एक दिन तानसेन के एक गाने से प्रसन्न होकर बादशाह अकबर ने पूछा-इतना सुन्दर गीत तुमने किससे सीखा? तानसेन ने जवाब दिया-अपने गुरु हरिदास जी से। अकबर ने कहा- चलो उनके पास चलो। इसके बाद अकबर तानसेन को लेकर अपनी सारी मंडली के साथ हरिदास जी के घर गया। हरिदास जी ईश्वर-भक्ति में मस्त रहते थे। वे ईश्वर-भजन के सिवाय और कोई गाना नहीं गाते थे। बादशाह ने हरिदास जी से गाना सुनाने की प्रार्थना की। बादशाह की विनती से उन्होंने एक सुन्दर भजन गाया। बादशाह बहुत प्रसन्न हुआ और उनका यथोचित सत्कार करके लौट आया। एक रोज कचहरी में अकबर ने तानसेन से उस दिन वाला भजन गाने को कहा। तानसेन ने गाया जरूर, पर बादशाह को उस दिन जैसा आनन्द नहीं मिला।
अकबर ने उनसे पूछा-उस दिन जैसा आनन्द आज क्यों नहीं मिला? तानसेन ने जवाब दिया कि मैं आपको प्रसन्न करने के लिए गाता हूँ, किन्तु हमारे गुरुजी ने आपको प्रसन्न करने के लिए नहीं गाया था, बल्कि बादशाहों के बादशाह को प्रसन्न करने के लिए गाया था। अन्तर भावना का है अन्यथा, शास्त्रीय ढंग तो वही है।
लक्ष्य के अनुरूप प्राण उदय होता है तथा उसी स्तर का प्रयास क्रिया में पैदा होता है।