भावसंवेदना के जागरण की बात अब वैज्ञानिकों के मुख से सुनें

May 1998

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मानव जीवन का समस्त क्रिया क्षेत्र बहिरंग में बुद्धि पर आधारित रहा है। शारीरिक समर्थता-बलिष्ठता भौतिक वैभव के बाद तीसरी महत्वपूर्ण आवश्यकता बौद्धिक कुशलता किसी भी क्षेत्र में सफलता अर्जन हेतु मानी गई है। यों देखा जाय तो बीसवीं सदी बुद्धि के चरम उत्कर्ष की सदी रही है। सारे आविष्कार इसी डेढ़ सौ वर्षों की अवधि में हुए हैं व बौद्धिक विकास की पराकाष्ठा के परिचायक हैं। ऊपर वर्णित तीन विभूतियों को देखते हैं तो एक खालीपन-सा प्रतीत होता है, जब हम आज के विकास में कुछ खोखलापन चारों ओर तर्क-वितर्कों का का जाल, धूर्तता की चालबाजियाँ तथा बढ़ता हुआ पारस्परिक क्लेश देखते हैं। इसके लिए मानव की चौथी विभूति का स्मरण आता है, जिसे ऋषिगणों ने बहुत ही अधिक महत्वपूर्ण मानकर मानवीय सत्ता को ‘रसौ वै सः’ की उपाधि से अलंकृत किया था। वह विभूति है, भावसंवेदना। जब तक विचार शक्ति के साथ सजल भावसंवेदना व भावनाओं की शक्ति का समन्वय नहीं होता- बौद्धिक विकास अधूरा माना जाता है। भाव रूपी विचार सामर्थ्य के विकास की क्षमता को आज वैज्ञानिक इमोशनल क्वोशेण्ट(ई.क्यू.) नाम देते हैं एवं इसे आई.क्यू.(इंटेलीजेंट क्वोशेण्ट-बुद्धिलब्धि की तुलना में अधिक महत्व देते पाये जाते हैं।

वैज्ञानिक प्रगति की चरम स्थिति में पहुँचे इस युग के वैज्ञानिक भी अब स्वीकारने लगे हैं कि विचारबुद्धि की उड़ान मात्र ही पर्याप्त नहीं है। इसके लिए इस व्यक्ति में संवेदनशीलता एवं सहानुभूति का होना भी अत्यावश्यक है। सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक रॉबर्ट फ्रास्ट का कथन है कि आज मनोरोग बड़ी तेजी से पनप ही इसलिए रहे हैं कि करोड़ों डॉलर का व्यवसाय करने वाला व्यापारी व्यवस्था सँभालने वाला कुशल मैनेजर समग्र व्यक्ति नहीं है। भाव संवेदना का जीवन में अभाव उसके पूरे व्यक्तित्व को विखण्डित बना देता है व एक दर्द भरा त्रासदी युक्त जीवन जीते उन्हें देखा जा सकता है। ई.क्यू.(भावनालब्धि) का होना, न होना ही वह भाव है, जो किसी व्यक्ति को सर्वांगीण सफलता के, एक पूर्व स्वस्थ समग्र विकास के शीर्ष पर पहुँचाने का पैमाना अब माना जाने लगा है।

विकसित ई.क्यू. ही मानवीय मूल्यों को पहचानने, दूसरों का दर्द समझने, जीवन लक्ष्य को तदनुसार कटिबद्ध करने, आन्तरिक शक्तियों को बढ़ाने एवं सम्पदा का सुव्यवस्थित सुनियोजन करने का कार्य करता है।

एवमैन एवं रॉबर्ट कूपर ने अपने बहुचर्चित शोधग्रंथ एक्जीक्यूटिव ई.क्यू. में इस पर अपना गहन मन्थन प्रस्तुत कर प्रबन्धन विधा को नये आयाम प्रदान किये हैं। उनके अनुसार अकेला बौद्धिक चिन्तन मानव जीवन को शुष्क व नीरस ही नहीं विकृतियों से पूर्ण भी बना देता है। कई प्रकार के दुर्व्यसन पलने हेतु भूमि भी इससे तैयार हो जाती है। यही नहीं बहुविध प्रशिक्षित ऑफिसर्स, मैनेजर्स, व्यापारीगण आदि के पारिवारिक जीवन प्रायः विश्रृंखलित से देखे गये हैं। वे लिखते हैं कि असफल विवाह, विवाहेत्तर सम्बन्धों की बहुलता ऐसे व्यक्तियों में अधिक मिलती है। इनकी सन्तानें भी कई दुर्व्यसनों का शिकार होती देखी गई हैं। वस्तुतः दैनन्दिन जीवन की प्रतिपल की घटनाओं का अगर सूक्ष्म विश्लेषण किया जाय तो ज्ञात होता है कि मानव जीवन का सबसे बड़ा सम्बल हृदय है न कि मस्तिष्क। भावनाएँ सीधे हृदय के तारों को स्पर्श कर ऊर्जा के अनन्त स्रोतों को खोल देती हैं। यदि विचार शक्ति आनन्द की इस गंगोत्री से जुड़ जाए तो मनुष्य की प्रसुप्त पड़ी अनेकानेक विभूतियों का जाग्रत होने में मदद मिलती है। मनोवैज्ञानिक अब इस निष्कर्ष पर पहुँचने लगे है कि ई.क्यू. जीवन के विराट अनुभव, समझदारी एवं बहुमुखी व्यक्तित्व के समुच्चय की कुँजी है। इमोशनल क्वोंशेण्ट आन्तरिक एवं वाह्य जीवन को जोड़ने का एक महत्वपूर्ण कार्य भी करता है, जो आज की सर्वोपरि आवश्यकता है। संवेदना एवं विचारणा का यह समन्वय व्यक्तित्व के बहुआयामी पक्ष को सामने लाता है। इससे सामाजिक दायित्वों, नैतिक मूल्यों के प्रति प्रतिभाओं में जागरूकता भी आती है, जो कि आज की एक अनिवार्य आवश्यकता मानी जानी चाहिए।

अमेरिका में प्रबन्धन विधा के मानदण्ड अब पूरी तरह बदल गये हैं। वहाँ पर व्यापार, प्रशासन, वैज्ञानिक, सामाजिक आदि प्रायः सभी क्षेत्रों में आई.क्यू. के स्थान पर ई.क्यू. को मान्यता मिलने लगी है। ऐसा नहीं कि ई.क्यू. आई.क्यू. का निरस्त करता है वरन् इसे और भी प्रभावशाली एवं समग्र बनाने का प्रयास करता है। ई.क्यू. के द्वारा सफल व्यक्ति ही सही अर्थों में प्रभावशाली हो सकता है। रॉबर्ट कूपर के अनुसार, एक संवेदनशील व्यक्ति की बुद्धि ही समुचित न्याय एवं उचित निर्णय सुना सकती है। इन्हीं सब उपलब्धियों के कारण अमेरिका का विश्व प्रसिद्ध रिसर्च सेंटर ‘ई.सी. सिस्टम इन कार्पोरेशन सेन्फ्रांसिस्को’ ने सबसे प्रथम ई.क्यू. मैप का निर्माण किया है। इस संस्था के एस्थर एन.आरेलेई और कारेन ट्रोकी के नेतृत्व में एक वैज्ञानिक दल ने अमेरिका और कनाडा के लगभग दो हजार संगठनों का गठन सर्वेक्षण कर उसके आधार पर ई.क्यू मैप तैयार किया है। अब इसकी लोकप्रियता क्रमशः बढ़ती चली जा रही है। यह मैप अब यूरोप के सभी देशों में तथा जापान में भी उपयोग में लाया जा रहा है। इससे अब तक लाखों की संख्या में उच्च पदस्थ मैनेजर एवं अधिकारियों का सफल परीक्षण किया जा चुका है। इसमें सफल अधिकारियों की कार्यक्षमता कई गुना अधिक बढ़ी देखी गई है। ई.क्यू. मैप के क्वोशेण्ट मीटर पर सर्वोच्च अंक प्राप्त करने वाला व्यक्ति अति संवेदनशीलता के साथ तीक्ष्णबुद्धि सम्पन्न वाला माना जाता है।

सफलता के लिए संघर्ष की साधना के साथ आन्तरिक जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता भी अब महत्वपूर्ण मानी जाने लगी है। इसी भाव से अनुप्रेरित होकर जेम्स मेक ग्रेगर वर्न्स ने कहा है- आज प्रतिष्ठित व्यक्ति भी कोर बुद्धिवाद से निकलकर किसी सुन्दर भाव संसार में पनाह लेना चाहते हैं। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि जितने भी बड़े पदाधिकारी होते हैं, उनका वैयक्तिक एवं पारिवारिक जीवन लगभग असफल एवं असंतुलित-सा रहा है। वर्न्स ने इसका कारण स्पष्ट करते हुए कहा है कि आई.क्यू. मनुष्य के मस्तिष्क के केवल चार से सात प्रतिशत भाग को ही स्पर्श करता है। संसार मात्र दिमाग के इन केन्द्रों तक ही सीमित नहीं है। शेष 94 से 97 प्रतिशत मस्तिष्क का क्षेत्र अभी भी अनछुआ और अविज्ञात-सा पड़ा हुआ है। ई.क्यू. यानी भावना क्षेत्र का विकास इसी अविज्ञात क्षेत्र को जाग्रत करने का एक प्रयास है। जीवन और बहिरंग जगत का बहुत बड़ा भाग संवेदना से सम्बन्धित है। ई.क्यू के प्रयोग इसी कारण प्रभावशाली व सफल सिद्ध हो रहे हैं।

विक्टर बन्धुओं द्वारा लिखित ‘बिल्ड योर ब्रेन पॉवर' नामक पुस्तक में उल्लेख है कि मनुष्य अपने संपूर्ण जीवनकाल में मस्तिष्क के मात्र एक हजार भाग का ही उपयोग कर पाता है। शेष बुद्धि इसके दायरे से बाहर होती है। इसी बात की व्याख्या करते हुए आर.जे. र्स्टन वर्ग ने भी अपनी कृति ‘इमोशनल इन्टेलिजेन्स में लिखा है कि यह दुनिया मात्र निष्क्रिय बुद्धि द्वारा नहीं देखी जा सकती। इस बुद्धि से दैनिक जीवन के हर पहलू को परखा नहीं जा सकता है। यह सब भावपूरित विचारधारा से ही संभव हो सकता है। आज के बौद्धिक ऊहापोह में जकड़ी मानवता को बुद्धि की आवश्यकता तो है ही, परन्तु यही सर्वमान्य मानदण्ड नहीं है। एकांगी विकास के कारण भले ही सफलता के एक पक्ष को प्राप्त कर लिया जाए, परन्तु इसका परिणाम किसी से छुपा नहीं है। आधुनिक अर्थप्रधान इस युग में बेशुमार दौलत के बावजूद शाँति, सहानुभूति कहाँ है? समाज के बहुमुखी विकास से नीतिगत व्यवस्था कहाँ तक सफल हो सकी है? नित्य नये यंत्रों, तकनीकी आविष्कारों के बाद भी इतनी अराजकता, आतंक व कटुता का वातावरण किसने पैदा किया, इस अनुत्तरित प्रश्न के पीछे झाँकने पर एक ही चीज़ दिखाई देती है और वह है बुद्धि का निरंकुश उपयोग। इसी बात को लेकर दार्शनिक से लेकर समाजशास्त्री तक एवं अधिकारी से लेकर न्यूरोसाइंटिस्ट तक सभी विचारों के साथ-साथ भावपक्ष के समन्वय की बात करते हैं। रॉबर्टकूपर ने तो बड़े स्पष्ट ढंग से घोषणा की है कि बीसवीं सदी की उपलब्धि यदि आई.क्यू. है, तो इक्कीसवीं सदी ई.क्यू की होगी।

भावसंवेदना का अभाव मनुष्य को क्रूर और बर्बर बना देता है। आज का अति सभ्य समाज और संसार संभवतः पुराने युग की ओर अग्रसर होता प्रतीत हो रहा है। आयोवा कॉलेज ऑफ मेडिसिन, यूनिवर्सिटी के न्यूरोलॉजी विभाग के अध्यक्ष आर. डोमसीसो के अनुसार वर्तमान मानवजाति के असामान्य और असभ्य व्यवहार का कारण है, संवेदनशून्यता। इन्होंने आगे स्पष्ट किया है कि मस्तिष्क के विचार केन्द्र ‘रीजनिंग’ तथा इसके लिए जिम्मेदार तंत्र ‘डिसीजन मेकिंग’ संवेदना और भावना से जुड़े होते हैं। इनका पारस्परिक साम्य ही उस संतुलन का आधार है, जिसे गीताकार ने आदर्श मानकर योग को ‘समत्वं योग उच्यते’ उक्ति से परिभाषित किया है। इन दोनों के मध्य आये व्यतिक्रम के कारण ही सारी विसंगतियाँ उठ खड़ी हुई हैं। इस समस्या का समाधान हार्वर्ड मनोवैज्ञानिक रॉबर्ट रोसेन्थाल ने सुझाया है कि विचार और भाव के सुनियोजित सम्बन्धों से बुद्धि की क्षमता और शक्ति में असाधारण रूप से वृद्धि हो जाती है। यही भावपूर्ण बौद्धिक ऊर्जा एक संतुलित व्यक्तित्व का निर्माण करती है।

भावनाशील व्यक्ति ही समझदारी एवं ईमानदारी को जीवन का एक अंग बनाते हैं। भावसंवेदना लबालब व्यक्ति एक ओर जहाँ आन्तरिक जीवन में प्रसन्न और शाँत रहते हैं, वहीं उनकी बुद्धि बाहरी दुनिया के प्रति सचेत एवं जागरूक होती चली जाती है। केवल भावना का होना भी उतनी ही हानि पहुँचा सकता है, जितना कि बौद्धिक निरंकुशता। इस तरह भाव अंतर्जगत को संचालित करता है, तो विचार बाह्मजगत् को व्यवस्थित करता है। ई.क्यू. दोनों के बीच साम्य एवं सन्तुलन बिठाता है। एम. स्काट फिट्ज गेराल्ड के अनुसार मानव मस्तिष्क में एक तरह के दो विचार उठते हैं। इन्हीं को इमोशन और आइडिया कहते हैं। अगर इन दोनों का तारतम्य रहे एवं व्यक्ति इन भाव तरंगों का सूक्ष्म विश्लेषण करे, जिसे मोटी बुद्धि नहीं जान सकती तो उसकी अन्तर्दृष्टि विकसित होने लगती है, जो जीवन के समस्त आयामों को सफलतापूर्वक देख सकती है। अमेरिका के क्राँतिकारी विचारक पित्रिम सोरोकीन ने तो यहाँ तक कहा है कि इमोशन एवं इन्ट्यूशन ही वह नींव है, जिस पर दर्शन और मनोविज्ञान का भवन खड़ा हो सका है। ग्लोबल एथिक्स इंस्टीट्यूट के संस्थापक रुशमोर कीडर का कहना है कि अनियंत्रित बुद्धि के प्रयोगों ने ही हिटलर, मुसोलिनी, स्टालिन जैसे क्रूर निरंकुश नायक विश्व को इसी सदी में दिए हैं।

जिस तथ्य को आज वैज्ञानिक भाषा में प्रतिपादित कर इतना कुछ जोर देकर प्रबंधन कला का अंग बनाए जाने की आवश्यकता बतायी जा रही है, यह चिरपुरातनकाल से हमारे ऋषिगण प्रतिपादित करते आए हैं। उनके अनुसार भावसंवेदना जब ज्ञान का अनुदान करती है, तब ही ज्ञान सार्थक होता है। “श्रद्धया सत्यमाप्यते” से आशय यही है कि श्रद्धातत्व से, भावशक्ति से अभिप्रेरित व्यक्ति ही सत्य को, इष्ट को, लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। यज्ञीय जीवन जीने के लिए मनुष्य को उसके आविर्भाव काल से ही ऋचाएँ शिक्षण देती आई हैं। यज्ञीय जीवन अर्थात् परमार्थ के लिए किया गया सत्कर्म। परमार्थ की भावना का जागरण अर्थात् अन्दर के भावसंवेदना से सराबोर होने के कारण नेतृत्व क्षेत्र में अत्यधिक सफल सिद्ध हुई है। आज पुनः भारतीय अध्यात्म का संदेश अपने बदले हुए रूप में ई.क्यू. को विकसित करने के रूप में वैज्ञानिकों की शब्दावली बनकर आया है। यदि यह भाषा हमें समझ में आ जाए व हमारी जीवनशैली वैसी बन जाए, तो जीवनरूपी उद्यान में अगणित रंगीन सुगंधि भरे पुष्प खिलने लगें। व्यक्तित्व सर्वांगपूर्ण विकसित हो, पारम्परिक प्रतिद्वंद्विता के स्थान पर सहयोग-सहकार की वृत्ति चारों तरफ दिखाई देने लगे। मानव में देवत्व, धरती पर स्वर्ग जैसे वातावरण की भविष्यवाणियाँ सार्थक सिद्ध होने लगेंगी। देर से ही सही, मनुष्य आ तो रहा है सही रास्ते पर, हमें उस परमसत्ता को इसके लिए कृतज्ञता ज्ञापित करना चाहिए।


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