अवतार के प्रकटीकरण के पर्याप्त प्रमाण

April 1998

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व्यापक शक्तियाँ सूक्ष्म ओर निराकार होती है। उनका कार्यक्षेत्र अदृश्य जगत हैं। परब्रह्म की अवतार सत्ता युग सन्तुलन को सँभालने,सुधारने के लिए आती है। यह कार्य वह उनसे कराती है, जिनसे दैवी - तत्त्वों का चिरसंचित बाहुल्य पाया जाता हैं।

सूक्ष्म जगत में चलने वाले प्रवाहों की प्रतिक्रिया से सभी परिचित है। ग्रीष्म शीत और वर्षों ऋतुओं में भिन्न - भिन्न प्रकार का वातावरण रहता है और उसी आधार पर पदार्थों एवं प्राणियों की स्थिति बदलती रहती है। बसन्त ऋतु में कुछ विचित्र प्रवाह बहते है और प्राणियों से लेकर वनस्पतियों तक को उल्लास -उन्माद से भर देते है। महामारी से लेकर युद्धोन्माद तक की परिस्थितियों सूक्ष्मजगत में बनती और स्थूलजगत में अपने अस्तित्व का परिचय देती है। लोक प्रवाह में अवांछनीयता की विषाक्तता भर जाने से पतन और पराभव का संकट खड़ा होता है। उसका निराकरण भी सूक्ष्म जगत में ही उत्पन्न होता है। उसका तूफानी प्रभाव सारे वातावरण को झकझोरता है। जाग्रत आत्माएँ उस दैवेच्छा को पूरा करने में अग्रगामी भूमिका निभाती और महाकाल का हाथ बँटाती दीखती है, साथ ही लोकमानस पर भी उस उभार का प्रभाव पड़ता है। अवांछनीयता की जड़े खोखली होने लगती है। और औचित्य का समर्थन करने के लिए हर किसी का मन मचलता है। इस सहज परिवर्तन का प्रभाव नये सृजन के लिए उत्पन्न हुई अनेकानेक सत्प्रवृत्तियों के रूप में सर्वत्र दृष्टिगोचर होता हैं

मानवीकाया में जो अवतार का दर्शन करना चाहते है। वे उस समय के श्रेष्ठ सज्जनों का उदात्त चरित्र एवं उदात्त प्रयास के विकास-विस्तार में भली प्रकार देख सकते है। जब युगान्तरीय चेतना से प्रभावित आदर्शवादी व्यक्ति सृजन प्रयोजनों में अधिक तत्परतापूर्वक कार्य-संलग्न दिखाई पड़े तो उसे अवतार की प्रेरणा ही मानना चाहिए। सन्त सुधारक और शहीद लगें तो समझना चाहिए। इसका सूत्र-संचालन अवतारी सत्ता ही अदृश्य रूप में कर रही है।

सन्त, सुधारक और शहीद सामान्य जन-जीवन से ऊँचे स्तर के होने के कारण छोटे-बड़े अवतारों की गणना में आते है। सन्त अपनी सज्जनता से मानव-जीवन के सदुपयोगों का आदर्श प्रस्तुत करते हैं।

उनकी विचारणाएँ गतिविधियाँ और उपलब्धियाँ जन-जन के मन आदर्शवादिता के प्रति श्रद्धा और अनुकरण के लिए उमंग उत्पन्न करती है। सुसंस्कृत जीवनयापन किस प्रकार होना चाहिए इसका प्रत्यक्ष उदाहरण सन्त अपने उपदेशों से ही नहीं चरित्र एवं व्यक्तित्व के आधार पर भी प्रस्तुत करते है। हेय उदाहरण ही सर्वत्र दृष्टिगोचर होते हैं। इसलिए आमतौर से यही समझा जाता है। कि आदर्शवादिता कहने-सुनने भर की बात हैं उसका उपयोग कथा-प्रवचन में तो हो सकता हैं पर व्यवहार में उसे उतारना सम्भव नहीं। इस निराशा को सन्त अपने निजी उदाहरण से निरस्त को सन्त अपने निजी उदाहरण से निरस्त करते है। और यह साहस प्रदान करते है। कि मनःस्थिति ऊँची रहने पर विषम परिस्थितियों में भी मानवी गरिमा अक्षुण्ण रखी जा सकती इससे सर्वसाधारण को बल और प्रोत्साहन मिलता है। निराशा की अनास्था उलटने में सन्तों का जीवनक्रम प्रकाश-स्तम्भ जैसा प्राणवान उदाहरण प्रस्तुत करता हैं आदर्शों के परिपालन में आने वाली कठिनाई का सामना करते हुए उत्कृष्टता को दृढ़तापूर्वक अपनाये रहने वाले व्यक्ति सन्त वर्ग में गिने जाते है। भले ही वे वेश और व्यवसाय सामान्य स्तर का ही क्यों न अपनाये रहते हों। सन्तों को धरती के देवता कहते है। साधु और ब्राह्मणों को जो उच्चस्तरीय सम्मान मिलता हैं उससे अवतार के प्रति लोकश्रद्धा की झाँकी मिलती हैं।

जनजीवन में अवतार का इससे ऊँचा स्तर हैं -सुधारक। यह स्थिति ऊँची हैं इसमें सन्त होने के लिए आत्मनिर्माण की तपश्चर्या ही पर्याप्त नहीं होती। श्रेष्ठ जीवन जी लेने तक ही बात नहीं बनती वरन् एक और भी बड़ा कदम उठाने की आवश्यकता पड़ती हैं कि जन जीवन पर छाये हुए भ्रष्ट चिन्तन और दुष्टाचरण के साथ जूझने का प्रबल पराक्रम करना होता हैं आत्म-सुधार अपने हाथ की बात है इसलिए सन्त का कार्यक्षेत्र सीमित और सरल है किन्तु सुधारक को दूसरों को बदलना होता इसलिए अपेक्षाकृत अधिक प्राणशक्ति की आवश्यकता पड़ती हैं चरित्र अधिक ऊँचा साहस अधिक प्रखर और पुरुषार्थ अधिक प्रबल चाहिए तभी दूसरों को अभ्यस्त अनाचार से विरत करने और सदाशयता अपनाने के लिए सहमत एवं विवश करना सम्भव होता है। सुधारकर न केवल लोकप्रवाह में धुली हुई अवांछनीयता से जूझते हैं वरन् साथ ही अभीष्ट परिवर्तन को प्रचलन में जोड़ने और परम्परा बनाने का सृजन प्रयोजन भी पूरा करते है। उन्हें दो मोर्चे सँभालने पड़ते है। जबकि सन्त के लिए एक कार्य कभी पर्याप्त समझा जाता है। सन्त का ब्राह्मण होना पर्याप्त है किन्तु सुधारक को ’ब्रह्मक्षेत्र धर्म अपनाना होता है। उसके एक हाथ में शास्त्र और दूसरे में शस्त्र रहता है। प्रखरता से काम चल भी नहीं सकता। सुधारकों की गणना देवदूतों में होती रही हैं। अवतार का यह द्वितीय चरण है।

तीसरा चरण है-शहीद। शहीद का अर्थ है-स्व-का-पर-के लिए समग्र समर्पण। अध्यात्म भाषा में इसी को समर्पण शरणागति कहते हैं। स्वार्थ का परमार्थ में उत्सर्ग करने का तात्पर्य है लोभ और मोह के बन्धनों को काट फेंकना अपने दायरे को शरीर-परिवार तक सीमित न रखकर विश्व-नागरिक जैसा बना लेना वसुधैव-कुटुम्बकम् के दर्शन को चिन्तन और चरित्र का अविच्छिन्न अंग बना लेना। इस स्तर के व्यक्तित्व लोकप्रवाह से अलग थलग पड़ जाते हैं। लोगों की दृष्टि में लोग मूर्ख। यह एक प्रकार के लौकिक जीवन का मरण है। जीवित रहते हुए भी वे आस-पास की परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होते अथवा दृष्टिकोण और कार्यक्रम दूसरों के प्रभाव-परामर्श से नहीं अन्तःप्रेरणा से निर्धारित करते है तथाकथित स्वजन-सम्बन्धियों का मित्र परिचितों को अनुपयुक्त परामर्श उन्हें रत्तीभर भी प्रभावित नहीं करता। अपनी नीति स्वयं निर्धारित करते है।। ऐसे महामानवों को ही आत्मदानी-शहीद कहा जा सकता हैं।,

साधारणतया शहीद उन्हें कहते है। जो किसी महान प्रयोजन के लिए अपनी जान गँवा देते है। पर यह परिभाषा एकांगी हैं जिन्होंने परमार्थ के लिए प्राण त्यागे, उनके चरणों पर श्रद्धा के सुमन चढ़ने ही चाहिए। उनकी यशगाथा का गायन आदर्शों के प्रति आदर्शवादियों के प्रति लोकमानस के नतमस्तक होने और उच्चस्तरीय प्रेरणाओं से अनुप्राणित होने का अवसर प्रदान करता है। इस दृष्टि से बलिदानियों का जितना गुणगान किया जाए जितना सम्मान दिया जाए उतना ही कम है। इतने पर भी बात ध्यान में रखने की हैं कि हर आत्मदानी के लिए प्रभु समर्पित के लिए मरणकृत्य अपनाना अनिवार्य नहीं है। हर शहीद को फाँसी गोली तलाश ही करनी पड़े ऐसी बात नहीं है। संकीर्ण स्वार्थपरता का अन्त करके परमार्थ को ही अपनी महत्त्वाकाँक्षाओं का केन्द्र बना लेना उसी में रस लो उसी चिन्तन में तन्मय रहना वस्तुतः मानसिक शहादत है। यह जहाँ होगी वहाँ व्यवहार भी वैसा ही बनेगा। क्रिया–कलापों का निर्धारण और कार्यान्वयन वही होता हैं जो अन्तःकरण में बसा हो। समर्पण एक आस्था के भवबन्धन काटने पड़ते है और आदर्शों के लिए चिन्तन और चरित्र को पूरी तरह नियोजित रखना पड़ता है। अपने को इस ढाँचे में ढाल लेने वाले व्यक्ति अध्यात्म शब्दावली में ऋषि कहलाते हैं शहीद शब्द से यह अधिक उपयुक्त हैं शहीद होने में मरण की आवश्यकता जुड़ी रहती है जबकि ऋषि कहलाते हैं। शहीद होने में मरण की आवश्यकता जुड़ी रहती है जबकि ऋषि के लिए जीवन या मरण में कोई अन्तर नहीं रहता वह जीवित रहते हुए चतुर लोगों की दृष्टि में मृतक हैं। इतिहासकार उसके मर जाने पर भी जीवितों जैसी अभ्यर्थना करते हैं संत और सुधारक में अपना अहं शेष रहता हैं जबकि समर्पित को वासना, तृष्णा का लोभ-मोह का ही अन्त नहीं करना पड़ता वरन् अहन्ता का भी विसर्जन आवश्यक होता है। आमतौर से लोकसेवियों की लोकेषणा यश और सम्मान की कामना घटने के स्थान पर बढ़ती देखी जाती है जबकि वस्तुतः उसका पूर्णतया विसर्जन होना चाहिए। सार्वजनिक जीवन में यह लोकेषणा ही सबसे बड़ी बाधा है। लोकसेवी बहुत कुछ त्यागते पाये जाते है। पर अपनी यशलिप्सा-पदलिप्सा छोड़ नहीं पाते। यही कारण हैं कि संस्था-संगठनों के अंतःक्षेत्र में आये दिन भूकम्प आते और विस्फोट होते देखे जाते हैं जन-सहयोग के अभाव में सार्वजनिक सेवाकार्य में उतनी बाधा नहीं पड़ती जितनी तथाकथित लोकसेवियों की महत्त्वाकाँक्षा की चिनगारी उन उपयोगी प्रयासों को नष्ट-भ्रष्ट करके रख देती हैं। अवतारों में उच्चस्तरीय वे है जिन्होंने सन्त की पवित्रता-सुधाकर की प्रखरता के साथ-साथ ऋषि की तत्वदृष्टि अपनाई और अहंता का पूरी तरह विसर्जन कर दिया। अपने श्रम, समय, चिन्तन, प्रभाव का पूरी तरह परमार्थ के ब्रह्मानंद पर उत्सर्ग कर दिया। ऐसे लोगों की प्रतिभा एवं क्षमता सामान्य लोगों की तुलना में असंख्यों गुना अधिक होती हैं। स्व का परिपोषण मनुष्य की अधिकाँश शक्ति से निकल जाता है। यदि उससे बचा जा सके और सच्चे अर्थों में उत्कृष्टता के लिए समर्पण किया जा सके तो अहंता के परिपोषण में लगने वाली इच्छा विचारणा एवं क्रियाशीलता इतनी अधिक मात्रा में बच जाती हैं जिसके आधार पर सामान्य व्यक्ति भी असामान्य स्तर के काम कर सकता हैं ऐसी प्रतिभाएँ जब कभी जहाँ कही उपलब्ध होती है तब वही चमत्कार उत्पन्न होते चले जाते है।

ऋषियों के सभी कृत्य शहीदों जैसे दुस्साहस भरे होते हैं। अपने साधनों को परमार्थ के लिए विसर्जित करने में उन्हें वाजिस्रवा के सर्वमेध यज्ञ जैसे दृश्य दिखाई पड़ते हैं। लक्ष्य में इतनी तन्मयता रहती है कि अर्जुन के मत्स्यवेध का अनुकरण करने की घटना अहर्निश। घटित होते देखी जा सकती है। प्राण का मोह छोड़ना कठिन है पर अपने वैभव व्यामोह और अहन्ता का विसर्जन करने के उच्चस्तरीय प्रस्तुत कर सकते है। इसी स्तर के लोग प्रकाश स्तम्भ की तरह ज्योतिर्मय रहते और कर्तृत्व की गरिमा से असंख्यों को प्रभावित करते हैं उनके त्याग-बलिदान का परिचय पग-पग पर मिलता रहता हैं शहीद मरने के उपरान्त आक्रोश उत्पन्न करते है? किन्तु ऋषियों की सुषमा हर घड़ी स्वर्गीय श्रद्धा-सम्वेदना का संचार जन-जन में करती रहती है।

बिजली हर वस्तु में प्रवाहित नहीं होती। वह कुछ ही पदार्थों में प्रवेश कर पाती हैं लकड़ी चीनी रबड़ काँच जैसी वस्तुओं पर उसका तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ता। अवतार के सहकर्मी, सहधर्मी तीन ही होते है सन्त, सुधारक और शहीद। सज्जन, सृजनशिल्पी ऋषि। जिन्हें अवतार के प्रत्यक्ष दर्शन करने होते है वे इन तीन वर्गों का विस्तार एवं स्तर उभरता देखकर यह सन्तोश कर लेते हैं कि अवतार की प्रखरता कितनी दीप्तिमान हो रही है। रामकाल के रीछ वानर कोल-भील-गीध-गिलहरी जिस आदर्शवादिता को अपना रहे थे उसे देखकर यह जाना जा सकता था कि सूक्ष्मजगत में अवतार की ऊर्जा किस आवेग के साथ काम कर रही है। कृष्ण काल के पाण्डव और ग्वाल-बाल इसी तथ्य का प्रमाण प्रस्तुत करते थे। बुद्धकाल के परिव्राजक और गाँधीकाल के सत्याग्रहियों की गतिविधियों से भी यही सिद्ध होता था कि अवतार का आवेश दिव्य-आत्माओं पर उतरता है और उनके शरीर से वही करा लेता है जो उसे अभीष्ट है।

प्रज्ञावतार का आवेश उसके प्रभाव से अनुप्राणित परिव्राजकों-समयदानियों की बढ़ती हुई संख्या और उठती हुई श्रद्धा को देखकर सहज ही आँका जा सकता है। इस वर्ग से सन्त सुधारक और शहीद के तीनों ही तत्त्व असाधारण मात्रा में बढ़ते-उभरते देखें जा सकते है। आदर्शवाद निष्ठावान् और पराक्रमी सृजनशिल्पियों का बाहुल्य उनकी गतिविधियों का अनुकरणीय सत्प्रवृत्तियों का संवर्द्धन यह बताता हैं कि निराकार प्रज्ञावतार अपने अनुकूल और अनुरूप आत्माओं को नियत दिशाधारा में नियोजित करके अभीष्ट की पूर्ति का वातावरण बनाने में अपनी तत्परता दे रहा है।


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