संक्रान्तिकाल एवं इष्ट का वरण

April 1998

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भौतिक-प्रगति के लिए भौतिक-पुरुषार्थ करने पड़ते हैं और आत्मिक-प्रगति के लिए चेतना का स्तर उठाने और प्रखरता को आगे बढ़ाने की आवश्यकता पड़ती है। भौतिक-जीवन को गतिशील रखने के लिए प्राणिमात्र को प्रकृति-प्रेरणा का अनुसरण अनिवार्य रूप से करना पड़ता है। पेट में भूख लगती है और आहार-उपार्जन करने के लिए दौड़-धूप करना आवश्यक हो जाता है। शरीर में समर्थता बढ़ने पर कामुकता की तरंगें उठती हैं और साथी ढूँढ़ने, परिवार बसाने का मानसिक ताना-बाना बुना जाने लगता है। प्राणिजगत का अस्तित्व और पराक्रम इन्हीं पेट-प्रजनन के दो प्रगतिचक्रों के सहारे सरलतापूर्वक लुढ़कता रहता हैं। आत्मिक-प्रगति का प्रसंग दूसरा है। चौरासी लाख योनियों के संग्रहित स्वभाव-संस्कार मनुष्य-जीवन के उपयुक्त नहीं रहते, ओछे पड़ जाते हैं। बच्चे के कपड़े बड़ों के शरीर में कहाँ फिट होते हैं? मानव-जीवन की सार्थकता के लिए जिन सद्भावनाओं से अन्तःकरण को और सत्प्रवृत्तियों से शरीर को सुसज्जित करना पड़ता है, वह पूर्व अभ्यास एवं प्रभावी-प्रचलन होने के कारण कठिन पड़ता है। यह सहज-सुलभ नहीं, वरन् प्रयत्नसाध्य है। नीचे गिराने में पृथ्वी की आकर्षण-शक्ति का क्रम ही निरन्तर सहायता करता रहता है, पर ऊँचा उठाने के लिए विशेष साधन जुटाने होते है। आन्तरिक अभ्युत्थान के इसी पराक्रम को साधना कहते है।

इस तथ्य को हजार बार समझा और लाख बार समझाया जाना चाहिए कि जिस साधना से सिद्धि मिलने का माहात्म्य बताया जाता है, वह जीवन-देवता की अभ्यर्थना ही है, परब्रह्म की प्रसन्नता के लिए उसकी मर्यादाओं का पालन करने भर से काम चल जाता है, किन्तु अन्तरात्मा में विद्यमान दिव्य-ज्योति को प्रखर बनाने के लिए विशेष रूप से पुरुषार्थ करने होते हैं और वही साधना कहलाती है।

साधना मार्ग पर चलने के लिए प्रथम चरण इष्ट-निर्धारण का उठाना पड़ता है। प्रगति की आन्तरिक महत्त्वाकाँक्षा स्वाभाविक है, पर उसका स्वरूप भी तो निश्चित होना चाहिए। उमंगें असीम हैं और उनकी स्वरूप भी तो है और उनकी दिशाधारा भी अनेकों। पानी पर उठने वाली लहर की तरह महत्त्वाकाँक्षाओं की कोई सीमा नहीं। एक के बाद दूसरी लहर उठती है और हवा के झोंकों के साथ अपनी दिशा बदलता है। प्रवाह की दिशाधारा न हो तो पराक्रम अस्त - व्यस्त रहेगा। किसी लक्ष्य तक पहुँच सकना सम्भव ही नहीं हो सकेगा। दिशा -विहीन भगदड़ से मात्र थकान और निराश ही हाथ लगती है। कस्तूरी के हिरन को अभीष्ट स्थान का पता नहीं होता, फलतः वह भटकता,थकता और खिन्न रहता देखा जाता है। मानवी - अन्तरात्मा की भूख प्रगति की दिशा में अग्रसर होने की है। महत्त्वाकाँक्षाओं के उभार इसी का परिचय लक्ष्य एवं स्वरूप सामने न रहने से मनुष्य - जीवन की गाड़ी कायिक - लिप्साओं की ओर ही लुढ़कने लगती है और वासना, तृष्णा एवं अहंता की पूर्ति ही जीवनोद्देश्य बनकर रह जाती है। इस स्तर की सफलताएँ काया को भले ही कुछ सुख-सुविधाएँ प्रदान कर सके, परन्तु अन्तः - करण की उच्चस्तरीय प्रगति में इससे तनिक भी सहायता नहीं मिलती है। कई बार तो अनियन्त्रित भौतिक महत्त्वाकाँक्षाएँ आतुर होकर कुकर्म करके भी वैभव - उपार्जन में जुट पड़ती है और उल्टे अधःपतन एवं विक्षोभ का कारण बनती है।

इन समस्त उलझनों का समाधान एक ही है’ इष्ट निर्धारण ‘ इष्ट अर्थात् लक्ष्य। साधक का कोई इष्टदेव होता है। साधना का विधि - विधान उसी के अनुरूप चलता है। यों उपास्य केवल एक ही है। ’दिव्यजीवन ‘ किन्तु उसके लिए पुरुषार्थ करने की मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि, उपासनात्मक उपचारों के सहारे ही बनती है। दिव्य -जीवन की कल्पना करते रहने भर से तो कोई काम नहीं बनता,पहलवान बनने के लिए व्यायाम की, विद्वान बनने के लिए स्वाध्याय की, धनी बनने के लिए व्यवसाय की आवश्यकता पड़ती है, इसी प्रकार आत्मिक - प्रगति का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए उपासनात्मक उपचार अपनाने पड़ते है। दिव्य -जीवन की चरम परिस्थिति ही पूर्णता है। इसी स्थिति को स्वर्ग, सिद्धि एवं मुक्ति की प्राप्ति कहते है। आत्मसाक्षात्कार एवं ईश्वर दर्शन भी यही है। इस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए जो पुरुषार्थ करना पड़ता है उसे साधना विधान के रूप में अपनाना होता हैं साधना में शिक्षा और प्रेरणा का समावेश होता है फलतः उसकी प्रतिक्रिया जीवनोत्कर्ष के रूप में प्रत्यक्ष परिलक्षित होने लगती है।

कहा जा चुका है कि साधना क्षेत्र का प्रथम चरण इष्ट-निर्धारण है। प्रगति के किस बिन्दु तक पहुँचना है, इसका सुदृढ़ निश्चय होना आवश्यक है भव्य भवन बनाने वाला सर्वप्रथम अभीष्ट निर्माण के नक्शे का मॉडल बनाते है। आत्मिक -प्रगति के लिए किस मार्ग से जाना है? किस स्तर का साधन जुटना है, उसके लिए कितने ही प्रकार के निर्धारण अपनाए जाते रहे है। इन्हें इष्टदेव या देव कहते है। राम-भक्त बनने के लिए हनुमान मर्यादा-पुरुषोत्तम बनने के लिए राम पूर्ण-पुरुष बनने के लिए कृष्ण ब्रह्मतेजस् प्राप्त करने के लिए सविता को इष्ट बनाने की परम्परा है। इसी प्रकार और भी कितने ही हल्के-भारी इष्टदेव है जिन्हें स्थिति एवं रुचि के अनुरूप अपनाया जाता है। इस निर्धारण से मन को एक निश्चित दिशा में आगे बढ़ने और तदनुरूप प्रयास करने हेतु साधन जुटाने का मार्ग मिल जाता है। उस प्रयत्न से न केवल प्रयास को दिशा मिलती हैं वरन् उसी स्तर के अंतःक्षेत्र की प्रसुप्त शक्तियाँ भी जगने लगती है साथ ही परब्रह्म के शक्ति-भण्डार में से उच्चस्तर की अनुग्रह वर्षा भी अनायास ही आरम्भ हो जाती हैं आकांक्षाएँ आवश्यकता बनती है। आवश्यकता पुरुषार्थ की प्रेरणा जगाती हैं प्रेरणा भरे पराक्रम में प्रचण्ड चुम्बकत्व होता है। वह तीन दिशा में काम करता हैं प्रथम व्यावहारिक गति विधियों को अभीष्ट की प्राप्ति के अनुरूप बनाता है। द्वितीय-प्रसुप्त क्षमताओं को जगाकर प्रगतिपथ पर अग्रसर होने के लिए अदृश्य आधार खड़े करता है। तृतीय-दिव्यलोक से दैवी-अनुदानों के बरसने का विशिष्ट लाभ मिलता है। तीनों ही आधार मिलकर त्रिवेणी संगम बनाते है।

इष्ट-निर्धारण प्रगतिक्रम का सुनिश्चित आधार-पथ निश्चित कहता है। ईश्वरीयसत्ता का मनुष्य में अवतरण ‘उत्कृष्टता ’ के रूप में होता हैं चिन्तन और चरित्र में उच्चस्तरीय उमंगें उठने लगती हैं तथा उसी स्तर की गति विधियाँ चल पड़ती है। उत्कृष्टता की उपासना ही ईश्वर की उपासना हैं वही उपाय है। लक्ष्य इसी को बनाना पड़ता है। इष्टदेव का निर्धारण किस रूप में किया जाए आज इस संदर्भ में अनेकों विकल्पों के जंजाल बने खड़े है। प्राचीनकाल में ऐसा न था तत्त्वज्ञानी एक निश्चय पर पहुँचे थे और उन्होंने उसी निष्कर्ष को उपयोगी बताकर समस्त साधकों को उसे अपनाने का परामर्श दिया था। भारतीय-संस्कृति जिसे वस्तुतः विश्व-संस्कृति जिसे चाहिए साधना-संदर्भ कहा में एक ही निश्चय पर पहुँची है कि आत्मिक-प्रगति की साधना के लिए इष्ट रूप गायत्री का ही वरण होना चाहिए।

यों गायत्री का स्थूल रूप चौबीस अक्षरों के एक शब्दगुच्छक के रूप में है और उसकी प्रतिमा हंसारूढ़ देवी के रूप में बनती है। यह नाम और रूप निर्धारण है। उसके बिना मस्तिष्कीय संरचना किसी तथ्य को पकड़ने समझने में ही समर्थ नहीं होती। इसलिए चिन्तन को किसी दिशा में आगे बढ़ाने के लिए नाम रूप का अवलम्बन अनिवार्य होता हैं उपासना उपक्रम इस निर्धारण के बिना बन ही नहीं पाता।

समस्त देव-प्रतिमाओं का निर्धारण इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए किया गया। श्रद्धा का आरोपण और संवर्द्धन इस प्रतिमा-प्रतिष्ठापन के सहारे ही सहज-सुलभ रीति से अग्रगामी बनता है। वस्तुतः समस्त देवालयों का अस्तित्व मनुष्य की श्रद्धा-समुच्चय पर ही आधारित होता है। एक के लिए वह शक्ति-स्रोत बनता हैं दूसरे के लिए उपहासास्पद बनकर रह जाता हैं अनेकानेक आकृतियों के देवताओं का गठन यही सिद्ध करता हैं कि मानवी श्रद्धा अपनी अभिरुचि के अनुरूप किसी केन्द्र-बिन्दु का आस्था का समीकरण करती हैं उसे सशक्त बनाती हैं और उससे असाधारण लाभ उठाती है। एकलव्य के द्रोणाचार्य मीरा के गिरधर गोपाल रामकृष्ण परमहंस की काली इसी प्रकार के भाव-निर्धारण कहें जा सकते है। श्रद्धा की शक्ति अपार हैं उसके द्वारा परिपोषित तत्त्व देवताओं की तरह ही अनन्त सामर्थ्य-सम्पन्न अजस्र वरदायिनी एवं अद्भुत चमत्कारी बनकर प्रकट होते है। गायत्री महाशक्ति के नाम-रूप का निर्धारण भी इसी स्तर का समझा जा सकता हैं। इसके बिना साधक का भावनात्मक समाधान हो ही नहीं सकता ऋतम्भरा-प्रज्ञा को गायत्री-माता के रूप में इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए प्रतिष्ठिता किया गया है।

गायत्री को इष्ट मानने की अनादि परम्परा हैं। सृष्टि के आदि में ब्रह्माजी ने कमल-पुष्प पर बैठकर आकाशवाणी द्वारा गायत्री-उपासना निर्देशित की थी और सृष्टि-सृजन की सामर्थ्य प्राप्त की थी। इसका उल्लेख पुराणों में मिलता हैं त्रिदेवों उपासना गायत्री रही है। देवगुरु बृहस्पति ने दक्षिणमार्गी और दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने वाममार्गी साधनाएँ गायत्री के ही आत्मिक और भौतिक पक्षों को लेकर प्रचलित की थी। आदि मानव-देवों में सप्तऋषियों का नाम आता हैं वे सभी गायत्री का सप्त व्याहृतियों के प्रतीक माने जाते हैं राम कृष्ण आदि अवतारों की इष्ट गायत्री रही है। इसी महामन्त्र की व्याख्या में चारों वेद तथा अन्यान्य धर्म-शास्त्र रचे गये हैं दत्तात्रेय के चौबीस गुरु योग और चौबीस तप प्रसिद्ध हैं यह सभी गायत्री के तत्त्वज्ञान और साधना-विधान का विस्तार हैं। गायत्री गुरुमन्त्र है। दीक्षा में उसी को माध्यम बनाया जाता है। हिन्दू-धर्म के दो प्रतीक हैं-शिखा और सूत्र। दोनों ही गायत्री के प्रतीक है। गायत्री का ज्ञान-पक्ष सिर पर शिखा के रूप में और कम-पक्ष कन्धे पर यज्ञोपवीत के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है। परम्परागत उपासना विधि ‘सन्ध्या’ है। सन्ध्या में गायत्री का समावेश अनिवार्य हैं इन तथ्यों का पर्यवेक्षण करने से स्पष्ट हो जाता है कि गायत्री ही अनादि धर्म-परम्परा एवं अध्यात्म-प्रक्रिया का आधारभूत तथ्य हैं उपासना में उसी का उपयोग सर्वोत्तम है।

तत्त्वदर्शन की दृष्टि से गायत्री ऋतम्भरा-प्रज्ञा है।। ऋतम्भरा अर्थात् विवेकसंगत श्रद्धा। प्रज्ञा अर्थात् श्रेय-साधन दूरदर्शिता। समग्र विवेकशीलता को गायत्री कह सकते है। इसी बीज मन्त्र का विशाल वृक्ष ब्रह्म-विद्या है। अध्यात्म का यह दार्शनिक पक्ष हैं साधना-प्रयोजन में इसी के विचित्र उपचार योगाभ्यासों तप-साधनों एवं धर्मानुष्ठानों के रूप में प्रचलित है। इष्ट का लक्ष्य का उपास्य का निर्धारण दिव्यदर्शियों ने गायत्री के रूप में गहन अध्ययन और अनवरत अनुभव अभ्यास के आधार पर किया है। वह प्राचीनकाल की तरह आज भी अपनी उपयोगिता यथावत अक्षुण्ण रखे हुए है। विज्ञ-साधकों के लिए उसी का अवलम्बन ग्रहण करना हर दृष्टि से उपयोगी है।

गायत्री-सार्वभौम और सर्वजनीन है। उसे किसी देश धर्म सम्प्रदाय तक सीमित नहीं किया जा सकता। भारत में उत्पन्न होने के कारण उसका नाम भारतीय-संस्कृति पड़ा हैं पर उसकी कोई प्रक्रिया उस परिधि में रहने वाले लोगों तक सीमित नहीं रखी जा सकती।

मालवा वालों को मालवीय कन्नौज वालों को कान्यकुब्ज मिथिला वालों को मैथिल मथुरा वालों को माथुर कहा तो जाता हैं पर वे उतने ही क्षेत्र में रहने के लिए बाध्य नहीं है। कश्मीरी सेव नागपुरी सन्तरे बम्बइया केला उसी क्षेत्र में बिकें और खाए जाएँ ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं हैं गायत्री-भारतीय संस्कृति की आत्मा कही जाती हैं पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि इसी देश के निवासी या इसी धर्म के अनुयायी उसका उपयोगी कर सकते हैं भारतीय-संस्कृति वस्तुतः दैवी-संस्कृति हैं उसे मानवी कह सकते है। गायत्री की उपयोगिता सबके लिए समान हैं देश, धर्म, जाति, भाषा, सम्प्रदाय आदि के नाम पर अपने पराये की विभाजन-रेखा नहीं बननी चाहिए।


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