एक जाग्रत वीर बलिदानी

May 1998

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कलकत्ता के गोरा बाज़ार में एक अंग्रेज अपना डण्डा घुमाता हुआ बड़ी मस्ती से चला जा रहा था। जो भी भारतीय दिखता, भले वह स्त्री हो या पुरुष, वृद्ध हो या बालक, उसके सिर पर डण्डे का प्रहार कर देता। वह कहता जा रहा था। ले पचास-ले इक्यावन, पता नहीं वह कहाँ तक पहुँचना चाहता था। घर से निकलने के बाद इक्यावन व्यक्तियों को तो वह डण्डा जमा चुका था।

इस गोरे अंग्रेज के पीछे ही चल रहा था एक बंगाली किशोर जतीन। वह अभी ही एक गली से निकल कर आया था। अंग्रेज को गिनती गिनकर डण्डा मारते हुए देखा तो एकाएक तो समझ में नहीं आया, परन्तु जब यह अच्छी तरह जान लिया कि गोरों के राज में इन सभी गोरों के किए गए सारे अपराध क्षम्य हैं। वे चाहें जो मनमानी कर सकते हैं। कुछ ही क्षण हुए होंगे पीछे चलते हुए कि जतीन से रहा न गया। वह दौड़कर डण्डेबाज के पास पहुँचा और एक जोर का धक्का दिया। गोरा गिर पड़ा। जतीन ने उसके हाथ से डण्डा छीन लिया और उसी के सर पर कसकर मारते हुए कहा -ले तिरेपन।

आस पास बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई। अपना अधिकारमद भूलकर अंग्रेज ऐसा भागा कि पीछे मुड़कर भी देखा नहीं। उस समय अंग्रेजों से बातें करने में भी लोग डरते थे। पता नहीं गोरे मालिक कब खफा हो जाएँ। ऐसे युग में किसी किशोर द्वारा इतना प्रबल प्रतिरोध, अदम्य साहस का ही काम था। जतीन कोई जन्मजात ही साहसी पैदा नहीं हुआ था। बचपन में तो वह चूहों से भी डर जाया करता था, परन्तु पाँच वर्ष की उम्र में ही दुर्दैव के प्रकोप और संघर्षमय परिस्थितियों ने उसे साहसी बना दिया था।

जन्म के पाँच साल बाद ही पिता का स्वर्गवास हो गया। उसके कुछ ही दिनों उपरान्त माँ भी चल बसी। जतीन का पालन-पोषण उसके मामा के यहाँ हुआ। मामा और नाना अपनी बेटी की अन्तिम निशानी समझकर उसे बड़े लाड़ प्यार से रखते थे। फिर भी जतीन जिसका पूरा नाम ज्योतिन्द्र मुखर्जी था, अपने माता-पिता को विस्मरण न कर सका। उसका ध्यान बँटाया गया और पड़ोस के बच्चों को जतीन के साथ खेलने के लिए कहा गया। उस समय आसपास के सभी बच्चे कसरत करने आया करते थे। अखाड़े में कुश्तियाँ भी चलती। जतीन भी उन बच्चों के साथ जाने लगा दण्ड-बैठक कुश्ती में उसका मन अच्छी तरह लगने लगा। व्यायाम और शारीरिक गठन के प्रति जागरूकता इतनी विकसित हो गई कि जतीन ने किशोरावस्था में ही घुड़सवारी, तैराकी, लाठी तथा तलवार चलाना अच्छी तरह सीख लिया।

बाल-संवर्द्धन की प्रक्रिया मनुष्य को सहज ही आत्मविश्वासी बना देती है और वह सभी भयों से मुक्त हो जाता है। भयमुक्त की सिद्धि ही साधक में साहस का संचार कर देती है। जतीन के नाना-मामा ने माता-पिता को भुलाने के लिए इस ओर प्रवृत्त किया तो वह डरपोक से साहसी और दुर्बल से सबल बन गया। पाँच-साल वर्ष पूर्व जो जतीन घर से बाहर के व्यक्ति की उपस्थिति से भी झेंप जाता था, वही जतीन, दूर देश के आक्रामक शासक वर्ग के लोगों को भी उस प्रकार ललकारने लगा था, तो यह उसके पुरुषार्थ व विकसित आत्मविश्वास का ही फल था।

जतीन की शिक्षा-दीक्षा भी चलती रही। वहाँ भी अंग्रेज बच्चों की ज्यादातियाँ सहन करने के बजाय उन्हें पटकनी देने में उसे मजा आता था। अंग्रेजों के प्रति घृणा से भर उठने का एक बड़ा कारण और भी था। सन् 1904 की बात है। प्रिंस ऑफ वेल्स उन दिनों भारत आये हुए थे। कलकत्ता में उनकी सवारी निकलने जा रही थी। हजारों नर-नारी फुटपाथों पर जमा थे। एक गली के नुक्कड़ पर एक बग्घी खड़ी थी, जिसमें कुछ महिलाएँ भी थी। उन औरतों को परेशान करने के लिए पाँच-छह गोरे युवक बग्घी की छत पर चढ़ गए और औरतों के मुँह के सामने पाँव लटकाकर बैठे सीटियाँ बजाने लगे। जतीन भी सामने फुटपाथ पर खड़ा था। औरतों के साथ उनके परिवार वाले भी थे, परन्तु वे डर के कारण कुछ भी नहीं कह रहे थे। जतीन ने देखा और उससे सारी नारी जाति का भारतीय समाज की मातृशक्ति का यह अपमान सहा नहीं गया। वह तुरन्त लपका और बग्घी की छत पर छहों गोरे युवकों के बीच चढ़कर उसने उन्हें गिरा दिया। उस अप्रत्याशित घटना से युवक कुछ सहस-से गये। वे कुछ समझने की स्थिति में आएँ, इसके पूर्व जतीन ने सबको बग्घी की छत से गिरा दिया। सब वहाँ से भाग खड़े हुए।

इस घटना के कुछ ही समय की बात है कि जतीन रेल से राजघाट जा रहा था। उसके पास वाले डिब्बे में एक वृद्ध अपनी बेटी के साथ बैठा हुआ था। रास्ते में दो अंग्रेज उसी डिब्बे में चढ़े और लड़की के आसपास बैठ गये हालाँकि डिब्बा काफी खाली था। वे लड़की के पास खिसककर उसे भींचने लगे। बेचारा वृद्ध व्यक्ति उनके सामने गिड़गिड़ाने लगा, परन्तु उन्मत्त गोरों पर इसका कोई असर नहीं हुआ।

दूसरे स्टेशन पर जब गाड़ी रुकी तो जतीन नीचे उतरा और अगले डिब्बे का सारा दृश्य देखा। वह समझ गया कि बात क्या है और लपककर उस डिब्बे में चढ़ गया। गोरे लोग सभी भी वही हरकतें कर रहे थे। डिब्बे में बैठे अन्य दूसरे यात्री बीच में बोलकर आपत्ति मोल लेना नहीं चाहते थे। परन्तु जतीन तो अन्याय और अनाचार के खिलाफ कोई भी खतरा उठाने का साहस रखता था, उन दोनों गोरों के पास गया और जोर के घूँसे मारकर उन्हें प्लेटफार्म पर ले आया। पुलिस को वास्तविक स्थिति समझने में देर न लगी। उन्हें वहीं उतारकर रेल आगे चल दी। कृतज्ञ वृद्ध की आँखों से अश्रु वह बह रहे थे।

दुर्बल, अशक्त और पीड़ितों की अनाचारी और उन्मत्त आततायियों से रक्षा करना ही हर शक्तिशाली इनसान का धर्म है। परन्तु अक्सर देखा यही जाता है कि अच्छे लोग भी ऐसे अवसरों पर किनारा काट जाते हैं, सोचते हैं कौन सोचते हैं, कौन बीच में पड़े। गुलाम राष्ट्र की मानसिकता जो उन दिनों कूट-कूटकर दिमागों में भरी थी, आज भी देखी जाती है, तो आश्चर्य की बात नहीं है। धर्म जब संकट में हो तो ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है।

जतीन अक्सर अंग्रेजों को ऐसी सीख देते कि उन्हें जीवनभर याद रहती भले ही वह कोई सिपाही हो या अफसर। एक बार वे दार्जिलिंग जा रहे थे। जिस ट्रेन में वे सफर कर रहे थे उसी में चार अफसरों की देख-रेख में एक सैनिक टुकड़ी भी जा रही थी। रेल के स्टेशनों पर सैनिकगण उतरकर बड़ी शान के साथ टहलते और यात्रियों को परेशान करने का मजा लेने लगते। कुली संशोधन के भारतवासियों के लिए करते थे। एक स्टेशन पर जतीन अपने एक बीमार सहयात्री के लिए पानी लेने उतरा। पानी का लोटा भरकर वह डिब्बे की ओर चल रहा था। कि एक सैनिक उनसे टकरा गया। अंग्रेज ने कसकर उसकी पीठ पर अपनी छड़ी जमा दी। जतीन ने उस समय तो कुछ नहीं कहा। पानी का लोटा रोगी साथी तक पहुँचाकर वे वापस आये और उस अंग्रेज अफसर की कलाई पकड़कर मरोड़ दी। अन्य गोरे युवकों ने भी जतीन पर आक्रमण किया, परन्तु उनके बलिष्ठ बदन के सामने किसी की भी न चली। उस बात पर तो मुकदमा भी चला था। परन्तु अंग्रेज न्यायाधीश पहली ही सुनवायी में उसे खारिज कर दिया। क्योंकि इससे बात के तुल पकड़ने एवं चारों ओर ऐसी आक्रोश बढ़ जाने की संभावना थी।

किशोरावस्था में ही जतीन भगिनी निवेदिता के संपर्क में आये। भगिनी ने इस स्वाभिमानी, साहसी और पराक्रमी वीर को स्वामी विवेकानन्द के सामने प्रस्तुत किया। स्वामी जी ने इस होनहार किशोर की प्रशंसा की और प्रोत्साहित किया की उस जैसे निडर ही देश को आततायी अंग्रेज शासन के पंजों से मुक्त करवायेंगे।

स्वामी विवेकानन्द से प्रेरणा और प्रोत्साहन पाकर वे राष्ट्रीय आन्दोलन की गतिविधियों में भाग लेने लगे। बाद में आध्यात्मिक जागरण के प्रणेता, राष्ट्रवाद के मसीहा और क्रान्तिकारी अरविन्द घोष के संपर्क में आकर उन्होंने राष्ट्रीयता और स्वाधीनता की क्षीण होती जा रही धारा को तेज बहाव में बदला। श्री अरविन्द ने देश के युवकों का आह्वान किया। और कहा कि “ भारत जमीन का एक टुकड़ा नहीं, यह भूमि हमारी माता है। सिन्धु-हिमांचल के रूप में फैली अखण्ड विराट भारत देश की भूमि हमारी जननी और पोषिका माँ है। मातृसत्ता के रूप में ही हमें इसकी प्रतिष्ठापना करनी होगी। जतीन ने इन विचारों को पूरी तरह अपने हृदय में बिठा लिया और वे क्रान्ति द्वारा अरविन्द के जाज्वल्यमान साहित्य के और भी निकट के संपर्क में आते चले गए। इन दोनों में गुरु-शिष्य का सा सम्बन्ध स्थापित हो अधिक से अधिक विश्वास जतीन करते थे। अपनी आकांक्षाओं को पूरी करने की सामर्थ्य उन्हें जतीन में दिखाई पड़ती थी। राजनीति के आकाश पर जब श्री अरविन्द का सितार सूर्य की भाँति चमकने लगा, तो उन्होंने दैवी शक्तियों के संकेत पर अपनी बाह्य गतिविधियों को समेटकर तपश्चर्या द्वारा जनमानस के आलोड़न की राह ली। जिस समय उन्होंने यह निर्णय लिया, उनके साथी बड़े क्षुब्ध और निराश हुए। वे अनुभव करने लगे कि हम अब नेतृत्वविहीन हो गये हैं। किसके मार्गदर्शन में अब काम करेंगे, यह समस्या उन्हें कचोटने लगी।

अपनी व्यथा और समस्या को सभी साथियों ने श्री अरविन्द के सामने रखा, तो समाधान मिला मैं जा रहा हूँ परन्तु तुम लोगों को चिन्तित नहीं होना चाहिए और न ही निराश क्योंकि अब तुम्हें एक योग्य, साहसी, वीर और देशभक्त नेता का मार्गदर्शन मिलेगा। जिसे स्वामी विवेकानन्द का आशीर्वाद प्राप्त है और वह है- ज्योतिन्द्रनाथ मुखर्जी। जतीन को ही तुम अपना नेता स्वीकार कर स्वातंत्र्य युद्ध जारी रखो।”

श्री अरविन्द के निर्णय से उनके व्यक्ति को पूजने वाले जतीन का व्यथित होना स्वाभाविक था। किन्तु महाभारत के अर्जुन की तरह स्वातंत्र्य समर में अनीति के विरुद्ध नीति और अन्याय के खिलाफ न्याय की लड़ाई पर मोर्चा लेना ही उसकी निर्धारित साधना है, इस प्रतिपादन को जतीन ने स्वीकार कर क्रांतिकारियों का नेतृत्व सँभाल लिया।

अंग्रेजों के अत्याचारों की प्रतिक्रिया अन्दर ही अन्दर सुलगती रही और अंग-भंग योजना का प्रतिरोध करते समय वह फूट पड़ी। उस समय देश का बच्चा बच्चा आततायी के सामने खुलकर मुकाबला करने के लिए आ खड़ा हुआ। निःसन्देह उनके प्रेरणास्रोत भी यही क्राँतिकारी रहे थे, जो लुक–छिपकर अपनी भारतमाता की बेड़ियाँ काट फेंकने के प्रयास कर रहे थे। जतीन और उनके साथियों ने उस हवा में गतिविधियों और भी तेज कर दी। सरकार भी उन लोगों के पीछे हाथ धोकर पड़ गयी। बम कारखाना जो श्री अरविन्द ने बनाया था, के साथ जतीन के कई साथी पकड़ लिए गए व उन्हें जेल में डाल दिया गया।

पन्द्रह महीनों तक उन्हें जेल में तरह-तरह की यंत्रणाएँ दीं। परन्तु जतीन ने स्वाभिमान के साथ अपना सिर ऊँचा रखा और इन यंत्रणाओं की पीड़ा में कभी मुँह से उफ तक नहीं की और न ही क्राँतिकारी के गुप्त संगठन के लिए जबान खोली। यंत्रणाएँ देने वाले अधिकारी परेशान हो गए और उन्होंने दूसरी युक्ति से काम लिया। साथियों के खिलाफ गवाही के बदले उन्हें छोड़ देने, सरकारी मेडल दिए जाने तक की बात कही गयी। किन्तु इन प्रलोभनों को वे ठुकराते चले गए। अविचल एवं शाँत रहकर किसी भी प्रकार का बयान या स्वीकारोक्ति न देने के कारण पुलिस उनके खिलाफ कोई भी अभियोग सिद्ध नहीं कर पायी। इसलिए न्यायाधीश ने उन्हें 21 फरवरी 1911 को रिहा कर दिया।

जब जतीन ने भूमिगत रहकर अपनी गतिविधियाँ चलाना आरम्भ किया। उन्होंने एक व्यापारिक फर्म खोल ली और पुलिस की निगाह में साँसारिक बन गए। उन चिंतित रहते थे, थोड़ी राहत मिली। परन्तु जतीन तो इस सबकी आड़ में उग्र विचारों वाले लोगों से व भारत से बाहर रहने वाले क्राँतिकारी मनोभूमि वालों से संपर्क साध रहे थे।

अंततः 8 सितम्बर, 1915 को उड़ीसा के तट पर पुलिस से उनकी मुठभेड़ हो गई और वे उस स्वतंत्रता की यज्ञाग्नि में समाहित हो गए। यद्यपि उनके साथियों ने उन्हें भागकर वच निकलने की सलाह दी, परन्तु इस क्राँति के अमर शहीद ने कहा-हम उस वीर परम्परा के अनुयायी है, जिसके अनुसार अपने साथियों को रणक्षेत्र में छोड़ भाग निकलना घोर पाप है।”

ज्योतिन्द्रनाथ मुखर्जी एक ऐसे युग में वीर बलिदानी पुरुष के रूप में सामने आए, जबकि देश को ऐसे वीरों की बहुत आवश्यकता थी। मातृभूमि को आराध्य मानकर, ईश्वर समझकर उसका अर्चन-वन्दन करने वाले जतीन सच्चे आस्तिक, शहीद एवं राष्ट्रभक्त के रूप में सदैव याद किये जाते रहेंगे।


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