मनुष्य जाति पर गहराते संकट के बादल

April 1998

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समाजशास्त्रियों और इतिहासकारों के अनुसार, ईसा के समय विश्व की कुल जनसंख्या 30 करोड़ थी। अब तो अकेले भारत की ही आबादी इतनी हैं कि यह ईसा के समय की विश्व की आबादी से तिगुनी से अधिक हो जाती हैं ईसा के 1750 वर्ष बाद जनसंख्या लगभग ढाई गुनी अर्थात् 75 करोड़ हुई। इसके बाद से अब तक चक्रवृद्धि गणित के क्रम से जनसंख्या निरन्तर बढ़ती जा रही हैं। सन् 1850 में आबादी 110 करोड़ हुई, 1900 में 160 करोड़, 1920 में 181 करोड़ 91 लाख, 1940 में 224 करोड़, 1960 में 306 करोड़ और 1980 में 412 करोड़। इस प्रकार जनसंख्या की वृद्धि निरन्तर तीव्र से तीव्रतर ही होती जा रही हैं।

कहा जा चुका हैं कि पृथ्वी के पास सीमित प्राणियों के लिए ही स्थान और साधन उपलब्ध हैं। अन्य प्राणियों की तरह यह नियम मनुष्यों पर भी लागू होता हैं। मनुष्येत्तर प्राणियों के सम्बन्ध में देखा गया है। कि जब उनकी संख्या बढ़ने लगती हैं और सीमारेखा को लाँघ जाता हैं, तो प्रकृति उनका सफाया करने लगती हैं। यह स्वाभाविक भी हैं। प्रकृति द्वारा उपलब्ध कराये जाने वाले सुविधा-साधन अधिक संख्या में प्राणियों के लिए कम पड़ने लगते हैं। कम साधन और अधिक उपभोक्ताओं के कारण निश्चित ही संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती हैं। शक्तिशाली दुर्बल को दबाता है और उसके हिस्से को भाग छीनता है॥ इस प्रकार के संघर्ष में जो सशक्त होते हैं, वही बचते हैं और दुर्बल मारे जाते हैं, संघर्ष की यह स्थिति अन्ततः पूरे वर्ग की ही नष्ट करके रख देती हैं। नृतत्वशास्त्रियों को प्राचीनकाल में विद्यमान रहे ऐसे कई प्राणियों के अवशेष मिले हैं, जो उन दिनों काफी शक्तिशाली और विशालकाय थे, किन्तु उनकी संख्या इतनी बढ़ गई कि प्रकृति के पास उपलब्ध साधन-स्रोत कम पड़ने लगे, संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हुई और फलतः वह पूरा का पूरा प्राणि-वर्ग ही अपना अस्तित्व नष्ट करा बैठा।

क्या मनुष्य के लिए भी प्रकृति यही न्यायनीति बरतने वाली हैं? उसके विधान में किसी से भी पक्षपात करने या किसी को भी छूट देने की गुँजाइश नहीं हैं, सो इसमें जरा भी संदेह नहीं हैं कि मनुष्य के लिए भी संघर्ष और अन्ततः विनाश का चक्र घूमने को तैयार बैठा हैं। इस आधार पर संसार भर के विचारशील और बुद्धिजीवी व्यक्ति लोगों को तरह-तरह से सीमित सन्तानोत्पादन के लिए समझाते, बड़े परिवारों की हानियाँ और जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणामों की विवेचना करते रहे है। इन बातों का कोई प्रभावशाली परिणाम उत्पन्न हुआ हो ऐसा देखने में नहीं आता, आखिर प्रकृति को ही अपना कुल्हाड़ा तेज करने के लिए बाध्य होना पड़ रहा हैं।

इन दिनों संसार में हिंसा की आग बड़ी तेजी से फैल रही हैं। हत्या, मारपीट, उपद्रव, दंगे, लूटमार और अपराधों में बड़ी तेजी से बाढ़ आ रही हैं। मनोवैज्ञानिकों और प्रकृति विज्ञानियों की दृष्टि में इसका एक बड़ा कारण जनसंख्या का बहुत अधिक बढ़ जाना हैं, पिछले दिनों ब्रिटेन के दो प्रसिद्ध समाजशास्त्री क्लेअर रसेल और डब्ल्यू. एस. रसेल ने कई मामलों का अध्ययन करने के बाद जो निष्कर्ष प्राप्त किये, उनसे यही सिद्ध होता हैं कि इस तरह की घटनाओं के मूल में वस्तुतः प्रकृति प्रेरणा ही काम कर रही हैं। इन दिनों छुट-पट कारणों से उत्पन्न हुए मनमुटाव भी भयंकर हिंसावृत्ति के रूप में उभरते हैं और उनकी चपेट में प्रतिद्वंद्वियों के निरीह बाल-बच्चे भी आ जाते हैं। धन के लालच में चोरी-ठगी की अपेक्षा सफाया करके निश्चिन्ततापूर्वक लाभान्वित होने की आपराधिक प्रवृत्तियाँ पिछले दिनों तेजी से बढ़ी हैं। क्यों हिंसावृत्ति इतनी उग्र होती जा रही हैं? इस पर विभिन्न दृष्टियों से विचार और कई परीक्षण करने के बाद यही सिद्ध हुआ कि जनसंख्या का दबाव मनुष्य को उथला, असहिष्णु और असंतुलित बना देता हैं। इसी कारण लोग जल्दी उत्तेजित हो जाते हैं अथवा हत्या और हिंसा करने में जरा भी नहीं झिझकते।

संख्या के दबाव का मनोवैज्ञानिक प्रभाव जाँचने के लिए किए गए प्रयोगों में देखा गया कि छोटे-छोटे जानवर जब छिरछिरे, खुले और शाँत वातावरण में रहते थे, तब उनकी प्रकृति बहुत शान्त थी, किन्तु जब उन्हें भीड़-भाड़ में रखा गया, तो वे उत्तेजित और थके-माँदे रहने लगे तथा उनमें एक-दूसरे पर आक्रमण करने की प्रवृत्ति भी पनपती देखी गई। सर्वविदित हैं कि भीड़-भाड़ के कारण मल-मूत्र पसीना तथा रद्दी चीजों की गंदगी भी बढ़ती हैं और शरीर से निकालने वाली ऊष्मा अपने निकटवर्ती वातावरण को प्रभावित करती हैं, मनः शास्त्रियों के अनुसार यह विकृतियाँ ही प्राणियों तथा मनुष्यों को उत्तेजित करती एवं उन्हें अशान्त बनाती हैं। यही कारण है कि छोटे गाँवों की अपेक्षा कस्बों में तथा कस्बों की अपेक्षा शहरों में अधिक अपराध करते हैं हत्याओं और आत्महत्याओं का अनुपात भी इन्हीं कारणों से सघन आबादी वाले क्षेत्रों में अधिक पाया गया हैं।

सामाजिक और पारिवारिक वातावरण यदि संतोषजनक समाधान कारण बना रहें, तो उसमें रहने वाले व्यक्ति भी शान्त-प्रकृति के हो सकते हैं, किन्तु जब तो उसमें परिवार का वातावरण शाँत, संतुलित बना रहना प्रायः कठिन ही होता हैं फलस्वरूप कलह पैदा होता हैं और इस कलह के कारण परिवार के प्रत्येक सदस्य को खिन्न, दुःखी एवं अशान्त होना पड़ता हैं। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक ही रोष उत्पन्न होता है और यही रोष हिंसावृत्ति में बदल जाता हैं इन दिनों जितने भी उपद्रव हो रहे हैं, उनके मूल इस तरह की पारिवारिक परिस्थितियाँ एक बड़ी सीमा तक उत्तरदायी हैं।

शहरों में आबादी बढ़ रही हैं और परिवारों में संतान की संख्या। कुल मिलाकर जनसंख्या तेजी से बढ़ती जा रही हैं और जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ एक दूसरा खतरा भी मनुष्यजाति के सिर पर मँडरा रहा हैं- वह है औद्योगीकरण के कारण स्वच्छ जल और शुद्ध वायु का दिनोंदिन दुर्लभ होते जाना। इन दिनों नये-नये उद्योग-धन्धे नये कलकारखाने खुलते जा रहे हैं। इन कल-कारखानों और फैक्ट्रियों के लिए बड़ी मात्रा में पानी भी चाहिए और वह पानी उपलब्ध जलस्रोतों से ही प्राप्त किया जाता हैं। बात यही तक सीमित रहती तो भी गनीमत थी, समस्या तो तब और विकराल रूप धारण कर जाती हैं जब कल-कारखानों से निकलने वाला कूड़ा- कबाड़ा जलस्रोतों में फेंक दिया जाता हैं और फेंकी गई उन गंदगियों के कारण जलस्रोत दूषित हो जाते हैं। यों पृथ्वी पर पानी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं, पर अधिकाँश जलस्रोत इतने दूषित हो गए हैं कि पीने योग्य पानी का एक तरह से अकाल ही पड़ता जा रहा हैं। अपनी पृथ्वी का 97 प्रतिशत हिस्सा समुद्र से ढँका हुआ है। समुद्र का वह पानी न तो पीने योग्य होता है और न ही कल-कारखानों या कृषि-उद्योगों के लिए ही उपयुक्त हैं। दो प्रतिशत जल बर्फ के रूप में उत्तरी-दक्षिणी ध्रुवों तथा ऊँचे पर्वतों की चोटियों पर जमा रहता हैं। एक प्रतिशत जल ही ऐसा होता हैं, जो खेती, जंगल, उद्योग-धन्धों तथा पीने के काम में लाया जा सकता हैं उसमें भी काफी पानी बेकार चला जाता हैं, जितना पानी बचता हैं, उसका सातवाँ भाग नदियाँ समुद्रों में फेंक देती हैं। अब जो पानी बचता हैं उसी में कल-कारखानों खेती-बागवानी और पीने-पकाने की आवश्यकता पूरी करनी पड़ती हैं। कल-कारखानों और फैक्ट्रियों की बाढ़ पेयजल का एक बहुत बड़ा भाग झपट लेती हैं। इतना ही नहीं उत्सर्जित गंदगी से आस-पास के जलस्रोतों को भी दूषित कर देती हैं। कल-कारखानों के कारण मनुष्य को अपने भाग में से कितनी कटौती करनी पड़ती हैं-इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता हैं कि महानगरों में रहने वाले लोगों को अपनी आवश्यकता का केवल 40 प्रतिशत ही स्वच्छ जल मिल पाता हैं इसी में उन्हें खींच-तानकर काम चलाना पड़ता हैं।

स्वच्छ जल का कितना बड़ा भाग कारखाने और फैक्ट्रियाँ झटक लेते हैं? यह कल्पना करने के लिए इन तथ्यों से अनुमान लगाना चाहिए कि एक लीटर पैट्रोल बनाने के लिए 10 लीटर पानी फूँकना पड़ता हैं। 1 किलो सब्जी पर 40 लीटर, 1 किलो कागज के लिए 100 लीटर तथा 1 टन सीमेंट के लिए 3500 लीटर पानी जलाना पड़ता हैं। इतना होने के बाद कारखाने जो जहर फेंकते हैं वह भी उपलब्ध पानी का एक बहुत बड़ा हिस्सा नष्ट कर डालता हैं, क्योंकि उसे भी नदी-तालाबों में ही फेंका जाता हैं। इसके कारण उन नदी-तालाबों का पानी किसी काम का नहीं रह जाता, वह इतना विषाक्त हो जाता हैं किन केवल झील-तालाबों की सुन्दरता नष्ट हो जाती हैं वरन् उनमें रहने वाले जीव-जन्तु और उनका प्रयोग करने वाले सभी अपनी सम्पदा नष्ट करने के लिए विवश हो जाते हैं। इन दिनों अमेरिका के कई झील-झरने जो कभी अपनी सुन्दरता के कारण प्रकृतिप्रेमियों का जी ललचाते थे और लोग उनके किनारे बैठकर अपना थोड़ा-बहुत समय शाँति से बिताया करते थे, अपना आकर्षण खो बैठे हैं। प्रशासन ने अब कई झील-झरनों और नदी-जलाशयों के किनारों पर बड़े-बड़े सूचनापट लगा दिए हैं, जिन पर लिखा हैं ‘डेन्जर! पोल्यूटेड वाटर, नो स्वीमिंग', (खबरदार! पानी जहरीला हैं, तैरिये मत)। वहाँ के औद्योगिक नगरों के निकटवर्ती सरोवर अब एक प्रकार से मृतक जलाशय बन चुके हैं। नदियाँ अब गंदगी बहाने वाली गटरें मात्र रह गई।

यह कैसे हुआ? मात्र एक ही कारण है कि कारखानों में जो कुछ वेस्टेज, कूड़ा-कबाड़ा निकलता हैं, वह इन नदी-तालाबों निकलता हैं, वह इन नदी-तालाबों में फेंक दिया जाता हैं। विशेषज्ञों का कथन है कि इस प्रकार जो प्रदूषण फैल रहा हैं, उसके कारण अगले दिनों पेयजल का गम्भीर संकट उत्पन्न होगा। प्रसिद्ध रसायन विशेषज्ञ नाटवल्ड डैफिमराइट ने नार्वे की सेट फ्लेयर झील से पकड़ी गई मछलियों का रासायनिक विश्लेषण किया तो पाया कि उनमें पारे की खतरनाक मात्रा मौजूद हैं। मछलियों में पारे का अंश कहाँ से आया? अधिक बारीकी से पता लगाया गया तो मालूम हुआ कि उस झील के किनारे से लगे हुए कारखाने से, जो औद्योगिक रसायन फेंका जाता था, उसमें पारे की भी एक बड़ी मात्रा होती हैं और वह गंदगी के रूप में बहती हुई झीलों में पहुँचती हैं। सोचा यह था कि यह पारा भारी होने कारण जल की तली में बैठ जाएगा। कुछ मछलियाँ यदि पारी से मर भी गई तो कुछ विशेष हानि नहीं होगी। पर यह अनुमान गलत निकला और मछलियाँ पारे कि प्रतिक्रिया से प्रभावित हुई तथा वह प्रभाव उनके शरीर में एक इकाई बनकर जम गया। उल्लेखनीय हैं कि इन मछलियों का भोजन के रूप में उपयोग करने के कारण कई मनुष्य अन्धे और पागल हो गए तथा सैकड़ों की तो मृत्यु हो गई।

इस तरह की सैकड़ों घटनाएँ सैकड़ों जाँचें हो चुकी हैं, जिनमें किसी क्षेत्रविशेष में कोई बीमारी अचानक फैली और उस बीमारी के कारणों की गम्भीरता से खोज-बीन की गई तो पता चला कि यह विपत्ति निकटवर्ती दूषित उन जलस्रोतों का पानी प्रयोग करने से आई हैं, जिनमें कारखानों द्वारा गंदगी छोड़ी जाती हैं। औद्योगीकरण के कारण केवल जलस्रोत ही दूषित हो रहे हैं, ऐसा भी नहीं हैं, बल्कि कल-कारखानों और रेल-मोटरों से जो धुँआ हवा में घोला जाता हैं वह भी बड़ी भारी विपत्ति बनकर निकट भविष्य में ही बरसने वाला हैं।

फिलहाल तो ब्रिटेन, जर्मनी, फ्राँस, बेल्जियम, अमेरिका जैसे उन्नत देशों में ही स्थिति विषम से विषमतर होती जा रही हैं, किन्तु शीघ्र ही धुएँ के जहरीले प्रभाव से सारा संसार संकट में पड़ने वाला हैं। रोम की राष्ट्रीय अनुसंधान समिति के निर्देशक रावर्टों पैसिनों ने वायुप्रदूषण के कारण उत्पन्न होने वाले खतरों की और संकेत करते हुए कहा है कि इससे व्यापक-जीवन की समस्या निकट भविष्य में ही खड़ी होने जा रही हैं। भले अभी कुछेक उन्नत देश ही इससे प्रभावित होते दिखाई दे रहे हों, किन्तु शीघ्र ही संसार भर के देश कम-ज्यादा रूप में घुलते जा रहे विषों के प्रभाव से यह आशंका भी व्यक्त की जा रही है कि संभवतः इन विषैले तत्त्वों के कारण सारी पृथ्वी ही भयंकर रूप से गर्म होकर जल जाए अथवा उस पर रहने वाले प्राणी धुएँ के कारण घुट-घुट कर मरने लगें।

इस दुःखद और दुर्भाग्यपूर्ण संभावना का वैज्ञानिक आधार बताते हुए वैज्ञानिक कहते हैं कि कारखानों की भट्ठियों और रेल-मोटरों से निकलने वाला धुँआ आकाश में छाने लगता है तथा अवसर पाते ही धरती की और झरने लगता है। यह झुकाव कभी भी इतना घना हो सकता है कि कभी भी कहीं भी, कोई भी दुर्घटना घट सकती हैं और हजारों लोगों को अपनी चपेट में लेकर मृत्यु की गोदी में फेंक सकती हैं। थर्मल इर्न्वशन (ताप व्यतिक्रमण) की प्रक्रिया शुरू होते ही धुँआ धुँध के रूप में बरसने लगता है। जब तक वायु गर्मी से प्रभावित रहती हैं, तब तक तो धुँआ-धुंध हवा के साथ ऊपर उठता रहता हैं, लेकिन जब शीतलता के कारण वायु नम हो जाती है तो धूलि का उठाव रुक जाता है और वह वायु दूषण नीचे की और गिरने लगता है। हवा का बहाव बन्द हो जाने पर तो यह विपत्ति और भी बढ़ती सकती है। पिछले दिनों कई देशों में पाँच-सात दिन तक इस तरह के विषैले धुएँ की धुँध छाई रही और इस धुँध के दौरान ही सैकड़ों लोगों की घुट-घुटकर बुरी तरह खाँसते अपने प्राण गँवाने पड़े। इस तरह की घटनाएँ अगले दिनों यत्र-तत्र घटेगी।

हजारों लोगों को एक साथ मार डालने वाली घटनाओं का ताँता न भी लगे, तो भी कल-कारखाने और रेल-मोटरें जिस तेजी से वायुमण्डल को विषाक्त करते जा रहे हैं, उनके कारण नये-नये रोगों के उत्पन्न होने की सम्भावना निश्चित ही समझनी चाहिए। वायुप्रदूषण के भयंकर खतरों की और वैज्ञानिक समय-समय पर ध्यान आकर्षित करते रहे हैं। कुछ समय पूर्व ब्रिटेन की पर्यावरण प्रदूषण शोध संस्था के वैज्ञानिक ने यह वक्तव्य प्रसारित किया कि “पिछले दिनों धुएँ के रूप में जितना विष वायुमण्डल में छोड़ा गया हैं और अब भी छोड़ा जा रहा हैं, यदि शीघ्र ही कोई नियन्त्रण नहीं किया गया तो बहुत जल्द ही ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाने वाली है, जिसमें विश्व के अधिकाँश जीवों का, जिसमें मनुष्यों के अतिरिक्त अन्य प्राणी भी आते हैं, सबको दम घोटकर चट कर जाएगा।” स्मरण रह यह चेतावनी आज से 18 वर्ष पूर्व की है।

भावी युद्ध हेतु अणु-आयुधों का निर्माण भारी मात्रा में हो रहा हैं। उनके परीक्षण विस्फोटों से जितना विकिरण अन्तरिक्ष में भर चुका, उसके फलस्वरूप अप्रत्यक्ष रूप से करोड़ों का शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा हैं और इससे नई पीढ़ियों को विकलांग, विक्षिप्त एवं अविकसित स्तर का जीवन-यापन करना पड़ेगा। यह विस्फोटों का सिलसिला अभी चल ही रहा है और उससे सर्वनाश का खतरा दिन-दिन बढ़ रहा हैं। अणुयुद्ध हुआ तब तो समझना चाहिए कि महाप्रलय जैसी स्थिति ही उत्पन्न होगी और इस धरती का वातावरण मनुष्य ही नहीं किसी अन्य प्राणी के जीवित रहने योग्य न रहेगा।

बढ़ता हुआ कोलाहल, नशों का अन्धाधुन्ध प्रयोग, रासायनिक खाद, कीटमारक छिड़काव आदि के फलस्वरूप मनुष्य की जीवन-शक्ति दिन-दिन घटने तथा विषाक्तता बढ़ने का दौर घटता नहीं, बढ़ता ही जा रहा हैं। ऐसी दशा में न शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा हो सकेगी और न मानसिक सन्तुलन की।

कुछ विपत्तियाँ ऐसी होती हैं जो शस्त्र प्रहार की तरह तत्काल प्राणसंकट उत्पन्न करती हैं, कुछ क्षय रोग की तरह अविज्ञात रहती और धीरे-धीरे गलाती, घुलाती, मरण के मुख में धकेलती हैं। जनसंख्या वृद्धि, वायु प्रदूषण, अणु-विकिरण कोलाहल, रासायनिक विषाक्तता, नशे जैसे संकट होते हैं, जो गलाकर समस्त मानव समाज को विनाश के गर्त में धकेलते जा रहे हैं

युगसन्धि की इस वेला में परिस्थितियाँ तो यही बताती हैं कि संकट बढ़ते चले जा रहे हैं। इनसे जूझना या मरण के सम्मुख सिर झुकाना यही दो मार्ग सामने है। अच्छा यही है कि विनाश के साथ मुठभेड़ करने की तैयारी की जाए। इसी में अपना बचाव हैं और इसी समस्त मानव समाज का संरक्षण।


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