प्रज्ञावतार का महाप्रयास

April 1998

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चेतना निराकार है और प्रकृति साकार। चेतना का परिचय प्रकृति पदार्थों की हलचलों में देखा जा सकता है, पर उसकी मूलसत्ता आकार रहित ही होती है। अवतार एक प्रकार की चेतना ऊर्जा है, जिसका प्रभाव सम्बद्ध पदार्थों के बढ़े हुए तापमान के रूप में देखा जा सकता है। गर्मी व्यापक होने के कारण उसका निजी स्वरूप इन्द्रियातीत ही रहता है। प्रज्ञावतार का प्रभाव न्यूनाधिक मात्रा में अनेकों दिव्य आत्माओं में उभरता हुआ देखा जा सकेगा, पर वह स्वयं प्राणियों या पदार्थों के रूप में आकारवान नहीं बन सकती। प्रज्ञावतार का रूप देखना हो तो वह युगान्तरीय चेतना के रूप में ही देखा जा सकेगा। किसी व्यक्तिविशेष के रूप में उसे सीमाबद्ध नहीं किया जा सकता। प्रज्ञा का जहाँ जितना उभार हो रहा हो, समझना चाहिए कि वहाँ उतनी ही मात्रा में युगदेव ने अपना परिचय एवं दर्शन देना आरम्भ कर दिया।

स्पष्ट है कि अपने युग का ‘असंतुलन’ आस्था-संकट ने उत्पन्न किया है। इसलिए निवारण का केन्द्रबिन्दु भी वही होना चाहिए। इन दिनों ऐसा भावनात्मक प्रवाह जन- मानस में उत्पन्न होना है, जिसके कारण यह प्रमाण - परिचय मिलने लगे कि श्रद्धातत्व की अभिवृद्धि का दौर चल पड़ा है। आदर्शवादिता का समावेश कर सकना किन्हीं सन्त - महन्तों का काम माना जाता था। इसके विपरीत प्रज्ञा का उभार उत्पन्न होगी जन-जन में यह चेतना उत्पन्न होगी कि उसे अपने जीवन क्रम में श्रेष्ठता का अवधारण अधिकाधिक मात्रा में करना चाहिए,इसके लिए वह इतना साहस संजोयेगा कि संकीर्ण स्वार्थपरता के लिए समर्पित इच्छा और चेष्टा नये सिरे से समीक्षा करे और उसमें भरी हुई क्षुद्रता को हटाकर उस स्थान पर महानता की स्थापना के लिए कुछ कहने योग्य कदम बढ़ाए। यह परिवर्तन किसी बाहरी दबाव से नहीं वरन् स्वतः प्रेरणा से होगा।

आमतौर से लोभ,मोह और अहंकार के दैत्य ही जनसाधारण को कठपुतली की तरह नचाते है। यही प्रभाव सर्वत्र चल रहा है। समर्थ-असमर्थ,धनी निर्धन, शिक्षित - अशिक्षित इन दिनों सभी अपने तुच्छ स्वार्थों की सिद्धि में बुरी तरह संलग्न है। लिप्सा और लालसा की कीचड़ में लोकचेतना गहराई तक धँसी हुई है। सामान्य प्रयत्नों से इसमें हेर-फेर होते दिखाई नहीं पड़ रहा है, किन्तु प्रज्ञावतार की प्रेरणा नये आयाम प्रस्तुत करेगी। अन्तः प्रेरणा का उद्गम ही बदलने लगेगा। लोग अपना स्तर उत्कृष्टता की ओर उठाने और आदर्शवादिता की ओर बढ़ाने का प्रयत्न करेंगे। यह परिवर्तन बाहर से थोपा हुआ नहीं,भीतर से उभरा हुआ होगा। कहने- सुनने को तो धर्म और अध्यात्म की,भक्ति और शान्ति की, सज्जनता और उदारता की चर्चा आये दिन कहने - सुनने को मिलती रहती है। कइयों का विनोद- विशय भी यही होता है। तथाकथित धर्मगुरु, लोकनेता, लेखक - वक्ता उत्कृष्टता की चर्चा आये दिन करते रहते हैं, किन्तु उन प्रतिपादनों को क्रियान्वित करते इनमें से कोई विरले ही देखे जाते हैं। फिर सर्वसाधारण के लिए तो उन्हें आचरण में उतारना और भी अधिक कठिन होता है। उदाहरण तो केवल समझाने के लिए प्रचार-प्रक्रिया अपनाने के रूप में ही हो सकता है। सो हो भी रहा है। लेखनी और वाणी से आदर्शवादिता का प्रतिपादन भी कम नहीं हो रहा है, किन्तु सफलता इसलिए नहीं मिलती कि लोकचेतना की अन्तःस्थिति उसे स्वीकारने और अपनाने को सहमत नहीं होती। कानों से सुनने या मस्तिष्क से समझने से काम बनता नहीं। व्यक्ति की स्थिति और कृति तो अन्तःप्रेरणा से ही बदलती है। इन दिनों उसी क्षेत्र के निष्फल होकर रह जाता है। प्रज्ञावतार इस कठिनाई का समाधान करेगा। भीतर से ‘हिय हुलसने, दिशा बदलने जैसी स्थिति उत्पन्न होगी। फलतः वह प्रयोजन सफलतापूर्वक पूरा होने लगेगा। जिसके आज प्रशिक्षण और दमन के सभी अस्त्र-शस्त्र निष्फल होते, निरर्थक जाते दीखते है।

अन्तःकरण मूर्च्छित रहे तो उच्चस्तरीय भाव- संवेदनाएँ उसमें से उठती ही नहीं। धर्मधारणा के बीजांकुर जमते ही नहीं। यही है वह अपरिहार्य कठिनाई, जिसके निराकरण का कोई मार्ग किसी को सूझता ही नहीं। मानवी प्रयास जहाँ असफल होते हैं वहाँ दैवी प्रयास बागडोर अपने हाथ में सँभालते है। प्रज्ञावतार की प्रेरणा से यही कठिनाई हल होगी। लोग अपने भीतर कुछ नई उमंग उठती अनुभव करेंगे और देखेंगे कि उनका मस्तिष्क उत्कृष्टता में रुचि लेने आरम्भ कर शरीर ने सत्कर्मों में रस लेना आरम्भ कर दिया। युगपरिवर्तन के बीजांकुर इसी रूप में फूटेंगे। शुभारम्भ का अग्रगमन का श्रेय

सदा सुसंस्कारी जाग्रत आत्माओं को मिलता है। सामान्यजन क्रमशः उनके अनुगमन एवं अनुकरण का ही साहस समयानुसार सँजोते रहते हैं।

विचारक्रान्ति अभियान हो प्रज्ञावतार की प्रमुख प्रक्रिया है। समस्त क्रिया−कलाप इसी क्षेत्र में नियोजित रहेंगे। आस्थाओं का कल्पवृक्ष उग पड़ने की उपरान्त उसके पत्र-पल्लव और फल-फूलों की सम्पदा इतनी बढ़ी-चढ़ी होगी कि उसके सहारे प्रस्तुत संकटों के निवारण में कोई अड़चन शेष न रहे।

युगपरिवर्तन का केन्द्र बिन्दू एक ही है-आस्थाओं का उन्नयन, चिन्तन का परिष्कार, सत्प्रवृत्तियों का प्रतिष्ठापन। यह दीखते तो तीन है, पर वस्तुतः एक ही तथ्य के तीन रूप है। सत्कर्म और सद्ज्ञान वस्तुतः सद्भावों का ही उत्पादन है। यही है जाग्रत आत्माओं के माध्यम से प्रज्ञावतार द्वारा कराया जाने वाला महाप्रयास। हर जाग्रत आत्मा को अगले दिनों अपनी समस्त तत्परता और तन्मयता जन-मानस का परिष्कार पर केन्द्रीभूत करनी होगी।


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