जहाँ बाँस के फूल विभीषिका का संकेत बनकर आते है।

May 1998

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प्रकृति में कितनी ही प्रकार की घटनाएँ घटती रहती है। कुछ को शुभ-संकेत के रूप में देखा जाता है और कइयों को अशुभ का आगमन माना जाता है। इन घटनाक्रमों का शुभ-अशुभ से प्रत्यक्षतः कोई संबंध नहीं, इतने पर भी कई बार दोनों का तारतम्य कुछ इस प्रकार बैठता है कि उसे देखकर लगता है कि मानो उक्त घटना के कारण ही प्रस्तुत विपत्ति आई है।

समय-समय पर ऐसे प्रसंग प्रकाश में आते रहते है। पिछले दिनों असम के उत्तरी कछार जिले और मिजोरम में जब जंगली बाँस में पीले एवं चमकीले बैंगनी रंग के फूल खिले, तो उन्हें देखकर स्थानीय लोग भयभीत हो उठे और मन तरह-तरह की शंका-कुशंकाओं से गसत हो गया। इन बाँसों की दो प्रकार की प्रजातियाँ वहाँ पायी जाती है। एक को ‘थिंग ताम’ कहते हैं तथा दूसरे को ‘मऊ ताम’। दोनों की फूल खिलने की अवधि पृथक्-पृथक् है। 20 वर्ष के अन्तराल पर खिलने वाली को ‘ थिंगताम’ एवं हर 50वें साल पुष्पित होने वाली प्रजाति ‘ मऊताभ’ कहलाती है। उनका खिलना वहाँ विपदा का संकेत माना जाता है।

इस बार ‘थिंगताम’ की बारी है। ‘थिंगताम’ अर्थात् छोटा अकाल। जब यह पुष्प निकलते है, तो विभीषिका का प्रकोप छोटे स्तर का होता है, किन्तु ‘ मऊताम’ भीषण और भयावह अकाल का संकेत लेकर आता है।

सन् 1962 में ‘मऊताम’ का प्रकोप शिखर पर था। तत्पश्चात 1977-78 में ‘थिगताम’ की विभीषिका आई। अब 20 वर्ष बाद फिर उकसा समय आ गया है। वास्तव में यह दोनों विपत्तियाँ बाँस के जंगलों के जीवनचक्र से जुड़ी हुई हैं। कृषि वैज्ञानिकों का अनुमान है कि ‘मऊताम’ का अगला चक्र सन् 2007 में असम और मिजोरम को बुरी तरह अपनी चपेट में लेगा। उनका कहना है कि असम पर इसका आँशिक असर पड़ेगा और उसके कुछ हिस्से ही उससे प्रभावित होंगे। पर मिजोरम सम्पूर्ण रूप से भुखमरी के कगार पर होगा।

ऐसा क्यों होता है? क्या बाँस के फूल अमंगल और आपदासूचक है? नहीं, यथार्थ में दुनिया में शुभ-अशुभ कुछ भी नहीं है। जो है, वह सब सापेक्ष है। यहाँ किसी को एकदम बूरा और किसी को बिलकुल भला कहना भी ठीक नहीं। यह सब कुछ स्थिति, परिस्थिति और अवस्था पर निर्भर है। दिन के उजाले में कार्य करने वालों को रात की कालिमा नहीं सुहाती, पर चोर-उचक्कों के लिए वही वरदान सिद्ध होती है। खून-खराबे को उचित कैसे ठहराया जाए? लेकिन आमतौर पर इसके दो प्रारी के परिणाम सामने आते है। समाज में आतंक फैलाने वालों के मारे जाने पर उसके साथी-रिश्तेदार गम के आँसू बहाते है।, जबकि समाज चैन की साँस लेता और खुशियाँ मनाता है। विजय विजेता के लिए जहाँ अपार खुशियाँ लेकर आती है, वहीं दूसरी ओर प्रतिपक्ष को दुःख के गहरे सागर में डूबो जाती है। घटना एक ही है, पर उसके दो प्रकार के नतीजे सामने आते है।

ठीक उसी प्रकार बाँस के फूलों का खिलना न तो पूरी तरह अशुभ है, न बिलकुल शुभ ही। वास्तव में इसे शुभाशुभ का मिश्रण कहना ज्यादा समीचीन होगा, कारण कि एक ओर जहाँ यह सर्वसाधारण के लिए दुर्भिक्ष जैसी विपदा लेकर आता है, वहीं दूसरी ओर जंगलों में निवास करने वाले वनवासियों की आहार संबंधी समस्या का हल भी जुटाता है। इस दौरान जंगली चूहों की संख्या में होने वाली असाधारण वृद्धि से भोजन के लिए वे कई महीनों तक निश्चित हो जाते है, इस प्रकार एक साथ जहाँ यह प्राकृतिक घटना प्रिय है, वहीं अप्रिय भी।

आखिर इस घटना से अकाल का क्या संबंध है? इस बारे में कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि यों तो प्रत्यक्ष रूप में इस घटना का दुर्भिक्ष से कोई सीधा संबंध नहीं है, फिर भी परोक्ष रूप में वह इसके लिए जिम्मेदार तो है ही। साठ के दशक में इसके कारण उपस्थित हुए भीषण अकाल का उल्लेख करते हुए वे कहते हैं कि तब बाँस फूलों का विशाल गुच्छा जैसे लगते थे। थोड़े समय पश्चात् इनमें बीज पैदा हुए और पककर झड़ने लगे। खाने पर उनकी प्रजनन क्षमता में असाधारण वृद्धि हुई। साधारण स्थिति में एक चुहिया एक बार में सामान्यतया पाँच तक बच्चे देती है, किन्तु बाँस के बीज खाने के बाद वे एक बार में बीस-बीस बच्चे देने लगी। कुछ ही महीनों में पूरा इलाका चूहों से भर गया। इस विशाल आबादी के लिए आखिर वह बीज कब तक काम आते। जल्द ही वे समाप्त हो गए और उनके आगे खाद्य संबंधी गंभीर समस्या उत्पन्न हो गई। स्वयं को जीवित रखने के लिए आहार जरूरी था, सो वे झूम खेतों पर टूट पड़े। उन दिनों उनमें धान की फसल लगी हुई थी। एक ही रात में 20 एकड़ धान की फसल को वे चट करने लगे। फसल सफाया करने के उपरान्त अन्न के गोदामों पर उनका आक्रमण हुआ और उन्हें भी उदरस्थ कर गए। परिणाम यह हुआ कि वहाँ के लोगों को भयंकर भुखमरी का सामना करना पड़ा। आज का मिजोरम तब असम का लुसाई पर्वतीय जिला कहलाता था। साठ के दशक में आई विपत्ति को याद कर वे आज भी काँप उठते है।

असम के उत्तरी कछार जिले को भी समय-समय पर उक्त आपदा झेलनी पड़ी है। सन् 1956 और 1962 में वहाँ चूहों ने भारी उत्पात मचाया था। उन दिनों खाद्यान्नों और सब्जियों की इतनी किल्लत हुई कि उनके भाव आकाश चूमने लगे। बाद में गुवाहटी उस अनाज आपूर्ति के उपरान्त दशा कुछ सँभली, पर फिर भी लुसाई पर्वतीय जिले (वर्तमान मिजोरम) के लिए स्थिति विषम ही बनी रही। हेलीकॉप्टरों से जो चावल के बोरे गिराये गए, वह फट गए, और अनाज जंगलों में बिखर गया, जिन्हें बटोर पाना असंभव था। इसी विकट परिस्थिति ने मिजोरम उग्रवाद को जन्म दिया।

किसी घटना का प्रिय - अप्रिय होना इस बात पर निर्भर है कि उससे व्यक्ति अथवा समाज को क्या हानि और कितना लाभ हैं? लाभ-हानि की व्याख्या-विवेचना व्यक्ति के निजी चिंतन, व्यवहार स्थिति और परिस्थिति पर अवलम्बित है, अतः यह करने में हर्ज नहीं कि शुभ-अशुभ की नाप-तौल सबके लिए अलग-अलग है। समय, परिस्थिति और आवश्यकता के हिसाब से वह बदलती रहती है, अस्तु किसी एक स्थिति या घटना को एकदम अशुभ मान बैठना उचित नहीं।


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