भारतीय तत्त्वदर्शन के अध्येता महामनीषी अलबेरूनी

May 1998

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ग्यारहवीं सदी महमूद गजनबी ने जब मध्य एशिया से पूर्व की ओर बढ़ना आरम्भ किया, तो सभी छोटे-छोटे राष्ट्रों को अपनी सीमा में मिलाता चला गया। प्रतिरोध करने वाले कोई थे भी नहीं। जो प्रतिभाएँ छोटे राज्यों में थीं, उन्हें गजनबी ने खरीद लिया व अपने अधीन कर उनसे वह करवाया, जो वह चाहता था। इन छोटे-छोटे में खीवा भी एक राज्य था, जिस पर 1017 ईसवी में महमूद गजनबी ने आक्रमण कर उसे आपने अधीन लेने का प्रयास किया। अलबेरूनी नाम के मनीषी ने एक अपवाद के रूप में बगावत का बिगुल बजाया व राष्ट्र को स्वतंत्र बनाए रखने हेतु जन-जन को उद्वेलित करने का प्रयास किया। लोगों में बाह्य आक्रमण व शोषण के प्रति विरोध का ज्वर-सा फूट पड़ा। जैसे ही महमूद गजनबी को पता लगा कि अलबेरूनी ने लोगों आक्रमण का प्रतिरोध करने हेतु उकसाया है, उनके चारों ओर शिकंजा कसा जाने लगा। उनका वहाँ रहना दुश्वार हो गया व उन्हें लेगा कि वे पराधीन राष्ट्र में रहकर सम्भवतः वह कार्य न कर पाएँ, जो उनकी अभिरुचि का था। वह भारतीय तत्त्वदर्शन व अध्यात्म मर्म का गहन अध्ययन।

भारतीय संस्कृति के इस प्रथम मुस्लिम अध्येता, ज्योतिष, धर्म-दर्शन तत्त्वज्ञान एवं खगोल-विज्ञान के क्षेत्र में पाण्डित्य अर्जित करने वाले महामनीषी के जीवन का पूरा वृत्तान्त प्रामाणिक रूप से तो कहीं नहीं मिलता, फिर भी इतिहासकारों की शोधों पर आधारित वर्णन से ज्ञात होता है कि इनका पूरा पता अब- रैहा-मुहम्मद इन अहमद अलबेरूनी था। इनका जन्म 973 ईसवी में उज़्बेकिस्तान राष्ट्र के कैथ नामक एक गाँव में हुआ था। उनके पिता ईरान से आकर दख्वरिज्म नामक नगर के निकट इस गाँव में बस गए थे। शिक्षा और अध्ययन के प्रति उनका विशेष लगाव था। स्वयं उन्होंने तो ज्ञानार्जन में विशेष प्रतिभा का विकास किया ही था, उन्हीं विभूतियों को उत्तराधिकारी के रूप में अपने बेटे के लिए उपलब्ध कराने की ओर भी उन्होंने समुचित ध्यान दिया। अलबेरूनी जब छोटे थे तभी उन्हें सुप्रसिद्ध गणितज्ञ और ज्योतिष विज्ञान के आचार्य बादबुल सरहसनी तथा अवन्सर मंसूर के पास भेज दिया गया। अपनी जिज्ञासा के बल पर अलबेरूनी ने गणित और ज्योतिष में अपनी प्रतिभा को विशेष रूप से निखारा और विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं का अध्ययन भी किया। दर्शनशास्त्र के जिन ग्रन्थों की ओर वे विशेष रूप से आकृष्ट हुए, उनमें भारतीय दर्शन के अतिरिक्त ईरानी, यूनानी तथा इबनानी दर्शन धाराएँ भी थीं। इन क्षेत्रों में फैले धर्म-सम्प्रदायों के आधार, सिद्धान्तों से लेकर रीति-रिवाजों को परिमार्जित रूप में प्रस्तुत करने की ओर भी विशेष ध्यान दिया।

वे अभी साधना में रत ही थे कि सन् 954 ई. में एक पड़ोसी राज्य ने उनकी मातृभूमि पर आक्रमण कर दिया। ज्ञान और अध्यात्म दर्शन के मूर्तिमान् इस व्यक्तित्व के लिए पराधीनता ऐसी ही थी जैसे कि खुली हवा में उड़ने के लिए पक्षी के लिए बन्द पिंजड़ा। अपनी मातृभूमि को छोड़कर वे पड़ोसी देशों के प्रमुख नगरों में भ्रमणरत रह अध्ययन करने लगे। 997 ई. में एक चन्द्रग्रहण हुआ, जिसका अध्ययन अलबेरूनी ने उपलब्ध साधनों से किया। इसी चन्द्रग्रहण को बगदाद के आबुल वफा नामक ज्योतिषी ने भी देखा। बाद में संयोगवश एक समय जब दोनों विद्वानों की भेंट हुई,तो दोनों ने अपने निष्कर्षों से एक-दूसरे को अवगत कराया। अलबेरूनी ने एक विशेष बात पर ध्यान दिया कि दोनों स्थानों पर चन्द्रग्रहण दिखाई देने के समय में अन्तर था। इस आधार पर उन्होंने एक नया प्रयोग किया, जो इतिहास में अपने ढंग से एक प्रथम प्रयास था।

इस प्रयास के बाद उनमें ज्योतिर्विज्ञान के प्रति और गहन शोध की प्रेरणा उत्पन्न हुई और उन्होंने विभिन्न राज्यों में प्रचलित पंचांगों, संवतों, दिनों की तिथियों तथा कालगणना की पद्धतियों का भी अध्ययन किया। इस विषय पर अपने अध्ययन का निष्कर्ष उन्होंने आसार अलवाकिया (पुराने राज्यों का कालक्रम) नामक पुस्तक में किया। यह ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ के वर्षों में लिखी गई थी, जिसमें ईरानी, यूनानी और मध्य एशिया में प्रचलित अन्य सम्वत् तथा इतिहास की महत्वपूर्ण जानकारियाँ संकलित की गई थीं। पुस्तक की चर्चा जुर्जान के राजदरबार में भी पहुँची और वहाँ के शासक ने अलबेरूनी की प्रतिभा का लोहा माना।

कुछ समय बाद वे अपनी मातृभूमि के स्वतंत्र होने पर लौट आए। वहाँ के शासक ने उनको सम्मानित किया और राजदरबार में उच्चपद पर प्रतिष्ठित भी किया, लेकिन वे अपनी मातृभूमि के स्पर्श-सुख का आनन्द कुछ की वर्षों तक ले पाए। सन् 1017 में महमूद गजनबी ने जब खीवा दख्वरिज्म पर आक्रमण किया और खीवा परास्त हुआ तो निर्वासित होकर वे भारत आ गए। यहाँ की संस्कृति का परिचय उन्हें भारतीय ग्रन्थों की अरबी अनुवाद से प्राप्त हो चुका था। भारत के प्रख्यात ज्योतिर्विद् ब्रह्मगुप्त के कई ग्रन्थों का अनुवाद उन्होंने पढ़ डाला था और यहाँ के धार्मिक, पौराणिक, साँस्कृतिक साहित्य का अध्ययन भी अच्छी तरह कर लिया था। ये अनुवाद अलबेरूनी के लिए आकर्षण और रुझान के मुख्य केन्द्र बन गए थे। क्योंकि अब तक उन्होंने जिस देश-प्रदेश के साहित्य या विज्ञान का अध्ययन किया था, इन सबमें भारतीय साहित्य सर्वाधिक परिश्रम और शोध के बाद लिखा गया एवं प्रामाणिक प्रतीत हुआ था।

अनुवाद जब इतने प्रभावपूर्ण हों तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि मूल कृतियाँ और अधिक उत्कृष्ट तथा ज्ञानवर्धन लगें। मूल रचनाओं का अनुवाद करते समय अनुवाद में अपने दृष्टिकोण को भी जोड़ना पड़ता है और उसमें मूलकृति से काफी भिन्नता आ जाती है। इस रचनाओं की ओर आकृष्ट किया। संस्कृत ज्ञान के अभाव में यह कार्य दुष्कर एवं दुरूह था। अतः इसके लिए उन्होंने भारतीय आचार्यों को अपना गुरु बनाया। उस समय न तो भारत पराधीन था और न यहाँ की परम्पराएँ इतनी विकृत ही हुई थीं कि किसी व्यक्ति को, जो भारतीय तत्त्वदर्शन से लाभान्वित होने के लिए उत्कंठित हुआ हो, मना कर दिया जाए। उस समय शिष्यत्व की पात्रता जाति, वर्ण, और धर्म-सम्प्रदाय के आधार पर नहीं परखी जाती थी वरन् पात्रता की कसौटी थी जिज्ञासा, निष्ठा एवं लगन।

अलबेरूनी इस कसौटी पर शतप्रतिशत खरे उतरे थे। पात्रता अर्जित कर लेने पर उसकी पूर्ति प्रकृति स्वयं करा देती है। अलबेरूनी ने संस्कृत भाषा एवं साहित्य में अपनी दक्षता ही सिद्ध नहीं की, संस्कृत वांग्मय का अध्ययन कर उसके पण्डित भी बन गए। इसके बाद जिन भारतीय ग्रंथों से वे सर्वाधिक प्रभावित हुए उनमें भगवद्गीता सर्वप्रथम था। गीता के पैने विचारों और जीवन्त सिद्धान्तों ने उन्हें मुग्ध कर लिया। उन लोगों को गीता का परिचय उन्होंने अपनी भाषा में दिया, जो भारत से बाहर बसते थे, संस्कृत नहीं जानते थे और भारतीय धर्म को हेय दृष्टि से देखते थे। गीता का प्रभाव उनके विचारों ही नहीं, कार्यों पर भी परिलक्षित हुआ। उस सनातन दर्शन के विश्वकोश की चर्चा उन्होंने अपनी बीस पुस्तकों में अनेकों स्थानों पर दी तथा इसे मानवमात्र के लिए आत्मकल्याण का शाश्वत दैदीप्यमान प्रदीप प्रदीप प्रतिपादित किया। अरबी जनता जो अब तक भारतीय धर्म को कुफ्र की निगाह से देखती थी, अलबेरूनी के माध्यम से गीता का परिचय प्राप्त कर उसे आत्मसात् कर मुक्त कंठ से इसकी प्रशंसा करने लगी।

भारत में आकर सर्वप्रथम अलबेरूनी ने ज्योतिष ग्रंथों का अध्ययन कर उनका अनुवाद किया। उनकी मान्यता थी कि मुस्लिम देशों में रहने वाले भाई ज्योतिष की इसलिए उपेक्षा करते हैं कि उन्हें भारतीय ज्योतिष विज्ञान का परिचय अभी तक नहीं मिला है। उन्हें इस विषय की पुस्तकें पढ़ने का अवसर ही कभी प्राप्त नहीं हुआ। यदि वे भारतीय ज्योतिर्विदों की वैज्ञानिक गवेषणाओं से परिचित हो सके, तो बहुत सम्भव है कि अपने ज्ञान के भण्डार को और भी बढ़ा लें। इस दिशा में उन्होंने प्रयास भी किए और अपने समाज की कमियों को दूर करने के लिए बाराहमिहिर की बृहत् संहिता तथा लघुजातक का उन्होंने अरबी में अनुवाद किया। इसके बाद चिकित्सा-विज्ञान में भारतीय शोधों को अपना रुचि का क्षेत्र बनाया और उस समय उपलब्ध चरक संहिता का अरबी में अनुवाद किया।

तदुपरान्त उन्होंने समस्त भारतीय दर्शन का अरबी में अनुवाद किया। सांख्य और योगदर्शन का उन पर सर्वाधिक प्रभाव हुआ। इसके बाद वे गीता की ओर आकृष्ट हुए। तारीखल हिन्दू एक ऐतिहासिक कृति है-जिसमें सैकड़ों स्थानों पर गीता के श्लोक उद्धृत किए है। यह एक प्रकार से तत्कालीन भारत का इतिहास, दर्शन और संस्कृति विषयक विश्वकोष है, जो उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रंथ है। अस्सी अध्यायों में उन्होंने युगों की कल्पना ईश्वर सम्बन्धी, धारणा, आत्मा और कर्म का सिद्धान्त, पुनर्जन्म, स्वर्ग, नरक, मोक्ष, मूर्तिपूजा और विभिन्न प्रतिमाओं के पीछे रहस्यों का वर्णन किया है। इसमें वेद, पुराण, दर्शन ज्योतिष, भूगोल, सृष्टि की विभिन्न जातियों का विवेचन, आर्यों का भौगोलिक परिचय, यज्ञ, दान, विवाह, संस्कार आदि विषयों का समावेश एवं विवेचन किया है।

भारतीय विचारों से प्रभावित होने के बावजूद भी उन्होंने किसी विचार को केवल इसलिए नहीं मान लिया कि वह जनप्रिय और लोकप्रचलित है वरन् तर्कपूर्ण दृष्टि से खोज करने के बाद ही उन्होंने से अपनाया। ज्योतिष में वे ब्रह्मगुप्त से सर्वाधिक प्रभावित थे, फिर भी उन्होंने चन्द्रग्रहण के सम्बन्ध में ब्रह्मगुप्त की राहु से ग्रसने वाली परम्परागत धारणा की अमान्य कर दिया। जबकि इस समय तक आर्यभट्ट ने अपनी वैज्ञानिक खोजों के आधार पर यह सिद्ध कर दिया था कि चन्द्रग्रहण वस्तुतः चन्द्रमा पर पृथ्वी की छाया मात्र है। इस परम्परा-भक्ति के लिए अलबेरूनी ने ब्रह्मगुप्त को भी स्वीकार न कर आर्यभट्ट के सिद्धान्तों की ही पुष्टि की।

उन्होंने स्वयं भी कई वैज्ञानिक खोज की और तत्कालीन ग्रन्थकारों में सर्वोपरि स्थान भी प्राप्त किया। अलबेरूनी के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उन्होंने 146 पुस्तकें लिखी, परन्तु अधिकाँश पाण्डुलिपियाँ अब अनुपलब्ध हैं। भारतीय विद्वत्समाज में भी उनकी अच्छी-खासी प्रतिष्ठा थी और वे थे भी सर्वतोमुखी प्रतिभा से सम्पन्न एक विद्वान, वैज्ञानिक एवं विचारक। इन तीनों प्रवृत्तियों का उनमें ऐसा समन्वय था, जो बहुत कम ही दृष्टिगोचर होता है। साधन और सुविधाओं के अभाव में प्रतिकूलता को चीरकर वे आगे बढ़े तथा प्रगति की मंजिल पाई। बाधाएँ, कठिनाइयाँ एवं रोड़े तो हर व्यक्ति के जीवन में आते हैं, किन्तु प्रतिभाशाली, पुरुषार्थी उनमें घबराते नहीं। आज जब प्रतिभाएँ राष्ट्र को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का गुलाम बनाने को उतारू हैं, राष्ट्र एक और गुलामी की ओर बढ़ता दीखता है, तो एकमात्र मार्ग भारतीय तत्त्वदर्शन का आश्रय ले हर प्रतिभा के धनी को भोगवादी जीवन की सुविधा से परे हटकर सोचने को विवश करने का ही नजर आता है। अगले दिनों महाकाल यह करेगा भी।


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