युगसन्धि का विशिष्ट अवसर -परिवर्तन का महापर्व

April 1998

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ठन दिनों युगसन्धि का शुभारम्भ है। अदृश्यदर्शियों से लेकर राजनेताओं और दार्शनिकों से लेकर अर्थशास्त्रियों तक इस तथ्य को समझते और स्वीकार करते है। तर्क और तथ्य दोनों ही किसी महान परिवर्तन की आवश्यकता ही नहीं सम्भावना भी देखते है। क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। रात्रि का अन्त दिन में होता है और मरण कालान्तर में जीवन बनकर प्रकट होता है। पेड़ से टूटा फल कुछ ही समय बाद अंकुरित होता और स्वयं उस स्तर का बनता है जैसा कि पिछले समय उसे आश्रय के लिये मिला था। गतिचक्र की प्रक्रिया में यह भी सम्मिलित है कि संकटों से सताये जाने पर पौरुष उभरे और ऐसा कुछ कर गुजरे जैसा कि सामान्य जीवन में सम्भवतः बन ही नहीं पड़ता। लंघन के बाद तेजी से भूख बढ़ती और स्वास्थ्य सुधरता है। प्रसूतायें भारी क्षति उठाने के कारण उन दिनों अत्यन्त क्षीण दुर्बल दीखती हैं किन्तु प्रसव के उपरान्त उनका स्वास्थ्य इतनी तेजी से सुधरता है कि उस क्षति का पतन और उत्थान का भी यही क्रम है। प्रकृति का गतिचक्र इसी प्रकार घूमता है। न पतन स्थिर रहता है,न उत्थान। बचपन पाने के लिए परिवर्तन का नया रोल अपनाता प्रक्रिया के सहारे ही इस संसार की सारी व्यवस्था चल रही है।

प्राचीनकाल में इस धरती पर स्वर्ग बिखरा हुआ था मनुष्य में देवस्तर की उत्कृष्टता विद्यमान थी। संस्कृति का वह भव्य भवन जराजीर्ण होते होते खण्डहर वस्तुऐं दुर्गतिग्रस्त भी तो सही पर प्रतिक्रिया ने उन्हें पहले की अपेक्षा कहीं अधिक समुन्नत बना दिया।

मध्यकाल अन्धकार युग की तरह बीता है। उसमें हर स्तर की विकृतियाँ बढ़ी। अंधेरे की प्रकृति ही कुछ ऐसी है। निशा स्तर का हर प्राणी अपने अपने ढंग के कुचक्र रचता और अनाचार करता है। मध्यकाल में शासन में सामंतवाद घुसा। साथ ही पूँजीवादी बिखराव, दास और स्वामी छत अछूत जैसी विकृतियाँ अपने ढंग से बढ़ती चली गई। मत्स्य न्याय का बोलबाला हुआ। दुर्बल समर्पण करते चले गये। तूफान में विशाल वृक्ष भी टूटते उखड़ते देखे जाते है।

संसार की समग्र परिस्थिति पर विचार करने पर भी वैसा ही अंधेरा दिखाई पड़ता है। यों वायुप्रदूषण,रेडियो विकिरण जल की कमी,जनसंख्या वृद्धि ऊर्जासंकट उत्पादन स्रोतों का सूखना-प्रकृति-प्रकोप जैसी विभीषिकाएँ भी कम भयानक नहीं है, पर अणु आयुधों के माध्यम से लड़े जाने वाले भावी युद्ध की परिणति पर विचार करने मात्र से रोमांच खड़े होते है और लगता है-प्रलय का दिन अब दूर नहीं रहा। सामूहिक आत्महत्या के लिये मनुष्य का प्रवर्तन अब तब में आरम्भ होने ही वाला है। खुली आँखों से देखने पर लोग चलते फिरते कमाते-खाते,सो -जागते सामान्य जीवन जीते दिखाई पड़ते है और छुटपुट उपद्रवों के अतिरिक्त कोई बड़ा प्रत्यक्ष संकट दिखाई नहीं पड़ता। किन्तु जो अप्रत्यक्ष को देख और समझ सकते है, वे जानते है कि स्थिति कितनी भयावह है शहतीर में लगा घुन, रक्त में घुसा केन्सर चढ़ा हुआ ऋण, प्रत्यक्ष नहीं दीखते पर वे विपत्ति रहते हैं। प्रत्यक्ष न होने के कारण उनकी विभीषिका को हलका नहीं माना जा सकता। स्थिति को और भी अधिक अच्छी तरह समझने की आवश्यकता है ताकि उसका उपाय रहते कुछ सोचा ताकि और उपचार असंभव होने से पहले ही कुछ किया जा सके।

यह पृथ्वी ब्रह्माण्ड में उड़ने वाले असंख्य ग्रह-पिण्डों से असाधारण और अद्भुत है। लगता है उसे स्रष्टा ने अपने समस्त कलाकारिता संजोकर बनाया है और उस पर रहने वाले मनुष्य को कुछ ऐसा बनाया है कि वह उसकी इच्छा के अनुरूप धरती के वातावरण को सुरम्य बना सकने में समर्थ हो सके। इतने पर भी विकृतियाँ तो विकृतियाँ ही है। पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति की तरह निकृष्टता भी मानवी चेतना को पतनोन्मुखी प्रेरणा देती रहती है। रोकथाम में ढील पड़ने पर पतनक्रम वैसा ही तेजी घूमने लगता है जैसा कि इन दिनों देखा जा सकता है। इन परिस्थितियों के बेकाबू होने से पूर्व ही स्रष्टा को साज संभाल करनी पड़ती है। असंतुलन को मनुष्य जब तक संभाल सके। तब तक ठीक, अन्यथा स्रष्टा अपनी विशिष्ट सत्ता को गतिशील करते और अव्यवस्था को व्यवस्था में बदलते हैं। भगवान के अवतारों की श्रृंखला भूतकाल में भी यहीं करती रही है और इन दिनों भी यही करने जा रही है। ऐसे विशिष्ट अवसरों का युगसन्धि कहते है।

युगपरिवर्तन की इस सन्धिवेला में विनाश की विभीषिकाएँ अधिक भयावह होने जा रही है। दूसरा पक्ष सृजन का है, शुभारम्भ के दिनों की तत्परता देखते ही बनती है। शिशुजन्म,नया गृहस्थ शिलान्यास जैसे अवसरों पर लोग भावावेश में होते और भारी दौड़-धूप करते देखे जाते है। सृजन की शक्तियाँ भी इन दिनों उतनी ही सक्रिय है जितनी कि मरणासन्न विध्वंस की।

युगसन्धि की प्रसवपीड़ा से उपमा दी गई है। एक ओर असह्य व्यथा वेदना दूसरी ओर सुखद सम्भावना की गुदगुदी। ऐसे समय में डॉक्टर और नर्स पूरी सतर्कता बरतते हैं इन इन दिनों जाग्रत आत्माओं की भूमिका भी ऐसी ही होनी चाहिये जिससे विनाश से आत्मरक्षा और विकास का परिपोषण भली प्रकार सम्भव हो सके।

अशुभ से न तो डरना चाहिये और न शुभ के हर्षातिरेक में अकर्मण्य बनना चाहिये। विशेष अवसरों पर विशेष स्तर के धैर्य सन्तुलन साहस और पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। असन्तुलन में तो हानि ही हानि है। हड़बड़ाने से विपरीत बढ़ती है और सुखद सम्भावनाओं के अस्त व्यस्त होने का भय रहता है।

विशिष्ट अवसरों की आपत्तिकाल कहते है और उन दिनों आपत्ति धर्म निभाने की आवश्यकता पड़ती है। अग्निकाण्ड, दुर्घटना दुर्भिक्ष बाढ़ भूकम्प युद्ध महामारी जैसे अवसरों पर सामान्य कार्य छोड़कर भी सहायता के लिये दौड़ना पड़ता है। छप्पर उठाने धान रोपने शादी -खुशी में साथ रहने सत्प्रयोजनों का समर्थन करने के लिये भी निजी काम छोड़कर उन प्रयोजनों में हाथ बटाना आवश्यक होता है। युगसन्धि में जागरूकों को युगधर्म निभाना चाहिये व्यक्तिगत लोभ मोह को गौण रखकर विश्वसंकट की इन घड़ियों में उच्चस्तरीय कर्तव्यों के परिपालन को प्रमुख प्राथमिकता देनी चाहिये। यही परिवर्तन की इस प्रभातवेला में दिव्य प्रेरणा,जिसे अपनाने में ही हर दृष्टि से हर किसी का कल्याण है।


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