पुनः प्रकाशित लेखमाला-2 - धर्म श्रद्धा का सृजनात्मक सुनियोजन हो

May 1998

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आत्म-क्षेत्र तक पहुँच मात्रा एक ही उपकरण की है और वह है, अध्यात्म। साधनों से सुविधाएँ बढ़ती है। बलिष्ठता से पराक्रम सम्भव होता है। बुद्धि से वैभव और वर्चस्व कमाया जाता है। इन तीन आधारों पर परिस्थिति बनती-बिगड़ती है। साँसारिक सफलताओं में प्रायः इन्हीं तीन क्षमताओं का उपयोग होता रहता है। धन, बल और बुद्धि का चमत्कार सर्वत्र बिखरा पड़ा है। इसका महत्व समझा जाता है और उपार्जन का प्रयत्न चलता है। इतने पर भी यह तथ्य अपने स्थान पर अडिग है कि आस्थाओं का क्षेत्र स्वतंत्र है और वह इन समस्त साधनों से प्रभावित नहीं होती। उच्च अन्तःकरण न धनिकों को मिलता है, न बलिष्ठों को और न बुद्धिमानों को। उनका आरोपण एवं अभिवर्द्धन जिसके माध्यम से हो सकता है, वह अध्यात्म दर्शन ही हो सकता है। आस्था संकट का निवारण-सद्भावनाओं का सम्वर्द्धन यदि सचमुच ही अभीष्ट हो तो उसके चिन्तन के लिए ब्रह्मविद्या का और व्यवहार में धारणा का आश्रय लेना होगा।

प्रदर्शन एवं प्रशिक्षण की दृष्टि से कितने ही महत्वपूर्ण आयोजन आये दिन होते रहते है। साहित्य सृजा जाता है और प्रवचनों का उपक्रम बनता है। लेखनी और वाणी की शक्ति को नकारा नहीं जा सकता, किन्तु यह भी सत्य है कि इनसे मात्र मस्तिष्क ही प्रशिक्षित होता है-बुद्धि-कौशल के अनेक प्रकार है, उन्हीं में से एक का नाम आदर्शवादिता भी हो सकता है। मस्तिष्क को आदर्शों की उपयोगिता स्वीकार करने के लिए तर्क और तथ्यों के सहारे सहमत किया जा सकता है। इतने पर भी यह आवश्यक नहीं कि उतने भर से आस्थाएँ भी प्रभावित-परिवर्तन हो सकें।

आस्थाओं की जड़ें शरीर और मस्तिष्क की निचली परतों में नहीं अन्तः-करण की गहराई में जमी होती है। वहाँ श्रद्धा के अतिरिक्त अन्य किसी का प्रवेश निशिद्ध है। श्रद्धा भरे उपचारों से ही भाव सम्वेदनाओं को जगाने एवं जीवन को प्रभावित करने वाली मान्यताओं को जमाने की संभावनाएँ सन्निहित रहती है। अस्तु, व्यक्ति के अन्तराल को बदलने के लिए धर्म श्रद्धा से भरे-पूरे उपाय-उपचारों का प्रयोग करना होता है। एक शब्द में इस तथ्य को यों भी कहा जा सकता है कि धर्मतन्त्र के माध्यम से वह लोकशिक्षण सम्भव है, जो आत्माओं के उत्कर्ष का चमत्कारी परिवर्तन प्रस्तुत कर सके।

यों यह बात धर्मक्षेत्र के सम्बन्ध में भी नहीं जा सकती है कि धर्मजीवी लोग भी कहाँ आस्थावान् होते हैं। छद्म भी एक आक्रामक तत्व है, वह भी अन्य दुष्टताओं की तरह अपने प्रथम चरण में ही कुछ समय के लिए सफलता जैसी चमक दिखाता है। वास्तविकता के अभाव में वह देर तक ठहर नहीं पाता और जादुई खिलवाड़ की तरह अविश्वस्त एवं उपहासास्पद बन जाता है। असत्य कितना ही विस्तृत क्यों न हो, सत्य की प्रतिष्ठा अपने स्थान पर अक्षुण्ण ही बनी रहेगी, भले ही उसका परिपालन करने वाले स्वल्प मात्रा में ही क्यों न हों। प्रज्ञावतार की गतिविधियाँ धर्मछद्म पर नहीं धर्मधारणा पर अवलम्बित होंगी। आर्ष स्तर की ऋषि प्रणीत धर्मचेतना का दर्शन और व्यवहार आज नये सिरे से खोजना और क्रियान्वित करना होगा, तो भी उसकी उपयोगिता पर किसी भी प्रकार का संदेह करने की गुँजाइश नहीं है। खिलौने के बन्दूकों से भी बाज़ार भरा पड़ा है, फिर भी लड़ाई के मैदान में बन्दूक का प्रयोग करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। धर्मछद्म की तमिस्रा के रहते हुए भी धर्म धारणा का अवलम्बन लिए बिना प्रज्ञावतार का प्रयोजन, आस्थाओं का अभिवर्द्धन सम्भव नहीं हो सकता।

अध्यात्म चिन्तन है और धर्म व्यवहार। दोनों को मिलाने पर ही समग्र धर्मतन्त्र बनता है। यही है वह प्रक्रिया, जो लोकमानस के अन्तराल तक पहुँचने, उसे बदलने और उत्कृष्टता के चरम लक्ष्य तक पहुँचाने में समर्थ हो सकती है। आस्थावान् और धार्मिक एक ही होते है। प्रचलित धर्म-परम्परा में भारी परिवर्तन करने की आवश्यकता है। वर्तमान प्रचलनों में से अनेकों के प्रति आक्रोश उत्पन्न करने की आवश्यकता है। इतने पर भी धर्म-तत्व की आत्मा को अपनाए बिना देवमानवों की नई पीढ़ी उत्पन्न कर सकना अन्य किसी उपाय से सम्भव नहीं हो सकता। आस्थाओं का उन्नयन बिना धर्म-धारण का आश्रय लिए सम्भव हो ही नहीं सकता।

जन-जन तक धर्मधारणा का आलोक पहुँचाना प्रज्ञावतार के क्रिया–कलापों का प्रमुख अंग है। इसके लिए प्रथम चरण गायत्री शक्ति की स्थापना एवं प्रव्रज्या अभियान की परिपक्वता के रूप में महाकाल ने कदम उठाया। इन दोनों को मिलाकर शरीर और प्राण मिलने से जीवन तत्व जैसी एक इकाई बनती है। प्रव्रज्या से लोकचेतना उत्पन्न होगी जन- संपर्क उसी के द्वारा सधेगा। घर-घर पहुँचने और जन-जन को नवयुग का सन्देश सुनाने वाले सृजन के अग्रदूत आलोक वितरण का अपना प्रयास जारी रखेंगे। किन्तु उनकी गतिविधियाँ हवा में उड़ने वाले पत्तों की तरह अनिश्चित तो नहीं हो सकतीं। वे निराश्रित तो नहीं रह सकते। प्राचीनकाल में मन्दिर, मठ, धर्मशाला, आश्रम जैसे संस्थानों का निर्माण एक ही उद्देश्य से होता था कि देवालयों में निवास-निर्वाह जैसे सुविधाओं का तथा संपर्क-केन्द्र के माध्यम से बनने वाली सुव्यवस्था का लाभ मिलता रहे। आज धर्म संस्थानों की संख्या तो बहुत है पर उस उद्देश्य की पूर्ति कही होती दिखाई नहीं पड़ती, जिसके लिए ऋषियों ने देवालयों की स्थापना का आन्दोलन प्रारम्भ किया और उसे सफल बनाया था। आत्मा शरीर में आश्रय पाता है और उसे सुनियोजित कार्य में संलग्न भी करता है। प्रव्रज्या को गायत्री शक्तिपीठों के आश्रय मिले और सुयोग-संयोग से धर्म-धारणा को जन-जन के मन में अपना आलोक पहुँचाने का अवसर मिलने लगा।

कर्मकाण्डों, उपासनात्मक विधि-विधानों कथा-प्रसंगों धर्मानुष्ठानों के ब्रह्मस्वरूप का सीधा महत्व समझने-समझाने में कठिनाई होती है, किन्तु जब उनमें सन्निहित प्रेरणाओं का भावभरे वातावरण में हृदयंगम होने और चमत्कारी सत्परिणाम उत्पन्न करने की प्रतिक्रिया सामने आती है, तब पता चलता है कि यह निरर्थक जैसी लगने वाली प्रक्रिया, कितनी मर्मस्पर्शी और कितनी प्रभावोत्पादक है।

दैनिक उपासना द्वारा दिव्यसत्ता के साथ घनिष्ठता और आदान-प्रदान का उपक्रम-योगाभ्यास और तप-साधना द्वारा अतिमानवी क्षमताओं का उन्नयन, षोडश संस्कारों के साथ सम्पन्न होने वाली ज्ञान गोष्ठियों द्वारा पारिवारिक वातावरण में शालीनता का सम्वर्द्धन, पर्व-त्यौहारों में सन्निहित-सामाजिक सत्प्रवृत्तियों का परिपोषण जैसे अनेकानेक उच्चस्तरीय उद्देश्य धार्मिक क्रियाकृत्यों के सहारे भावभरे वातावरण में सरलतापूर्वक सम्पन्न होते रह सकते हैं। कथा-पुराणों में रोचक-संस्मरणों के सहारे संस्कृति की महान परम्पराओं को बाल-वृद्ध नर-नारी जिस प्रकार सुनते, समझते और अपनाते हैं, उसे देखते हुए प्रतीत होता है-प्रत्यक्ष निर्देशन की अपेक्षा यह देव इतिहासों का कथन-श्रवण अन्तरंग की गहराई तक अधिक अच्छी तरह प्रविष्ट हो सकता है। आदर्शवादी अनुकरण महापुरुषों के द्वारा अपनाई गई देव-परम्पराओं के दृश्य मनःक्षेत्र में विचरते रहने पर भी एक बड़ा काम हो सकता है।अनुकरण का उत्साह उठ सकता है। जन-जागरण को घर-घर पहुँचाना और जन-जन से संपर्क साधना आवश्यक है। प्रभावशाली श्रेष्ठ सज्जन इस पुनीतकार्य में श्रद्धापूर्वक जुट पड़े तो यह वातावरण उत्पन्न करना तीर्थयात्रा की पुण्य परम्परा में उत्साह भरने से सम्पन्न हो सकता है। यह सारे कार्य ऐसे हैं जो शासकीय अथवा दूसरे मंचों से किए जाने वाले समाज-कल्याण जैसे कार्यों द्वारा किये जाने वाले रचनात्मक प्रयासों की तुलना में कहीं अधिक गहरा एवं चिरस्थायी सत्परिणाम उत्पन्न करेंगे।

भारत धर्मप्रधान देश है। इसमें अशिक्षा, गरीबी एवं अन्धविश्वास का बाहुल्य होते हुए भी धर्म श्रद्धा की परम्परागत मात्रा अधिकाँश लोगों में विद्यमान है। इसे सही मार्ग न मिलने से उमड़ती हुई धर्मभावना का निरर्थक एवं अनर्थमूलक कार्यों में अपव्यय होता है। इस बर्बादी को बचाया और रचनात्मक प्रयोजनों में लगाया जाना आवश्यक है। भारत में 80 लाख के करीब भिक्षा-व्यवसायी साधु-संत हैं। यदि 7 लाख गाँवों के इस देश में इन्हें श्रमदान, समाज-सुधार प्रौढ़-शिक्षा जैसे कार्यों में लगाया जा सके तो इतना काम कर सकते हैं जिससे देश का काया-कल्प ही हो सके। 80 लाख पूरा समय धर्मप्रयोजनों के लिए लगाने वाले और करोड़ों आधा-अधूरा समय इन्हीं कृत्यों में लगाने वालों की जन-शक्ति का मूल्याँकन किया जाए, तो उसका वजन लगभग उतना ही हो जाता है जितना कि सरकारी एवं अर्द्धसरकारी संस्थाओं में काम करने वाले कर्मचारियों का। इतनी बड़ी जन-शक्ति को अव्यवस्था फैलाने से विरत करके रचनात्मक कार्यों में नियोजित करने का उद्देश्य उनसे-उनके पोषणकर्ता से सम्बन्ध मिलाकर ही पूरा हो सकता है। धर्मतंत्र की समर्थता सर्वविदित है। भूतकाल में उसने मानव-समाज को सुसंस्कृत एवं समुन्नत बनाने में भारी सफलता पाई है।

अब फिर उसकी पुनरावृत्ति हो सकती है। धर्म का तत्त्वदर्शन और उसके द्वारा आकर्षित उत्पादित होने वाले भौतिक बल यदि मानवी-उत्कर्ष का भाव-परिष्कार पक्ष सँभाल सके, तो उसे इस धरती पर बसा हुआ देवलोक का अजस्र वरदान ही माना जाएगा।

धर्मपरायण अर्थात् चरित्रनिष्ठ, व्यक्तित्व सम्पन्न आदर्शवादी, प्रतिभाशाली परमार्थपरायण। यही पर्राशा प्राचीनकाल में समझी जाती थी। धर्मतंत्र के प्रति अगाध निष्ठा अन्धविश्वास की तरह नहीं वरन् उसकी उपयोगिता एवं प्रतिक्रिया को देखकर ही उत्पन्न होती है। इस ढाँचे का लड़खड़ा जाना, मनुष्य का एक अत्यन्त कष्टकारक दुर्राँय है। स्थिति को बदला जाना आवश्यक है। धर्मक्षेत्र पर छाई हुई प्रतिगामिता की प्रगतिशीलता में अन्धपरम्परा को विवेकयुक्त सत् श्रद्धा के रूप में परिवर्तित किया जाना है, तभी वह युगपरिवर्तन की भूमिका निभा सकेगी।


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