मूर्धन्यों के अभिमत एवं अंतर्ग्रही प्रभावों की प्रतिक्रिया

April 1998

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विश्व के मूर्धन्य विचारकों ने अपनी सहज प्रज्ञा के आधार पर प्रस्तुत परिस्थितियों की सूक्ष्म विवेचना करते हुए यह अभिमत व्यक्त किया है कि युगपरिवर्तन का समय सन्निकट है। वे इस प्रयोजन में ध्वंस और सूजन की दुहरी प्रक्रिया को पूर्ण प्रखरता के साथ अपना-अपना रोल पूरा करने की सम्भावना व्यक्त करते है। साथ ही यह भी कहते है कि अन्ततः जीतेगा सृजन ही। उज्ज्वल भविष्य का समय आने से पूर्व मानवी दुष्कृत्यों और प्रकृति-प्रकोपों की काली घटाएँ बरसेंगी और उनसे लड़ने के लिये स्वभावतः मानवी पुरुषार्थ प्रबल और प्रचण्ड बनेगा।

सन 1963 में अमेरिका की प्रसिद्ध जीवशास्त्री महिला प्रो. राशेल क्रार्सन ने अपनी पुस्तक ‘ साइलेंट स्प्रिंग ‘ में लिखा है कि पंद्रह-बीस वर्ष बाद दुनिया के अधिकाँश महानगरों की स्थिति ऐसी हो जायेगी कि वहाँ के सभी निवासियों पर अकाल मृत्यु की सम्भावना हर घड़ी छाई रहेगी। न केवल नगर निवासी वरन् उस क्षेत्र में रहने वाले प्राणियों को भी कभी भी मरना पड़ सकता है। इस तरह की सामूहिक मौतों का कल्पना के आधार पर चित्रण भी किया है। उस समय तो लोगों ने इन प्रतिपादनों का मखौल उड़ाया, पर अभी कुछ वर्षों पहले अमेरिका के डेटायट शहर में इटली के जोर्निया तथा जापान के मिनिमाता कस्बे में ‘साइलेंट स्प्रिंग’ पुस्तक में दी गई स्थिति हूबहू देखने में आई।

डेटायट की हवा में कारखानों की चिमनियों से निकले धुएँ के कारण इतनी सल्फर डाई आक्साइड जमा हो गई कि वह बादलों के साथ मिलकर दहकते तेजाब के रूप में बरस पड़ी। इटली के जोर्निया शहर में एक कारखाने से इतनी अधिक कार्बन डाई आक्साइड छोड़ी गई कि मुर्गियाँ मरने लगी, पेड़ सूखने लगे और बूढ़े खाँसते-खाँसते परेशान हो गये। जापान के मिनिमाता कस्बे में भी यही स्थिति उत्पन्न हो गई थी।

इस तरह की घटनाओं को देख- जानकर अब काफी लोग यह मानने लगे हैं कि व्यक्ति और हर प्राणी सिर पर मौत नाच रही है। वह कभी भी सैकड़ों क्या, हजारों लोगों को अपने पंजे में जकड़ सकती है।

सन 1975 में अमेरिका में सम्पन्न हुए खगोलशास्त्रियों के सम्मेलन में प्रो. कार्ल साइमन ने बताया कि कुछ वर्षों बाद पृथ्वी का वातावरण अचानक शुक्र अपने सौर परिवार का सबसे गर्म वातावरण वाला सदस्य है। वहाँ प्रायः 380 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान रहता है, जबकि हमारी पृथ्वी का औसत तापमान 40 से 52 डिग्री सेंटीग्रेट के बीच है। इसका कारण बताते हुए प्रो. कार्ल साइमन ने कहा कि शुक्र पृथ्वी और बुध के बीच में सूर्य के सबसे समीप पड़ने वाला ग्रह है। वहाँ सूर्य की अधिक रोशनी पहुँचता है और सूर्य की गर्मी के कारण पानी की भाप तथा कार्बनडाइआक्साइड का एक घना आवरण बन गया है, जो गर्मी को बाहर नहीं जाने। इसी कारण शुक्र पर भयानक गर्मी पड़ती है।

इन दिनों पृथ्वी पर जिस तेजी से औद्योगीकरण बढ़ता जा रहा है और वायुमण्डल में कार्बनडाइआक्साइड की जितनी मात्रा घुलती जा रही है, उससे पृथ्वी के आयनमंडल पर धीरे-धीरे एक आवरण बनता जा रहा है। धीरे-धीरे स्थिति यह बनती जा रही कि उस घने आवरण में ही पृथ्वी द्वारा फेंकी जाने वाली अतिरिक्त गर्मी कैद होती जा रही है। कोई आश्चर्य नहीं कि कुछ वर्षों बाद ही पृथ्वी पर असह्य गर्मी पड़ने लगे और अनेक स्तर के संकट खड़े करे।

सुप्रसिद्ध पश्चिमी दार्शनिक ओस्वाल्ट स्पेंगुलर ने अपनी पुस्तक ‘दि डिक्लाइन ऑफ द वेस्ट’ में लिखा है कि “वर्तमान सभ्यता अब बुढ़ापे के दौर से गुजर रही है। उसने संसार में कूटनीति और युद्ध का जो रंग-मंच तैयार कर दिया है वह वास्तव में विनाश नदी की एक ऐसी कगार है, जो अब और एक बाढ़ बर्दाश्त नहीं कर पाएगी, तृतीय विश्वयुद्ध अवश्य होगा और उसके बाद वर्तमान भौतिकतावादी सभ्यता का सदा के लिए अन्त हो जाएगा।”

स्पेंगुलर ने जो तर्क प्रस्तुत किए है। वे जीवाणुओं की विस्तृत गवेषणा पर आधारित हैं और ये तर्क तथा तथ्यों पर आधारित हैं कि प्रत्येक विचारक उन्हें मानने के लिए अपने को लगभग बाध्य-सा अनुभव करता है।

प्रसिद्ध विचारक और दिव्यदर्शी रोम्यां रोला ने लिखा है” मुझे विश्वास है कि श्वेत सभ्यता का एक बड़ा भाग अपने गुणों-अवगुणों सहित नष्ट हो जाएगा, फिर एक नई सभ्यता को भारतीय सभ्यता माना है और कहा कि आगे भारतीय संस्कृति और दर्शन ही विश्वधर्म, विश्वसंस्कृति के रूप में प्रतिष्ठित होंगे तथा एक नये समाज की रचना होगी। मुझे जीवन का अन्त होने की चिन्ता नहीं, पश्चिम ही नहीं, पश्चिमी देश आत्मा की अमरता पर विश्वास नहीं करते, पर मैं करता हूँ। जो लोग इस समय पश्चिमी दुनिया में जन्म ले रहे हैं, उन्हें भीषण विपत्तियों का सामना करना पड़ेगा।”

स्पेन से प्रकाशित होने वाली एक पत्रिका’ साइन्स वेस्ट मिरर ‘ में सन 1926 के एक अंक में जी वेजीलेटीन नामक भविष्यवक्ता का लेख छपा था, जिसमें बताया गया था कि 56 वर्ष बाद (अर्थात् 1982 में) वायुमण्डल की जीवनदायी गैसें विषाक्त हो जाएँगी, तब प्रकृति का उग्रता सन 1980 के बाद क्रमशः बढ़ती हो जाएगी।प्रकृति का इतना भयंकर प्रकोप मनुष्य ने पहले कभी नहीं देखा होगा। उसमें अतिवृष्टि और अनावृष्टि से लेकर उल्कापात तथा ज्वालामुखी के विस्फोट से लेकर चुम्बकीय तूफानों तक विनाश के अनेक कारण उत्पन्न होंगे। समुद्र में कई नये टापू निकलेंगे। मित्र जैसे लगने वाले अनेक देशों में परस्पर युद्ध होगा। उसके बाद एक नई सभ्यता और संस्कृति का उदय होगा, जो पूर्व के देश (भारतवर्ष) की होगी। उससे ही वायुमण्डल शुद्ध होगा, बीमारियाँ दूर होंगी, आपसी कलह शान्त होंगे और संसार में फिर से अमन-चैन कायम होगा। लोग भाई-भाई की तरह प्रेमपूर्वक रहने लगेंगे। देश-जाति की सीमाएँ टूटकर भ्रातृभावना का ही विस्तार होगा।

अन्तर्ग्रही प्रवाहों का प्रभाव धरती के वातावरण पर, उसके पदार्थों और प्राणियों पर असंदिग्ध रूप से पड़ता हैं। सौरमण्डल से जो अदृश्य विकिरण प्रवाहित होते हैं, उन्हें अत्यधिक संवेदनशील होने के कारण नवजात शिशु असाधारण रूप से ग्रहण करता हैं, फलतः उसके व्यक्तित्व में उस स्थापना का प्रभाव एक स्थायी तथ्य बनकर जमा रहता हैं। यों प्रबल पुरुषार्थ से उसे मिटाया या घटाया भी जा सकता हैं।

अन्तरिक्ष विद्या के दो स्वरूप हैं- एक ग्रह-नक्षत्रों की गतिविधि का निर्धारण और उसके प्रत्यक्ष प्रभावों का आकलन। मौसम, तूफान, ज्वार–भाटा, चुम्बकीय विकिरण जैसे आकलन इसी प्रत्यक्ष विद्या के अंग हैं। परोक्ष खगोल विद्या वह है जिसमें ग्रह-नक्षत्रों के विकिरण का, मनुष्यों के व्यक्तियों और भविष्य पर पड़ने वाले प्रभाव का पता चलाया जाता हैं ग्रहों का गतिचक्र के वातावरण पर प्रभाव पड़ता हैं और प्राणियों की मनोदशा तथा गतिविधियों पर उसका दबाव अनुभव किया जाता हैं। अन्तरिक्ष के प्रत्यक्ष निर्धारण को एस्ट्रोनॉमी और परोक्ष आकलन को एस्ट्रोलॉजी कहते हैं।

इन दोनों प्रसंगों पर बहुत समय से ऊहापोह होता रहा हैं और प्रतिपादन तथा मतभेद का क्रम चलता रहा हैं, फिर भी दोनों का अपना-अपना पक्ष हैं। कटु आलोचना और विरोध-भर्त्सना का प्रसंग वहाँ खड़ा होता हैं जहाँ तीरतुक्का मिलाने वो ज्योतिषी अनजान होते हुए भी उस विज्ञान का आवरण ओढ़कर लोगों को डराते और पूजा-पाठ के नाम पर जेब काटते हैं। अन्धविश्वास, भाग्यवाद और निहित स्वार्थों का दबाव यदि हटाया जा सकें, तो ज्योतिर्विज्ञान अपने आप में एक उच्चस्तरीय विज्ञान है। उसकी गणना अनादिकाल से एक मान्यता प्राप्त शास्त्र के रूप में होती रही है।

आधुनिक शोधकर्ता और विज्ञान-वेत्ता जैसे-जैसे तथ्यों की गहराई में उतरते जाते हैं, वैसे-वैसे उन्हें यह स्वीकारना पड़ रहा हैं कि ग्रह-नक्षत्रों का प्रभाव प्राणियों की मनःस्थिति एवं परिस्थिति पर पड़ता हैं, साथ ही उसके दबाव से पृथ्वी के वातावरण तथा पदार्थों के स्तर में अनपेक्षित परिवर्तन आते हैं।

जान एण्टनी वेस्ट और जान गेरहार्ड टुण्डा नामक दो पत्रकारों ने फलित ज्योतिष की वैज्ञानिकता प्रमाणित करने का एक अभिनव प्रयास किया हैं उनकी पुस्तक ‘द केस फाॅर एस्ट्रोलॉजी' में यही प्रतिपादन है। उनके अनुसार, तर्क और वैज्ञानिकता के उदयकाल से लेकर वर्तमान तक ज्योतिर्विज्ञान के विरोध एवं पक्ष में लगभग एक-सी बातें कही जाती रहीं हैं।

लेखकों के अनुसार, एक ही जगह, एक ही समय में जन्मे लोगों में बहुत कुछ साम्य होता हैं। यहाँ तक कि थोड़े-से अन्तर से पैदा हुए जुड़वा बच्चों का भी। सैमुअल हेंमिग और जॉर्ज तृतीय दोनों एक ही दिन जन्मे (4 जून, 1738)। एक ही दिन उन्हें विरासत में राज मिला (सैमुअल को लुहारी दुकान, जॉर्ज को इंग्लैण्ड की गद्दी) दोनों देखने में और स्वभाव में एक से थे। दोनों का विवाह एक दिन हुआ एवं दोनों की सन्तानों की संख्या भी एक-सी थी। दोनों एक ही समय बीमार पड़ते रहे और दोनों एक ही दिन (21 जनवरी, 1820) मरें।

हाल ही के वर्षों में एक ही दिन, एक ही समय, एक ही जगह जन्मे वैज्ञानिक आइंस्टीन और ओटोहान, लेखक जेन्स स्टीफेन्स और जेम्स जायस जैसी कई जोड़ियों के जीवन में अद्भुत साम्य देखा-दिखाया गया हैं। आमतौर से एक ही समय जन्मने वाले अनेकों बालकों की मनः स्थिति एवं परिस्थिति में कोई साम्य नहीं होता। लेखकों के अनुसार, व्यक्ति का एकाकी भाग्य पूर्णतया स्वतन्त्र नहीं हैं, वह समूह के भाग्य के साथ भी जुड़ा हैं। ऐसे कई वैज्ञानिक अनुसन्धानों की चर्चा लेखक करते हैं, जिनसे सिद्ध होता हैं कि प्रकृति के अनेकानेक क्रिया−कलाप कुछ सधे-बँधे समय चक्रों में होते हैं।

वैज्ञानिकता के इस दौर में फलित ज्योतिष जैसी विद्या के सम्बन्ध में यह प्रश्न स्वाभाविक उठता है कि क्या इस पुरातन विद्या में कोई वैज्ञानिक तत्व हैं? कोपरनिकस, कैपलर तथा गैलीलियो जैसे खगोलविदों ने सूर्य को सौरमण्डल का स्थिर केन्द्र सिद्ध करके प्राचीन ज्योतिष को ध्वस्त तो किया, पर साथ ही वे स्वयं फलित ज्योतिष के परम भक्त भी रहें। स्वयं न्यूटन, जिन्होंने आधुनिक भौतिकशास्त्र की रचना में भारी योगदान दिया हैं, फलितज्योतिष के आधार पर कितने ही निर्धारण किया करते थे। एक वैज्ञानिक प्रयोग के फ्रेंक ब्राउन ने यह सिद्ध किया हैं कि मटर के दाने हों या आलू के टुकड़े हो या सीपियाँ, सभी की भीतरी घड़ियाँ (बायोलॉजिकल क्लॉक) सूर्य और चन्द्रमा की स्थिति से प्रभावित होती हैं। इस प्रभाव का रोशनी से कोई सम्बन्ध नहीं। यदि इन्हें अँधेरे में बन्द कर दिया जाए, तो भी इनका क्रम सूर्य-चन्द्र की स्थिति के अनुसार चलता रहता हैं। पड़वा के चाँद में शिथिल और पूर्णिमा के चाँद में सक्रिय गतिविधियाँ रहती हैं। सीपियाँ ज्वार-भाटे से कोई सम्बन्ध रख चन्द्रमा की कलाओं के अनुसार खुलती, बन्द होती हैं। यह भी परीक्षणों द्वारा प्रमाणित किया जा चुका हैं।

वैज्ञानिक जान नेलसन के अनुसार, आयनमंडल में तूफानों का, जो रेडियो प्रसारणों में बाधा डालते हैं, सूर्य के सन्दर्भ में ग्रहों की स्थिति से सीधा सम्बन्ध हैं जब भी दो या दो से अधिक ग्रह, सूर्य की राशि में होते हैं या उससे 180 डिग्री अथवा 90 डिग्री दूर राशि में, तब भी ऐसे ही तूफान आते हैं। जब भी बहुत से ग्रह सूर्य की राशि से 60 डिग्री या 120 डिग्री की दूरी पर होते हैं, आयनमंडल शान्त रहता हैं। इस संदर्भ में याद रखने योग्य है कि पाश्चात्य ज्योतिष के अनुसार 90 डिग्री और 180 डिग्री का सम्बन्ध कठोर और 60 डिग्री या 120 डिग्री का सम्बन्ध कोमल माना जाता रहा हैं।

प्रस्तुत अन्तर्ग्रही परिस्थितियों पर दृष्टिपात करने वाले इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि युगसन्धि के अवसर पर जैसी उथल-पुथल होती हैं वैसी सम्भावना इन दिनों भी उभरने के लक्षण प्रतीत हो रहे हैं। इनमें विनाशकारी घटनाक्रमों की प्रखरता तो उनके कष्टकारक होने के कारण मानी ही जाएगी, किन्तु साथ ही उसके पीछे उज्ज्वल भविष्य का आश्वासन भी सुनिश्चित रूप से विद्यमान हैं।


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