रहस्यमय वह हवेली और विचित्रता भरी वह रात्रि

May 1998

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दृश्य का अदृश्य हो जाना और अदृश्य का दृश्यमान बनकर प्रकट होना-यह संसार का स्वाभाविक गतिचक्र है। शरीर मरता है, तो उसका बाह्य कलेवर पंचतत्वों में मिलकर अगोचर हो जाता है, पर जीवात्मा का अस्तित्व फिर भी बना रहता है। बाद में वही स्थूल देह धारण कर पैदा होती है। यह सामान्य प्रक्रिया हुई। कई बार असामान्य तरीके से अदृश्य शरीर सूक्ष्म उपादानों से ही अपना गोचर स्वरूप अभिव्यक्त कर कुछ ऐसे घटनाक्रम प्रस्तुत कर जाते हैं जिन्हें देखकर यही सोचना पड़ता है कि आखिर इनके पीछे क्या रहस्य और प्रयोजन है? समय-समय पर ऐसी घटनाएँ प्रकाश में आती ही रहती है।

प्रसंग आज से लगभग दो दशक पूर्व की एक बरसाती रात का है। जुलाई का महीना था। तेज हवा चल रही थी। आकाश मेघाच्छन्न था। बीच-बीच में बूँदा-बाँदी हो जाती। तड़ित प्रकाश और बिजली की कड़क से रात का सन्नाटा और डरावना हो उठता। ऐसी ही एक रात्रि में जॉर्ज टाउन इलाहाबाद की चिन्तामणि रोड पर स्थित मकान की घंटी उठी। चौकीदार की आँखें थोड़ी देर के लिए लग गयी थी। नेत्र खुले तो वह सोचने लगा कि कहीं यह उसका भ्रम तो नहीं? कोई स्वप्न तो नहीं देख रहा था। अभी वह कुछ निर्णय कर पाता कि दुबारा घंटी घनघना उठी। वह बेमन से उठा और फाटक खोला। सामने एक कृशकाय बूढ़ा हाथ में लाठी लिए खड़ा था। चौकीदार को देखते ही पूछा- डॉ. भवनाथ का मकान यही है न? चौकीदार के हाँ कहने पर उसने दूसरा प्रश्न किया घर पर है? स्वीकारोक्ति में उसका सिर हिल गया।

तनिक बुला दीजिए, बड़ी कृपा होगी। हाथ जोड़ते हुए बूढ़े ने मनुहार की। इस बरसाती रात में? टालने की नियत से पहरेदार ने प्रश्न किया-हाँ दुर्भाग्य ही कहे इसे। हमारे स्वामी की स्थिति ठीक नहीं, बहुत बीमार है। डॉ. साहब यदि इस समय नहीं चलेंगे तो हम बर्बाद हो जायेंगे। लुट जायेंगे। इसके साथ ही वह फूट-फूटकर रोने लगा। बाहर वर्षा तेज हो चुकी थी। इसलिए पहरेदार बूढ़े आगंतुक को अंदर बरामदे में ले आया और भीतर डॉ. भवनाथ झा को इसकी सूचना दी। वे सो रहे थे। घड़ी पर दृष्टि दौड़ायी, तो रात्रि का तीसरा पहर प्रारंभ हो चुका था। वर्षा जारी थी। इतनी रात्रि और प्रतिकूल मौसम को देखकर वे असमंजस में पड़ गये। बूढ़ा बार-बार आग्रह कर रहा था। उसकी दीनता को देखते हुए उसे टाल पाना डॉ. भवनाथ के लिए असंभव था। वे चौकीदार से जल्दी लौट आने की बात कहकर चल पड़े। बूढ़ा अपने साथ एक बग्घी लाया था। डॉ. भवनाथ अपनी दवाओं का बैग लेकर उसमें जा बैठे। बग्घी कुछ दूर चलने के बाद वह दायीं ओर मुड़ गयी। अंधकार बहुत गहन था। बारिश अभी हो ही रही थी, इसीलिए आस-पास कुछ दिखायी नहीं दे रहा था। डा. भवनाथ यह अनुमान नहीं लगा पा रहे थे कि वे शहर के किस हिस्से में है और किधर जा रहे है। उनके मन में एक अज्ञात भय भी था कि कहीं वे किसी सुनसान इलाके की ओर तो नहीं चले जा रहे हैं। वे इसी उधेड़बुन में थे कि बिजली कौंध उठी। उनका संदेह सही निकला। जहाँ से वे गुजर रहे थे वहाँ दूर-दूर तक कोई मकान नहीं, दिखायी पड़ा। कोचवान के प्रति उनके मन में शंका पैदा हुई। वे यह निश्चय करना चाहते थे कि आखिर वह उसे कहाँ ले जा रहा है। बग्घी के पीछे से उन्होंने आवाज दी, तभी तीव्र गड़गड़ाहट के साथ पास ही कहीं बिजली गिरी। सम्पूर्ण क्षेत्र प्रकाशित हो उठा। उस प्रकाश में सामने एक विशाल हवेली दिखायी पड़ी। डॉ. भवनाथ को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वह एकदम जनहीन भाग में स्थित थी। थोड़ी देर में बग्घी हवेली के मुख्य द्वार पर पहुँची। उसके पहुँचते ही फाटक खुला और वह अंदर प्रवेश कर गयी।

डॉ. भवनाथ ने देखा कि खिड़कियों से मद्धिम प्रकाश बाहर आ रहा है। उस प्रकाश में उन्होंने इमारत की भव्यता को निहारना चाहा, पर निष्फल रहे। खिड़की से निकली मंद रोशनी से आस-पास का कुछ हिस्सा अस्पष्ट रूप से दृश्यमान हो रहा था, शेष सम्पूर्ण भाग गहन अँधेरे में डूबा हुआ था। कोचवान बग्घी से नीचे उतरा और दवाओं का बैग लेकर सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। डॉ. भवनाथ उसके पीछे-पीछे चल रहे थे। दरवाजा अंदर से खुला था और उस पर आकर्षण पर्दा लटक रहा था। पर्दा हटाकर दोनों कमरे में गये। कमरा अंदर से काफी सजा हुआ था। दीवारों पर रंगीन चित्रकारी थी। कोठरी के किनारे एक मूल्यवान सोफा पड़ा हुआ था। सामने ही हाथी दाँत से नक्काशी की हुई एक टेबल थी। एक कोने पर शमादान जल रहा था। खिड़कियों पर रेशमी पर्दे लटक रहे थे। इस कमरे से गुजरते हुए दोनों ने एक अन्य कमरे में प्रवेश किया। उसके एक सिरे से एक पलंग पर एक युवक निश्चेष्ट लेटा था। पलंग के सिरहाने एक आकर्षण युवती बैठी थी, जिसके चेहरे पर विषाद स्पष्ट झलक रहा था। युवती भी उन्हें कुछ जानी-पहचानी लग रही थी व युवक भी, पर कहाँ देखा था-यह याद नहीं आ रहा था।

दोनों के कोठरी में प्रवेश करते ही युवती की आँखों में एक चमक दिखायी पड़ी। वह उत्सुकतापूर्वक डॉ. भवनाथ को देखने लगी, मानो विश्वास हो चला हो कि अब शायद युवक की जान बच जाये। वे कुर्सी पर बैठते हुए अपने बैग से जाँच उपकरण निकालने लगे। इसी बीच बूढ़े ने बोलना प्रारंभ किया-कई दिन बीत गये, मालिक के स्वास्थ्य में तनिक भी सुधार नहीं हुआ। इस दौरान कितने ही चिकित्सकों का उपचार चला, पर कोई लाभ नहीं हुआ। हमने आपका नाम सुन रखा था। यह भी सुन रखा था कि आपने अनेक दुःसाध्य रोगों का सफल इलाज किया है। बहुत भरोसा है आप पर। कृपया सरकार को बचा लीजिए। इसके साथ ही वह डॉ. भवनाथ के पैरों में गिर पड़ा और फफक कर रोने लगा।

डा. भवनाथ रोगी की गंभीरता को समझ रहे थे। फिर भी उन्होंने बूढ़े को ढाँढस बँधाया और युवक की नब्ज़ टटोलने लगे। काफी प्रयास के बाद भी जब नाड़ी नहीं मिली तो आले से हृदय की धड़कन सुनने की कोशिश करने लगे। किंतु धड़कन भी नहीं सुनाई पड़ी। निराश होकर उन्होंने निर्णय सुनाया “अब ये नहीं रहे।” इसके साथ ही वे युवती की मर्माहत पीड़ा हुई जिसे वह बर्दाश्त नहीं कर सकी और बेहोश होकर गिर पड़ी।

तत्काल उसको पानी के छींटे दिये गये। थोड़ी ही देर में वह होश में आ गयी। इसके पश्चात् डॉ. भवनाथ चलने को उद्धत हुए तो युवती ने रोकते हुए कहा-डॉ. साहब। अपनी फीस तो लेते जाइये। उन्होंने उसे लेने से इनकार करते हुए कहा-जब बीमार को बचा ही नहीं सका तो फीस किस बात की। और की बात भी इतनी मानवीयता और नैतिकता तो है ही कि मरने से पूर्व उसके औचित्य पर विचार कर सकूँ। यह कहकर वे चलने को प्रस्तुत हुए तो युवती ने रास्ता रोकते हुए उसे ले लेने को कहा। इतने पर भी वे तैयार नहीं हुए तो आग्रहपूर्वक उनके बैग में पाँच अशर्फियाँ डाल दी। वे चल पड़े। दो ही कदम बढ़े होंगे की पीछे से एक जोरदार ठहाका सुनायी पड़ा। डा. भवनाथ ने मुड़ते ही युवती ने कहा-डॉ. साहब मुझे पहचाना। प्रश्न सुनकर डॉ. भवनाथ ने एक तीव्र दृष्टि युवती पर डाली। मस्तिष्क पर बहुत जोर डालने के बाद कुछ-कुछ याद आया। उन्होंने लगभग चीखते हुए कहा-अंजू तुम!

हा। यह सुनते ही डॉ. संज्ञाशून्य होकर गिर पड़े। उसके बाद फिर क्या हुआ? उन्हें कुछ याद न रहा। दूसरे दिन प्रातः जब उनकी आँख खुली तो वे अपने मकान पर थे। शरीर पर एक दो चोट के निशान थे और उन्हें दर्द भी हो रहा था। सिर में भी पट्टी बँधी थी। चौकीदार पास ही बैठा सेवा कर रहा था। सिर में भी पट्टी बंधी थी। उन्होंने चौकीदार से पूछा-यह पट्टी कैसी? मुझे क्या हो गया था।

आपको याद नहीं। कल रात आप मरीज देखने गये थे, वहीं दुर्घटनाग्रस्त हो गये थे। वह बूढ़ा बग्घी वाला आपको यहाँ छोड़ गया। पहरेदार के इतना कहते ही रात की सारी घटना उनको याद आ गयी। उन्होंने तुरंत बैग मंगवाकर देखा उसमें अशर्फियाँ अब भी विद्यमान थी। उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वे सोचने लगे कि जिस प्रसंग को घटित हुए वर्षों बीत गये, उसका नाटक रचने की पीछे सूक्ष्मजगत का क्या प्रयोजन हो सकता है? यह सब सोचते-सोचते वह अतीत की स्मृतियों में डूब गये।

इलाहाबाद मेडिकल कॉलेज के अंतिम वर्ष की परीक्षा समाप्त हो चुकी थी। लड़के-लड़कियाँ घर जाने की तैयारी कर रहे थे। डॉ. भवनाथ तब लखनऊ में रहते थे। अंजू उनके एक मित्र की लड़की थी। वह भी इलाहाबाद में चिकित्सा विज्ञान की छात्रा थी। रंजन उसका सहपाठी था। दोनों ने परस्पर शादी करने का निश्चय किया। और निर्णय लिया था कि घर से वापस ही आते विवाह बंधन में बंध जायेंगे, पर नियति को कौन टाल सकता है? रंजन जब घर पहुँचा तो ज्ञात हुआ कि उसकी शादी कहीं अन्यत्र तय कर दी गयी है। उसने माता-पिता को अपना निर्णय सुनाया और वहाँ विवाह न करने की बात बतायी। लेकिन माता-पिता किसी प्रकार राजी न हुए। हार कर रंजन को उनकी इच्छानुसार ब्याह करना पड़ा। घर से कॉलेज वापस लौटकर रंजन ने जब सारी बातें अंजू को बतायी तो वह कुद्ध हो उठी और आत्महत्या कर लेने की धमकी देने लगी। रंजन ने भवनाथ को वस्तुस्थिति से अवगत कराया और अंजू को समझाने का आग्रह किया। डा. भवनाथ ने उसे अपनी ओर से समझाने की पूरी कोशिश की लेकिन बार-बार वह एक ही बात कहती कि जिस प्रकार रंजन ने उसे धोखा देकर दुःख के सागर में डुबोया है, वैसे ही वह भी उसका चैन छीनकर रहेगी।

दूसरे ही दिन ज्ञात हुआ कि अंजु ने जहर खाकर जान दे दी है। डॉ. भवनाथ को इससे गहरा धक्का लगा, पर अब क्या किया जा सकता था, सिवाय पश्चाताप के। इस घटना के करीब एक महीने बाद रंजन की एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गयी। कदाचित अंजू ने विश्वासघात का बदला ले लिया। डॉ. भवनाथ अतीत की गहराइयों में खोये हुए थे कि नौकर के नित्य नैमित्तिक क्रिया से निवृत्त होने का आग्रह किया। विचार प्रवाह भंग हुआ। वे भूत से वर्तमान में आये। उनके मस्तिष्क में एक बार रात की घटना ताजी हो उठी। उन्होंने स्कूटर उठाया और हवेली को तलाशने गंगा पार झूँसी जा पहुँचे। वहाँ हवेली तो क्या कोई झोंपड़ी तक नहीं दिखायी पड़ी। लौटकर वे यही सोचते रहे कि वर्षों बाद उक्त घटना की पुनरावृत्ति क्योंकर हुई? अंजू के प्रेत को वह अशर्फियाँ कहाँ से मिली। इस घटना में नाम आदि सभी वहीं है घटना को संक्षेप में वर्णित किया गया है जिसे जानकर परोक्ष जगत के महत्व को सभी समझ सके। यह एक सत्य घटना है व लगभग तीस-पैंतीस वर्ष पूर्व की है। परोक्ष जगत प्रत्यक्ष संसार की प्रतिच्छाया है। वह जितना गहन और गूढ़ है, उतना ही दुर्बोध्य भी। जिस दिन बुद्धि उसे समझने में समर्थ हो जायेगी, उसी दिन रहस्य पर से पर्दा उठ जायेगा कि क्यों कोई घटना वर्षों बाद भी किसी के समक्ष जीवंत हो उठती है और क्यों उनमें से अधिकाँश समय के गर्भ में दबी पड़ी रहती हैं?


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