कल्पवृक्षों की नई पौध उग रही है

April 1998

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अवतारों का भी क्रमिक विकास हुआ हैं। उनकी कलाएँ क्रमशः बढ़ती आई है, कच्छ-मच्छ एक-एक कला के अवतार थे। वाराह और वामन दो-दो के। नृसिंह और परशुराम तीन - तीन कला के माने जाते है। राम बारह के,कृष्ण सोलह के और बुद्ध बीस कला के माने गये है। निष्कलंक के बारे में कहा गया है कि वे चौबीस कला के होंगे। यह क्रमिक विकास है। सृष्टिक्रम में अवतारों की श्रृंखला अनवरत चलती रहती है और विश्वविकास के साथ -साथ उनकी कला- सामर्थ्य भी बढ़ती रहेगी।

भूतकाल के अवतारों में प्रारम्भिक का कार्यक्षेत्र भौतिक परिस्थितियों से जूझना भर था। उसके बाद वालों को अनाचारियों से लड़ना पड़ा। इसके बाद स्थापनाओं का क्रम चलता है। राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कृष्ण को पूर्णपुरुष और बुद्ध को विवेक का देवता कहा जाता है। इनके चरित्र और कर्तृत्व में उच्चस्तरीय स्थापनाओं का दौर है। अधर्म का नाश करने के लिए उनके जितने प्रयत्न हुए है, उनको अपेक्षा स्थापनाओं पर गतिविधियाँ अधिक केन्द्रित रही हैं कृष्ण का गीता प्रतिपादन और बुद्ध का बुद्धि की शरण में दिशा और लोक-मानस को प्रेरणा देने में अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में अधिक प्रयत्नशील रहे। प्रज्ञावतार का कार्य अपेक्षाकृत अधिक कठिन और अधिक व्यापक है। उसे सामयिक समस्याओं एवं व्यक्तिगत उद्दण्डताओं से ही नहीं जूझना है वरन् लोकमानस में ऐसे आदर्शों का बीजारोपण, अभिवर्द्धन, परिपोषण एवं क्रियान्वयन करना है, जो सतयुग जैसी भावना और रामराज्य जैसी व्यवस्था के लिए आवश्यक अन्तःप्रेरणा व्यापक क्षेत्र में उत्पन्न कर सकें। लक्ष्य और कार्य की गरिमा एवं व्यापकता को देखते हुए प्रज्ञावतार की कलाएँ चौबीस होना स्वाभाविक है।

समुद्र मन्थन से चौदह रत्न निकले थे। हृदय मंथन की वर्तमान भावचेतना से अनेकानेक नररत्नों का निकलना निश्चित है। समुद्र मंथन से निकले रत्नों ने सृष्टि की आदिम स्थिति में उत्कृष्ट साधनों का बाहुल्य उपस्थित किया था। लक्ष्मी(सम्पदा), सूर्य(ज्ञान), चन्द्रमा (सन्तुलन), अमृत (आत्मज्ञान), धन्वन्तरि ( शमन ), वज्र(अनुशासन), अश्व (उत्साह), ऐरावत (पराक्रम), रम्भा (कला) जैसी अनेकों दिव्य सम्पदाएँ आविर्भूत हुई तो समुद्रमन्थन ने तत्कालीन परिस्थितियों को कुछ से कुछ बना दिया था। इन दिनों भी ऐसा ही कुछ होने जा रहा है। अन्तः प्रेरणा से उत्पन्न हुआ आत्मज्ञान और भावावेश मनुष्यों को कुछ उच्चस्तरीय सोचने और करने के लिए विवश करेगा। अग्रगामी सदा अपने अनुयायी उत्पन्न करते और परम्पराओं को जन्म देते है। जाग्रत आत्माओं द्वारा अपनाई गई युग-साधना का प्रवाह जन-मानस को अनुकरण के लिए अनायास ही आकर्षित और प्रेरित करेगा। पिछले दिनों जहाँ आदर्शवादिता के दोनों आधार धर्म अध्यात्म चर्चा एवं उपचार की विडम्बनाओं में उलझकर रहते रहे है। इन दिनों उन्हें अपनी प्रखरता प्रकट करने का, प्रत्यक्ष कार्यरत होने का अवसर मिलेगा। इंजन चलता है, तो डिब्बे अनायास ही पीछे लुढ़कने लगते है। तूफान उठता है, तो पत्ते और तिनके साथ ही उड़ने लगते हैं। जलप्रवाह में जाने क्या-क्या साथ ही तैरता-डूबता बहता चला जाता है। जाग्रत आत्माओं के अपने उदात्त दृष्टिकोण और उदार आचरण से जब लोकश्रद्धा उभरेगी तो अनेकों व्यक्तियों एवं सत्प्रवृत्तियों को प्रगति के पथ पर द्रुतगति से अग्रसर होते देखा जा सकेगा।

इस तथ्य को हजार बार समझा और लाख बार समझाया जाना चाहिए कि अपने युग की समस्याएँ परिस्थितिजन्य दीखती भर है वस्तुतः उनका उद्भव विकृत मनः-स्थिति से हुआ है। जड़ तक पहुँचने पर ही समाधान खोजा जा सकेगा। मनः स्थिति बदलने से ही परिस्थितियाँ बदलेगी। नाली साफ करने पर ही मक्खी-मच्छरों और दुर्गन्ध फैलाने वाले विषाणुओं से छुटकारा मिलता है। रक्त शुद्धि का चिरस्थायी उपचार किये बिना निरन्तर उठते रहने वाले फोड़े -फुंसियों से पिण्ड नहीं छूटता। समस्याएँ असंख्य है, उनके बाह्योपचार भी असंख्यों हों सकते है। यह प्रयत्न हो रहे है और होते भी रहे है। प्रतिफल और अनुभव भी सामने है। समाधान चाहे शासनतंत्र ने ढूँढ़ हो, चाहे अर्थतन्त्र ने। बात कुछ बनी नहीं है। एक हाथ जोड़ने के साथ ही दो हाथ टूटने का सिलसिला चलता रहे, तो गुत्थियों को सुलझना किस प्रकार सम्भव हो सकता है, बुद्धि और सम्पदा की, साधना और सामर्थ्य की दिनों कोई कमी नहीं। सृष्टि के आदि से लेकर अब तक के इतिहास में मनुष्य कभी इतना समृद्ध और सशक्त नहीं हुआ जितना इन दिनों है साथ ही यह भी सच है कि वर्तमान में उस पर जितनी विपन्नता छाई है उतनी भूतकाल में कभी भी सहन नहीं करनी पड़ी।

समस्याएँ सुलझेगी तो एक-एक करके नहीं वरन् एक साथ ही उनका समाधान निकलेगा। क्योंकि उनका उद्गम एक है। अस्वस्थता दूर होनी होगी तो उस पर मात्र संयम से आहार-विहार सम्बन्धी अनुशासन के सहारे ही विजय प्राप्त की जा सकेगी। असंयम का दौर रहते आहार को बहुमूल्य बनाने एवं चिकित्सा-उपचार के पहाड़ जैसे साधन खड़े करने पर भी कोई हल न मिलेगा। नित नई औषधियों का आविष्कार होगा और नित नूतन अस्पताल खुलेंगे किन्तु दुर्बलता और रुग्णता पर विजय प्राप्त करने का स्वप्न दिन-दिन दूर ही हटता जाएगा।

मनुष्य की वितृष्णा आन्तरिक समाधान, सन्तुलन, सन्तोश जैसे चिन्तन से ही शान्त होगी, अन्यथा तनिक-तनिक-सी बातों पर उत्तेजना उद्विग्नता के ज्वालामुखी फूटते रहेंगे। वस्तुओं का बाहुल्य और व्यक्तियों का अनुकूलन एक स्वप्न है जिसकी पूर्ति व्यावहारिक जीवन में सम्भव नहीं। हर किसी को ताल-मेल बिठाकर चलना पड़ता है। अधिकार के साथ कर्तव्य को उपार्जन के साथ सन्तोश को, संघर्ष के साथ सहयोग को उपभोग के साथ संयम को मिलाकर चलने से ही मानसिक सन्तुलन बनता है। किसी को मानसिक तनावों से छुटकारा पाना है तो अनुकूल परिस्थितियाँ प्राप्त होने तक की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है। चिन्तन में विधायक तत्त्वों को भर लेने दृष्टिकोण को ऊँचा उठा लेने से ही काम चला जाता हैं संव्याप्त विक्षोभ और असन्तोष का समाधान इसी प्रकार होगा। अनुकूल के लिए किया गया पुरुषार्थ तो दूसरा चरण है।

परिवार छोटे करने का प्रयोग पाश्चात्य देशों में व्यापक रूप से चला है। पति-पत्नी और न्यूनतम बच्चे यही है आधुनिक परिवार का स्वरूप। संयुक्त परिवार को तो आफत समझा गया और उसको विखण्डित किया गया पर इतने से भी समस्या कहाँ सुलझी। छोटे परिवार भी आपाधापी के केन्द्र है और स्नेह-सौजन्य की कमी का रोना उनमें भी रोया जाता हैं जबकि कितने ही बड़े कुटुम्ब स्नेहसिक्त सहकारी संस्था के रूप में अपनी सार्थकता और सफलता सिद्ध करते है। पारिवारिक समस्याओं की गणना असंख्य हैं किन्तु उनके मूल में भावनात्मक दरिद्रता ही प्रधान कारण रही होती है। परिवार का सुख, प्रचुर साधनों के रूप-यौवन के अथवा व्यवस्था-उपचार के सहारे उपलब्ध होने की आशा की जाती हैं किन्तु देखा यह गया है कि जहाँ इन सबकी प्रचुरता है वहाँ भी मनोमालिन्य कम नहीं है। तथ्य ढूँढ़ने पर भावनाओं की दरिद्रता ही कुटुंबों को विश्रृंखलित एवं विपन्न बनाती है। इसका निराकरण हो सके तो अभावग्रस्त घरौंदे में भी लोग देवोपम स्नेह-सौजन्य का आनन्द लेते हुए दिन बिता सकते है। समाज में अनेक कुप्रथाएँ प्रचलित है। इनमें परिपाटी उतनी घातक नहीं होती जितनी कि उनकी आड़ में नंगा नृत्य करने वाली दुष्टता। दहेज, समस्या नहीं हैं बेटी की विदाई में अभिभावक अपनी सम्पदा का एक अंश उपहार में देते हो तो उसमें कोई अनौचित्य नहीं हैं। दहेज का कन्याभक्षी पिशाच का रूप तो उसके पीछे काम करने वाली निष्ठुर अहंकारिता और स्वार्थपरता ने उत्पन्न किया है। यदि इन तत्त्वों को हटा दिया जाए तो नवपरिणिता को स्त्रीधन के रूप में कुछ उपहार मिल जाने से निश्चिन्तता और प्रसन्नता ही रहेगी। यही बात अनेकानेक प्रचलनों से सम्बद्ध हैं कुप्रथाएँ बदली जानी चाहिए, यह आवश्यक है किन्तु स्मरण रखा जाए कि दुष्टता के रहते सुधार के नाम पर किए गए परिवर्तन भी सन्तोषजनक परिणाम उत्पन्न नहीं कर सकेंगे। बिना दहेज के तथाकथित आदर्श विवाहों की आजकल धूम है। इनमें भी पर्दे के पीछे लेन-देन पनप रहा हैं। उसे सुधारवाद का दुर्भाग्य ही कह सकते समाज-सुधार के बाह्य प्रयत्न कितने ही आवश्यक क्यों न हो उनकी सार्थकता सद्भावना के जीवन्त रहने पर ही हो सकती है। सद्भावना प्रथा-परम्परा नहीं है यह आध्यात्मिक उपलब्धि हैं समाज में प्रचलित अनेकों कुप्रथाओं का उन्मूलन तो होना ही चाहिए पर आत्यंतिक समाधान की तब तक प्रतीक्षा करनी चाहिए जब तक कि सद्भावनाओं की हरीतिमा अन्तःक्षेत्रों में लहलहाने न लगे।

शासन-सत्ता कि पार्टी के हाथ में रहती है प्रश्न यह नहीं वरन् यह है जो शासन को चलाते है वे किस स्तर के है। घोषणापत्रों और साइनबोर्डों के बदलने से व्यक्तियों की गोटें इधर से उधर बिठाने भर से स्वच्छ शासन की अपेक्षा नहीं की जा नीयतें बदलें तभी कुछ काम चलेगा।

उत्थान के लिए बनने वाली योजनाएँ उपयुक्त संचालकों के अभाव में किस प्रकार असफल होती हैं इसका प्रमाण पग-पग पर मिल सकता है। अपराधों के नियन्त्रण में पुलिस कचहरी जेल आदि का ढाँचा अति स्वल्प मात्रा में ही कारगर सिद्ध होता है। अपराधी मनोवृत्ति का शमन करने एवं नियंत्रणकर्ताओं के निर्लोभ एवं कर्तव्यपरायण होने से ही बात बनेगी। अन्यथा अपराध अपने ढंग से पनपते रहेंगे और नियन्त्रण का ढकोसला अपनी जगह खड़ा रहेगा। अनैतिकता के वैयक्तिक एवं सामाजिक रूप अनेकानेक है इन सभी पर अंकुश लगने का एक ही उपाय है व्यक्ति के अन्तःकरण में धर्मधारणा का घनीभूत होना।

नेतृत्व की हर क्षेत्र में माँग है पर उसे प्रतिभा और चतुरता के सहारे उपलब्ध करने का प्रयत्न किया जाता हैं कौतुक-कुतूहल दिखाकर समाप्त हो जाता हैं। स्थायित्व उस गरिमा में है जो चिन्तन और चरित्र के हर घटक में छाई रहती है जिसमें भ्रष्ट चिन्तन और दृष्ट आचरण की छय़ एवं स्वार्थ-साधन के लिए कही कोई गुँजाइश ही नहीं रह जाती है। ऐसे उच्चस्तरीय नेतृत्वों का उदय ही जब बन्द हो गया तो लोकचेतना कौन जगाए? पीढ़ी का मार्गदर्शन कौन करे? भटकने और भटकाने वाले लोग ही मिल-जुलकर नेता और अनुयायियों की मण्डलियाँ बना-बनाकर जन-कल्याण के नाम पर शालीनता का निर्माण करने में लगे हुए है। यह परिस्थिति और किसी तरह दूर नहीं हो सकती। प्रज्ञावतार की प्रेरणा से उत्पन्न उत्कृष्टता सम्पन्न मनः स्थिति ही नेतृत्व के अभाव को पूरा कर सकने में समर्थ हो सकती है।

अर्थसुविधा के लिए साधनों का बाहुल्य उतना आवश्यक नहीं जितना उपलब्धियाँ को मिल-जुलकर खाने और उन्हें मात्र औचित्य के लिए ही उपयोग करने की धारणा। श्रमशीलता ईमानदारी मितव्ययिता जैसे सद्गुणों की कमी पड़ने पर ही दरिद्रता की विपत्ति सहन करनी पड़ती है अन्यथा मनुष्य की आवश्यकताएँ ही कितनी है उन्हें सरलतापूर्वक स्वल्प साधनों से ही पूरा किया जा सकता है। और हर किसी को इतना समय-साधन मिल सकता हैं

जिसके सहारे आत्म-कल्याण एवं समाज-कल्याण के लिए बहुत कुछ कर सकना सम्भव हो सके।

दृष्टि पसार के वास्तविकता को ढूँढ़ने पर समस्त समस्याओं का एक ही कारण दीखता है आस्था-संकट-निकृष्ट चिन्तन। इसका निराकरण आज एक ही उपाय से हो सकता हैं अन्तःचेतना का ऊर्ध्वगमन, उन्नयन, अभ्युदय, प्रज्ञावतार की तूफानी गतिविधियाँ जन-जन के अन्तःकरण को झकझोरती और उसे क्रमशः उस दिशा में धकेलती-घसीटते ले चलेगी जहाँ उसे शालीनता और सदाशयता से बढ़कर और कुछ मूल्यवान प्रतीत ही न होता हो। मूर्धन्य देव-मानवों के माध्यम से प्रज्ञावतार आस्था-संकट के निवारण का प्रयत्न कर रहा हैं धर्मक्षेत्र की नर्सरी में ही महामानवों के कल्पवृक्ष उत्पन्न होते रहेंगे। इस समय भी उसी के प्रमाण में कल्पवृक्षों की नई पौधे उग रही है।


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