अपने युग की व्यापक और नानक समस्याओं के आधारित कारण दो हैं। एक चेतना क्षेत्र में बढ़ती हुई असुरता और दूसरा भौतिक क्षेत्र में बढ़ती हुई विषाक्तता।
पहला है आत्मिक क्षेत्र में बुद्धि- विपर्यय एवं आस्था-संकट भ्रष्ट-चिन्तन ने दुष्ट आचरण को बढ़ाया है और अवांछनीयता को उच्छृंखलता के स्तर तक पहुँचाने का अवसर मिला है। फलतः अनीति अपनाने में एक-दूसरे से आगे बढ़ना चाहता है। दुष्प्रवृत्तियाँ क्रमशः परम्परा बनती और मनुष्य स्वभाव में सम्मिलित होती जा रही हैं। फलतः अनीति की क्रिया-प्रतिक्रिया में भयंकर विक्षोभ हो रहे हैं। उत्पीड़न और विग्रह के फलस्वरूप अनेकानेक प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं। साथ ही ऐसा वातावरण भी बन रहा है, जिसके फलस्वरूप दैवी विपदाओं का टूटना और विनाश के अविज्ञात कारण बनना स्वाभाविक है, यह है चेतना क्षेत्र में बढ़ती हुई असुरता और उसकी प्रतिक्रिया।
दूसरा, भौतिक क्षेत्र में विषाक्तता बढ़ने के कुछ तथ्य सर्वविदित हैं। वायुमण्डल में जिस तेजी से विघातक विष बढ़ता चला जा रहा है, इसकी जानकारी जनसाधारण को भले ही न हो, विश्व की परिस्थितियों पर बारीकी की दृष्टि रखने वाले बुरी तरह चिन्तित हैं। बढ़ते हुए औद्योगिक संस्थान, कल-कारखानों से विषैला धुँआ प्रचुर परिणाम में निकलता है। रेल-मोटर आदि सवारियाँ इस कोढ़ में खाज बनकर उस विषाक्तता को बढ़ने में और भी अधिक योगदान देती हैं। अब तक जो परमाणु विस्फोट हो चुके हैं, उनका विकिरण इतनी बड़ी मात्रा में मौजूद है, जिनका मन्द प्रभाव अगली पीढ़ियों के लिए जीवन संकट उत्पन्न करेगा। नित नये विस्फोटों का सिलसिला रुक नहीं रहा है और अणुयुद्ध की नंगी तलवार आये दिन मानवी अस्तित्व के सिर पर चमकती रहती है।
तीसरा नया सिलसिला अभी-अभी शुरू हुआ है। बारह मंजिला इमारत जितनी विशालकाय और 85 टन भारी एक अन्तरिक्षीय प्रयोगशाला स्काईलैब का मलबा जमीन पर गिरने का संकट लोक चिन्ता का विषय बना हुआ है। मलबा गिरने का स्थानीय संकट उतना बड़ा नहीं है, जितना की उसके कारण उत्पन्न हुआ प्रकृतिगत असन्तुलन। उल्कापातों का प्रभाव सारे वातावरण पर पड़ता है और दूरगामी दुष्परिणाम उत्पन्न करता है। उसे प्राचीन और अर्वाचीन खगोलवेत्ता समान रूप से स्वीकार करते हैं। गिरने से तात्कालिक हानि कितनी हुई, यह छोटा प्रश्न है। चिन्ता का विशय यह है कि पृथ्वी के वायुमण्डल में छेद और विक्षोभ उत्पन्न करने वाले ऐसे अन्तरिक्षीय प्रहार कैसी प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार के उपद्रव पृथ्वी और सूर्य के मध्यवर्ती ओजोन जैसे उपयोगी आच्छादनों को अस्त-व्यस्त कर सकते हैं और धरती की जीवनोपयोगी परिस्थिति में भयानक उलट-पुलट कर सकते हैं। संकट टला नहीं, आरम्भ हुआ है। स्काईलैब इस नई श्रृंखला का अन्त नहीं वरन् श्रीगणेश है। ऐसी ही छोटी-बड़ी प्रयोगशालाएँ प्रायः एक हजार की संख्या में पृथ्वी की परिक्रमा कर रही हैं। समयानुसार उनका बूढ़ा होना और मरना स्वाभाविक है। वे प्रत अन्ततः धरती पर ही गिरेंगे और आये दिन स्काईलैब पतन की तरह चिन्ता का विशय बनेंगे। मृतक यान प्रेतों को धरती पर उतार-उतारकर लाने वाली अन्तरिक्षीय रेलगाड़ी कल्पना का विशय तो है, पर जब तक नौ मन तेल जुटने पर राधा का नाच होगा, तब तक इन प्रेतों का ताण्डव नृत्य विनाश की दिशा में इतना ताण्डव कर सकता है कि उसके सन्दर्भ में पश्चात्ताप करना ही शेष रह जाए।
गुत्थियाँ सूक्ष्मजगत की है। चेतना क्षेत्र और प्रकृति क्षेत्र दोनों की ही अपनी अदृश्य परिधि है। उसका प्रभाव प्रत्यक्ष जगत पर पड़ता है। इन अदृश्य क्षेत्रों से विपदा बरसने लगे तो उसका उपचार भौतिक उपायों एवं साधनों से बन नहीं पड़ेगा। अदृश्य जगत का सूक्ष्म क्षेत्रों का परिशोधन-समाधान अदृश्य स्तर की आत्मिक ऊर्जा के सहारे ही बन पड़ना सम्भव है।
इसी प्रक्रिया में अदृश्य प्रयत्नों की एक दूसरी कड़ी जुड़ती है। वह सूक्ष्म जगत के परिशोधन और अनुकूलन से सम्बन्धित है। पिछले दिनों रजत जयन्ती वर्ष में गायत्री महापुरश्चरण अभियान चला था। उसमें जप और हवन के धर्मानुष्ठान का व्यापक विस्तार हुआ। प्रायः 24 लाख व्यक्तियों ने उसमें भाग लिया। यों इनका रचनात्मक एवं भावनात्मक आधार भी था, किन्तु मूलतः उसे चेतना जगत के वातावरण और प्रकृति जगत के वायुमण्डल के परिशोधन की सूक्ष्म प्रक्रिया भी समझा जा सकता है। यज्ञ से वायुमण्डल की और जप-ध्यान से वातावरण की शुद्धि होती है। इन अदृश्य आधारों को गणित की तरह कागज-कलम से सिद्ध करना और घटनाक्रम की तरह प्रत्यक्ष दिखाना तो कठिन है, पर जो प्रतिक्रियाओं को देखकर तथ्यों का अनुमान लगाने पर विश्वास करते हैं, उन्हें यह जानने और मानने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि इन अदृश्य उपायों का अदृश्य जगत के अनुकूलन पर कितना उपयोगी प्रभाव हो सकता है, होता रहा है और हो रहा है।
उन प्रयासों को अगले दिनों भी जारी रखा जाना है। गायत्री महापुरश्चरण अभियान एक वर्ष तक सीमित न रखकर वह सन 2000 तक घोषित किया जा चुका है। यह श्रृंखला आगामी गायत्री जयन्ती से जून 2000 तक यथावत् चलेगी। इस अवधि में नये स्थानों पर गायत्री महापुरश्चरणों के लिए आधार खड़े करने पर विशिष्ट जोर दिया जाएगा। यों जहाँ पुरश्चरण हो चुके हैं, वहाँ भी फिर से उसे करने पर कोई रोक नहीं है, पर क्षेत्र विस्तार और नये व्यक्तियों तक आलोक पहुँचाने की दृष्टि से नई जगहों में जप-हवन से सम्बन्धित पुरश्चरण योजना को अग्रगामी बनाया जाना अधिक उपयुक्त है।
इस संवर्द्धन में वातावरण परिशोधन का नया प्रयास, नये आधार पर, नई तैयारी के साथ आरम्भ हुआ है। वह है-सुरक्षा प्रयोजन के लिए आरम्भ की गई पौन घण्टे की ध्यान-धारणा। साधना क्षेत्र के वरिष्ठ लोगों का ध्यान इस स्तर का पुरुषार्थ करने के लिए प्रथम बार आह्वान किया गया है। आत्मबल के बलिष्ठों को सामूहिक शक्ति का अर्जन करने और उसे विश्व संकट के निमित्त झोंके देने का यह प्रयोग और उसके परिणाम दोनों ही दृष्टि से अनोखे रहेंगे। सर्वनाशी विभीषिकाओं आशंकाओं के पर्वत अभी भी जहाँ के तहाँ खड़े हैं। अषुरा संभावनाएँ भविष्यवक्ताओं के द्वारा ही नहीं, प्रत्यक्ष का विवेचन करने वाले लोगों के प्रतिपादनों द्वारा भी स्पष्ट हैं। इनके निराकरण का आंतरिक उपाय आत्मशक्ति के दिव्य आयुधों का प्रयोग ही हो सकता है। अणु शक्ति जैसी विषाक्तताओं और विभीषिकाओं से लोहा लेने की सामर्थ्य मात्र उसी में है।
जिनकी साधनाएँ पिछले समय से निष्ठापूर्वक चलती रही हैं, जो कई अनुष्ठान कर चुके और दूसरों को प्रेरणा देने में जिनकी प्रतिभा कारगर सिद्ध होती रही है, उन्हें सुरक्षा-साधना में अग्रणी होना चाहिए। साथ ही दूसरों को भी बना सकते हैं, सहयोग दूसरों से भी ले सकते हैं। किन्तु अग्रणी वरिष्ठों को ही रहना चाहिए। सूर्योदय से पूर्व सस्वर गायत्री पाठ तत्पश्चात आधा घण्टा ध्यान। सर्दियों में यह समय एक घण्टे पहले खिसकाया जा सकता है। इस साधना का समय अरुणोदय काल है ध्यान प्रक्रिया इतनी ही है कि गायत्री परिवार के लाखों सदस्य अपनी प्रचण्ड ऊर्जा एक साथ एकबारगी एक लक्ष्य की पूर्ति के लिए उत्पन्न कर रहे हैं। वह संकल्प शक्ति पर उठती है और अन्तरिक्ष की ऊँची परतों पर छतरी की तरह छा जाती है। इससे वातावरण एवं वायुमण्डल में भरे हुए दुरित धरातल पर गिरने से पूर्व ही रुक जाते हैं। संयुक्त आत्मशक्ति का छाता उन्हें दूर पर ही रोक देता है। इतना ही नहीं इस छत्र-उपकरण का प्रहार करके अदृश्य जगत पर छाई हुई विभीषिका को किसी अविज्ञात क्षेत्र में धकेल कर भावी विपदाओं से बहुत हद तक परित्राण पाया जाता है।
न्यूनतम पाँच-पाँच वरिष्ठ साधकों के सुरक्षा यूनिट हर जगत बनने चाहिए। उनके साधनाक्रम नियमित रूप से चल पड़ने चाहिए। ऐसे यूनिट अपनी मण्डली को शाँतिकुँज से पंजीकृत करा लें, ताकि उन्हें इस प्रयोग में काम आने वाली अभीष्ट सामर्थ्य अनुदान के रूप में नियमित रूप से मिलती रहे।
आशा की जानी चाहिए कि प्रज्ञावतार का यह ब्रोस्त्र युग- विभीषिकाओं को निरस्त करने और उज्ज्वल भविष्य का अरानव सृजन करने की दुहरी भूमिका सम्पन्न करेगा।