युगपरिवर्तन में अन्तरिक्ष-विज्ञान का उपयोग

April 1998

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अन्तरिक्ष विज्ञान भू-विज्ञान से कम महत्वपूर्ण नहीं है। जल और थल की तरह आकाश पर विजय प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील मनुष्य यदि चाहे तो अपने पुरुषार्थ में एक कड़ी और जोड़ कसता है कि ग्रहों के सूक्ष्मप्रभाव से पृथ्वी के वातावरण तथा प्राणिपरिवार को जो अनुकूलता, प्रतिकूलता सहन करनी पड़ती है उसके सम्बन्ध में उपयुक्त जानकारी प्राप्त करे और तद्नुरूप उपाय खोज निकाले। प्राचीनकाल में ज्योतिष विज्ञान के दोनों पक्ष ग्रहों की गतिविधियाँ तथा उनकी सूक्ष्म प्रतिक्रियाओं की जानकारी भली प्रकार उपलब्ध रहती थी, फलतः वे प्रतिकूलताओं से बचने तथा अनुकूलताओं से लाभ उठाने का मार्ग भी निकाल लेते थे। मनुष्य ने ज्ञान विज्ञान को अनेक शाखा प्रशाखाओं में विकसित करके प्रगति के पथ पर बहुत आगे तक बढ़ चलने में सफलता पाई है। ग्रह विद्या का महत्व इन सबकी तुलना में कम नहीं वरन् अधिक ही है। अन्य विज्ञान सामयिक, सीमित और सम्बद्ध लोगों को ही प्रभावित करते है और क्षेत्र भी अत्यन्त व्यापक। ऐसी दशा में उनके साथ जुड़े हुए संबंध सूत्रों और आदान प्रदानों के संबंध में भी हमारी जानकारी उपयुक्त स्तर की होनी चाहिए।

मौसम से लेकर राजनैतिक घटनाक्रमों तक को देखकर लोग अपनी योजनाओं का निर्धारण परिवर्तन करते रहते है। ग्रहों की स्थिति से उत्पन्न प्रभावों के संबंध में भी यह तथ्य कम महत्वपूर्ण नहीं है। अनुकूलताओं का सम्भावनाओं का यदि पूर्वाभास मिल सके, तो निश्चय ही वैयक्तिक एवं सामूहिक सुख शान्ति एवं प्रगति के ऐसे सूत्र मिल सकते है, जो उज्ज्वल भविष्य की संरचना में अत्यन्त लाभदायक सिद्ध हो सके।

अन्तरिक्ष का महत्व विज्ञान क्षेत्र ने समझा है। इसमें भरी हुई सम्पदा सूक्ष्म होने के कारण धरती और समुद्र में पाये जाने वाले सम्पदा भण्डार से कहाँ अधिक है। अब तक जो भी कुछ पाया गया है, उसमें जल और थल की अपेक्षा आकाश का अनुदान अधिक है। वर्षा आकाश से होती है। हवा भी आकाश में भरी है। बिजली, रेडियो, लैसर आदि के संचार आकाश से है, ध्वनि, ताप, प्रकाश आदि की तरंगों का प्रवाह आकाश में ही चलता है। धरती को अन्तर्ग्रही अनुदान भी उसी क्षेत्र से मिलते है। अदृश्य जगत की सत्ता उसी का घोल है। दिव्यप्राणी इसी में निवास करते है। विचार-तरंगें इसी में परिभ्रमण करती है। ऐसे ऐसे अनेकों आधार जिनसे स्पष्ट है कि दृश्य भू मण्डल की तुलना में अदृश्य आकाश में विद्यमान असंख्य गुना अधिक है।

अध्यात्म विज्ञानी तो अनादिकाल से अपनी गतिविधियों को आकाश पर केन्द्रीभूत रखे रहे है। अदृश्य जगत, सूक्ष्मजगत ही उनका उत्पादन क्षेत्र रहा है। उस कमाई का दृश्य पृथ्वी पर तो खर्च भर करते है। ऋद्धि और सिद्धियों का प्रयोग प्रदर्शन ही प्रत्यक्ष हैं यह तो उपार्जन का प्रयोग उपभोग करना भर है। जहाँ से यह सब कमाया जाता है, वह परोक्ष हैं परीक्षा का विस्तार आकाश में है, मानवी अन्तराल में तो उसकी बीज सत्ता भर है। साधना का आरम्भ अन्तराल में किया जाता है, पर उस आरम्भ को प्रतिफल तक पहुँचने के लिए अन्तरिक्षीय शक्तियों का ही सहयोग लेना पड़ता है।

भौतिक विज्ञानी इस तथ्य को अब पहले की अपेक्षा और भी अधिक अच्छी तरह समझने लगे है। धरती से वनस्पति और खनिज सम्पदा उपलब्ध करने के प्रयास चिरकाल से चलते आ रहे है। इन दिनों उनमें कटौती की गई और अन्तरिक्ष को खोज पर पूरा ध्यान केन्द्रित किया गया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि धरती और समुद्र के उपार्जन की आवश्यकता नहीं रही या वे क्षेत्र अब सम्पदारहित ही गये। अन्तरिक्ष को प्रमुखता देने का अर्थ है कि यहाँ से अधिक मूल्यवान उपार्जन सम्भव है। उदाहरण के लिए, सौरऊर्जा को लिया जा सकता हैं। धरती पर कोयला, भाप तेल, बिजली, अणु यह पाँचों ईंधन जितने उपलब्ध हो सकते है वे कम भी पड़ते जा रहे है और महँगे भी सिद्ध हो रहे है। अस्तु प्रयत्न यह चल रहा है कि सौरऊर्जा करतलगत की जाए। यह सस्ती है और अकूत भी। लेसर से लेकर मृत्यु किरणों तक एक से एक बढ़कर ऐसी शक्तियाँ आकाश से ही उपलब्ध ही रही है, जो अणुविस्फोट जैसे आत्मघाती युद्धोन्माद के परिणाम उत्पन्न कर सकती है। न केवल युद्ध विजय वरन् सुविधा संवर्द्धन की दृष्टि से बहूमूल्य उपलब्धियाँ भी उसी से मिल सकती है। उदाहरण के लिए, तार, टेलीफोन, रेडियो, टेलीविजन की आवश्यकता पूरी करने के लिए छोटे-छोटे उपग्रहों से काम लिया जा रहा है। यह पद्धति नितान्त सरल और सस्ती है। सोचा यह जा रहा है कि आकाश विजय के साथ ऋतुओं पर भी नियन्त्रण किया जा सके। जब जहाँ इच्छा हो, वहाँ उतनी वर्षा करा लेने गर्मी सर्दी का घटा बढ़ा लेने से वनस्पति उपार्जन और प्राणियों की सुविधा में भारी प्रगति हो सकती है। सौरऊर्जा के हस्तगत होते ही ईंधन का संकट सदा सर्वदा के लिए समाप्त हो जाएगा। तब समुद्र को लहरों से बिजली बना लेना और उसके खारी जल को मीठा बना लेने में कोई कठिनाई न रहेंगी। यही है वे स्वप्न अथवा लक्ष्य, जिन्हें पूरा करने के लिए अब विज्ञान, वैभव और वर्चस्व ने मिलकर आकाश विजय की ठान ठानी है।

प्रस्तुत संकटों में सबसे भयानक है वायुप्रदूषण। विषाक्तता बढ़ते जाने से आकाश में कचरा इतना भर गया है कि उसके रहते मनुष्यों एवं प्राणियों के लिए दुर्बलता, रुग्णता तथा दुःख भोगते-भोगते अकाल मृत्यु के मुँह में चले जाने के अतिरिक्त और कोई चारा न रहेगा। धुँआ, विकिरण, कोलाहल आदि ने आकाश को विषवमन करते और अभिशाप बरसाते रहने की स्थिति में डाल दिया है। इसका परिशोधन करने का कारगर उपाय एक ही है कि इस कचरे की अनन्त अन्तरिक्ष में कहाँ अन्यत्र धकेल दिया जाए। धरती के इर्द गिर्द फैले हुए वायुमण्डल के घेरे में इस अभिवृद्धि को कैसे रोका जाए? जो भरा हुआ है उसे शुद्ध कैसे किया जाए? इन दोनों प्रश्नों के उत्तर सूझ नहीं रहे है, साथ ही यह तक नहीं सूझ रहा है कि दिन दिन बढ़ने वाला कचरा किस प्रकार रुक सकता है। मशीनों का चलना बन्द किया जा सकना कठिन है। फिर ईंधन जलने और विषैली भाप उड़ने पर भी अंकुश कैसे लगे? इस जीवन मरण की समस्या के लिए अपने आकाश की महान आकाश के साथ कुछ तालमेल बिठाने की बात सोचनी पड़ रही है। अन्तरिक्ष का महत्व ऐसे ऐसे अनेक कारणों से स्वीकारा गया है और उसे अन्वेषण, परीक्षण आधिपत्य से लेकर दोहन तक के लिए कदम बढ़ाया गया है।

इस संदर्भ में यह तथ्य भी ध्यान रखने योग्य है कि अन्तरिक्ष क्षेत्र से अध्यात्म क्षेत्र का दूर रखने से अब काम चलने वाला नहीं है। वरन् समय को देखते हुए पूर्णकाल की अपेक्षा उस क्षेत्र में अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। भूतकाल में अन्तरिक्ष में कोई संकट नहीं था। प्रतिकूलताओं से लड़ने जैसी कोई बात नहीं थी। अनुकूलताएँ बढ़ाने भर का उद्देश्य सामने था। इसके लिए कुछ थोड़े से ही लक्ष्य ओर प्रयत्न पर्याप्त माने जाते थे। वर्षा पर नियन्त्रण प्राप्त करने और उसके साथ प्राणतत्त्व को धरती पर उतारने की पर्जन्यप्रक्रिया काम में लाई जाती थी, फलतः अन्न, वनस्पति एवं पशुधन की प्रचुरता तथा समर्थता का समुचित लाभ मिलता था। सतयुग में कही कोई अभाव नहीं था। इस संदर्भ में मानवीप्रयत्न यज्ञोपचार द्वारा अन्तरिक्ष के अनुकूलन के रूप में सफल होते रहते थे। प्राणियों के लिए सबसे प्रमुख आहार वायु है। साँस के द्वारा जो ग्रहण किया जाता है वह मुख के द्वारा खाये और पेट के द्वारा पचाये आहार की तुलना में असंख्य गुना अधिक मूल्यवान है। यज्ञोपचार द्वारा प्राणवायु की उच्चस्तरीय मात्रा जीवधारियों का मिलती रहती थी और उनकी शारीरिक ही नहीं, मानसिक स्थिति भी ऊँची रहती थी। सतयुग उन्हीं उपलब्धियों की कालपरिधि को कहा जाता था।

साधना, स्वाध्याय सत्संग, मनन चिन्तन द्वारा प्राणवान आत्माएँ आकाश में ऐसे प्रचण्ड प्रवाह छोड़ती थी जिनमें जनमानस का अनायास ही बहते रहने और श्रेष्ठ चिन्तन का उसके फलस्वरूप उस उत्पादित उच्च चरित्र का लाभ मिलाता था। अन्तरिक्ष उच्चस्तरीय विचार सम्पदा से भरी रहता था, इसमें अध्यात्म क्षेत्र के मूर्धन्य मनीषी सदा प्रयत्नरत रहते थे।

ज्योतिर्विज्ञान का एक और पक्ष है, अन्तर्ग्रही प्रवाहों में हेर फेर कर सकने की क्षमता का उपार्जन। चेतना की शक्ति का तत्त्वज्ञान जिन्हें विदित है वे यह भी समझते है कि जड़ पर नियमन करने की सामर्थ्य भी उसे प्राप्त शरीर के बहुमूल्य यन्त्र को प्राण की चेतना ही चलाती और जीवित रखती है। रेल, मोटर, जहाज स्वसंचालित यन्त्र उपग्रह आदि चलते भले स्वयं हो, पर उनका संचालन विचारशील मनुष्य ही करते हैं। उनमें प्रचण्ड शक्ति विद्यमान तो है, पर मात्र अपनी धुरी पर ही परिभ्रमण कर सकती है, उसे दिशा देनी हो अथवा उलट पुलट करनी हो तो उसमें चेतना ही को ही अपना पुरुषार्थ प्रकट करना होगा। अन्तर्ग्रही प्रवाह जैसे भी चलते है उनका सामान्यक्रम अपने ढर्रे पर ही चलता रहेगा। उसमें अतिरिक्त परिवर्तन करना हो तो चेतना की सामर्थ्य का ही उपयोग करना होगा। अन्तर्ग्रही शक्तियों की विशालता और प्रचण्डता अद्भुत है और कल्पनातीत हैं इतने पर भी यह तथ्य समझा जाना चाहिए कि इतने की प्राणशक्ति का प्रहार उस प्रवाह में सारे परिवर्तन कर सकता है ऐसा परिवर्तन जो पृथ्वी के उसके प्राणियों के लिए उत्पन्न अविज्ञात कठिनाइयों को रोकने और अदृश्य अनुदानों को बढ़ाने में समर्थ हो सके। ग्रहविज्ञान की पूर्णता इसी में है कि स्थिति को जानकारी तक सीमित न रहकर अभीष्ट हेर फेर भी कर सके। रोग का निंदा नहीं पर्याप्त नहीं, कुशल चिकित्सक को रुग्णता हटाने और आरोग्य बढ़ाने का उपचार भी करना होता है। ज्योतिर्विज्ञान न केवल ग्रह नक्षत्रों की स्थिति से अवगत कराता है वरन् सूक्ष्मजगत् में उसके अदृश्य प्रभावों के अनुकूलन का भी प्रबन्ध करता है।

जो इन अविज्ञात तथ्यों को समझ सके उन्हें यह जानने में कठिनाई न होगी कि मानव जाति के सामने प्रस्तुत अनेकानेक विभीषिकाओं के पीछे विद्यमान् अदृश्य कारणों का निराकरण करने से यह विज्ञान कितना अधिक कारगर हो सकता है। युगनिर्माण के लिए मानवी पुरुषार्थ की आवश्यकता और महत्ता तो निश्चित रूप से है ही, किन्तु साथ ही समझना यह भी चाहिए कि इस पुष्ट प्रयोजन में अदृश्य शक्तियों का अनुकूलन भी अभीष्ट है इस क्षेत्र की जानकारी तथा ज्योतिर्विज्ञान की सहायता व्यवस्था में ज्योतिर्विज्ञान की सहायता लेना आवश्यक है। अभीष्ट परिवर्तन मानवी प्रयासों के अतिरिक्त अदृश्य का अनुकूलन भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।

इस संदर्भ में एक बात और जान लेने योग्य है कि ब्रह्माण्ड में मात्र जड़ ग्रह पिण्ड ही परिभ्रमण नहीं करते, इससे सचेतन शक्तियों का अस्तित्व, प्रयास प्रभाव भी कम नहीं हैं ब्रह्माण्ड के शोधकर्ता अब इस निष्कर्ष पर पहुँच चूके है कि अन्तरिक्ष में पृथ्वी जैसी स्थिति के कितने ही अन्य ग्रहों को भी है और उनमें मनुष्यों से भी अधिक विकसित प्राणी रहते हैं। उनका ज्ञान और विज्ञान धरती निवासियों की तुलना में कहीं अधिक बढ़ा चढ़ा है। यह कपोल कल्पना नहीं है अब ऐसे प्रमाण मिल रहे है जिनसे प्रतीत होता है कि अन्यान्य ग्रह नक्षत्रों में ने केवल विकसित स्तर के प्राणियों का अस्तित्व पृथ्वी निवासियों के साथ संपर्क साधने के लिए भी प्रयत्नशील है।

उड़नतश्तरियों के पृथ्वी पर आवागमन की बात सर्वविदित है आरम्भ में इन्हें आकाश में वायु, बिजली, गुरुत्वाकर्षण से उत्पन्न प्रकृति व्यक्तिक्रम कहा गया। बुधिभ्रम और नेत्रविभ्रम की संज्ञा दी गयी। दर्शकों के विवरण अत्युक्तिपूर्ण बताये गए, पर जब उड़नतश्तरियों अपने प्रत्यक्ष प्रभाव प्रस्तुत करने लगी तो गम्भीरतापूर्वक उनके अस्तित्व को स्वीकार करना पड़ा। इनके भीतर किन्हीं बुद्धिमान प्राणियों के होने का जो सन्देह किया जाता था, वह भी अब बहुत हद तक दूर हो चुका है। यह भी स्पष्ट है कि यानों और उनके संचालकों का ज्ञान विज्ञान हमसे कहीं अधिक बढ़ा-चढ़ा है। प्रकाश से अधिक गति अपनाने वाले या नहीं इस प्रकार धरती पर आ सकते है। इसी प्रकार अन्तर्ग्रही यात्रा में आने वाले अवरोधों का समाधान भी सामान्य काम नहीं है। फिर इतनी लम्बी यात्राएँ पूरी करके लौटने के लिए ईंधन भी ऐसा चाहिए, जो हमारी जानकारी से बाहर है।

इन सुविकसित प्राणियों के साथ संपर्क साधना सम्भव हो सके, तो निश्चित हो मनुष्यों का विशेष लाभ प्राप्त होगा। निश्चय ही इतनी बड़ी सभ्यता के अधिकारी धरती जैसी दरिद्रता और उस पर रहने वाले पतित-पीड़ित लोगों पर आक्रमण करने और यहाँ से लूट ले जाने के लिए इतनी कष्टसाध्य यात्राएँ नहीं कर सकते। उनका उद्देश्य इस लोक के प्राणियों को अपनी उपलब्धियों से लाभान्वित करना ही हो सकता है भारत के ऋषि मुनि समस्त संसार में ज्ञान और विज्ञान का वितरण करने के सदुद्देश्य से परिभ्रमण करते रहे है। इससे कम सदुद्देश्य इन अन्तर्ग्रही महामानवों का भी नहीं हो सकता। वे हमसे संपर्क साधने का प्रयत्न करते है, पर वह साधता नहीं। क्योंकि इस लोक के वासियों की क्षमता उनकी ओर हाथ बढ़ाने एवं सहयोग करने की नहीं है। इस क्षेत्र में सबसे अधिक बाधक अन्तर्ग्रही विशिष्ट विज्ञान के संबंध में अपना अनजान होना ही है। यदि विद्या प्राचीनकाल की तरह विकसित स्तर की रही होती तो वह संपर्क सध सका होता, जिसके लिए उड़नतश्तरियों में, अन्तर्ग्रही यानों में बैठकर आने वाले महाप्राण प्रयत्नशील है।

प्राचीनकाल में नारद आदि विशिष्ट अन्तर्ग्रही यात्राएँ करते रहे है। लोक लोकान्तरों में उनके परिभ्रमण का वृत्तांत मिलता है और वह उच्चस्तरीय ज्योतिर्विज्ञान ही रहा होगा, जो इन दिनों एक प्रकार से लुप्त ही हो गया।

प्रेतों और पितरों के सम्बन्ध में आस्तिक और नास्तिक, श्रद्धालु और तार्किक कुछ न कुछ जानते और मानते है। इनको भी एक दुनिया है। परलोक, प्रेतलोक, स्वर्ग, नरक आदि के नाम से इसकी चर्चा होती रहती है। यह भी जीवित मनुष्यों जैसी एक दुनिया है। आदान-प्रदान का रास्ता खुला रहता तो जिस प्रकार जलचरों और नभचरों का अस्तित्व मनुष्यों को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रभावित करता है, उसी प्रकार इन दिवंगत आत्माओं का सहयोग जीवितों के लिए कई प्रकार से उपयोगी ही सकता है। जीवाणु, परमाणु, विषाणु की जानकारी ने मानवी सुविधा क्षेत्र को बढ़ाया है। अनन्त अन्तरिक्ष में बसी हुई इन सूक्ष्मशरीरधारियों की दुनिया यदि जीवितों साथ सहकार बना सकी होती तो दिवंगतों को अतृप्त घूमता न पड़ता ओर न मनुष्य को उनके दिव्य सहयोग से वंचित रहना पड़ता। दिवंगत स्वजन-संबंधियों के साथ प्रेमाचार तो और भी अधिक सरल है।

देवता इससे ऊँची स्थिति की चेतन सत्ता है। सौरमण्डल के ग्रह और उपग्रह भौतिक दृष्टि से रासायनिक पदार्थों से बने बड़े आकार वाले चलते फिरते ढेले भर है, किन्तु आत्मविज्ञानी जानते है कि प्रत्येक जड़सत्ता का एक चेतन अभियान होता है। उसी के नियमन में इन घटकों को अपनी गतिविधियाँ उपयुक्त रीति से चलाने का अवसर मिलता है। नवग्रहों को अध्यात्मशास्त्र में देवता माना गया है। खगोल विद्या में वे पदार्थ पिण्ड गिने जाते है। अपने अपने स्थान पर दोनों परिभाषाएँ सही है। दिव्यदर्शियों ने तैंतीस कोटि देवता गिनाए है। कोटि का अर्थ यहाँ करोड़ नहीं श्रेणी ही समझा जाना चाहिए। इन समुदाय में ग्रहपिण्ड, निहारिकाएँ पंचतत्त्व, पंचप्राण, देवदूत, जीवनमुक्त, व्यवस्थापक, सहायकवर्ग की उन दिव्यसत्ताओं को गिना जा सकता है, जो परब्रह्म ने होते हुए भी उसका व्यवस्था में हाथ बँटाती रहती है। देवाराधन की प्रक्रिया से इन्हीं के साथ सम्पर्क साधने और आदान-प्रदान का द्वार खोलने का प्रयत्न किया जाता है।

भू-मण्डल से बाहर अनन्त अन्तरिक्ष बिखरा पड़ा है। विज्ञान ने पृथ्वी तथा उसके संबंध वाले अति निकट क्षेत्र से संपर्क साधा और अनुसन्धान किया है। इससे बाहर का ब्रह्माण्ड विस्तार अत्यन्त व्यापक है। इसमें पदार्थ भी है और चेतना भी। ग्रह नक्षत्रों से लेकर असंख्य स्तर की ऊर्जा तरंगों तक का पदार्थ भाण्डागार इसी ब्रह्माण्ड में समाया हुआ है। पितरों से लेकर महाप्राण ओर देव-समुदाय तक के अनेकों सूक्ष्मशरीरधारी इसी विस्तार में निवास करते और अपना विशिष्ट संसार चलाते हैं। यह प्रत्यक्ष और परोक्ष आज एक-दूसरे के साथ ऐच्छिक आदान-प्रदान स्थापित नहीं हो पा रहा है। प्रकृतिप्रवाह से जो अनायास ही मिल जाता है, उतने भर से सन्तुष्ट रहना पड़ रहा है।

युगपरिवर्तन और नवसृजन के लिए मात्र मनुष्यों के ज्ञान, श्रम एवं साधना का नियोजन तो होना ही चाहिए, पर उतने से ही इतना बड़ा कार्य सम्पन्न हो नहीं सकेगा। परिवर्तन की अधिकाँश प्रक्रिया सूक्ष्मजगत में सम्पन्न होगी। प्रत्यक्ष में तो उसी की प्रतिक्रिया भर दृष्टिगोचर होगी। इस प्रयोजन के लिए जाग्रत आत्माओं की तत्परता और विभूतियों की सहायता को जहाँ आमंत्रित किया गया है, वहाँ परोक्ष का सहयोग प्राप्त करने की आवश्यकता को भी ध्यान में रखा गया है।


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