यदा यदा हि धर्मस्य

April 1998

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सामान्य बुद्धि इसी निश्चय पर पहुँचती है कि सुविधा साधन बढ़ने से मनुष्य को सुख शान्ति मिलनी चाहिये और अधिक प्रसन्नता तथा प्रगति का अवसर मिलना चाहिये। इसी आधार पर अधिक समृद्धि उपलब्ध करने के लिये नानाप्रकार के उचित अनुचित प्रयत्न करने में लगे रहते हैं। इन दिनों मान्यता एवं चेष्टा और अधिक बढ़ गई है। साम्यवादी प्रतिपादनों ने पिछले दिनों यह घोषणा बहुत जोरों से की है कि संसार की समस्त कठिनाइयों का प्रधान कारण धन की कमी है। धन बढ़ेगा तो समस्त कठिनाइयाँ स्वयं ही समाप्त हो जाएँगी। इसके लिये अधिक उत्पादन पर जितना ध्यान दिया जाना चाहिये था उतना नहीं दिया गया वरन् धनिकों को गरीबी का कारण ठहराकर वर्गसंघर्ष खड़ा कर दिया जो भी हो लक्ष्य धन की अभिवृद्धि ही रहा। पूँजीवादी क्षेत्रों में भी अर्थ संवर्द्धन के लिये कम प्रयत्न नहीं किये गये। हर देश में अपने अपने ढंग से समृद्धि संवर्द्धन के प्रयत्न चल रहे है। विज्ञान ने इस निमित्त अनेकानेक आविष्कार किये है और सफल संवर्द्धन ही नहीं अर्थ उपार्जन के लिये भी अनेकानेक उपकरण आधार विनिर्मित किये है। शिल्पी व्यवसायी अर्थशास्त्री अपनी आमदनी का अधिकाँश भाग धन उपार्जन के निमित्त ही लगाते रहे है। इसमें सफलता भी कम नहीं मिलती पूर्वजों की तुलना में अपनी पीढ़ी कहीं अधिक समृद्ध है। सुविधा साधनों की दृष्टि से इस पीढ़ी के लोग इतने सौभाग्यशाली है जितने सृष्टि के आरम्भ से लेकर अपनी शताब्दी के मध्यकाल में कभी नहीं रहे। गरीबी दूर नहीं हुई। कारण यह नहीं है कि 400 करोड़ मनुष्य की उचित आवश्यकता सुविधा साधन उपलब्ध नहीं है वरन् यह है कि उनके संचय की ललक और उपभोग की लिप्सा ने सम्पत्ति का सदुपयोग सम्भव नहीं रहने दिया। साधनों की वृद्धि तेजी से जारी है।

सम्पन्नता बढ़ रही है। इतने पर भी यह आशा नहीं बंधती कि प्रस्तुत कठिनाइयों का कोई हल निकलेगा। अमेरिका जैसे धनकुबेर इस बात के साक्षी है कि बहुत वैभव होने पर भी मनुष्य शारीरिक और मानसिक दृष्टि से किस तेजी के साथ दुर्बल एवं रुग्ण होते चले जा रहे है। पारिवारिक और सामाजिक जीवन में उन्हें कितनी भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। बढ़ते हुये मनोरोग और अपराध यह बताते है कि बढ़ा हुआ वैभव भी व्यक्ति को सुखी एवं समुन्नत बनाने में कुछ अधिक कारगर सिद्ध नहीं हो रहा है।

यहाँ वैभव वृद्धि की अनुपयोगिता नहीं ठहराई जा रही है और उन प्रयत्नों के विरुद्ध कुछ नहीं कहा जा रहा है सम्पत्ति बढ़ना तो मनुष्य के कौशल एवं पुरुषार्थ का ही प्रतिफल है। अस्तु उसे सराहनीय ही कहा जाएगा। चर्चाएं हो रही हैं कि पिछली पीढ़ी के लोग आज की तुलना में कहीं अधिक अभावग्रस्त थे उनमें से कुछ जीवित रहे होते तो आज बढ़ी चढ़ी सुविधाओं को देखते और अपने समय की परिस्थितियों के साथ तुलना करते तो उन्हें यह समय चमत्कारी समृद्धि ऋद्धि सिद्धियों से भरापूरा प्रतीत होता। रेल तार डाक जहाज मोटर सड़क शिक्षा चिकित्सा शिल्प कला व्यवस्था आदि की जो बढ़ोत्तरी हुई है उसे देखते हुये पिछली पीढ़ी वाले यही कल्पना कर सकते है कि इन दिनों के लोग देवोपम जीवन जी रहे हैं और स्वर्गीय परिस्थितियों का आनन्द ले रहे होंगे।

स्थिति बिलकुल उलटी है। व्यक्ति दिन दिन शारीरिक मानसिक और आन्तरिक सभी क्षेत्रों में दुर्बल पड़ता जा रहा है। रुग्णता और दुर्बलता एक फैशन एवं प्रचलन है, यद्यपि पौष्टिक खाद्य पदार्थों और चिकित्सा साधनों की कोई कमी नहीं है। उसी प्रकार मस्तिष्कीय विकास के लिये पाठशालाओं से लेकर पुस्तकों तक के अगणित साधन उपलब्ध है। रेडियो अख़बार प्रदर्शनी यात्रा सभा सम्मेलन आदि की सुविधा से जानकारी का क्षेत्र तेजी से बढ़ रहा है।

अशिक्षा के विरुद्ध युद्धस्तरीय प्रयत्न चल रहे है ओर विज्ञ एवं कुशल लोगों की संख्या तूफानी गति से बढ़ रही है। इतने पर भी मनोरोग हेय चिन्तन दुर्भाव अनुपयुक्त महत्त्वाकाँक्षा जैसे अनेकों ऐसे आधार खड़े हो गये है। जिनके कारण जनमानस में असंतुलन उद्वेग एवं आक्रोश उत्पन्न करने वाले तत्वों की ही भरमार है। अधिकाँश जनमानस संतोष ओर शान्ति से वंचित है। प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता के लक्षण अपवाद रूप से भी दृष्टिगोचर नहीं होते है। हर व्यक्ति खिन्न चिन्तित उदास दृष्टिगोचर होता है। न उमंगें है न आशा आशंकाओं और समस्याओं के भार से हर मनुष्य का मस्तिष्क तनावग्रस्त दीखता है। असुरक्षा और एकाकीपन का भार इतना लद रहा है कि जिन्दगी भारी लाश की तरह ढोनी पड़ रही है। बढ़ी हुई विपन्नता में हताशों आत्महत्याओं का दौर बढ़ रहा है। अर्द्धहत्या अर्द्धआत्महत्या की घटनाएँ तो पग पग पर देखी जा सकती हैं। विक्षिप्त और अर्धविक्षिप्त सनकी और वहमी लोगों की संख्या इस तेजी से बढ़ रही है कि स्वस्थ और संतुलित मनःस्थिति वाले व्यक्ति खोज निकालना कठिन दीखता है। बाहर से चतुर और बुद्धिमान सुशिक्षित और सम्पन्न दीखने वाले व्यक्ति भी भीतर ही भीतर इतने खोखले और उथले पाये जाते है कि कई बार तो उनके सुशिक्षित होने में भी संदेह होने लगता हैं।

पारिवारिक स्नेह सौजन्य सहयोग सौहार्द घटते घटते समाप्ति के बिन्दु तक जा पहुँचा है। माता पिता और संतान के बीच भाई बहिनों में भावज ननद में जैसी आत्मीयता होती है, उसका दर्शन दुर्लभ हो रहा है। एक बाड़े में रहने वाली भेड़ों की तरह कुटुंबों में कई व्यक्ति रहते तो है पर एक दूसरे पर प्यार और सहयोग बिखेरने के स्थान पर अपनी अपनी गोटी बिठाने में लगे रहते है। परिवार संस्था से अधिकाधिक लाभ किस प्रकार उठाया जा सकता है घर का हर सदस्य इतना ही सोचता है अधिकार की माँग है और कर्तव्य की उपेक्षा। फलतः नीरस निरानन्द हो चले है। दुकान दफ्तर से लौटने पर घर में जो स्वर्गीय आनन्द मिल सकता है उससे अधिकाँश लोग वंचित है। थकान मिटाने के नाम पर नशा सिनेमा यारवासी जैसे घटिया आधार ढूँढ़ने के लिये लोग प्रायः बचे हुये समय को भी बाहर ही बताते है।

पति पत्नी का रिश्ता एक प्राण दो देह का माना जाता है। जीवनरथ को अग्रगामी बनाने में दोनों को दो पहियों की भूमिका निभानी चाहिये। नाव खेने में दो हाथ काम देते है इसी प्रकार गृहस्थ की सुव्यवस्था में पति पत्नी का योगदान होता है। दोनों को एक मन होकर समन्वित जीवन जीना पड़ता है किन्तु लगता है वे आदर्श समाप्तप्राय हो गये। यौनलिप्सा ही वह आधार रह गया है जिसमें दोनों एक दूसरे के साथ जुड़ें रहते है। इसी प्रसंग में बच्चे आ सकते है और उनके प्रति जो प्रकृतिप्रदत्त माया मोह होता है उस सूत्र से भी पति पत्नी किसी प्रकार बंधे रहते है। यदि यौन आकर्षण ओर बालकों का मोह हटा लिया जाये तो सहज सौजन्य से प्रेरित भावभरा दाम्पत्य जीवन कदाचित ही कहीं दृष्टिगोचर होगा। समृद्ध देशों में स्वच्छन्दता के कारण ही पिछड़े देशों में विवशता के कारण ही पति पत्नी के बीच काना कुबड़ा स्नेह संबंध जीवित रह रहा है। परिवार टूटते जा रहे है। वयस्क होते ही हर किसी को अलग रहने की बात सूझती है। मजबूरी से जो साथ रहते है उन्हें भी सोचना यही पड़ता है कि सम्मिलित कुटुम्ब के सदस्य न रहते तो अच्छा होता। पढ़ी लिखी लड़कियाँ और उनके अभिभावक विवाह संबंध जोड़ने के साथ ही यह सोचते है कि बड़े कुटुम्ब का सदस्य बनकर न रहना पड़े। विलगाव के इस प्रयत्न में पारिवारिक जीवन जिसे घरौंदों में बसने वाला स्वर्ग कहा जाता था एक प्रकार से छिन्न भिन्न अस्त व्यस्त और नष्ट भ्रष्ट ही होता चला जा रहा है इस सौभाग्य से वंचित रहने पर लोग सराय में दिन बिताने वाले आवारागर्द लोगों की तरह दिन गुजारते हैं। गृहस्थ जीवन का भावात्मक आनन्द कितना उच्चस्तरीय होता है इसकी अनुभूति ही नहीं कल्पना भी लोगों के हाथ से छिनती जा रही है।

आर्थिक दृष्टि से प्रायः सभी लोग दरिद्री है। अभावग्रस्त लोग स्वतंत्र आजीविका के कारण जितने खिन्न पाये जाते है उससे अधिक उद्विग्न वे है जिनके पास साधनों का बाहुल्य हैं। धन कमाना एक बात है और उसका सदुपयोग करना बिलकुल दूसरी। एक पक्ष तो बढ़ रहा है पर दूसरे की दुर्दशा ने सारा संतुलन ही बिगाड़ दिया। विलासिता आलस्य बनावट शान शौकत की मदें इतनी खर्चीली हो रही है कि भोजन वस्त्र जैसे आवश्यक व्यय तो उनकी तुलना में नगण्य जितने ही लगते हैं। अहंकार और बड़प्पन सहोदर जैसे बनते जा रहे हैं। सम्पन्नता की धारा दुर्व्यसनों के गर्त में गिराती है और उसकी प्रतिक्रिया से अनेकानेक दुराचरण एवं विग्रह उत्पन्न होते हैं। आजीविका सीमित है और लिप्सा असीम तो फिर ऋणी बनने या कुकर्म करके उपार्जन करने के अतिरिक्त और कोई उपाय ही नहीं रह जाता। सामाजिक कुरीतियों की लाश ढोने में भी अर्थ व्यवस्था की कमर टूटती है। उचित से काम नहीं चलता तो अनुचित किया जाता है और अपराधी स्तर को कमाई का एक बड़ा साधन बनाया जाता है इतने पर भी कितने लोग है जो आर्थिक दृष्टि से अपने को सुखी संतुष्ट कह सके। धनी निर्धन सभी को अर्थसंकट से गुजरने की शिकायत है।

समाज व्यवस्था का ढाँचा ऊपर से तो किसी प्रकार कागज से बने विशालकाय पुतले की तरह खड़ा है पर उसके भीतर खोखलेपन के अतिरिक्त और कुछ शेष नहीं। भिन्नता की आड़ में जितना छल छल चलता है उतनी घात दुश्मन भी नहीं लगा पाते। सम्बन्धियों के बीच किस प्रकार बुनने उधेड़ने की दुरभिसंधियाँ चलती है उसे विवाह शादियों में होने वाले लेन देन को देखकर भली प्रकार समझा जा सकता हैं। ग्राहक और विक्रेता के मध्य अफसर और प्रजाजन के मध्य जिस प्रकार का सदाशयतायुक्त आदान प्रदान होना चाहिये उसके दर्शन दुर्लभ हो रहे हैं। मूल्य तौल स्तर के सम्बन्ध में ग्राहक को सदा छल की आशंका ही बनी रहती है। अधिकारी और प्रजाजनों के मध्य उचित सहयोग का आधार रिश्वत पर केन्द्रित होता जा रहा है। पड़ो से हर घड़ी चौकन्ना रहना होता है। परदेश में अपरिचितों के बीच वहीं जिन्दा रह सकता है जो किसी के साथ कुछ समय रहने पर समुचित सतर्क रह सके। विश्वास करने वाले और निश्चिन्त रहने वाले पग पग पर जोखिम उठाते है। सेवक स्वामी के बीच का रिश्ता अब समाप्त हुआ ही समझना चाहिये। दोनों के मध्य सद्भावना सूत्र टूट चुके। मालिक को सर्प पालने की तरह सतर्क रहना होता है नौकर को हर घड़ी शोषक के साथ रहने जैसा अप्रिय लगता है। पारिवारिक सहयोग से समृद्धि और व्यवस्था बढ़ सकती है। पर उसकी सम्भावना निरन्तर घटती जा रही है। श्रम संकट आज के समाज की इतनी विकट समस्या है कि उसकी उलझन ने समृद्धि की सम्भावना को वे तरह धूमिल कर दिया है।

समाज के प्रथा प्रचलनों को देखते हुये लगता है इस प्रमाद में बहने वाले जनसमाज को विपत्तियों के गर्त में ही गिरा रहना पड़ेगा। नशेबाजी फैशन परस्ती विलासिता धूर्तता उच्छृंखलता जैसे प्रचलन सभ्यता के अंग बन चले है। यों कहने को तो अपने समय को तर्क और बुद्धि का युग कहा जाता है पर अन्धविश्वासों और कुरीतियों का प्रभाव जितने उत्साह के साथ इन दिनों बढ़ रहा है उतना कदापि पिछले दिनों के उस समय में भी न रहा हो जिसे अनगढ़ आदिमकाल कहते हैं।

बुद्धिमत्ता और पूर्णता का यह विचित्र समन्वय देखते ही बनता है ज्योतिषी तान्त्रिक भविष्यवक्ता जादूगरों ने जिस प्रकार धर्म और अध्यात्म को ग्रस लिया है उसे देखते हुये लगता है विवेक का अरुणोदय अभी भी बहुत दूर है। भ्रान्तियों से छुटकारा पाने की शुभ घड़ी आने में अभी बहुत दिन प्रतीक्षा करनी पड़ेगी ऐसा लगता है जाति लिंग की असमानता आर्थिक विषमता क्षेत्रीय संकीर्णता मतवादियों की कट्टरता आहार विहार की शैली विनोद की व्यवस्था चिन्तन की धारा आदि की स्थिति को देखते हुये लगता है जिस मध्यकालीन अंधकार युग को कोसा जाता है उसमें वह अभी भी यथावत विद्यमान है। उसने मात्र अपना पुराना चोला उतारा और नया जामा पहना है। समाज प्रवाह के आधार पर सामान जनमानस ढलता है और लोक प्रवृत्तियाँ पनपती है। यदि उसमें अमानवीय तत्व ही भरे रहे तो फिर यह आशा करना व्यर्थ है कि शालीनता को लोग अपने जीवन व्यवहार में स्थान दे सकेंगे। समाज का स्तर जिस क्रम से नीचे गिरता जा रहा है। उसे देखते हुये लगता है आदर्शवादी सिद्धान्त लिखने पढ़ने और सुनने तक ही सीमित बनकर रह जाता है शासन व्यवस्था प्रकारान्तर से समाज व्यवस्था का ही दूसरा नाम है। निम्न समाज को श्रेष्ठ शासन मिलने की आशा नहीं ही करनी चाहिये।

ऊपर की पंक्तियों में व्यक्ति के सामने प्रस्तुत कठिनाइयों और विपत्तियों का चित्रण किया गया है। अधिकाँश को इन्हीं समस्याओं ओर कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। जन जीवन में शान्ति और व्यवस्था की प्रगति और प्रसन्नता की संभावनाएं घटती जा रही है।

सामूहिक जीवन में शासनतंत्र की प्रधानता है। सरकार अपने संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति के लिये दूसरे देशों के प्रति जो रवैया अपनाती है उससे शोषण आधिपत्य विग्रह और युद्ध का कुचक्र,ही गतिशील होता है। शीतयुद्ध तो कूटनीति का ध्वज ही ठहरा। गृहयुद्ध की आशंका बढ़ रही है। अणु आयुध विषाक्त दाहक किरणें रासायनिक युद्ध जैसे उत्पादनों का चरम सीमा तक जा पहुँचना यह बताता है कि कोई भी एक पागल अनन्त काल की श्रम साधना से संचित मानवों का अंत चुटकी बजाने जितने समय में कर सकता हैं। तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या ने यह संकट सामने खड़ा कर दिया है कि एक शताब्दी में ही जीवनयापन के लिये आवश्यक अन्न, जल,वस्त्र, निवास जैसे साधन मिलना कठिन हो जायेगा। जनसंख्या जिस तेजी से बढ़ रही है उस अभिवृद्धि का भार उठा सकने की क्षमता अपनी धरती शताब्दी पूरी होते होते गंवा बैठेगी। कारखाने जिस अनुपात से प्रदूषण और विकिरण उत्पन्न करते है, उसका प्रभाव मनुष्यों का शारीरिक एवं मानसिक सन्तुलन स्थिर नहीं रख सकता। शरीर और मन की बढ़ती हुई दुर्बलता प्रकृति का दबाव और विकृत प्रचलनों का दबाव कहाँ तक सहन कर सकेगी, इसमें भारी संदेह है। विनाश की ऐसी अगणित विभीषिकाएँ है जिन्हें काल्पनिक नहीं वास्तविक ही माना जाएगा।

प्रगति और शान्ति के लिये कुछ नहीं किया जा रहा या उस स्तर के प्रयासों की कोई उपलब्धि नहीं है, यह कहा जा रहा है। लक्ष्य इतना ही प्रस्तुत किया जा रहा है कि सृजन से ध्वंस की गति तीव्र होने के कारण दिवालिया होने और ऐसी विपत्ति में फंस जाने की ही सम्भावना अधिक है जिससे निकल सकने के लिये नई सृष्टि की शुभ घड़ी आने के लिये लम्बी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।

विपत्तियाँ भौतिक क्षेत्र में बढ़ रही है और विकृतियाँ से आत्मिक क्षेत्र उद्विग्न होता जा रहा हैं। सुधार और बचाव के प्रयास अपेक्षाकृत बहुत धीमे है लगता है मनुष्य द्वारा अन्यमनस्क भाव से किया गया आधा अधूरा प्रयास वर्तमान की समस्याओं को सुलझाने तथा भविष्य की विभीषिकाओं को परास्त करने में सफल नहीं हो सकेगा एक गाज जोड़ने के साथ साथ दस गज टूटने का क्रम चल रहा है। ऐसी दशा में विश्व को महाविनाश के गर्त में जा गिरने की ही आशंका है। अवतार ऐसे ही समय में प्रकट होते है। मनुष्य का बाहुबल थक जाता है और विनाश की आशंका बलवती हो जाती है तो प्रवाह को उलटने का पुरुषात् महाकाल ही करता है। स्रष्टा को अपनी उस सुरम्य विश्ववाटिका का दर्द भरा अवसान सहन नहीं हो सकता। वे धर्म की ग्लानि और अधर्म की अभिवृद्धि को एक सीमा तक ही सहन कर सकते है। मानवी पुरुषार्थ जब संतुलन बनाये रहने में असफल होता है तो व्यवस्था को भगवान स्वयं संभालते हैं। राष्ट्रपति शासन तभी लागू होता है जब राज्य की सामान्य व्यवस्था लड़खड़ा जाती है। इन दिनों ऐसा ही होने जा रहा है। महाकाल की चेतना सूक्ष्मजगत में ऐसी महान हलचलें विनिर्मित कर रही है। जिसके प्रभाव परिणाम को देखते हुये उसे अप्रत्याशित और चमत्कारी ही माना जाएगा। अवतार सदा ऐसे ही कुसमय में होते रहे है जैसा कि आज है। अवतारों ने लोकचेतना में ऐसी प्रबल प्रेरणा भरी है जिससे अनुपयुक्त को उपयुक्त में बदल देने की उत्साह लगने वाली संभावना सरल हो सके। दिव्य चक्षुओं की युगान्तरीय चेतना को गंगावतरण की तरह धरती पर उतरते देखा जा सकता है। चर्मचक्षुओं को भी कुछ दिनों में अवतार के लीलासंदोह का परिचय प्रत्यक्ष एवं सुनिश्चित रूप से देखने को मिलेगा।


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