संघर्ष, सतत् संघर्ष ही सफलता का मूलमंत्र

May 1998

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अमेरिका के एक बड़े शहर में कृषि वैज्ञानिकों का सम्मेलन चल रहा था। सम्पन्न, बुद्धिमान और प्रतिभाशाली विद्वान अपने शोधकार्यों और निष्कर्षों का विवेचन कर रहे थे। तभी एक विक्षिप्त से व्यक्ति ने सभाकक्ष में प्रवेश किया। गेट पर खड़े चपरासी ने उस व्यक्ति की दयनीय स्थिति को देखकर अन्दर जाने से रोका परन्तु उसके हाथ में परिचयपत्र को देखकर आमंत्रित सदस्य मान लिया एवं अन्दर जाने दिया था।

वह जॉर्जकॉर्बर थे। सभाकक्ष में प्रवेश करते ही सबके मन में उनके प्रति उपहासमिश्रित भाव परिलक्षित हुआ। यहीं नहीं सभी ने उन्हें उपेक्षित भी किया। जॉर्ज कार्बर के कन्धे पर बड़े-बड़े थैले टँगे हुए थे और शरीर पर वस्त्रों के नाम पर फटे-पुराने साधारण कपड़े, लैंस, मॉडल्स और वैज्ञानिक उपकरण थे, जिन्हें कार्बर ने हाल में अपने स्थान पर बैठने से पूर्व उतार दिया। अपना परिचय इन उपकरणों ने स्वयं दे दिया।

चूँकि कार्बर काँग्रेस द्वारा आमंत्रित थे, इसलिए उन्हें सम्मेलन में बोलना तो था ही उनके बोलने का अवसर आने पर सर्वप्रथम वे अपने उपकरण मेज़ पर सजाने लगे। यह भी एक विचित्र स्थिति थी। यूँ भी सभी उन्हें उपेक्षित तो कर ही रहे थे उस पर यह विचित्र हरकतें और। कार्बर इन सब बातों से तटस्थ हो अपने कार्य में जुटे रहे। कार्बर ने अपने उस उपहास पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की। वे अच्छी तरह सभी लोगों के भावों को समझ रहे थे। परन्तु उन्हें अपने प्रायोगिक निष्कर्षों पर अपार विश्वास था। वस्तुतः आत्मविश्वास एक ऐसी शक्ति है, जिसके बल पर किन्हीं भी परिस्थितियों में, कहीं भी अपना मूल्य और प्रभाव प्रतिष्ठापित किया जा सकता है।

उन्होंने जब अपने तथ्यों का विश्लेषण प्रस्तुत किया, तो उनके सूक्ष्म एवं तर्कसंगत विस्तृत भाषण को सुनकर सभी उपस्थित सदस्यों ने दाँतों तले अंगुली ली। जिस आदमी की बाहरी वेशभूषा को देखकर उन्होंने एक असभ्य व सनकी होने का अनुमान था वह एक ही परिच्छेद में चरमराकर टूट गया। कार्बर तीन घण्टे तक धारा प्रवाह बोलते रहे और उनके शोध-निष्कर्षों को काँग्रेस सदस्य मुँहबाए सुनते रहे। उन्हें लगने लगा उसके पूर्व जो भी बातें कही गई है, कार्बर द्वारा प्रतिपादित निष्कर्षों के आगे बहुत फीकी है। अब आभास हुआ कि विद्या-बुद्धि का निवास वस्त्रों में नहीं मस्तिष्क में होता है। विद्वत्ता का परिचय बाहरी चमक-दमक से नहीं, अपितु व्यक्ति के उस ओज और तेज से मिलता है, जो अन्दर से फूटता है। यह परिधान में नहीं, बल्कि व्यक्ति के आत्मविश्वास में झलकता है। सदस्यों को अपने पूर्वाग्रही मान्यता एवं अनुमान पर बड़ी लज्जा एवं ग्लानि महसूस हुई। वे अनुभव करने लगे कि कार्बर की खोजें किसी समयसाध्य अध्यवसायी के शोध-प्रयत्नों का परिणाम हैं।

इस महान अध्यवसायी आत्मा का जन्म अमेरिका के डायमण्ड ग्रोव नामक गाँव में रहने वाले नीग्रो परिवार में हुआ था। उस समय नीग्रो जाति के लोग गोरे अमेरिकनों के दास रहते थे। कार्बर भी अपने माता के साथ एक गोरे मालिक द्वारा साधारण से मूल्य पर खरीदे हुए एक गुलाम से ही बड़े हुए थे।

कुछ बड़ा होने पर कार्बर ने अपने मालिक के बच्चों को कहीं जाते हुए देखा। उसने अपनी माँ से पूछा, तो पता चला कि वे स्कूल जाया करते हैं। बालसुलभ स्वभाव से प्रेरित होकर कार्बर ने भी कहा-माँ मैं भी इन लोगों के साथ स्कूल जाया करूं"

“नहीं बेटे! तुम्हारे भाग्य में यह सब नहीं लिखा है।” माँ ने अपनी असह्य विवशता को समेटते हुए कहा।

“नहीं! जाकर उन लड़कों से पूछ। “ खीझकर उसकी माँ ने कहा। इधर कार्बर सचमुच अपने मालिक के बच्चों के पास पहुँचा और उनसे पूछने लगा कि “भाग्य क्या होता है?”

लड़कों यह बात समझ में नहीं आई, इसलिए उन्होंने पुरा विवरण पूछा। कार्बर ने अपनी माँ से हुई सारी बातें दी, उन लड़कों ने कहा-तो यह बात है। तुम भी हमारे साथ स्कूल चलना चाहते हो।”

हाँ मुझे भी पढ़ने की इच्छा होती है। क्या आप लोग मुझे अपने साथ स्कूल ले चलेंगे?”

मालिक के लड़कों ने उसे वर्णमाला लिखना सिखाया और घर में अभ्यास करने के लिए कहा। कार्बर इसे मंत्र मानकर लकड़ी, टीन और जमीन पर लगातार अभ्यास करने लगा। मालिक उसकी लगन एवं निष्ठा को देख मुस्करा देता। परन्तु माँ को यह सब अच्छा नहीं लगा, क्योंकि वह गोरे स्वामियों के क्रूर, निर्दयी एवं अत्याचारी स्वभाव से पूर्णरूपेण परिचित थी। इसके प्रत्युत्तर में कार्बर ने मालिक की सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार का जिक्र किया तो उसकी माँ को संतोष हुआ।

“अच्छा तो मालिक की खूब सेवा किया करो। “माँ ने सलाह दी और कार्बर रहने लगा। अपनी आज्ञाकारिता और लगन से वह सबका प्रशंसा-पात्र बन गया। प्रसन्न हुआ। अपने इस स्वभाव के कारण कार्बर ने मालिक का हृदय जीत लिया।

कार्बर के गोरे स्वामी ने उसकी आर्थिक दृष्टि से कोई सहायता तो नहीं की परन्तु इसे दासता के बन्धन से मुक्त कर दिया। कार्बर ने इस निर्णय को स्वामी का अनुग्रह ही समझा। वह स्वतंत्र हो गया। परन्तु इस स्वतंत्रता ने भी अगणित समस्याएँ खड़ी कर दीं। वह पढ़े तो कहा पढ़े? यद्यपि अमेरिका में उस समय स्कूलों की कोई कमी नहीं थी, परन्तु समस्या का कारण तो यह था कि कोई भी स्कूल नीग्रो लड़कों को अपने यहाँ प्रवेश नहीं देते थे। कार्बर ऐसे स्कूल की तलाश में लगा, जहाँ नीग्रो बच्चों को प्रवेश दिया जाता था। काफी खोज-बीन के बाद पता चला कि दूर-बहुत दूर न्योशों नामक एक नगर है, जहाँ नीग्रो बालकों की पाठशाला है। कार्बर ने अपने परिवार से विदा ली और अपने अभियान की ओर बढ़ चला।

पाठशाला की स्थिति अत्यन्त दयनीय थी। एक छोटा-सा सीलन और बदबू भरा कमरा, जिसमें बच्चे कैदियों की तरह भरे हुए थे। कार्बर ने वस्तुस्थिति समझी और परिस्थिति के संग समझौता कर लिया। उसने असुविधाओं और कठिनाइयों के विचारों को त्याग दिया। जिसका जीवन ही इसका पर्याय है, भला वह कैसे इनसे घबड़ायेगा कार्बर ने विद्यालय में प्रवेश कर एकाग्रतापूर्वक अध्ययन में मन को लगाया। प्राप्त परिस्थितियों और कठिनाइयों में अपने लक्ष्य को देखकर ही आगे बढ़ने के लिए सचेष्ट तथा आसपास के वातावरण से निरपेक्ष रहने वाले मनस्वी वीर ही विजयश्री का वरण करते हैं। कार्बर ने भी यहीं किया।

कार्बर के सामने एक और समस्या आई। वह थी व्यय की। भोजन, वस्त्र और आवास के प्रबन्ध की। किसी से सहयोग मिलने की तनिक भी गुँजाइश नहीं थी। कार्बर को इसका स्वयं ही प्रबन्ध करने के लिए कटिबद्ध होना था, सो तलाश प्रारम्भ कर दी। सबसे पहली समस्या थी भोजन के लिए काम खोजना। हर जगह उसे निराशा ही हाथ लगी। फिर भी आशा के दीपक को जलाए रखा। वह न हताश हुआ, न निराश उसके सामने था एक बड़ा लक्ष्य और वह उस लक्ष्यप्राप्ति के प्रति कटिबद्ध था?

कार्बर ने कठोर श्रम की दृष्टि से कपड़े धोने का काम आरम्भ करने का निश्चय किया। लोगों के कपड़े ला वह उन्हें धोता एवं फिर प्रेस कर उनके घर जाकर उन्हें वापस कर आता। निर्वाह योग्य मजदूरी मिलने लगी जीवन का पहिया लुढ़कने लगा। इसी तरह श्रम और लगन से समय बीतता गया। कार्बर को शिक्षा यात्रा आगे बढ़ी-माध्यमिक से महाविद्यालय शिक्षा तक। संघर्षों की यह यात्रा बढ़ती रही दर्द व कठोर तप का इतिहास समेटे।

महाविद्यालयों में कक्षाओं में प्रवेश पाने के लिए आवेदन करते समय कार्बर के सामने और भी प्रबल समस्या खड़ी हुई। कोई भी कॉलेज किसी नीग्रो छात्र को अपने सेक्शन में प्रविष्ट नहीं होने देना चाहता था। जॉर्ज कार्बर की इच्छा थी। कि वे भूमि से जुड़े व्यक्ति हैं, अतः कृषि में डिग्री प्राप्त करें। उन्होंने हालैण्ड विश्वविद्यालय में प्रार्थनापत्र प्रस्तुत किया। अधिकारियों से अनुनय-विनय की, परन्तु उनका आवेदन ठुकरा दिया गया। यहीं नहीं उन्हें तिरस्कृत और अपमानित भी किया गया। जॉर्ज कार्बर अपनी नियति का दोष ही इसे मानकर सब कुछ शान्त भाव में झेलते चले गए। वे इण्डियाना पोलिस के सिम्पसन कॉलेज आए और प्राचार्य से भेंट की। प्राचार्य सहृदय व्यक्ति थे। उन्हें इस नीग्रो छात्र में प्रतिभा के बीजांकुर दिखाई दिए। उन्होंने कार्बर की प्रसुप्त प्रतिभा को परखा और पूछा-कार्बर तुम स्नातक की डिग्री तो ले लोगे परन्तु सम्मानित रूप में आजीविका का लाभ कैसे उठा पाओगे। संभवतः तुम्हें नौकरी न मिलें।

कार्बर ने कहा-मैं अपनी शिक्षा आजीविका के लिए नहीं लोकसेवा के लिए प्राप्त करना चाहता हूँ। मैं अपनी इस समस्त प्रतिभा को लोकहित में समर्पित कर देना चाहता हूँ।” प्राचार्य ने कार्बर की इस सर्वजनहिताय पद्धति को देखा व वे उसके साहस और अडिग आत्मविश्वास से बेहद प्रभावित हुए। कॉलेज की व्यवस्था कमेटी के सम्मुख अपनी सिफारिश के साथ कार्बर का आवेदन-पत्र उन्होंने रख दिया।

व्यवस्था समिति के सदस्य प्राचार्य की सिफारिश को ठुकरा तो नहीं पाए, परन्तु उन्होंने कठोर शर्तों का भार रख दिया। शर्तें अमानवीय एवं क्रूरता की दुनिया से पैदा हुआ हो, भला उसके लिए क्या मान और क्या अपमान। से परे है।” वो शर्तें थी-वे किसी भी छात्रवृत्ति के लिए प्रतियोगी नहीं होंगे न गोरे छात्र के समान अधिकार माँगेंगे। उन्हें छात्रावास में रहने का अधिकार नहीं होगा।”

आत्मनिर्भर एवं आत्मनिष्ठ कार्बर ने इन सब शर्तों को स्वीकारा और अपने उद्योग-कपड़े साफ करने के धन्धे को पूर्ववत् जारी रखते हुए अध्ययन में तन्मयतापूर्वक जुट गए। इस साधना ने उनके सभी मार्ग के अवरोधों को दूर कर दिया। गोरे छात्रों का दुर्व्यवहार और कॉलेज के प्रतिबन्ध उनकी प्रगति को रोकने में असमर्थ सिद्ध हुए तथा वे अंतिम परीक्षा में सर्वोच्च अंकों में प्रथम स्थान प्राप्त कर उत्तीर्ण हुए। उनका स्वप्न पूरा हुआ।

कार्बर की इस सफलता ने सबको हतप्रभ कर दिया। महाविद्यालय के अधिकारी भी अब उन्हें सम्मानपूर्वक दृष्टि से देखने लगे। उन्हें इसी संस्थान में प्राध्यापक नियुक्त कर लिया गया। कॉलेज में उन्होंने न केवल अध्यापन-कार्य ही किया, बल्कि कृषि और वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण वैज्ञानिक खोजें भी उन्होंने की। उन्हीं के अनुसंधानों ने अमेरिका के कृषि उद्योगों को समृद्धि के पथ पर अग्रसर किया।

अब वहाँ के अधिकारी इस बात को सर्वथा भूल गए थे कि कार्बर कभी एक नीग्रो और गुलाम व्यक्ति थे। सर्वत्र कार्बर के मनोयोग और पुरुषार्थ की सराहना की जाने लगी। उनके सेवापूर्ण उपकारों के उपलक्ष में इंग्लैण्ड की रॉयल सोसायटी ने उन्हें अपना फैलो बनाया और स्पिगन मैडल से सम्मानित किया। आज अमेरिका आज अपने देश के उस महान सपूत पर गर्व करता है। कार्बर ने अपनी मेहनत और लगन-निष्ठा के बल पर गोरों के मन से नीग्रो के प्रति हीन भावनाओं को उखाड़ फेंका।

कार्बर का जीवन संघर्ष और लक्ष्य के प्रति समर्पण का पर्याय है। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि गई-गुजरी स्थिति में रहते हुए भी व्यक्ति किस तरह अध्यवसाय और परिश्रम के बल पर अपने जीवन का सर्वोच्च विकास कर सकता है।


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