आगे बढ़ते रहे.. ( kahani)

April 1998

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घोर अँधेरी रात, जब हाथ को हाथ नहीं सूझता था, झरना अपने अविरल प्रवाह से कल कल करता हुआ एकान्त निर्जन विजन में बहता चला जा रहा था।

एक पहाड़ी उपत्यिका ने पूछा निर्झर! तुम्हें थकावट नहीं आती क्या? तनिक रुको! कुछ विश्राम तो कर लिया करो। एक स्नेहपूर्ण दृष्टि डालते है। उसकी दूरी अनन्त है। रुकूँगा तो इधर-उधर भटकूँगा। चलते रहने से वह दूरी कुछ कम ही होगी। यह कह झरना आगे बढ़ता ही रहा।


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