आस्था-संकट की विभीषिका और उससे निवृत्ति

April 1998

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

यों प्रकृति के उतार-चढ़ाव भी प्राणियों को प्रभावित करते हैं और उन कारणों से भी उन्हें कई प्रकार की सुविधा-असुविधाओं का सहन करना होता हैं किन्तु यह तथ्य सामान्य प्राणियों पर ही अधिकतर लागू होता हैं मनुष्य की विलक्षण बुद्धि उसे प्रकृति के प्रतिकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न करने में सहायता करती रहती हैं। मनुष्य प्रकृति पर पूर्णतया आधिपत्य तो स्थापित नहीं कर सकेगा, पर इतना अवश्य है कि अनुकूलन में बहुत बड़ी सफलता प्राप्त कर ली हैं। इसी सफलता का स्तर और अनुपात अगले दिनों घटेगा नहीं, बढ़ता ही जाएगा।

इस तथ्य की चर्चा यहाँ इसलिए की जा रही है कि इन दिनों मनुष्य के सामने प्रस्तुत वैयक्तिक और सामूहिक कठिनाइयों का कारण खोजते समय कहीं प्रकृति की प्रतिकूलता को दोषी न ठहराया जान लगे। बहुत भाग्यवादी लोग ऐसा ही कुछ कहते सुने जाते हैं कि ग्रह-नक्षत्रों ने, विधि-विधान ने, प्रकृति परिस्थितियों ने मनुष्य के सामने कठिनाइयाँ उत्पन्न की और वह उनके प्रभाव से विपत्तियों में फँस गया। सुविधा-संवर्द्धन के अवसरों पर भी इसी प्रकार श्रेय आकस्मिक परिस्थितियों को दिया जाने लगता हैं। ऐसा कभी-कभी अपवाद जितना भले ही होता हो, आमतौर से मानवी -चिन्तन और प्रयास ही भली-बुरी परिस्थितियों के लिए उत्तरदायी होता हैं। प्रकृति की प्रतिकूलता भी कभी किसी सीमा तक कारण होती हैं, पर मनुष्य को परिस्थितियों से जूझने का इतना अनुभव प्राप्त है कि वह उनसे सुरक्षा के उपाय किसी न किसी प्रकार खोज ही लेता हैं प्रकृति-संघर्ष के लम्बे इतिहास में सृष्टि के आरम्भ से लेकर अब तक का घटनाक्रम साक्षी है कि मनुष्य हारा नहीं। जीता भले ही न हो पर तालमेल बिठा लेने में, उसे आशाजनक सफलता दिलाने में बुद्धि-कौशल ने सदा-सर्वदा अपना चमत्कार दिखाया हैं।

जमाना बुरा हैं, कलियुग का दौर हैं, परिस्थितियाँ कुछ ऐसी ही बन गई, भाग्यचक्र प्रतिकूल रहा- जैसे कारण बताकर मन तो हलका किया जा सकता है, पर उससे समाधान कुछ नहीं निकलता। मूर्धन्य राजनेताओं, दार्शनिकों, सेनापतियों, धर्माचार्यों, धनिकों को भी प्रतिकूलताओं के लिए दोषी तो ठहराया जा सकता है, पर यह नहीं कहा जा सकता कि जन-मानस सर्वथा निर्दोष हैं। तथ्य यह है कि मूर्धन्य व्यक्ति भी आकाश से नहीं टपकते, जन-समाज में से ही निकलते हैं। लोकमानस का स्तर ही प्रतिभाएँ उत्पन्न करता और उन्हें दिशा प्रदान करता हैं। व्यक्ति अपने आप में पूर्ण हैं उसकी अन्तः चेतना में अनन्त संभावनाएँ बीज रूप में विद्यमान हैं। वे उभरती हैं तो व्यक्तित्व का स्तर बनता है और उस आधार पर विनिर्मित हुई प्रतिभा अपना चमत्कार दिखाती हैं। मूर्धन्यों के उभरने और पुरुषार्थ की दिशा अपनाने का यही तत्त्वज्ञान है। परिस्थितियों को दोष या श्रेय देने को तो किसी को भी दिया जा सकता हैं, पर मूल कारण ढूँढ़ना और तथ्य तक पहुँचाना हो तो यही निष्कर्ष निकलेगा कि व्यक्ति का अन्तराल ही प्रगति एवं अवगति के लिए उत्तरदायी हैं आज की विषम परिस्थिति को बदलने की जा आवश्यकता समझते हैं, उन्हें कारण की तह तक पहुँचना होगा, अन्यथा सूखते, मुरझाते पेड़ को हरा बनाने के लिए जड़ की उपेक्षा करके पत्ते सींचने जैसी विडंबना चलती रहेगी और थकान के अतिरिक्त और कुछ भी पल्ले न पड़ेगा।

आमतौर से मनुष्य की कृतियों को परिस्थितियों के लिए उत्तरदायी माना जाता हैं प्रत्यक्षवादी को इतना ही दीखता हैं किन्तु जो गहराई तक उतर सकते हैं, उन्हें प्रतीत होगा कि शरीर जड़ पदार्थों का बना हैं, वह उपकरण मात्र हैं उसमें क्रियाशीलता तो हैं, पर यह विवेक नहीं कि क्या करें, क्या न करें। यह निर्धारण मन को करना होता हैं। शरीर मन का आज्ञानुवर्ती सेवक हैं मन इशारे पर ही उसके समस्त क्रिया-कलाप चलते हैं। भली-बुरी आदतें यों देखने में तो शरीर के अभ्यास में जुड़ी प्रतीत होती है।, पर वास्तविकता यह है कि गुण, कर्म, स्वभाव का सारा ढाँचा मनःक्षेत्र में खड़ा रहता हैं, शरीर को तो उस बाजीगर के इशारे पर कठपुतली की तरह हरकत भर करनी होती हैं। शरीर से की गई हर क्रिया के लिए मानसिक स्तर को ही कारण मानना होगा।

इससे भी अगली परत एक और है जहाँ पहुँचने पर व्यक्तित्व के आधारभूत मर्मस्थल का जाना जा सकता है। यह है आस्था केन्द्र-अन्तःकरण यहीं भाव-सम्वेदनाएँ उठती हैं। रुचि और इच्छा का निर्माण यहीं होता हैं। साधारण बुद्धि तो शरीर द्वारा किए गए कर्मों का ही परिस्थिति उत्पन्न करने वाला कारण मानती है। सूक्ष्म दृष्टि की खोज आगे तक जाती हैं और वह मानसिक स्तर को, विचार-विन्यास का महत्व देती हैं। इससे आगे तथ्यान्वेषी प्रज्ञा का विवेचन प्रतिपादन आरम्भ होता हैं। वह व्यापक परिस्थितियों के लिए लोगों की कृतियाँ और विचारणाओं को एक सीमा तक उत्तरदायी मानती हैं। उसका अन्तिम निर्णय यही होता है कि अन्तःकरण का स्तर ही विचार-समुच्चय में से अपने अनुकूलों को अपनाता हैं। व्यक्ति जो कुछ सोचता या करता है वस्तुतः वह सब कुछ आस्था एवं आकांक्षा के उद्गम केन्द्र- अन्तःकरण का ही निर्देश होता हैं।

सामान्य परिस्थितियाँ सभी के लिए एक जैसी होती हैं साधन-सुविधा के अवसर किसी-किसी को तो पैतृक उत्तराधिकार में या आकस्मिक कारणों से भी मिल जाते हैं, पर आमतौर से सारा उपार्जन मनुष्य की आन्रिक अभिरुचि के अनुरूप होता हैं। यही हैं चुम्बकत्व का वह उद्गम केन्द्र, जो अपने स्तर के विचारों, साधनों, व्यक्तियों को आकर्षित-आमन्त्रित करता हैं। यही है व्यक्तित्व पूँजी या कुँजी। कहने को तो यही कहा जाता है कि जो जैसा सोचता है वह वैसा बनता हैं, पर वास्तविकता यह है कि जिसकी आकांक्षा जिस स्तर की होती हैं, उसे उसी स्तर के विचार जम जम जाते हैं वे ही शरीर को अपनी मनमर्जी पर शिल्पी के उपकरणों की तरह हिलाते-घुमाते रहते हैं।

गीताकार ने इस आत्यंतिक सत्य का रहस्योद्घाटन करते हुए हैं- श्रद्धामयोऽयं पुरुषों यो यच्छद्धः स एवं सः।”

व्यक्तित्व श्रद्धा का ही प्रतिफल हैं। जिसकी जैसी श्रद्धा है उसका स्तर ठीक तदनुरूप ही होता हैं।

मनुष्यों की आकृति और नित्यकर्म प्रक्रिया प्रायः एक जैसी होती हैं। सभी के शरीर आहार-विहार की पद्धति लगभग एक जैसी ही अपनाते हैं नहाने, खाने, सोने, जागने जैसे हरकतें और अनुकूल सुविधा-साधन पाने के लिए सभी समान रूप से इच्छुक रहते हैं। ऋतुप्रभाव से लेकर समय का प्रभा भी सभी को समान रूप से प्रभावित करता हैं। थोड़ा-बहुत अन्तर भले ही हो, प्रगति के लिए अवसर हर मनस्वी को उपलब्ध रहते हैं। ऐसी दशा में किसी का पिछड़ेपन से घिरा रहना, किसी का दिन गुजारना, किसी का प्रगतिशील, होना, किसी को महामानवों जैसी मूर्धन्य स्थिति प्राप्त करना आश्चर्यजनक लगता है इस आकाश-पाताल जैसे अन्तर का एकमात्र कारण अन्तराल में अवस्थित आस्था एवं आकांक्षाएँ ही होती हैं वे ही जीवन -क्रम की दिशाधारा निर्धारित करती है।

एक ही प्रसंग में असंख्य प्रकार की विचारधाराओं का प्रचलन हैं। उनमें से किन्हें चुना जाए, इसका फैसला अन्तराल अपनी आस्थाओं एवं आकांक्षाओं के अनुरूप करता हैं क्या साधन ढूँढ़ जाएँ? किन व्यक्तियों से संपर्क साधा जाए, कि परिस्थितियों में रहा जाए, किस प्रकार का वातावरण अपनाया जाए, इसका अन्तिम निर्णय बाहरी व्यक्ति नहीं करते हैं। यह परामर्श या संगति वातावरण के कारण होती भर दीखती हैं। वास्तविकता यह हैं कि मनुष्य का ‘स्व’ उसके अन्तराल में प्रतिष्ठित रहता है। निर्णय-निर्धारण यहीं से होते हैं। मन और शरीर स्वामिभक्त सेवक की तरह अन्तःकरण की आकांक्षा को पूरा करने के लिए तत्परता और ईमानदारी के साथ लगें रहते हैं। एक ही परिस्थितियों में जन्मे और पले व्यक्तियों के सामने एक जैसे अवसर रहने पर भी उनकी दिशाधारा भिन्न दिशाओं में चलती हैं और ऐसे परिणामों पर पहुँचती हैं, जिन्हें उन साथियों के मध्य आकाश-पाताल जैसे अन्तर के रूप में देखा जा सकता है। इस गूढ़ पहेली का समाधान एक ही हैं कि व्यक्तियों की आस्था ही उन्हें सोचने करने के लिए विवश करती है। और धकेलते-धकेलते भली या बुरी परिस्थितियों के दरबार में जा खड़ा करती हैं। तत्त्वदर्शियों का यह निष्कर्ष अक्षरशः सही हैं कि अन्तःकरण ही व्यक्तित्व है। आस्था ही चिन्तन और चरित्र की दिशाधारा निर्धारित करती है। कौन किस प्रकार जिया और किन परिस्थितियों में रहा, इसका निमित्त कारण उनके अन्तःकरण का स्तर ही होता हैं। यहीं उत्थान-पतन का भाग्यविधान लिखा जाता हैं कदाचित विधाता इसी मर्मकेन्द्र को कहते है। भाग्य और भविष्य यदि वस्तुतः लिख जाता होगा तो उसकी विधिपाठ अन्तराल के मर्मस्थल में ही प्रतिष्ठित होती होगी।

कई बार परिस्थितियाँ भी किसी को कुछ से कुछ बना देती हैं, पर उन्हें अपवाद के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता। इतनी बड़ी विश्ववसुधा में बेतुके प्रसंगों का जब-तब घटित होते रहना अप्रत्याशित नहीं हैं। अनुपयुक्तों को भी कई बार उच्चस्तरीय परिस्थितियाँ मिल सकती हैं। इस प्रकार उपयुक्त व्यक्ति कुछ समय तक हेय परिस्थितियों में भी तथ्य सुनिश्चित हैं कि व्यक्ति के स्तर और परिस्थिति के बीच यदि विसंगति बन भी गई होगी तो वह अधिक सम ठहरेगी नहीं। न तो कुपात्र, श्रेष्ठता को स्थिर-सुरक्षित रख सकते हैं और न श्रेष्ठ व्यक्तियों को देर तक हेय परिस्थितियों में घिरे रहना पड़ता हैं।

प्राचीनकाल और अर्वाचीनकाल में जो तुलनात्मक विसंगतियाँ पाई जाती हैं उनका कारण परिस्थिति नहीं मनः-स्थिति हैं। परिस्थिति की दृष्टि से आज सुविधा-साधनों का बाहुल्य हैं। सम्पत्ति, शिक्षा, चिकित्सा, शिल्प, कला, व्यवसाय, विज्ञान आदि क्षेत्रों में हम अपने पूर्वजों की तुलना में कहीं अधिक समृद्ध, सौभाग्यशाली हैं किन्तु स्वास्थ्य सन्तुलन, स्नेह, सहयोग जैसे जीवन के सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में श्मशान जैसी वीभत्स भयंकरता छाई हुई हैं। जबकि होना उल्टा यह चाहिए कि लोग अधिक समृद्ध, सुसंस्कृत दिखाई पड़ते, प्रसन्न रहते और प्रसन्न रखते। उठते और उठाते। जो क्षमताएँ सृजन और सहयोग में नियोजित रहने पर संसार में स्वर्गीय वातावरण बना सकती थीं-वे ही एक दूसरे को काटने गिराने में लगी हुई हैं। यह दुरुपयोग कैसे बन पड़ा? सृजन की धारा ध्वंस में कैसे जुट गई? इस विडम्बना का कारण एक ही हैं, आदर्शवादी आस्थाओं का पलायन। अन्तःकरण के स्तर का अवमूल्यन। इसी विपर्यय की प्रतिक्रिया व्यक्ति और समाज के सम्मुख खड़ी हुई अनेकानेक समस्याओं, विपत्तियों और विभीषिकाओं के रूप में दृष्टिगोचर हो रही हैं।

प्राचीनकाल में लोग स्वल्प-साधनों से गुजारा कर लेते थे। आज की तुलना में उस समय की भारी अभावग्रस्तता भी उन्हें अखरती नहीं थी। कारण इतना ही था कि तब यह सोचा जाता था कि जीवन उच्चस्तरीय प्रयोजनों के लिए हैं। शरीर-निर्वाह के लिए न्यूनतम साधन जुटाने में सन्तोष करने के उपरान्त क्षमताओं का समुच्चय सदुद्देश्यों में नियोजित रहना चाहिए। आदर्शवादी परम्पराओं को अपनाने में गर्व-गौरव अनुभव करना चाहिए। प्रसन्नता का आधार परमार्थ रहना चाहिए। यही वे मान्यताएँ हैं जिनके कारण हमारे महान पूर्वज अपने क्षेत्र में स्वर्गीय परिस्थितियाँ बनाये रहने के उपरान्त समस्त विश्व को अजस्र अनुदानों से लाभान्वित करते हुए लोकश्रद्धा अर्जित करने की दृष्टि से देवमानव कहलाने का सौभाग्य पा सके।

आज आस्थाओं का स्तर गिर गया। संकीर्ण स्वार्थपरता का विलासी परिपोषण जीवन का लक्ष्य बन गया हैं। वैभव के सम्पादन और उसका उद्धत-उच्छृंखल दुरुपयोग ही जन-जन को अभीष्ट हैं। आदर्शवादी कहने -सुनने भर का एक बुद्धि-विलास बनकर रह गया हैं। समृद्धि बढ़ रही हैं और चातुर्य की मात्रा भी। न प्रतिभाओं की कमी हैं, न कर्म-कौशल को चरितार्थ कर सकने के अवसरों की। फिर भी श्रेष्ठता का संवर्द्धन और निकृष्टता का उन्मूलन बन कठिनाई है कि लोकमानस पर पशु-प्रवृत्तियों का ही आधिपत्य हैं। आदर्शों के प्रति न आस्था हैं, न आकांक्षा। उस स्तर कीं उमंगें उठती ही नहीं। उत्कृष्टता अपनाने में गर्व गौरव की अनुभूति कर सकने वाली भाव-सम्वेदना को ढूँढ़ निकालना अति कठिन हो रहा हैं। ऐसी दशा में आधे-अधूरे मन से श्रेष्ठता का लँगड़ा लूला समर्थन और उन्हें क्रियान्वित करने के अनुत्साह कोई ऐसे आधार खड़े नहीं कर सकते, जिनके सहारे ध्वंस को निरस्त और सृजन को अग्रसर कर सकना सम्भव हो सके।

हम आस्था-संकट के दुर्दिनों में रह रहे हैं। दुर्भिक्ष मात्र आस्थाओं का है। अन्य सभी वस्तुएँ महँगे-सस्ते दाम पर विपुल परिमाण में खरीदी जा सकती है। समस्याओं का स्थूल उत्पत्ति क्षेत्र आर्थिक, राजनैतिक या सामाजिक प्रतीत होता हैं। अतएव इन्हीं को सुधारने के लिए आन्दोलन और संघर्ष खड़े किये जाते रहते हैं। स्वास्थ्य की गिरावट का कारण असंयम नहीं, विषाणुओं का आक्रमण माना जाता हैं मनोरोगों का कारण उत्कृष्ट-चिन्तन का अभाव नहीं, स्वेच्छाचार का नियंत्रण बताया जाता हैं। अर्थसमस्या का समाधान श्रमशीलता और मितव्ययिता का अभाव नहीं, पूँजी का वितरण माना जाता हैं। अपराधों को रोकने के लिए आस्तिकता का, आध्यात्मिकता का तत्त्व-दर्शन हृदयंगम कराने की उपेक्षा की जाती हैं और पुलिस-कचहरी में समाधान खोजा जाता हैं। राजसत्ता को सुधार की जादुई छड़ी मानकर उस पर आधिपत्य करने के लिए हर महत्त्वाकाँक्षी लालायित हैं। धर्मतन्त्र को परिष्कृत करने और उसके सहारे आस्थाओं से झंझट खत्म करने का मार्ग किसी को सूझता तक नहीं हैं। यह उथले प्रयत्न हैं। रक्त की विषाक्तता की उपेक्षा करके फुंसियों पर पट्टी बाँधते रहने का रास्ता बहुत लम्बा है। और अभीष्ट परिणाम की दृष्टि से नितान्त संदिग्ध। फिर भी घुड़दौड़ इन्हीं उथले प्रयत्नों के बवंडर खड़े करने में लगी हुई है। जड़ को खोजे बिना उथले प्रयत्न कितने दिनों में किस सीमा तक सफल हो सकेंगे, यह नितान्त अनिश्चित है।

यह हजार बार समझना और लाख बार समझाया जाना चाहिए कि अपने युग की अनेकानेक समस्याओं, विपत्तियों और विभीषिकाओं का एकमात्र कारण मानवी अन्तःकरण में सन्निहित रहने वाली उच्चस्तरीय आस्थाओं का अवमूल्यन है। सड़ी कीचड़ में से मक्खी-मच्छर कृमि-कीटक विषाणु और दुर्गन्ध के उभार उठते है। इनका आत्यंतिक निराकरण नाली में जमी हुई सड़न को धो डालना ही हो सकता हैं। आस्थाओं में जड़ जमाये बैठी हुई निकृष्टता का न हटाया जा सका, अन्तःकरण में उत्कृष्टता का स्तर न बढ़ाया जा सका, तो समझना चाहिए बालू से तेल निकालने की तरह सुधार- परिवर्तन के समस्त प्रयास निष्फल ही होते रहेंगे। उज्ज्वल भविष्य दिवास्वप्न की तरह कल्पना का विषय ही बना रहेगा।

बाह्योपचारों के लिए कोई मनाही नहीं। वे होते हैं और होते रहने चाहिए। किन्तु महत्व अन्तःउपचार का भी समझा जाना चाहिए। युगपरिवर्तन का वास्तविक तात्पर्य हैं अन्तःकरण में जमी हुई आस्थाओं का उत्कृष्टतावादी पुनर्निर्धारण। समस्त समस्याओं का समाधान, इस एक ही उपाय पर केन्द्रित हैं, क्योंकि गुत्थियों का निर्माण इसी क्षेत्र में विकृतियाँ उत्पन्न होने के कारण हुआ-खाद्य-संकट ईंधन-संकट स्वास्थ्य संकट, सुरक्षा-संकट की तरह आत्मा संकट के व्यापक क्षेत्र और प्रभाव को भी समझा जाना चाहिए। युग की समस्याओं के समाधान में इससे कम में कम चलेगा नहीं और इससे अधिक और कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। यों लोगों को आश्वासन देने की दृष्टि से सुधार और संवर्द्धन के बहिर्मुखी प्रयास भी चलते रहने चाहिए, किन्तु ठोस बात तभी बनेगी। जब समष्टि के अन्तःकरण में उत्कृष्टता की आस्थाओं का आरोपण और अभिवर्द्धन युद्धस्तरीय आवेश के साथ किया जाएगा। एक ही समस्या हैं और एक ही समाधान। मनुष्य इसे भले ही समझ न पाये, पर महाकाल को यथार्थता की जानकारी हैं। वह लोकमानस में आस्थाओं को पुनर्जीवन प्रदान करने के लिए प्रज्ञावतार को भेज रहा है।उसका प्रधान उद्देश्य अनास्था को आस्था में बदल देना ही होगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118