महाराज भोज एक दिन लेटे-लेटे सोचने लगे कि लक्ष्मी जब चंचला हैं, तब जो ऐश्वर्य के अधिकारी हैं, उन्हें अपने वैभव का सदुपयोग करना आवश्यक हैं। अतः दूसरे दिन उठते ही जरूरतमन्दों को बुलाकर उन्होंने अनुदान देना शुरू कर दिया, ताकि वे स्वावलम्बी बन सकें। प्रजा अपने महाराज की इस उदारता पर फूली न समायी।
महामंत्री तनिक संकुचित एवं संकीर्ण मनोवृत्ति के थे। वे सोच में पड़ गए, भला ऐसे अनुदान देते रहने से राजलक्ष्मी कितने दिन रहेगी? उन्होंने दानशाला की दीवार पर जहाँ महाराज की नजर अवश्य पड़े, लिख दिया- आपातकाल के लिए धन की सुरक्षा करना कर्तव्य हैं।”
दूसरे दिन महाराज ने पूछा-यह किसने लिखा हैं? पर जब किसी ने उत्तर नहीं दिया, तो उसके नीचे उन्होंने लिख दिया-भाग्यशाली को आपत्ति कहाँ?” महामंत्री ने जब पढ़ा तो उसी के नीचे और लिख दिया-भाग्य यदि कुपित हो जाए तो?”
राजा ने इसके उत्तर में लिखा-पुरुषार्थी अपने भाग्य का कोप शान्त करने में समर्थ होते हैं। यही नहीं, वे अपने प्रचण्ड-पुरुषार्थ से नए भाग्यविधान की रचना करते हैं।”
इस पर निरुत्तर होकर महामंत्री ने आत्मसमर्पण कर दिया और महाराज के अनुदान से युवा स्वरोजगार योजना अबोध गति से चलती रही।