परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी- - धर्मग्रंथ हमें क्या शिक्षण देते हैं, यह जानें

May 1998

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रामायण की प्रगतिशील प्रेरणा पर परमपूज्य गुरुदेव की प्रवचन-श्रृंखला जून, 1975 का एक अमृतकण

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

देवियो, भाइयो! पिछले दिनों जन्माष्टमी के अवसर पर हमने आपको यह बतलाया था कि भगवान अपनी लीला के माध्यम से किस तरह से व्यक्ति, परिवार एवं समाज निर्माण के अपने लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। हमारा लक्ष्य भी ध्रुव की तरह साफ है। हम व्यक्तिनिर्माण की बात करना चाहते हैं, परिवार का स्तर, जो नष्ट हो गया है, उसका हम विकास करना चाहते हैं। हम व्यक्ति और समाज के बीच की कड़ी की स्थापना करना चाहते हैं, जिसका नाम परिवार है। इसी में से हीरे, मोती, जवाहरात निकलते हैं। वह आज चरमरा गया है। उसे हम ठीक करना चाहते हैं। परिवार को हमें शिक्षित करना है, संस्कारित करना है। लोग विलायत पढ़ने जाते हैं, परन्तु संस्कार कहीं से लेकर नहीं आते हैं।

बच्चा जब माँ के गर्भ में होता है, तब से लेकर तीन साल तक, जब तक वह कुछ बड़ा होता है, उसकी अस्सी प्रतिशत शिक्षा समाप्त हो जाती है।भावना, संवेदना के संदर्भ में वह सब सीख जाता है। अगर आप पाँच साल के बच्चे बन जाएँ तो मेरी समझ से आपके संस्कार को जाग्रत करने का समय लगभग एक वर्ष नौ महीने पहले ही समाप्त हो गया था। बचपन ही संस्कार का महत्वपूर्ण समय है। आप पब्लिक स्कूलों में हजारों रुपये महीने का शिक्षण दिला सकते हैं, जहाँ बच्चा क्रीज किया हुआ कपड़ा पहनना, जूते पर पालिश करना, 'थैंकयू वेरीमच' कहना सीख जाएगा, परन्तु जो संस्कार परिवार के अंतर्गत दे पाते हैं, वह कदापि इन स्कूलों में संभव नहीं है। संस्कार कहाँ से आता है? वह माँ-बाप से आता है?

हम खुशबूदार परिवार बसाना चाहते हैं

मित्रो, आज परिवार संस्कार का नाश हो गया है। आज कहीं भी हमें परिवार दिखलाई नहीं पड़ते हैं। वे काम-वासना के क्रिया−कलाप वाले मात्र केन्द्र रह गए हैं। उनके अन्दर यह ख्याल तथा प्रयास कहाँ है कि परिवार के अंतर्गत वे सोचें कि हमें परिवार, समाज, देश एवं संस्कृति के लिए एक महान रतन देना चाहिए, जो प्रगति कर सके। दो आदमी मिलकर एक तीसरी महान आत्मा बनाएँ-ऐसा साहस किसी में नहीं है। आज परिवार वासना प्रधान बन गया है। ऐसी स्थिति में हम एक नया परिवार बसाना चाहते हैं, जिसमें से बेहतरीन चीजें निकल सकें। हम खुशबूदार परिवार बसाना चाहते हैं। मित्रो, चन्दन के जंगल के पास जो भी पेड़ उगते हैं, वे खुशबूदार होते हैं। हम चाहते हैं कि एक ऐसा ही परिवार बने। जर्मनी में हिटलर ने एक नया जोश-खरोश पैदा किया, तब बाकी कमजोर लोग सलवार एवं स्मार्ट ड्रेस पहनने लगे तथा अन्दर-बाहर से मजबूत बनने लगे। हम परिवार एवं समाज का वातावरण अच्छा बनाना चाहते हैं। शालीनता का, व्यावहारिकता का वातावरण पैदा करना चाहते हैं, ताकि इनसान को देखकर परिवार एवं समाज की स्थिति को समझ-बूझ सके। आज हमारे अन्दर हैवान काम कर रहा है। वह केवल इनसान का चोला पहन आया है। अभी हमारे अन्दर का महामानव, ऋषि, भगवान, संत कहाँ जागा है? वैसा जीवन कहाँ आया है? हम चाहते हैं कि हम इनसान का जीवन जिएँ, ऋषि एवं संतों का जीवन जिएँ, मानवता का जीवन जिएँ तथा देश एवं समाज का उत्थान करें।

महामानवों के जीवन चरित्र हमारे इष्ट बनें

मित्रो, हम अपने आपको तथा दूसरों को नसीहत देने के लिए चले हैं। हम मिशन की एक रूपरेखा बना कर चल पड़े हैं। आपको इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हमें मंजिल तक चलना है। महापुरुषों का, महामानवों का जीवन चरित्र हमारी मंजिल है, जहाँ तक हमें चलना है। यह हमें ध्यान रखना चाहिए। जितने भी महापुरुष हुए हैं, उनकी शिक्षा, उनकी वाणी हमारे लिए उपयोगी है, परन्तु इस से भी महत्वपूर्ण है उनकी जीवन जीने की कला, जो कि हमें सीखनी चाहिए और उससे प्रेरणा लेनी चाहिए तथा अपना आ-म-विकास करना चाहिए। महापुरुषों ने जिन्दगी को कैसे जिया, असल में प्रेरणा हमें वहाँ से मिलती है। उन्होंने क्या कहा, यह हमें मालूम नहीं है। अगर हम जिन्दगी भर बकवास करते हुए उसे समाप्त कर दें तो भी उसका कोई प्रभाव समाज पर नहीं होगा। क्योंकि उस सिद्धान्त को, जो हम कहना चाहते हैं, उसका समावेश हमने अपने जीवन में नहीं किया है। इस कारण से उसका कोई प्रभाव नहीं होने वाला है। हमारे महापुरुषों, अवतारों की कथाएँ इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि उनकी वाणी तथा कर्म फर्क नहीं था।

मन, वाणी और कर्म जब एक जगह मिल जाते हैं, तो त्रिवेणी संगम बन जाता है। उस समय आदमी शक्तिपुंज बन जाता है। साहसी, ताकतवर बन जाता है। उस समय उसकी आँखों में से बिजली निकलती है। उस समय उसका व्यक्तित्व मनुष्य के ऊपर छाया हुआ नजर आता है तथा वह व्यक्ति सूर्य की तरह चमकता हुआ नजर आता है। मन, वाणी, कर्म में एकरूपता का समावेश जिसमें हो जाता है, उसे हम भगवान, महामानव, अवतार, ऋषि, संत व देवता कहते हैं। उनके चरणों की हम वन्दना करते हैं। उनसे हम प्रेरणा ग्रहण करते हैं। समुद्र में लाइट हाउस होता है, जो आने वाले जहाजों को दिशा का ज्ञान कराता है। उसी प्रकार ये लोग करते हैं तथा समाज के उत्थान के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। आप भी भगवान हैं तथा अवतारी चेतना हैं। रामायण में कहा गया है-ईश्वर जीव अंश अविनाशी।” अतः आप सभी भगवान हैं। कलाओं के हिसाब से भगवान का मूल्याँकन किया जाता है। परशुराम जी तीन कला के तथा भगवान राम बारह कला के और श्रीकृष्ण सोलह कला के थे। ये सब कलाएँ हार्सपावर हैं। एक बार परशुराम जी में एवं रामचन्द्र जी में लड़ाई-झगड़ा होने लगा। प्रश्न यह था कि एक समय में क्या दो भगवान हो सकते हैं? हाँ हो सकते हैं। दोनों में लड़ाई-झगड़ा होने लगा कि असली भगवान कौन है तथा नकली भगवान कौन है? आप और हम भी लड़ाई लड़ सकते हैं, क्योंकि आप लोग भी एक अंश भगवान का धारण किये हुए हैं। हम नहीं जानते हैं कि असली भगवान कौन है तथा नकली भगवान कौन है?

लोकोपयोगी प्रेरणा देते हैं धार्मिक दृष्टान्त

मित्रो, पिछले दिनों जन्माष्टमी के अवसर पर हमने आपको यह बतलाया था कि हमें उक्त बात को समझना चाहिए तथा इन अवतारों के कथानकों को लेकर समाज के बीच में जाकर लोगों को प्रेरणा देनी चाहिए। क्योंकि हमारा देश गाँवों से भरा अधिकाँश व्यक्ति कम पढ़े-लिखे हैं, उन्हें हम केवल सरल शब्दों में समझा सकते हैं। इस कार्य में कथानक बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। इस प्रकार धार्मिक विचारधारा के द्वारा ही हम लोगों को समझा सकते हैं। महात्मा गाँधी ने भी धार्मिक विचारधारा को साथ लिया तथा प्रार्थना को स्थान दिया।”“रघुपति राघव राजा राम। पतित पावन सीता राम।”“ इस प्रकार उन्होंने रामराज्य की दुहाई दी। उन्होंने धर्म की जय बोली। धार्मिक विचारधारा के अलावा इस देश की जनता को हम किसी कार्य के बारे में समझा नहीं सकते हैं। उन्होंने हिंसा का रास्ता न अपनाकर “अहिंसा परमोधर्मः” की बात बतलायी। उन्होंने यह कहा कि भारत में पैसे व अस्त्र-शस्त्र की कमी है। हम अंग्रेजों से इस मामले में विजय नहीं पा सकते। अतः हमें अहिंसा का रास्ता ही अपनाना होगा। उन्होंने इसी रास्ते पर चलते हुए अंग्रेजों को झुका दिया। गाँधी को वे जादूगर कहते थे।

धर्म ही एकमात्र धुरी नवनिर्माण की

हम यहाँ के लोगों को फिजिक्स, सिविक्स, सोशियोलॉजी नहीं समझा सकते। यह समझाना बहुत ही कठिन है।हम केवल धर्म के आधार पर ही समझा सकते हैं।धर्म हमारी जीवात्मा की भूख है। यह दोनों ही परिस्थितियाँ हिन्दुस्तान की फिलॉसफी-दर्शन के अनुसार तथा यहाँ की गई-गुजरी परिस्थिति के हिसाब से आवश्यक हैं। परिवार के लोगों को संस्कारवान बनाने तथा समाज के लोगों को नसीहत देने, दोनों के लिए धर्म से बढ़कर कोई दूसरा साधन नहीं है। इसमें अपने क्रिया−कलाप तथा व्याख्यान दोनों की संगति बिठाना परम आवश्यक है, तभी हम इस का प्रभाव दूसरों पर डाल सकते हैं। महापुरुषों, संतों ने इसी प्रकार अपने जीवन में धारण किया, जिसका प्रभाव समाज, देश व संस्कृति पर पड़ा। श्रीकृष्ण भगवान के गीता के व्याख्यान से ज्यादा महत्वपूर्ण यह जानना आवश्यक है कि उनका व्यवहार और कार्य कैसा था। आचार्य जी के जीवन के 65 पन्नों को देखना होगा, पढ़ना होगा, तभी आप आचार्य जी को समझ सकते हैं।

जनमानस का परिष्कार होगा जीवन-चरित्र की प्रेरणाओं से साथियों हम आप से यह निवेदन कर रहे थे कि हमें लोकमंगल के कार्य के लिए जनमानस का परिष्कार करने के लिए महामानवों के चरित्र को लेना पड़ेगा। उसके माध्यम से ही जनचेतना जगाने का कार्य करना पड़ेगा, तभी वह प्रभावकारी हितकारी सिद्ध हो सकती है। परन्तु एक बात आपको बतलाना चाहता हूँ कि कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं है। जो भी इस मनुष्य शरीर में आया है, वह कहीं-न-कहीं अवश्य गलती कर रहा है। इसलिए हमें अच्छे चेहरों का फोटो खींचने व दिखाने के स्थान पर उनके चरित्र का जो अच्छा पक्ष है, श्रेष्ठ गुण है, उसको लेना चाहिए। उनकी बुराइयों पर हमें ध्यान नहीं देना चाहिए। अगर आप गुरुजी की टट्टी-पेशाब करते समय फोटो खींचेंगे, तो आप को यह देखकर उल्टी हो जाएगी तथा हम आपको बहुत घिनौने मालूम पड़ेंगे। अतः आपको हमारी फोटो उस समय नहीं खींचनी चाहिए, जब हम टट्टी-पेशाब कर रहे हों। आपको केवल हमारे चेहरे का फोटो ही नहीं लेना चाहिए, हमारा जीवन भी औरों को बताना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण के शादी-विवाह के मामले को हमने कभी भी नहीं लिया है। हमने अपने पिताजी तथा माताजी के उस दृश्य को भी नहीं देखा है, जब वे आपस में हँस-बोल रहे थे। श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ क्या रास किया, क्या मनोरंजन किया, हमें नहीं देखना है, क्योंकि वे हमारे पिता हैं। पिता के वे रूप देखना हमें पसन्द नहीं है। जैसे दृश्य को देखकर हमारी आँखें बन्द हो जाती हैं, झुक जाती हैं-वैसे दृश्य को हम देखना नहीं चाहते हैं। हमें उनके शिक्षण वाला पहलू चाहिए, हमें उनका चक्र सुदर्शन वाला पहलू चाहिए। हमें उनका गीता का उपदेश सुनाता हुआ पहलू चाहिए, जिससे हम प्रेरणा एवं मार्गदर्शन प्राप्त कर सकें।

मित्रो, दूसरा वाला पहलू जो हम आपको बतलाना-सिखाना चाहते हैं, वह रामायण वाला पहलू है। वह भगवान राम के द्वारा दिया गया शिक्षण है, जो हम आपको बतलाना चाहते हैं। रामायण में राम का जो शिक्षण है, प्रेरणा है, उस ओर हम लोगों को घसीटकर ले जाना चाहते हैं। हाथी एवं घोड़े को रस्सी से बाँधकर, घसीटकर ले जाते हैं। हम जनसामान्य को, मनुष्य समुदाय को भी इसी प्रकार से घसीटना चाहते हैं। इनकी रस्सी क्या होगी? महामानवों के जीवन-चरित्र श्रीराम, श्रीकृष्ण का जीवन-चरित्र जिसको हम आपको पढ़ाते हैं। वाल्मीकि रामायण के उस पहलू को, जो हमारे उद्देश्य के काम आ सकते हैं, उसे भी हम आपको पढ़ाना चाहते हैं। अतः आप सभी से प्रार्थना है कि आप जब कभी भी जनता के बीच जाएँ या आप स्वयं पढ़ें, उस समय आप केवल ये बातें लोगों को बतलाने का प्रयास करें, जो प्रेरणादायक हों तथा हमारे उद्देश्यों को पूरा कर सकती हों। आप उन कथानकों का खण्डन–मण्डन न करें, उस समय आप चुपचाप हो जाएँ। जैसे रामायण में एक कथा आती है कि एक धोबी आता है और रामचन्द्र जी उसके कहने पर सीताजी को त्याग देते हैं। यह आपको नहीं मानना चाहिए।

हमारी नयी रामायण में है प्रेरणा-मार्गदर्शन

हमने इसी उद्देश्य से एक नई रामायण का सृजन किया है, जिसमें केवल काम की बातों की गुँजाइश है। इसमें प्रेरणा है, मार्गदर्शन है। हम चाहते है कि आप इन बातों को मानें, शिक्षा ग्रहण करें तथा समाज को रामायण के माध्यम से इन बातों को बतलाये। अगर आप इन बातों को समाज में बतलाने का प्रयास करेंगे तो प्रबुद्ध वर्गों के बीच रामायण अंध-विश्वास मूढ़-मान्यताएँ फैलाने वाला ग्रंथ बन जाएगा और दुनिया का सत्यानाश कर देगा। श्रीकृष्ण की यह बात कि रुक्मिणी का भाई उनकी शादी नहीं करना चाहता था, परन्तु श्रीकृष्ण उसे भगाकर ले गये तथा शादी कर ली, यह बात हमें नामंजूर है। किसी लड़की को इस तरह भगाना न्यायसंगत नहीं है। यह गलत बात हमें नामंजूर है। अतः आपको आगाह किया है कि रामायण की कथा बतलाते समय इस तरह की बातों न करें जो नैतिकता पर आघात पहुँचाएँ और लोगों के विचारों को गलत कर दें। अतः आपको सावधान रहना चाहिए।

मित्रो, गलती हर आदमी से हो सकती है, रामचन्द्र जी से भी हो सकती है। श्रीकृष्ण भगवान से भी हो सकती है। साथियों हम नहीं जानते हैं कि कौन विश्वामित्र है और विश्वामित्र नहीं है। कितना अंश उनका पूजने योग्य है, कितना नहीं, यह हम नहीं जानते हैं। हमें तो अच्छे अंश की आवश्यकता है, उसका ही पूजन करते हैं। विश्वामित्र ने मेनका से शादी की थी कि नहीं की थी, यह हम नहीं जानते हैं। हम यह जानते है कि हर आदमी में कच्चाई होती है। गाँधी जी में कच्चाई हो सकती है, तो हर आदमी में कच्चाई हो सकती है। हमें तो इसके अच्छे पहलुओं की आवश्यकता है। उनकी शराफत एवं दिशाओं से मतलब है। अगर ये दृष्टिकोण आपका होगा तो आप गीता, रामायण, भागवत् सुना सकते है और प्रेरणा दे सकते हैं। अगर ये दृष्टिकोण नहीं रखेंगे तो आप अपना भी सत्या नाष करेंगे तथा रामचन्द्र जी एवं श्रीकृष्ण जी का भी सत्यानाश करेंगे। हम चाहते हैं कि आपका अपना दृष्टिकोण हो। आपको किसी को भी अपनी अकल नहीं बेचनी चाहिए। आपको हमने श्रीकृष्ण जी की कथा के बारे में बतलाया था। आज मैं आपको रामचन्द्र जी की कथा के बारे में बतलाना चाहता हूँ कि आपको किस तरह से कथा सुनाना चाहिए।

सुसंतति कैसे

रामचन्द्र जी की कथा श्रीकृष्ण जी की तरह ही है। कथा आती है कि मनु-शतरूपा ने तय किया था, तो दशरथ रूप में पैदा हुए। मित्रो, तप करने से ही अच्छे एवं सुसंस्कारी बच्चे पैदा हो सकते हैं। आप लोग तो कहते हैं कि गुरुजी हमें आशीर्वाद दीजिए कि हमारा बेटा ठीक हो जाए। बेटे, तेरे घर में अच्छे बच्चे नहीं हो सकते। तेरे घर तो रावण पैदा होंगे, मेघनाद पैदा होंगे। अगर अच्छे बच्चे पैदा करना है, तो आपको तप करना होगा। तप करने का अर्थ है- शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं को ठीक करना होगा। आप जब स्वयं संस्कारवान बनेंगे, तभी आप संस्कारवान बच्चे पैदा कर सकते हैं। अगर साँचा-ठप्पा ठीक नहीं है, तो खिलौना कैसे ठीक बनेगा। इसके लिए अपने आप को गलाइये।

मित्रो, यज्ञीय वातावरण में संस्कारवान बच्चे पैदा होते हैं। एक कथा आती है कि दशरथ जी द्वारा यज्ञ किया गया था और उसके बाद चरु-खीर बाँटा गया था, तो उससे चार भगवान राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न पैदा हुए थे। गुरुजी आप हवन करा सकते है और हमारी बीबी को दो बच्चा दे सकते हैं? बेटे हम नहीं करा सकते हैं। आप पहले अपने परिवार में इस तरह का त्यागमय वातावरण बनाइये, जैसे की दशरथ के यहाँ था और जैसा राम-सीता लक्ष्मण उर्मिला आदि का त्यागमय जीवन था। वैसा वातावरण आपके घर-परिवार का होगा, तभी यह हो सकता है। उर्मिला का त्याग सीता से भी ज्यादा है। उर्मिला ने कहा कि मेरा पति मेरा आदर्श-सिद्धान्त है, जो सदैव हमारे साथ है, अतः हमारा वन जाना उचित नहीं है। लक्ष्मण का जाना आवश्यक है। बड़े भाई की सेवा करना उनका परम कर्तव्य है। जिस घर में ऐसा वातावरण होगा, वहाँ संस्कारवान बच्चे पैदा होंगे। रामचन्द्र जी और भरतजी गेंद खेल रहे थे। भरत जी खेलने में कमजोर थे, परन्तु रामचन्द्र जी उन्हें बार-बार जीता देते थे। अपने से छोटों की हिम्मत और इज्जत बढ़ा देने में ही महानता है-हारा आदमी जीत जाता है। रामचन्द्र जी ने भरत को गुलाम बना लिया। सारी जिन्दगी वे राम के गुलाम रहे। यह है भगवान का स्वभाव, जो कि हमारे लिए प्रेरणा लेने एवं देने लायक है। ऐसे ही भगवान को लोग मानते हैं। आज घटिया भगवान को कोई नहीं मानता है।

भगवद् तत्व के मर्म को समझो

एक बार कौशल्या जी रामचन्द्र जी को पालने में झुला रही थी, उस समय भगवान ने वही गीता वाला ज्ञान दिया कि भगवान इनसान के रूप में ही हो सकता है। विराट ब्रह्म को, निराकार को कौन देख-समझ सकता है। निराकार भगवान तो ऊँचे विचारों में है, आदर्शवादिता में है, उत्कृष्ट चिन्तन में है, भलाई में है। साकार मानना है तो सारा समाज ही, सारे समाज के लोग ही भगवान हैं।

आज लोग अपने-अपने भगवान के लिए लड़ते रहते हैं। कोई कहता है कि हमारा भगवान चूहे पर सवारी करता है, तो कोई कहता है कि हमारा भगवान हाथी पर सवारी करता है। तो कोई कहता है कि हमारा भगवान हंस पर सवारी करता है। अरे भगवान तो एक है और मनुष्य है कि सवारी के लिए लड़ता है। हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई के भगवान एक हैं। भगवान हिन्दू, मुस्लिम सबके लिए होगा, तो सफेद रंग का ही होगा। इसमें फर्क हमने और आपने पैदा कर दिया है। सूर्य, चन्द्र जब एक ही हो सकते है तो भगवान दो कैसे हो सकते हैं? मन्दिर में रखे हुए भगवान जड़ हैं, हम इसके द्वारा अपनी भावना को जाग्रत करते हैं। इसमें कोई चमत्कार नहीं है। चमत्कार है तो मनुष्य की भावना में है। यह कूड़े में, गोबर, लकड़ी, पत्थर सबमें हो सकता है। आप भगवान की पूजा करते हैं, तो भगवान के बारे में जानने का भी प्रयास करें, तभी आपको सही बातें मालूम पड़ेंगी। रामचन्द्र जी ने विराट ब्रह्म के बारे में काकभुसुण्डि एवं कौशल्या को दिखाया और कहा कि इसकी सेवा करना ही भगवान की पूजा है। इसे हर व्यक्ति को समझना चाहिए।

तपस्वी जीवन की प्रेरणा

भगवान के भक्त के लिए हीरा तराशना आवश्यक है अर्थात् अपनी अन्तश्चेतना को परिष्कृत करना आवश्यक है। इसके लिए तप करना आवश्यक है। विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को इसके लिए जंगल में ले गए और कहा कि तप करना आवश्यक है। वहाँ कन्द-मूल आपको मिलेगा और वही खाकर रहना पड़ेगा। आपको वहाँ मक्खन और डबल रोटी नहीं मिलेगी। चलिए वहाँ रहिए और वे तप करने चले गये। उन्होंने कहा कि अनीति से विरोध करना पड़ेगा, आदर्श पद्धति का अवलम्बन लेना पड़ेगा। समाज को ऊँचा उठाने के लिए तप करना यानी तपस्वी का जीवन जीना होगा। वे सहर्ष तैयार हो गए एवं चले गए। इसके बाद ही भगवान कहलाए। महापुरुषों के लिए इसी प्रकार के प्रशिक्षण की आवश्यकता पड़ती है।

आदर्श विवाह किस प्रकार

राजा जनक के चार लड़कियाँ थीं। राजा दशरथ के यहाँ एक यज्ञ हुआ था जिसके फलस्वरूप चार लड़के पैदा हुए। इन चारों का जनक की पुत्रियों से विवाह हो गया। हम इसी प्रकार का वातावरण बनाना चाहते हैं। हम दहेज के विरोधी हैं, लेकिन अगर कोई स्वेच्छा से कन्या को कुछ देता है, तो हमें ऐतराज नहीं है, परन्तु पैसा दिखाकर नहीं देना चाहिए। आप पेटी में रखकर इच्छा से दे दीजिए। दहेज हर दृष्टि से अनैतिक है। इम्मोरेल है। इसे तत्काल बन्द करना चाहिए। यह प्रेरणा हमें रामायण से लेनी चाहिए।

इसी प्रकार रामायण से हमें अन्यान्य प्रेरणा दायक दृष्टान्त लेकर लोगों को समझाना चाहिए। एक बार दशरथ जी को अपना सफेद बाल दिखलाई दिया। उन्होंने सोचा हमें क्या करना चाहिए। यह समय है मौत का हमारे सिर पर 650 बाल सफेद हैं, जो यह बताते है कि 650 बार मौत की सूचना का समय आ चुका है, आपको होश आया कि नहीं। आपको भगवान के पास जाना है। आपको वहाँ सारी रिपोर्ट देनी है कि आपने यहाँ क्या-क्या किया है। दशरथ जी ने सफेद बाल देखकर अपने बड़े लड़के रामचन्द्र जी को बुलाया और कहा कि आप इस राजकाज को देखें और अब हमें वानप्रस्थ लेना है। आप छोटों को देखें तथा परिवार के उत्तरदायित्व को सँभालें। यह प्राचीन परम्परा थी कि लोगों को जीवन के उत्तरार्द्ध में वानप्रस्थ लेना पड़ता था तथा समाज का उत्तरदायित्व उठाना पड़ता था। समाज में अलख जगाना पड़ता था।

इससे रामचन्द्र जी के जीवन में संकट आ गया। वस्तुतः इसके बिना हम यह नहीं जान सकते हैं कि रामचन्द्र जी, भरत जी, लक्ष्मण जी आदि कितने महान थे। जब रामचन्द्र जी के सामने यह प्रश्न आया कि आप राज्यपाठ देखेंगे अथवा जंगल में वनवास के लिए जाएँगे तो उन्होंने ने देखा कि सिद्धान्तों के लिए कष्ट उठाना, मुसीबत सहना ज्यादा महत्वपूर्ण है, बजाय इसके कि हम राज्यपाठ देखें। उन्होंने समाज के उत्कर्ष के लिए, सिद्धान्तों के लिए चौदह वर्ष के लिए वनवास को सहर्ष स्वीकार कर लिया। उन्होंने राज्यपाठ जो अय्याशी का काम था, उसे ठुकरा दिया। उन्होंने ऋषियों के साथ घुलने-मिलने राक्षसों से लोहा लेने तथा जंगलों में रहकर तपस्वी जीवन जीने को ज्यादा महत्व दिया और वनवास को सहर्ष स्वीकार कर लिया। उन्होंने सोचा कि हमें उसी काम को करना चाहिए जिसकी ऋषियों को आवश्यकता है, देश को, संस्कृति को आवश्यकता है। खेती का काम कोई भी कर सकता है। खेती का काम आपका नौकर कर सकता है। आप समाज में जाइए और समाज की सेवा कीजिए।

राम का वनवास इसलिए

भगवान रामचन्द्र जी ने भी समाज की सेवा के लिए वनवास जाना स्वीकार किया। इस वनवास के समय उनके सामने ऐसी-ऐसी बेहतरीन घटनाएँ हुई, जिसके द्वारा उन्हें प्यार, मुहब्बत मिला। उन्होंने न जाने कितने लोगों को दिशाएँ दीं-प्रेरणाएँ दीं। शबरी की घटना हमें याद आती है। वे उसके पास पहुँचे और उससे कहा कि हम बहुत भूखे है। शबरी ने बेर चखकर देखा तथा मीठे बेर को उन्हें खिलाती चली गयी। शबरी ने राम से पूछा कि क्या आप वहीं राम है जिसका मैं जप करती हूँ। हाँ, मैं वही राम हूँ। उसने पूछा कि आप अयोध्या से यहाँ क्यों आये? रामचन्द्र जी बोले-शबरी हमेशा भगवान भक्त के पास आते हैं। हम सूरदास के पास गये थे। हम राजा बलि के पास भी भीख माँगने के लिए गये थे। सुदामा के भी हमने पैर धोये थे। महर्षि भृगु ने हमारे कलेजे में लात मारी थी। मीरा के पास मैं गया हूँ। मैं भक्त का गुलाम हूँ। भक्त भगवान से बड़ा है, वह महान भक्ति है। यह तुम्हारी असली भक्ति है।

मित्रो, एक और भक्त की याद आ गयी। सीता जी को रावण चुराकर ले जा रहा था। जटायु इस काण्ड को देखकर द्रवित हो गया। उसने रावण से कहा कि दूसरे की पत्नी को इस तरह चुराकर ले जाना पाप है। रावण बोला की तू चुपचाप बैठ और बेकार की बातें मत कर। जटायु को आक्रोश आ गया और वह अनीति से लड़ने के लिए तैयार हो गया। यद्यपि वह मर गया, परन्तु अमर हो गया। आज इस प्रकार के लोग हो जाएँ तो समाज में गुण्डे कहा रह सकते है? समाज के लोगों को संगठित होकर अनीति के विरुद्ध संघर्ष करना चाहिए। हार जाने से कोई असफल नहीं होता। हमारे समाज में ईसामसीह असफल नहीं हुए। लोगों ने उनके हाथ-पैरों में कील ठोंक दी थी, परन्तु लोग सफल नहीं हुए। जो आदमी सिद्धान्तों के लिए जिये हैं, वे अमर है। सुकरात ने जहर पिया फिर भी वे मरे नहीं, अमर हैं। रामचन्द्र जी मरे नहीं, वे अमर है। जटायु जीत गया था। रामचन्द्र जी आये और उसके जख्मों को आँसुओं से धोया, अपने हाथों से साफ किया और प्यार दिया। उन्होंने कहा कि कहो तो हम तुम्हें स्वर्ग भेज दें, कहो तो मोक्ष प्रदान कर दें। उसने कहा कि यह सब हमें नहीं चाहिए। मित्रो, भगवान के प्यार, मुहब्बत से बढ़कर कुछ भी नहीं है। उसने कहा कि हमें यह प्राप्त हो गया, हम धन्य हो गये, आप चिन्ता न करें।

भगवान का प्यार कैसा होता है

भगवान के प्यार के तीन तरीके हैं- पहला भगवान जिसे प्यार करते हैं, उसे ‘संत’ बना देते है। संत यानी श्रेष्ठ आदमी। श्रेष्ठ विचार वाले, शरीफ, सज्जन आदमी को श्रेष्ठ कहते है। वह अन्तः करण को संत बना देता है। दूसरा- भगवान जिसे प्यार करते है उसे ‘सुधारक’ बना देते है। वह अपने आपको घिसता हुआ चला आता है तथा समाज को ऊँचा उठाता हुआ चलता रहता है। तीसरा- भगवान जिसे प्यार करते है उसे 'शहीद' बना देते हैं। शहीद जिसने अपने बारे में विचार ही नहीं किया। समाज की खुशहाली के लिए जिसने अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया, वह 'शहीद' होता है। जो दीपक की तरह जला, बीज की तरह गला, वह शहीद कहलाता है। चाहे वह गोली से मरा हो या नहीं, वह मैं नहीं कहता, परन्तु जिसने अपनी अकल, धन, श्रम पूरे समाज के लिए अर्पित कर दिया, वह शहीद होता है। जटायु ने कहा कि आपने हमें धन्य कर दिया। आपने हमें शहीद का श्रेय दे दिया, हम धन्य हैं। जटायु शबरी की एक नसीहत है। यह भगवान की भक्ति है। यही सही भक्ति है।

मित्रो, हनुमान जी भी भगवान राम के भक्त थे। भक्त माँगने के मूड में नहीं रहता है। भक्त भगवान के सहायक होते हैं।वह अपने लिए मकान, रोटी, कपड़ा या अन्य किसी चीज की चाह नहीं करता है, उसका तो हर परिस्थिति में भगवान का सहयोग करना ही लक्ष्य होता है। वह अपनी सारी जिन्दगी भगवान के लिए अर्पित कर देता है। हनुमान जी इसी प्रकार के भक्त थे। आज तो भक्त की पहचान है-राम नाम जपना, पराया माल अपना।” मित्रो, यह भक्ति नहीं है। आज बगुला भक्तों की भरमार है, जो माला को ही सबकुछ मानते हैं। भक्त वही है जिसका चरित्र एवं व्यक्तित्व महान हो।

साथियों, हिरण्यकश्यप वह है जिसे केवल पैसा दिखलाई पड़ता है, सोना दिखलाई पड़ता है, ज्ञान दिखलाई नहीं देता है। हिरण्याक्ष-जिसकी आँखों को केवल सोना ही दिखलाई पड़ता है। यह दोनों भाई थे। हिरण्यकश्यप को नरसिंह भगवान ने मारा था और हिरण्याक्ष को वाराह अवतार ने मारा था। आज मनुष्य इसी स्तर का बन गया है। आप लोगों का आज यही स्तर है। आपकी भक्ति नगण्य है। रावण मोह में मारा गया और सीता लोभ में फँस गयी और मुसीबत मोल ले बैठी। जो भी व्यक्ति लोभ एवं माह में फँस जाता है वह भी इसी तरह मारा जाता है। लक्ष्मण जी ने एक रेखा खींची थी। मित्रो जो भी व्यक्ति अपनी मर्यादा को कायम नहीं रखता है, वह इसी प्रकार दुखी रहता है। आप कायदे एवं नियम का पालन कीजिए, यह हमें रामायण बतलाती है।

भक्ति भी, संघर्ष भी

रामायण में भक्ति भी भरी पड़ी है तथा संघर्ष भी भरा पड़ा है। उसके कण-कण में दिव्य प्रेरणाएँ भरी पड़ी हैं। उसमें तप, संघर्ष दोनों चीजें विद्यमान हैं। इसमें गुरु गोविन्द सिंह की तरह एक हाथ में माला तथा दूसरे हाथ में भाला की बात बतलायी गयी है। बेटे, तुम्हें माला की रक्षा के लिए एक हाथ में भाला भी पकड़ना होगा।

रामचन्द्र जी गुरु विश्वामित्र जी के साथ यज्ञ-रक्षा के लिए जंगल से होकर जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने देखा कि यहाँ तो हड्डियों का ढेर लगा है। उन्होंने पूछा कि यह किसका है? ऋषियों ने बतलाया कि यह उन ऋषियों की हड्डियाँ हैं, जिन्हें राक्षसों ने भक्षण करके डाल दिया हैं। यह देख-सुनकर अन्दर आक्रोश भर आया और उन्होंने संकल्प लिया-

निशिचर हीन करौं महि, भुज उठाई प्रण कीन्ह।

जब इस तरह मन में क्रोध आता है तो वे संघर्ष के लिए तैयार हो जाते हैं। रामचन्द्र जी कहते हैं कि यद्यपि यह हमारे पूर्वज नहीं हैं, परन्तु वे महान व्यक्ति थे, जो समाज के लिए जीते थे। हम इनके लिए संकल्प लेते हैं कि इनके दुश्मन ऐसे दुष्ट राक्षसों को समाप्त करेंगे तथा धरती पर स्वर्ग का वातावरण बनाएँगे।

संघ शक्ति का महत्व

रामचन्द्र जी आगे चलते गये। उन्होंने अपने साथ बन्दर-भालुओं को लिया। मित्रो, अच्छे काम के लिए जन सहयोग की आवश्यकता होती है। अकेला व्यक्ति कोई बड़ा काम नहीं कर सकता है। कृष्ण भगवान को भी ग्वाल-बालों का सहयोग लेना पड़ा। रामचन्द्र जी ने कहा कि हम भगवान हैं, शक्ति हैं और हम अकेले ही रावण को मार सकते हैं, लेकिन यह कायदा नहीं है। हमें जनसहयोग लेकर काम करना चाहिए। आप जनता की शक्ति को लेकर सत्य के लिए आगे बढ़ें। कहा भी गया है- ‘सत्यमेव जयते’। सत्य में हजार हाथी का बल होता है। छोटे-छोटे बन्दर-भालुओं के सहयोग से समुद्र में पुल बनता चला गया। मित्रो, जहाँ मनःस्थिति अच्छी होती है, वहाँ परिस्थिति भी अच्छी होती है। एक गिलहरी आयी और अपने बालों में भरकर मिट्टी डालने लगी। इसके श्रम को देखकर बन्दर-भालू सहित रामचन्द्र जी बहुत प्रसन्न हुए। गिलहरी ने कहा कि हम छोटे हैं तो क्या हुआ, हम भी भगवान के काम में सहयोग करेंगे तथा अपनी सामर्थ्य के अनुसार कार्य करेंगे। उसकी दिलेरी को देखकर भगवान राम बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे हथेली पर रखा और अपनी अंगुलियों से उसे सहलाने लगे। सुना है कि रामचन्द्र जी काले रंग के थे। उनकी अंगुलियाँ काले रंग की थीं। अतः उसके ऊपर काले रंग की लकीरें पड़ गयीं। हमने सुना है कि वही लकीर आज तक गिलहरी के खानदान पर पड़ी हुई है।

मित्रो, यह बात सही है कि भगवान के प्यार-मुहब्बत का निशान उसी आदमी के ऊपर होता है, जो अपने को त्यागी, बलिदानी के रूप में आगे कर एक आदर्श प्रस्तुत करता है। उसके बिना कोई आदमी भगवान का प्यार नहीं हो सकता है। अगर आप दिन-रात भजन-कीर्तन करते हैं, परन्तु आपने नेक जीवन, आदर्श का जीवन, लोगों को ऊँचा उठाने का जीवन नहीं जिया है, अपने व्यक्तित्व को ऊँचा नहीं उठाया है, दूसरों की सेवा नहीं की है, तो आप भगवान का प्यार नहीं पा सकते हैं।

रामायण के हर पन्ने महत्वपूर्ण प्रेरणाओं से भरे पड़े हैं। रावण मरा हुआ था। लक्ष्मण ने यह पूछा कि रामचन्द्र जी आपने कहा था कि हमने एक तीर मारा है तो इसके शरीर में हजारों छेद कैसे हो गये? रामचन्द्र जी ने कहा-हे लक्ष्मण! हमने तो उसे केवल एक तीर मारा है, परन्तु वे छिद्र उसके अपने कर्मों के फल हैं। पाप अपने आप में फूटता है। अगर आप पारा खा लें तो वह अपने आप फोड़कर निकल जाता है। उसी प्रकार पाप अपने आप निकलता है। पाप अपने आप खून बहाता है, अपने आप तबाही लाता है।

पाप की परिणति अंततः ऐसी

एक और प्रसंग रामायण में आता है कि रामचन्द्र जी की पत्नी सीताजी को जब रावण चुराने गया था, तो भिखारी का वेश बनाकर गया था। चोर के तरीके से वह वहाँ गया था। इस प्रकार की नीयत या मनःस्थिति जब व्यक्ति की हो जाती है, तो सारी दैवी सम्पदाएँ ऋद्धि-सिद्धियाँ समाप्त हो जाती हैं। रावण सब चीजों से परिपूर्ण था, परन्तु उसकी एक कमी के कारण गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं-जिमि कुपंथ पग धरइ खगेषा, रहइ न तेज बुद्धि लव लेषा।”“ उसके तेज, बल, धन सब समाप्त हो गये। रावण का सत्यानाश हो गया। सोने की लंका न जाने कहाँ चली गयी। सारे कुटुम्ब का सत्यानाश हो गया। इतने बड़े ज्ञानी, तपस्वी, सामर्थ्यवान व्यक्ति की एक कमी उसका सत्यानाश कर सकती है और वह है चाल-चलन की कमी, चिन्तन की कमी।

यही आप लोग समाज को शिक्षण देना कि आप लोग शराफत सीखिये, इनसानियत को सीखिये, भलमनसाहत को सीखिये-अपनाइये। सच्चाई, श्रेष्ठता, आदर्शवादिता को सीखिये। इसके द्वारा ही व्यक्ति, परिवार, समाज निर्माण का उद्देश्य पूरा होगा। हमें विश्वास है कि आप यहाँ से इस प्रकार की बातें सोचकर जाएँगे तो हमारा उद्देश्य पूरा हो सकेगा। हमने अपने मिशन के द्व


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