बुद्धि का तो काम है पत्थर फेंकना (Kahani)

May 1998

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

देव, दानव, मनुष्य, ऋषि-मुनि गंधर्व, किन्नर तथा यक्ष सभी परेशान थे। आकाश हैरान हुआ खड़ा था, पृथ्वी स्तब्ध थी। सम्पूर्ण वनस्पतियाँ उसके अभाव में जीवनहीन-सी पड़ी थीं, किन्तु सूर्यदेव थे कि निकलने का नाम ही नहीं ले रहे थे। उन्होंने साफ मना कर दिया था उगने से। आखिर हारकर स्वयं प्राची उनके पास पहुँची। अनुनय भरे स्वर में बोली- “चलो प्रिय! तुम्हारी अनुपस्थिति में सब चेतनाहीन हो रहे हैं। बड़ी उत्कट प्रतीक्षा हो रही है तुम्हारी।”

लेकिन सूर्यदेव बहुत क्रोधित थे। शिकायत भरे स्वर में बोले - “मैं नहीं जानता था कि यह संसार इतना कृतघ्न है। अनादिकाल से जो मेरी पूजा करता चला आ रहा था देवता कह-कह कर, वही मानव अब कोरी बुद्धि के विकसित हो जाने पर मुझे केवल आग का गोला कहता है। ऐसे संसार के लिए अब मैं एक किरण तक नहीं दूँगा।”

प्राची ने सुना और तनिक गाम्भीर्य में डूब गई। फिर सूरज से बोली - “तुम इतना समझते हुए भी अनजान बन गये। प्रिय! बुद्धि का तो काम ही है पत्थर फेंकना और मन का काम है, उन्हें झेलना। मन यदि समुद्र जैसा बन जाए तो उसमें ऐसे-ऐसे जाने कितने पत्थर समा जाएँगे। हाँ! और उसे कच्चा घड़ा बना लिया तो एक ही चोट में वह टूटकर बिखर जाएगा। अब तुम जैसा उचित समझो करो, पर मन को सीमित करके नहीं।”

सूर्यदेव ने प्राची को नमन किया और अपने रथ पर आरूढ़ हो गये। तम से आच्छादित धरा प्रखर आलोक से दीप्त हो उठी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles