श्रद्धा और विवेक का संगम ही करेगा युगपरिवर्तन

April 1998

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ऋतम्भरा-प्रज्ञा का संक्षिप्त उच्चारण ‘प्रज्ञा’ के रूप में होता है। ऋतम्भरा वह है जिसमें विवेक और श्रद्धा का समुचित समावेश हों विवेक उस को कहते है जिसमें तर्क तथ्य और दूरदर्शिता का समुचित समावेश हो। श्रद्धा उस-आस्था का नाम है जो उत्कृष्टता आदर्शवादिता को अत्यधिक प्यार कर और उस स्तर के चिंतन तथा कर्तृत्व से भावभरे रसास्वादन का आनन्द प्रदान करे। विवेक को बुद्धि का उत्कृष्टतम स्तर माना गया है। श्रद्धा अन्तःकरण की श्रेष्ठतम उपलब्धि है। दोनों का जहाँ जितना सम्मिश्रण होता है वहाँ उतनी ही महानता दृष्टिगोचर होती हैं उसी उपलब्धि के सहारे सामान्य परिस्थितियों में जन्मे पले व्यक्ति भी ऐतिहासिक महामानवों की भूमिका निभाते और विश्वनिर्माण में असाधारण योगदान करते है।

अगले दिनों मनुष्य की सबसे बड़ी सम्पदा एवं उपलब्धि ऋतम्भरा-प्रज्ञा मानी जाएगी। यों कथा-प्रसंगों में और धर्म-प्रवचनों में प्रज्ञा की महिमा बहुत गायी जाती है और ब्रह्मविद्या का सुविस्तृत है किन्तु उसे व्यवहार में कार्यान्वित करने का अवसर किन्हीं विरलों को ही मिलता है। सामान्य जीवनक्रम में उसका समावेश नहीं के बराबर होता है। जो बात व्यवहार में नहीं आती वह कठिन या असम्भव मानी जाती है प्रेरणा प्रदान करने में अनुकरण की परिस्थितियाँ ही कुछ अपनाने और कुछ करने की मानवीय दुर्बलता ही सर्वत्र संव्याप्त है। मौलिक चिंतन की प्रखरता और मौलिक निर्णय की साहसिकता इन्हीं विरलों में ही होती है। बिना दूसरों का प्रभाव ग्रहण किए उच्चस्तरीय नीति अपनाने और उस पर अन्त तक दृढ़ बने रहने का आत्मबल तो दृष्टिगोचर होता है। प्रज्ञा के माहात्म्य की चर्चा करते रहना सरल है पर उसे अपनाना कठिन है। कठिन इसलिए नहीं कि व्यवहार में जटिल है असम्भव है। कारण मात्र इतना भर है कि अनगढ़ प्रचलनों से आच्छादित वातावरण में अनुकरण के उदाहरण न मिलने से सामान्य व्यक्ति उस दिशा में पग बढ़ाते हुए डरता है।यह डर ही वह बाधा है जो प्रज्ञा को अपनाकर मंगलमय जीवनयापन करने के आनन्द से मनुष्य को वंचित किए रहती है।

प्रज्ञावतार से उत्पन्न युगांतरीय चेतना की विशेषता यह होगी कि अनायास ही जन-जन के मन में ऐसा उल्लास उत्पन्न करेगी, जिसमें अन्तःप्रेरणा ही वह कार्य कर सके तो सामान्य व्यक्ति के लिए सामान्य परिस्थितियों में सम्भव नहीं होता। असम्भव को सम्भव बना देना यही अवतार-प्रक्रिया का प्रधान चमत्कार है।

रावण का आतंक दसों दिशाओं में संव्याप्त था। उसके विरोध-प्रतिरोध की बात कोई सोचता तक न था। इतने दुर्दान्त दानव परिवार की शक्ति-सामर्थ्य का अनुमान लगाने वाले बेतरह निराश और भयभीत हो जाते थे। अनीति-सहते-सहते मरते तो असंख्यों थे पर लड़ते हुए मरने का शौर्य किसी में भी जगता न था। सीता अपहरण जैसी हृदयविदारक घटना हुई पर न अयोध्या से प्रतिरोध-प्रतिरोध का प्रयास हुआ और न मिथिला से। रघुवंशी भी चुप थे और राजा जनक के स्वजन-परिजन भी। ऐसे आतंक की चीरते हुए अशिक्षित और अनगढ़ समझे जाने वाले रीछ-वानरों का शौर्य उभरा और वे प्रत्यक्ष मरण से लड़ने में सम्भावित मरण का उल्लासपूर्वक वरण किया। गिलहरी उस धर्मयुद्ध में सहायता करने के लिए बालों में भर-भरकर बालू लाई। घटनाएँ अत्यधिक महत्व की भले ही न हों, पर तथ्य स्पष्ट होता है कि आतंक को चीरते हुए जब सत्साहस अप्रत्याशित रूप से उभरे तो समझना चाहिए कि कोई दैवी चेतना काम कर रही है और बुद्धि लगाये जाने वाले गणित को निरस्त करके असाधारण का परिचय दे रही है। अवतार की प्रक्रिया यही है। प्रेरक राम थे या हनुमान बहस इस बात की नहीं तथ्य यह है कि अन्तरालों ने आदर्शवाद अपनाया और घाटे का सौदा स्वीकार करने वाले दुस्साहस का परिचय दिया।

कृष्णकाल में इन्द्र के आतंक से ब्रज जलमग्न हुआ जा रहा था। सामान्य बुद्धि भाग खड़े होने के अतिरिक्त और कोई उपाय सोच ही नहीं सकती थी। असम्भव को सम्भव बनाने वाला साहस उभरा। ग्वाल-बाल शिलाखंड को दूर-दूर से लगे। विशालकाय बाँध बना। बाढ़ और वर्षा से होने वाली हानि टली। इन्द्र हारा मनुष्य जीता। असम्भव लगने वाला कार्य सम्भव हुआ। गोवर्द्धन उठ गया। सृजन से श्रमशक्ति के नियोजन का सत्परिणाम प्रत्यक्ष हुआ। सामान्यतया ऐसे बड़े कार्य किसी सुसम्पन्न शासनतंत्र से ही बन पड़ते है। निहत्थे और निर्भय श्रमिक किशोरों में न इतना ज्ञान होता है न अनुभव। सामान्य वणिक बुद्धि इस प्रकार के दुस्साहसों अनर्थ होने का ही निष्कर्ष निकालती है। और ऐसे झंझट में उलझने से दूर रहने का ही परामर्श देती है। इसके विपरीत महान उद्देश्य के लिए जोखिम भरे दुस्साहस के लिए कटिबद्ध हो जाना असाधारण आदर्शवादिता का ही काम है। ऐसी प्रेरणा प्रज्ञा के अतिरिक्त और कोई दे नहीं सकता।

दुर्योधन के पास जन-शक्ति और साधन-शक्ति असीम थी। पाण्डव अज्ञातवास में जान बचाते फिर रहे थे। कोई सहायक न था। सहायता करने में किसी को अपनी खैर नहीं दीखती थी। पाण्डव अपने बलबूते न सेना खड़ी कर सकते थे न शस्त्र जुटा सकते थे। ऐसी दशा में निरीह पाण्डवों का कौरवों की अनीति से लड़ना सम्भव न था। फिर भी असम्भव सम्भव हुआ। न्याय पक्ष के समर्थन में महाभारत रचा गया और उसमें पराजय की सम्भावना को समझते हुए भी असंख्यों आदर्शवादी धर्मयुद्ध लड़ने के लिए पहुँचे। साधनहीनता ने साधनों की विपुलता को पछाड़ा। इससे असमर्थों की साहसिकता देखते ही बनती है। यह चमत्कार मात्र अवतार ही कर सकता है। आदर्शों के लिए घाटा स्वीकार करते हुए लड़ मरने की साहसिकता का अनुदान अवतार के अतिरिक्त और किसी के पास होता ही नहीं।

बुद्धकाल के दुर्दिनों में जन-मानस को कुत्साओं और कुण्ठाओं ने बेतरह पाप-पंक में डुबा रखा था। पुरोहित वर्ग इस अनाचार का मूर्धन्य मार्गदर्शन कर रहा था। ऐसी दशा में विचारक्रान्ति का शंखनाद दुहरे संकट से भरा था। वातावरण की प्रतिकूलता में समर्थकों और सहयोगियों की सम्भावना अत्यन्त क्षीण थी।

विपक्षियों को निहित स्वार्थों में आँच आने से कुद्ध होना और घातक आक्रमण करना स्वाभाविक था। अंगुलिमाल ने प्राणहरण की बीड़ा उठाया और आम्रपाली ने चरित्र हनन का। ऐसे घोर निराशा भरे वातावरण में परिस्थितियों को उलट देने वाला उभार उमड़ पड़ना निश्चय ही अप्रत्याशित था। बुद्ध के अभियान को भरपूर सहायता मिली। लाखों व्यक्ति सुख-सम्पदा को लात मारकर चीवरधारी परिव्राजक बने सम्पन्नों से लेकर निर्धनों तक ने उसका सहयोग किया। न जन-शक्ति की कमी रही न धनशक्ति की। आदर्शवादी पराक्रम आँधी-तूफान की तरह उफनता चला गया। और प्रतिकूलताएँ इस प्रकार अनुकूल होती चली गई मानों मनुष्य को निमित्त बनाकर भगवान ने सारा विधान पहले से रचपचकर तैयार रखा हो। बुद्ध की क्षमता और परिस्थितियों की विषमताओं का असन्तुलन रहते हुए भी जो परिणाम उत्पन्न हुए इन्हें अवतारलीला के अतिरिक्त और क्या कहा जाए? आदर्शवादी कथनीय कथन तो बहुत होते रहते है पर ऐसे दुस्साहस कदाचित ही कभी फूटते है। जब लोग आदर्शों के परिपालन में अपना सर्वस्य समर्पण करने की सोचे ही नहीं वरन् हजार प्रतिकूलताओं के रहते हुए भी उसे कर ही गुजरे। आदर्शवादी दुस्साहस ही अवतार है। वह एक भावनात्मक प्रवाह के रूप में उत्पन्न होता है और असंख्यों का अनुप्राणित करता है। श्रेय किस व्यक्ति मिला प्रमुख किसे माना जाए यह बात नितान्त गौण है। झण्डा लेकर आगे चलने वाले की ही छवि फोटो में आती है। यद्यपि उस सैन्यदल में अनेकों का शौर्य पुरुषार्थ झण्डाधारी की तुलना में कम नहीं अधिक ही होता है।

गाँधी युग में भी ऐसा ही चमत्कार उत्पन्न हुआ। अँगरेजों की समर्थता और कुशलता पहाड़ जितनी ऊँची थी। उनके राज्य में सूर्य अस्त नहीं होता था। युद्ध कौशल में वे अपना सानी नहीं रखते थे। निहत्थे मुट्ठीभर सत्याग्रहियों की टोली उनका कुछ बिगाड़ सकेगी इसकी आशा-अपेक्षा किसी को भी नहीं थी। हजार वर्ष की गुलामी से अस्त-व्यस्त जनसमुदाय में ऐसा साहस भी नहीं थी कि इतने सशक्त विपक्ष के साथ लड़ मरने लिए अभीष्ट त्याग-बलिदान का परिचय दे सके। ऐसी निराशाजनक परिस्थितियों में एक अप्रत्याशित उभार उमड़ा। स्वतन्त्रता संग्राम ठना और अन्ततः विजयी होकर रहा। जनसाधारण ने उस सन्दर्भ में जिस पराक्रम का परिचय दिया वह देखने ही योग्य है। असमर्थता की समर्थता और साधनहीनों के साधन असहायों की सहायता करने के लिए वे अनुकूलताएँ न जाने कहाँ से आ उपस्थित हुई। असम्भव लगने वाला लक्ष्य पूरा होकर रहा। यही है सूक्ष्मजगत में बहने वाली प्रचण्ड शक्तिधाराओं का प्रवाह जो ऊपर ही से शान्त और सामान्य दीखते हुए भी भीतर से ज्वालामुखी जैसी विस्फोट की क्षमता छिपाये बैठा रहता है। जब फूटता है तो सब कुछ उलट देता है इसी बुद्धि के लिए अगम्य विलक्षणता को अवतार कहते है। अवतार का दार्शनिक विश्लेषण उस ऋतम्भरा-प्रज्ञा की उमंग भरी हलचल के रूप में किया जाता है जो मात्र अन्तःकरणों में अनायास ही उभरती है और आदर्शवादी दुस्साहस कर गुजरने के लिए विवश करती है। यह अवतरण एक पर नहीं अनेकों पर होता है। जो इस ऊर्जा के वाहन बनते है उनके पराक्रम असामान्य होते है। उनकी परिस्थिति और मनःस्थिति में कोई तालमेल नहीं रहता। असाधारण सोचना और असाधारण कर गुजरना सामान्य लोगों का काम नहीं। लोग तो संकीर्ण स्वार्थपरता से आगे की बात सोच ही नहीं पाते। उन्हें निकट का ही दीखता है दूर का नहीं अस्तु न लोभ छोड़ते बनता है और न शौर्य अपनाते। अवतार इस प्रचलन से विपरीत सोचने और बिना समर्थन पाए एकाकी चल पड़ने की सामर्थ्य प्रदान करता है। इस आवेश में कितने ही व्यक्ति बहकर गुजरते है। जिसे देव-पराक्रम के रूप में माना जाता है। इस प्रकार की चेष्टाएँ अपने कर्ता को धन्य बनाती है। वह असंख्यों के लिए उत्कृष्ट पराक्रम कर गुजरने का साहस अपने अनुकरणीय आदर्श द्वारा प्रदान करता रहता है। ऐसे व्यक्ति देवदूत कहलाते है। सामान्य भाषा में इन्हें महामानव कहा जाता हैं अवतार का प्रधानकार्य आने लीलाकाल में देवदूतों में अदृश्य वातावरण की उच्चस्तरीय उमंगें भर देना भर होता है। शेष कार्य तो वे युगसृजेता स्वयं ही करते रहते हैं। सफलता सहज ही उन्हें भी नहीं मिल जाती। प्रतिकूलताओं से लड़ने का पराक्रम और अपने अनुदानों से लोकश्रद्धा उभारने वाला वरदान प्रस्तुत करते रहना ऐसे लोगों के लिए तनिक भी कष्टसाध्य नहीं होता। सामान्य लोग जिसे मुसीबत मोल लेना कहते है मनीषियों के लिए वही कष्ट सहना युगसाधना के रूप में सम्मानित होता है। तत्त्वदर्शी इन्हीं अदृश्य हलचलों को जाग्रत आत्माओं के अन्तःकरणों में उछलती देखते हैं तो कहते है अवतार का आवेश असन्तुलन को सन्तुलन में बदलकर ही रहेगा।

अवतार क्या करता है? उसके लीलाप्रसंग क्या होते है? इसका स्थिर निश्चय नहीं हो सकता। परिस्थिति के अनुरूप हर अवतार ने अपने क्रिया−कलाप निर्धारित किए और आवश्यकतानुसार बदले है। लीलाओं का महत्व नहीं। उनमें पाई जाने वाली विलक्षणताओं एवं विसंगतियों का भी कोई महत्व नहीं सारभूत का तथ्य इतना ही है कि उस अदृश्य प्रेरणा से हर सुसंस्कृत अन्तरात्मा में कुछ ऐसा कर गुजरने का दुस्साहस उमड़ता है जिसको चरितार्थ होते देखकर आदर्शवादिता असंभव नहीं लगती वरन् व्यवहार साध्य प्रतीत होती है। प्रवाह की उत्पन्न करने में भगीरथों को अग्रणी भर होना पड़ता है आगे तो उसी धारा में असंख्य सामान्यों को अनायास ही बहते देखा जाता है।

प्रज्ञा अवतरण में उसी परम्परा का निर्वाह होने जा रहा है। श्रद्धा और विवेक का संगम युगशक्ति के रूप में प्रकट हो रहा है। श्रद्धा अपनाने में पूर्ण तथ्यों को खोजने और यथार्थता अपनाने के लिए विवेक का अवलम्बन लेना पड़ता है, अन्यथा अविवेक के रहते अन्धश्रद्धा ही पनपती है और उससे लाभ के स्थान पर हानि होती है। बलिष्ठता शरीर की बुद्धिमत्ता मस्तिष्क की, श्रद्धा अन्तरात्मा की शक्ति है। यही चेतनाक्षेत्र की सर्वोपरि क्षमता है। श्रद्धा ही मनुष्य को अनन्त सामर्थ्य प्रदान करती हैं उत्कृष्टता को व्यवहार में उतारने वाला दुस्साहस उसी उद्गम से प्रस्फुटित होता है। जिन्हें श्रद्धा की जितनी मात्रा मिल सकी उन्होंने उतने ही उच्चस्तरीय और उतने ही सुविस्तृत महान कार्य सम्पन्न किये है। जिसकी अन्तःश्रद्धा जिस स्तर की है उसका जीवन स्वरूप ठीक उसी के अनुरूप बन जाती हैं ईश्वरीय प्रयोजन का पूरा करने में अपने प्रचण्ड पुरुषार्थ की श्रद्धांजलि लेकर युगदेवता के चरणों में उपस्थित होने वाले अवतार के सहधर्मी-सहकर्मी माने जाते है। अनन्त श्रेय के स्वामी ऐसे ही लोग बनते है युगशिल्पियों के स्तर का विस्तार होना इस तथ्य का प्रमाण है कि अवतार की तत्परता कितनी प्रखर हो रही है।

श्रद्धा से सामर्थ्य उत्पन्न होना सुनिश्चित तथ्य है। सामर्थ्य का आकर्षण साधनों और सहयोगियों का प्रचुर परिमाण में खींचकर बुला लेता है उच्चस्तरीय उद्देश्यों की पूर्ति सदा इसी प्रकार सम्भव होती रही है। साधनों में श्रद्धा उत्पन्न करने की सामर्थ्य नहीं हैं साधन सम्पन्न दृश्य खड़े करने और हलचलों का चलचित्रों जैसा प्रतिबिम्ब भर खड़ा कर सकते है। मात्र साधनों से विनिर्मित प्रयास लोगों को आकर्षित चमत्कृत तो करते है पर अनुकरण की प्रेरणा नहीं देते। यही कारण है कि धनिकों कलाकारों विद्वानों प्रचारकों द्वारा खड़े किये अभियान आन्दोलन अपनी उछल-कूद का परिचय तो देते हैं पर कोई ठोस कार्य कर सकने में सफल नहीं होते। जहाँ तक मनुष्यों को दिशाधारा देने का प्रश्न है उनकी अन्तःस्थिति में उत्कृष्टता,अभिवर्द्धन का प्रश्न है वहाँ तक एक ही उपाय कारागार होता हैं श्रद्धासिक्त व्यक्तियों का अनुकरणीय आचरण श्रद्धा के बिना और किसी प्रकार बन नहीं पड़ता। श्रद्धा साधनों के अभाव में भी अपना चमत्कार प्रस्तुत करती है जबकि साधनों को प्रशंसा तक ही सीमित रहना पड़ता है वे श्रद्धा का संचार कर सकने में सदा असफल ही बने रहते है। युगपरिवर्तन बड़ा काम है। लोक-मानस को अवांछनीयता से विरत करके उत्कृष्टता के प्रति भावविभोर हो उठने की स्थिति को समष्टि व्यक्तित्व का कायाकल्प ही कहा जा सकता है। यह बड़ा काम है इसके लिए बड़ी शक्ति चाहिए। चेतना को प्रभावित करने वाली शक्ति एकमात्र श्रद्धा ही है इसी को गँवा बैठने से अपने समय को दुर्दशाग्रस्त होना पड़ा है। इसी अभाव के कारण साधनों की बहुलता भी सुख-शान्ति को बनाए रहने तक में सफल नहीं हो पा रही है। समस्याओं और विपत्तियों का तथ्य मूल-कारण आस्था-संकट के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं श्रद्धा का संवर्द्धन ही प्रकारान्तर से नवयुग का सतयुग का अवतरण है। सूर्य की किरणें पहले पहाड़ की चोटी पर दिखाई देती है पीछे नीचे उतरकर समस्त भूतल को आलोक प्रदान करती है।

प्रज्ञावतार का प्रभाव सबसे पहले जाग्रत आत्माओं पर चमकेगा। तदुपरान्त जन-साधारण को उस दिव्य-अनुदान से लाभान्वित होने का अवसर मिलेगा।


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