कनाडा के एक नगर में सड़क पर खड़ी कार में आकर दो व्यक्ति बैठे। एक वृद्ध था और दूसरा युवक। दोनों पिता-पुत्र थे। कार में स्टेयरिंग पर बैठते समय पुत्र ने अख़बार खोला। पिता ने पूछा- “यह क्या है?”
“टाइम्स।” पुत्र ने उत्तर दिया।
“कहाँ से खरीदा?”
“उस नुक्कड़ वाली दुकान से।” पुत्र ने कहा। इस पर उसके पिता बोल उठे - “जाओ जाकर वापस कर आओ, मेरे पास भी टाइम्स है। मैं पढ़ लूँ फिर तुम पढ़ लेना।”
तीस-चालीस पैसे के अख़बार को वापस करने की बात कोई सामान्य व्यक्ति कहता तो मितव्ययिता की दृष्टि से उचित भी था, पर राँल्सराँयस कार का मालिक कहे तो यह अटपटा-सा लगता है और तब तो और भी ज्यादा, जबकि कोई करोड़पति व्यक्ति कहे। पर वह व्यक्ति अर्थसंयम के बल पर ही करोड़पति बना था। एक नाई के लड़के से जिसे दो वक्त रोटी ठीक से न मिल सके, वह उस समय का संसार का सबसे बड़ा प्रेस मालिक बन गया था। लॉर्ड टॉमसन सभी नवयुवकों के लिए निश्चित ही एक आदर्श माने जाते रहे हैं, जो असफलता एवं प्रतिकूलता की छाती को चीरकर सतत् बढ़ते रहे और हिम्मत और साहस के बूते मजबूत इरादों का परिचय देकर एक मिसाल बन गए।
लार्ड टॉम्सन का जन्म सन् 1894 में कनाडा के एक अतिसामान्य परिवार में हुआ। होश संभालते ही उन्हें अपने पैतृक व्यवसाय में जुट जाना पड़ा। टाम्सन की अभिरुचि भिन्न होने के कारण यह कार्य उन्हें बोझ-सी प्रतीत हुआ। वे अपने परिवार को विरासत में मिली गरीबी से मुक्त कराना चाहते थे। किसी तरह टाम्सन ने खेती का काम शुरू किया। कड़ाके की शीत और शरीर पर अपर्याप्त कपड़े। मौसम से जूझते हुए उन्होंने मिट्टी के साथ पसीने का रंग घोलना चाहा, परन्तु रंग न घुला और सफलता ने अंगूठा दिखा दिया।
इस क्षेत्र को छोड़कर उन्होंने अपने व्यवसाय को व्यापार की ओर मोड़ दिया। व्यापार में पूँजी और लाभ का खेल चलता है। कम पूँजी से लाभ की आशंका धूमिल होती है। यही टाम्सन के साथ भी हुआ, इसलिए यह क्षेत्र भी उन्हें छोड़ देना पड़ा। आर्थिक तंगी और असफलता पर असफलता का सिलसिला सामान्य आदमी का मनोबल भी तोड़ डालता है, पर टाम्सन किसी दूसरी ही मिट्टी के बने थे। वे अपने परिवार वालों को कहा करते- मैं दस साल बाद करोड़पति बन जाऊँगा और घर के लोग उसे उलाहने देते। कहते कि पहले सुबह की रोटी का प्रबन्ध तो कर लो।
तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद भी टाम्सन के हौसले पस्त नहीं हुए और वे अपने प्रयासों में निरन्तरता बनाये रहे। 1929 में उनके परिवार के साथ एक जबर्दस्त हादसा हुआ, जिसने उनके जीवन को न केवल एक दिशा दी, वरन् उनके कदमों में गति भी पैदा कर दी। हुआ यह कि उनकी लड़की की एक दुर्घटना में बाँह टूट गई। अर्थाभाव के कारण पर्याप्त इलाज नहीं हो सका और हाथ जैसा का तैसा ही रह गया। टाम्सन को अपनी विवशता के कारण लाड़ली बेटी इमी की यह स्थिति बुरी तरह कचोट गई और उन्होंने संकल्प ले लिया कि जीवन की इस विवशता और संघर्ष को वह जीतकर रहेंगे। वह दिखाएँगे कि दृढ़ मनोबल और संकल्पवानों के सामने परिस्थिति बाधक नहीं होती। टाम्सन के मन-मस्तिष्क पर योजनाबद्ध तरीके से अर्थोपार्जन की बात सूझी। इसे क्रियारूप में बदलने हेतु अथक मेहनत एवं अटूट लगन के साथ लक्ष्य के लिए उन्होंने अपना सर्वस्व होम कर दिया।
काफी मेहनत और परिश्रम करके अपनी अर्जित पूँजी से उन्होंने एक प्रेस खरीदा। सारी पूँजी इसी में खप गई। भविष्य की आर्थिक सोच उनके परिश्रमी हाथों ने पूरी कर दी। यही कारण था कि प्रेस कर्मचारियों को वेतन के दिन नकद रुपये के स्थान पर चेक देकर वे उसे एक सप्ताह बाद भुनाने को कहते। सप्ताह भर में अख़बार के एजेण्टों एवं ग्राहकों का शुल्क बैंक में जमा हो जाता और कर्मचारियों को उन चेकों से भुगतान हो जाता था। इस तरह पैसे के अभाव में आपसी तालमेल से वह कार्य आगे बढ़ता रहा। अपने काम को बढ़ाने के लिए उन्होंने ऐसे व्यक्तियों की तलाश की, जिनके पास पर्याप्त सम्पदा थी और जो महीने में न्यूनतम निर्वाह राशि से अपना काम चला सकते थे। उन लोगों को वे समझाते कि वेतन तो बाद में पर्याप्त मिलेगा, परन्तु समय के साथ खिलवाड़ मत करना।
इस तरह की सूझ-बूझ सहानुभूति परक व्यवहार जैसे गुणों के कारण उनके कर्मचारियों तथा अधिकारियों को कभी भी परेशान-हैरान नहीं होना पड़ा। वे स्वयं मितव्ययी थे एवं सादगीपूर्ण जीवन जीते थे। एक ब्राह्मण की सबसे बड़ी यही तो विशेषता है - स्वयं पर कठोरता एवं औरों पर उदारता। टाम्सन इस विचारधारा के प्रबल समर्थक थे और इसे जीवन में उतारा भी। जीवन के इन सिद्धान्तों को वे अन्त तक अपनाए रहे। कई बार उन्हें राज-परिवारों में आमंत्रित किया गया। महारानी ने भी उन्हें आग्रहपूर्वक बुलाया परन्तु हर परिस्थिति में वे स्वच्छ एवं सादगीपूर्ण परिधान ही पहनकर जाते। यही उनका परिचय था। वे कहते - व्यक्ति हमेशा अपने स्वभाव, चरित्र, चिन्तन एवं व्यवहार द्वारा ही जाना जाता है, बाहरी श्रृंगार एवं परिधान से नहीं। कीमती एवं महँगे सूट मात्र दिखावा एवं आडम्बर हैं, इनसे व्यक्ति के अहंकार का व्यर्थ पोषण होता है। इसलिए मैं इसमें अपने परिश्रमजन्य साधन-सम्पत्ति क्यों बर्बाद करूं?
टाम्सन खरीददारी में भी सदा अपने इन्हीं सिद्धान्तों को ध्यान में रखते। वे अपने स्वयं को प्रेस के एक कर्मचारी से अधिक नहीं मानते थे और वे इसी औकात को लेकर जीवन-निर्वाह खर्च करते थे। अपने इसी रीति-नीति के कारण दुर्व्यसनों से, दुष्प्रवृत्तियों से स्वयं बचे रहे व उनका परिवार भी सुसंस्कृत रूप में विकसित हुआ। लार्ड टाम्सन अपव्यय बचाने और धन कमाने की कला में पूरी तरह माहिर थे। घाटे में चल रहे किसी भी अख़बार को खरीदकर उसे सफलतापूर्वक चला देना उनकी व्यापारिक कुशलता थी। वे इस क्षेत्र के एक दक्ष व्यापारी माने जाने लगे थे। एक बार उन्होंने कहा भी कि अख़बार को किसी वाद विशेष से नहीं जुड़ना चाहिए। उसे स्वतंत्र, निष्पक्ष एवं निर्भीक होना चाहिए। इसके बगैर अख़बार समाज और जनता की सेवा नहीं कर सकता। मैं अपने कर्मचारियों को इसी की शिक्षा देता हूँ। “ आज भी उनके पुराने सम्पादकीय को पत्रकारिता के शिक्षण में बड़ी मान्यता प्राप्त है।
सन् 1976 में उनका देहान्त हुआ। एक साधारण परिवार से संघर्ष एवं साहस के साथ बढ़कर सफलता की बुलन्दियों को स्पर्श करने वाले टाम्सन का जीवन-दर्शन किसी भी नवयुवक के लिए प्रेरणादायी है। उनका जीवन हमें यह संदेश देता है कि जीवन में कभी भी दैन्य एवं निराशा को कोई स्थान नहीं दिया जाना चाहिए।