्रतिपालक छत्रपति शिवाजी महाराज का पूर्ण विश्वास है, मोह जाल में फँसकर राजद्रोही और देशद्रोही नहीं बनूँगा। शहजादी! महाराज शिवाजी का यह सेवक बजाजी निम्बालकर, शत्रुकन्या एक यवन कन्या के प्रेम की अपेक्षा देशप्रेम को अधिक महत्व देता है। इसीलिए मुझे क्षमा करो। बजाजी मैं यवन कन्या जरूर हूँ किंतु मन से नहीं तन से। आज से चार वर्ष पूर्व जब तुम हैदराबाद फतह करने आये थे और अब्बाजान से तुम्हारा मुकाबला हुआ था उस वक्त मैं भी उनके साथ थी। उस युद्ध में तुम्हारा अपूर्व रण कौशल देखकर मैं तुम पर मुग्ध हो गयी थी।

“परंतु शहजादी मैं विवश हूँ।” हमने पहले देश की स्वतंत्रता और धर्म की रक्षा का व्रत ले रखा है। कहने को तो बजाजी ये बातें कह गया किंतु सतपुड़ा तथा सहयाद्रि जैसे पहाड़ी और दक्षिण जैसे गरम प्रदेश में रहने वाले बजाजी ने अब तक इतनी सुंदर रमणी नहीं देखी थी। रोशनआरा सुंदरता की पुतली थी। उसके शब्दों में आकर्षण था। जब वह किसी से बोलती या किसी तरफ देखती तो वह गति भूलकर अवाक् रह जाता।

रोशनआरा ने मदमस्त करते हुए कहा-तो मैं भी पहले आपका देश स्वतंत्र करने में तन, मन, धन सभी से अपेक्षा करूंगी। देश स्वतंत्रता होने पर हिंदू धर्म के अनुसार आचरण करूंगी।

बजाजी कुछ नहीं बोले। रोशनआरा ने उनके हृदय पर अधिकार कर लिया था। उनकी आँखों में बेहोशी छा रही थी। हृदय उत्तेजना की तीव्रता से स्पंदित हो रहा था। तीक्ष्ण बुद्धि वाली रोशनआरा ने उसके मन को बदलती भावनाओं को ताड़ लिया। वह लगातार मराठा वीर को अपने सम्मोहन पाश में कसती गयी। बूढ़े निजाम को अपनी पुत्री की गतिविधियों का पता था। वैसे भी वह इन दिनों फूला नहीं समा रहा था। आखिर उसने मराठों के शूर सेनापति और शिवाजी महाराज के दाहिने हाथ बजाजी निम्बालकर को कैद कर लिया था। वह चाहता तो उसी रोज बजाजी को मार डालता या फिर मरवा डालता। किंतु वह राजनीति में निपुण था। बजाजी का उसके धर्म में शामिल हो जाना, उसके मरने से कहीं अधिक लाभदायक था। इस्लाम या इस्लामी सल्तनत के डगमगाते हुए सिंहासन को स्थिर करने के लिए निजाम उसको मुसलमान बनाना आवश्यक समझता था और इसीलिए उसने बजाजी को निम्बालकर के कारावास में न रखकर शाही महल में नजरबंद करके रखा था। किंतु बजाजी का मुसलमान होना कोई हँसी-खेल न था।

आज भी वह इसी चिंता में सिर झुकाये बैठा था, इतने में एक गुप्तचर सामने आया और कोर्निस करके खड़ा हो गया। उसने पूछा-क्या खबर है करीम? वह बोला जहाँपनाह! कल रात मैंने जो कुछ देखा है उसे कहते हुए मेरा कलेजा काँप रहा है। कहो-कहो क्या शिवाजी ने कोई किला फतह कर लिया है या फिर वह हैदराबाद लूटने आ रहा है? नहीं जहाँपनाह। ऐसी कोई बात नहीं है मगर जो कुछ है उसे अगर हुजूर सुनेंगे...।

बस-बस तुम्हें जो कुछ कहना है फौरन कहो। फिजूल बातें बनाकर मेरी हैरत को न बढ़ायें। जहाँपनाह। कल रात मैंने हुजूर शहजादी को कैदी के कमरे में तशरीफ ले जाते देखा।

“कौन शहजादी रोशनआरा?”

“हाँ, जहाँपनाह।”

निजाम के चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान झलकी, फिर उसका स्थान क्रोध ने ले लिया। उसने करीम को चले जाने का हुक्म दिया। इसी के साथ निजाम ने पुकारा-कोई है? एक सेवक कोर्निश करके खड़ा हो गया। जाओ रोशनआरा को भेज दो। अल्प समय पश्चात् ही रोशनआरा पिता के सामने खड़ी हो गयी। निजाम ने क्रोध भरे स्वर में कहा-रोशनआरा तूने बड़ा गुनाह किया है। पिता के मुँह से यकायक यह बात सुनकर रोशनआरा काँप गयी। उसने डरते हुए कहा-अब्बा जान। यह बिल्कुल झूठी बात है। बादशाह ने फिर झपटकर कहा-झूठी बात? नहीं बिल्कुल सच।

रोशन! सच-सच बता, क्या तू बजाजी को नहीं जानती।

उत्तर में वह खामोश खड़ी रही। किंतु उसका हृदय रो पड़ा। आँखों से अग्निकण बरसाते हुए निजाम ने कहा, चुप क्यों खड़ी है? क्या तू कुरानशरीफ और अल्लाह पाक की कसम खाकर अपनी बेगुनाही की बात कह सकती है। रोशनआरा का फूल-सा चेहरा कुम्हला गया। वह सिसकियाँ भरने लगी। उसने रोते-रोते कहा, “अब्बाजान। आज न जाने आपको क्या हो गया है? लो मैं जाती हूँ, जब आप शाँत होंगे तब आऊँगी। वह जाने लगी। निजाम ने चिल्लाकर कहा-रोशनआरा कहाँ जाती है? ठहर। वह ठहर गये। निजाम ने फिर कहा “रोशन! मेरे पास सबके लिए माफी है, लेकिन इस्लाम के साथ दगाबाजी करने वाले को मैं ख्वाब में भी माफ नहीं कर सकता। समझी। मैं तेरी सब हरकतों से वाकिफ हूँ। कान खोलकर इस्लाम और इस्लामी सल्तनत के लिए मैं ऐसी लाखों बेटियाँ कुर्बान कर दूँगा। लेकिन इस्लाम पर धब्बा नहीं आने दूँगा।

सुख में पली राजकन्या त्याग के महत्व से अनभिज्ञ थी। दुःख का डरावना रूप देखकर वह आकुल हो उठी। वह फूट-फूटकर रोने लगी तथा पिता के चरणों पर गिर पड़ी। दोनों हाथों से पिता के पैर पकड़कर उसने कातर स्वर में कहा-रहम करो अब्बाजान! रहम करो।

इन शब्दों के साथ ही निजाम को अपनी चालाकी सफल होती नजर आयी। उसके मन में विचार तेजी से कौंधे। क्या हर्ज है इस उपाय से बजाजी मुसलमान बन सके। कुछ तुरंत सोचते हुए उसने कहा-रोशन अब्बाजान। तुम्हारा जीवन अब बजाजी के हाथों में है।

वह कैसे अब्बाजान? अगर वह इस्लाम को मानकर मुसलमान बन जाये तो तुम और वह दोनों ही जिंदा रह सकते हो। रोशनआरा चिंतित हो गयी। इसमें तीनों का लाभ होगा। तुम्हारा जीवन सुखमय होगा। इस्लामी सल्तनत की रक्षा होगी। धर्म परिवर्तन के बाद बजाजी निजामशाही का वारिस बन जायेगा। मेरा कहा मानोगी तो कल ही उसके साथ तुम्हारा निकाह कर दिया जायेगा। लालबाग के महल में तुम दोनों आराम से रहना। किसी बात की चिंता न रहेगी। और अगर तुमने मेरा कहा न माना तो शाही हुक्म से कल ही उसका कत्ल कर दिया जायेगा। तुम जिंदगी भर रोती रहोगी। बोलो रोशन। क्या पसंद है रोना या हँसना। रोशनआरा ने अपना कर्तव्य निश्चित किया और धीमे पगों से वह बजाजी के पास जा पहुँची। रोते-बिलखते सिसकते हुए उसने भाँति-भाँति से मराठा वीर को धर्म परिवर्तन की सलाह देनी शुरू की। बजाजी स्तब्ध थे। उनका हृदय युवक हृदय था। रमणी रहस्य से सर्वथा अपरिचित। रोशनआरा के शब्दों ने उनको हृदय से रुला दिया। इसी के साथ चेहरे पर उत्तेजना नाचने लगी। आँखों में बेहोशी खेलने लगी। आवेश में उन्होंने कहा-रोशनआरा जाओ निजाम से कह दो मैं धर्म परिवर्तन के लिए तैयार हूँ। जगत का राज्य मुझे नहीं चाहिए। स्वतंत्रता के लिए हजारों नवयुवक जान पर खेल रहे है, मेरे अकेले न रहने से उसमें कोई बाधा नहीं पड़ेगी। अब मुझे किसी की परवाह नहीं।

कहने की आवश्यकता नहीं कि दूसरे दिन बजाजी के धर्म परिवर्तन एवं निकाह की तिथि तय हो गयी। वह इन क्षणों में लाल महल के बाग में एक पत्थर की चौकी पर बैठे हुए सुखद स्वप्नों में खोए हुए थे। इसी समय एक फकीर उनके सामने आकर खड़ा हो गया। बजाजी ने उनने से पूछा, भाई साहब, आप क्या चाहते है? बाबा फकीर भीख के सिवा और क्या चाहेगा।

भीख? अच्छा ठहरिये। अल्प अवधि के पश्चात् एक तश्तरी में कई अशर्फियाँ लेकर बजाजी बाहर आये। झुककर सलाम करके तश्तरी नम्रतापूर्वक फकीर के सामने की। परंतु फकीर का चेहरा क्रोध से लाल हो गया। नेत्रों से मानों आग बरसने लगा। बह बजाजी के निकट जाकर बोला, फकीर लोग देशद्रोही, धर्मद्रोही तथा राजद्रोही के हाथ की भीख नहीं लेते। फकीर के इन शब्दों ने मराठा वीर के मोह आवरण को छिन्न-भिन्न कर दिया। फकीर कहे जा रहा था, उसके शब्द तीर की तरह बजाजी के कलेजे को छलनी किये दे रहे थे। भारतमाता यवनों के अत्याचार से कातर हो उठी है। देश का बच्चा-बच्चा धर्म तथा स्वतंत्रता के लिए लड़ रहा है और तू जिस पर पूरा विश्वास था, वह बजाजी मेरा शूर सेनापति इस तरह..।

कौन? महाराज! श्री शिवाजी महाराज!!

हाँ, मैं ही हूँ। वाह भाई वाह! खूब स्वाँग बनाया। तुम लोगों के बाहुबल पर ही तो मैंने स्वराज्य की नींव डाली थी। क्या तुम जैसों के विश्वासघात से वह चिरस्थायी हो सकती है। सारा महाराष्ट्र, तुम्हारे निर्णय से दुःखी है। माता जीजाबाई तुम्हारे लिए आँसू बहा रही हैं, उन्हीं की आज्ञा से मैं तुम्हें लेने आया हूँ। क्या अब भी तुम वासनाओं के भंवर से निकलना नहीं पसंद करोगे?

हाय महाराज मैं नीच हूँ, नारकीय हूँ। पातकी हूँ। मेरा उद्धार करो। इन्हीं शब्दों के साथ उन्होंने शिवाजी महाराज के पाँव पकड़ लिये। उठो बजाजी उठो! तुम्हारी अन्तरात्मा पश्चाताप से और भी अधिक उज्ज्वल हो उठी है। लोकसेवा की साधना भी आत्म साधना की ही तरह है। इसमें साधक को अनेकों परिस्थितियों तितिक्षाओं से गुजरना पड़ता है। यह तुम्हारी भी परीक्षा थी, जिसमें तुम असफल होते-होते बच गये। बजाजी के सामने अपने भावुक हृदय की दुर्बलता प्रत्यक्ष हो उठी अब वह संभल चुके थे। देश-धर्म का गौरव उन्हें याद आ चुका है। इसी गौरव से दीप्त वह शिवाजी के पीछे-पीछे शाही बाग के बाहर हो आये। पिंजड़े में बंद पक्षी स्वतंत्रता की हवा लगने पर स्वच्छंद गति से पर फैलाए आकाश में उड़ा जा रहा था।


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