युद्धलिप्सा कितनी घातक हो सकती हैं

April 1998

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इन दिनों विज्ञान ने जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रगति की है। जो जानकारियाँ एवं सुविधाएँ पूर्वजों को उपलब्ध थीं, उनकी तुलना में अपनी उपलब्धियाँ कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी हैं। इन उपलब्धियों को ही प्रगति कहा जाए, तो यह मानने में कोई हर्ज नहीं हैं कि मानवी सभ्यता ने प्रगति की है किस दिशा में हुई? उत्थान की दिशा में अथवा पतन की दिशा में, तो स्थिति निस्सन्देह शोचनीय हो जाती हैं। क्योंकि प्रगति उत्थान की दिशा में भी हो सकती हैं और पतन की दिशा में भी। प्रगति का अर्थ बढ़ना हैं, तो बढ़ना आगे भी हो सकता है, और पीछे बढ़ी, यह विश्लेषण किया जाए तो प्रतीत होगा कि इन दिनों सुविधा-साधनों के साथ-साथ विनाश, विग्रह और पतन के साधन भी उतनी ही तेजी से, कहा जाए कि उससे भी अधिक तीव्रता के साथ विकसित किए गए हैं, तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। वर्तमान प्रगति किस दिशा में हुई हैं, उससे मनुष्य ने क्या पाया हैं? शान्ति, सुरक्षा, सुव्यवस्था और प्रगति की दृष्टि से विज्ञान ने मनुष्य को जितने सुविधा-साधनों से लैस किया हैं, उससे भी अधिक मनुष्य के पास विनाशकारी और संहारक अस्त्र-शस्त्रों का भण्डार एकत्रित हो गया हैं पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रकाशित आँकड़ों के अनुसार, इस समय विश्व के शक्तिशाली राष्ट्रों के पास इतनी अधिक मात्रा में गोला-बारूद जमा है। कि उससे पृथ्वी का एक बार नहीं, सात-सात बार जलाकर राख किया जा सकता हैं।

प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में जो विनाश और नरसंहार हुआ, वह सर्वविदित हैं। इसके बाद तीसरे विश्वयुद्ध में होने वाले विनाश की सम्भावनाओं की कल्पना भी नहीं की जा सकती। प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन से किसी ने एक बार तीसरे विश्वयुद्ध के सम्बन्ध में पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया कि तीसरे विश्वयुद्ध के बारे में तो कुछ नहीं कहा जा सकता, पर चौथे विश्वयुद्ध के सम्बन्ध में जरूर कुछ-कुछ कल्पना की जा सकती हैं।

इस कल्पना को स्पष्ट करते हुए आइंस्टीन ने कहा था कि तीसरे विश्वयुद्ध के बाद यदि कोई लड़ाई लड़ी गई, यदि इसके बाद थोड़े-बहुत मनुष्य बचे और उनमें कोई युद्ध हुआ तो वह युद्ध ईंट-पत्थरों से लड़ा जाएगा। अर्थात् तीसरे विश्वयुद्ध में इतना प्रलयकारी विनाश होगा कि मनुष्य जाति का अस्तित्व किसी प्रकार बचा रहा तो भी यह निश्चित है कि सभ्यता और संस्कृति का तो अन्त हो ही जाएगा। यह सच है कि इन दिनों सुरक्षा और शान्ति के साधन बढ़ाने के नाम पर, जो साधन-सरंजाम जुटाए जा रहे हैं, उन साधनों के रूप में मृत्यु को अति सरल और अतिनिकट बना देने वाले साधनों का ही विकास तेजी से हो रहा हैं।

लाठी, फरसे से होने वाली मारकाट की तुलना में यह स्थिति निश्चय ही प्रगति कही जा सकती हैं, यदि व्यापक विनाश को सस्ता और सरल बना देना ही प्रगति कहा जाए, तो कोई एक व्यक्ति, जो इस तरह के साधनों का संचालन, नियन्त्रण और प्रबन्ध का उत्तरदायित्व सम्हालता हैं, यदि थोड़ी देर के लिए बहक जाए, तो इस सुन्दर संसार को भस्मीभूत करके रख सकता हैं।

आइये, थोड़ा इन विनाश साधनों का विवरण जानें। इन दिनों अमेरिका ने एक नये किस्म का प्रक्षेपक विमान बनाया है। इस विमान में अणुबमों से लैस मिसाइलें फिट कर दी जाती हैं और उन्हें आकाश से ही चलाकर लक्ष्य पर छोड़ा जा सकता है। अब तक ऐसी मिसाइलें केवल जमीन पर से ही छोड़ी जा सकती थीं। शत्रुपक्ष गुप्तचरों द्वारा यह जानकारी रख सकता था। कि प्रतिपक्ष के पास इस तरह के अणुबम प्रक्षेपण करने वाले अड्डे कहाँ-कहाँ हैं। इस जानकारी के आधार पर उन्हें नष्ट करने की व्यवस्था बनाई जा सकती थी। अणु अस्त्र फेंकने और शत्रुपक्ष की मार से बचने के लिए इसी आधार पर अब तक युद्ध नीति निर्धारित की जाती थी, किन्तु अब बी-वन नामक विमानों ने नई समस्याएँ पैदा कर दी है। मिसाइलें उस पर लदी होंगी, और आकाश से ही निशाने पर बम दाग दिए जाएँगे। ये बमवर्षक इतने ऊपर उड़ रहे होंगे कि वहाँ तक तोपों के गोले नहीं पहुँचे सकेंगे। उन्हें राकेटों से तोड़ने की बात सोची जाए, तो वह भी कठिन होगा, क्योंकि उस बमवर्षक यान के चालक उसे सीधी दिशा में एक गति से नहीं उड़ा रहे होंगे। आकाश में वे कभी दायें, कभी बायें, कभी दायें, कभी पीछे, कभी ऊपर, कभी नीचे इस तरह उलटी-पुलटी दिशाओं में, ऊँचाई-नीचाई पर उड़ेंगे और उन्हें जमीन से राकेट दाग कर नष्ट करना प्रायः असम्भव ही रहेगा। इस प्रकार ये बमवर्षक विमान बिना जोखिम उठाये अपना काम कर सकेंगे।

कैलीफोर्निया के रासवेल इण्टर नेशनल प्लांट ने जब इस बी-बन बम-वर्षक विमान को पहली बार उड़ाया तो उसके समय जेट 2400 किलोमीटर प्रति घण्टे की चाल से उड़ रहा था। इसकी मार करीब इस हजार किलोमीटर पहुँचती थी। उसका भार 1 लाख 15 हजार पौंड तथा मूल्य करीब 50 करोड़ डॉलर हैं लम्बाई 144 फीट, ऊँचाई 34 फीट और इसके पंख 137 फीट के हैं। इसमें अभी और विकास किया जाना है। आकाश से अणुबम दागने की तकनीक तक ही बात सीमित होती, इन दिनों तो युद्ध में शत्रुपक्ष को मारने के लिए नए-नए तरीके विकसित किये जा रहे हैं।

स्मरणीय हैं युद्ध का उद्देश्य सदैव यही रहता है कि शत्रुराष्ट्र के जन-धन को अधिक से अधिक हानि पहुँचाई जाए।

अभी तक की लड़ाइयाँ में यह स्पष्ट रहता था कि युद्ध किन देशों के बीच चल रहा हैं, किन्तु अब इस तरह के प्रयास चल रहे हैं, जिसमें कोई देश किसी के सामने न आए, यह स्पष्ट न हो कि लड़ाई किन देशों के बीच चल रही है और व्यापक स्तर पर प्रतिपक्षी को हानि पहुँचाई जा सके। इस सावधानी के लिए युद्ध के नये-से-नये तरीके खोजे जा रहे हैं। अब तक खोजे गये तरीकों में से नवीनतम दो तरीकों में जीवाणुयुद्ध तथा भूगर्भीययुद्ध हैं।

जीवाणु-युद्धों के सम्बन्ध में प्रायः चर्चाएँ होती रहती हैं और इनके कारण होने वाले भयंकर विनाश के बारे में पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहता हैं। प्रतिपक्षी देश को इस युद्ध के द्वारा हानि पहुँचाने की प्रक्रिया में न ऐसा लगता है कि कोई देश हमला कर रहा है और न ही ऐसा लगता है कि कहीं किन्हीं शत्रुओं का उपयोग हो रहा हैं युद्ध का उपक्रम चुपचाप बिना किसी हल्ले के चलता रहता है, ऊपर से देखने में बेहद शान्त स्थिति लगती हैं, पर विनाश अपना ताण्डव नृत्य नेपथ्य में रचता रहता हैं, जिसकी प्रतिक्रिया असाधारण रूप से देखने में आती है। इस प्रक्रिया में विषाक्त जीवाणुओं को चुपचाप दूसरे देश में पहुँचा दिया जाता है यह विषाणु इतने सूक्ष्म होते हैं कि आमतौर पर शक्तिशाली माइक्रोस्कोप यन्त्रों के द्वारा भी नहीं देखे जा सकते हैं। सुई की नोक के बराबर स्थान में यह जीवाणु लाखों की संख्या में बड़ी आसानी से आ जाते हैं और उन्हें किसी व्यक्ति के नाखून पर लगाकर भी दूसरे देशों में बड़ी सरलतापूर्वक पहुँचाया जा सकता हैं।

उन देशों में पहुँचने के बाद ये जीवाणु जब सक्रिय होते हैं, तो असाध्य बीमारियाँ महामारी के रूप में फैलती हैं। उनका कोई कारण भी समझ में नहीं आता, लेकिन वे इतनी तेजी से फैलती हैं कि लाखों लोग अपनी जान गँवा बैठते हैं। अब तक के युद्धों में तो ऐसा होता है कि सेनाएँ एक-दूसरे पर आक्रमण करती हैं, गोला-बारूद और आग्नेयास्त्रों के प्रयोग द्वारा इस प्रकार के युद्धों में केवल सैनिक ही मारे जाते हैं, परन्तु अगले दिनों जो युद्ध लड़े जाएँगे, उनमें निरीह लाखों की भी हत्या होगी।

जीवाणु-युद्धों के अतिरिक्त दूसरे प्रकार के युद्धों में भू-भौतिकीय अथवा भूगर्भीय-युद्ध भी कम विनाशकारी नहीं हैं। इन युद्धों में पृथ्वी की ऊर्जा का उपयोग करके भूकम्प लाने, जलवायु बदलने तथा पृथ्वी के वायुमण्डल में परिवर्तन कर दूसरे देशों को हानि पहुँचाने का उपक्रम रचा जाएगा। इस प्रकार के युद्धों में कुछ क्रियाओं का तत्काल असर पड़ेगा और कुछ धीरे-धीरे सामान्य जीवन को प्रभावित करेंगी। प्रभाव चाहे तत्काल हो या धीरे-धीरे वे होंगे अत्यन्त घातक ही।

इस प्रकार के युद्धों में सौर ऊर्जा के प्रयोग की भी सम्भावना हैं। स्मरणीय हैं सूर्य सात लाख मेगावाट अणुबमों की शक्ति के बराबर ऊर्जा प्रतिदिन पृथ्वी पर फेंकता है। इस असाधारण ऊर्जा का एक बहुत बड़ा अंश प्रकृति पर विभिन्न रूपों में समा जाता हैं। समुद्र और वायुमण्डल इस ऊर्जा का एक बहुत बड़ा भाग सोख लेते हैं और इस ऊर्जा से ही पृथ्वी पर मौसमों का चक्र बनता हैं। समुद्र और वायुमण्डल इस ऊर्जा का एक समान नहीं सोखते। कहीं-कहीं यह ऊर्जा बहुत अधिक मात्रा में केन्द्रित हो जाती है। इस केन्द्रित ऊर्जा के कारण समुद्र में तूफान, चक्रवात आदि आते रहते हैं। एक समुद्री तूफान के कारण जलप्रलय से ठीक वैसा ही विनाश उत्पन्न होता हैं, जितना कि पाँच हजार टन बारूद या विस्फोट के बराबर होते हैं। इस तरह के तूफान प्रायः समुद्र में उड़ते रहते हैं। युद्धविज्ञानी इस बात के लिए प्रयास कर रहें हैं कि इन तूफानों की दिशा व गति बदलकर मनचाही दिशा में मोड़ी व घटाई-बढ़ाई जा सकें। इस तरह के कई प्रयोग सफल भी हुए हैं। अब अनुमान लगाया जा सकता हैं कि युद्ध के रूप में इस तकनीक का उपयोग किया गया, तो इसके कितने घातक परिणाम हो सकते हैं।

आकाश में घूमती हुई अगणित उल्काएँ पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश करती हैं। इनमें से अधिकाँश उल्काएँ तो वायुमण्डल के ताप और घर्षण से ही जलकर नष्ट हो जाती हैं, किन्तु जो उल्काएँ पृथ्वी पर आ गिरती हैं, उनका प्रभाव निश्चित होता हैं। इन उल्काओं का रास्ता बदलकर दूसरे क्षेत्रों में गिराने के वैज्ञानिक प्रयास भी चल रहे हैं और उनसे ठीक वैसा ही विनाश प्रस्तुत किया जा सकेगा, जैसा कि बड़ी उल्काओं के पृथ्वी पर गिरने से होता हैं। ये उल्काएँ तो कहीं भी जंगल में या आबादी में गिर सकती हैं और आमतौर पर उल्काओं का युद्ध के लिए प्रयोग किया जाएगा, तो निश्चित ही उन्हें आबादी वाले क्षेत्रों में गिराया जाएगा। बड़ी उल्काओं के गिरने से पृथ्वी के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक स्थानों पर हुए विनाश के चिह्न अभी भी मौजूद हैं। अफ्रीका में कुछ वर्षों पूर्व हुए एक उल्कापात के परिणामस्वरूप ‘ऐरीजोना क्रेटर’ नाम का विशाल गड्ढा इस संदर्भ में उल्लेखनीय हैं। इसका व्यास एक मील का हैं तथा साथ ही मीलों दूर तक उल्का के धातुकण छितरे पाये गए हैं। यदि इस प्रकार उल्काओं की दिशा मोड़कर उन्हें आबादी वाले क्षेत्रों में गिराया गया, तो कहा नहीं जा सकता कि कितना और कैसा विनाश ताण्डव खड़ा हो जाएगा?

बर्फ को पिघलाकर भूभागों को जलमग्न कर देने, अतिवृष्टि, अनावृष्टि करने तथा भीषण गर्मी या भयंकर शीत का मौसम बदल देने जैसे प्राकृतिक परिवर्तन प्रस्तुत करने के अनेकों सफल प्रयोग किए जा रहे हैं। युद्ध की यह नई पद्धतियों पिछली सभी पद्धतियों की अपेक्षा अधिक विध्वंसक हैं। इन सब स्थितियों को देखते हुए लगता है कि मनुष्य ने जो प्रगति की हैं वह विकास की अपेक्षा विनाश की ओर, सामूहिक आत्मघात की ओर ही अधिक कदम उठाए हैं। ये तथ्य यह भी सिद्ध करते हैं। कि बुद्धि और साधन क्षेत्र में मनुष्य कितना ही विकास क्यों न कर ले, चेतना और अन्तःस्थिति का परिष्कार किए बिना वह प्रगति अधूरी, एकांगी और घातक ही हैं।

ऐसी स्थिति में मानवीय अस्तित्व की रक्षा के लिए कदम उठाना अनिवार्य हैं। उथल-पुथल उलट-फेर भय और संकटों से तो नहीं बचा जा सकता, किन्तु प्रकृति उसके लिए सन्नद्ध और सचेष्ट दीखती हैं, सूक्ष्मदर्शी इस बात के लिए एकमत है कि अगले दिनों व्यापक क्रान्ति के मध्य नये युग का सूत्रपात सुनिश्चित हैं।


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