युगदेवता की दो प्रत्यक्ष प्रेरणाएँ

April 1998

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प्रज्ञा का आरम्भिक उद्गम जाग्रत आत्माओं से आरम्भ होता है। इस ऊर्जा से अनुप्राणित व्यक्ति सर्वप्रथम अपने चिन्तन और चरित्र को बदलते हैं उनकी चेतना नरकीटकों जैसा क्षुद्र जीवन जीने से स्पष्ट इनकार करती हैं। पुरानी इच्छाएँ, रुचियों और आदतें बदलना आमतौर से सामान्य व्यक्तियों के लिए अति कठिन होता हैं। इसे समुद्र-तैरने और पर्वत-लाँघने जैसा दुर्गम बताया गया है। लोग श्रेष्ठता की दिशा में सोचते तो बहुत कुछ है पर संकल्पबल के अभाव में कर कुछ नहीं पाते। शेखचिल्ली जैसे सपने गढ़ते दिवास्वप्न देखते और कल्पना लोग में उड़ते-उड़ते ही जिन्दगी बीत जाती है और सड़ी कीचड़ से निकलने की बात बनती ही नहीं। किन्तु प्रज्ञापुरुष अन्तःप्रेरणा की प्रचण्डता से प्रेरित होकर असाधारण साहसिकता का परिचय देता है और पुराने ढर्रे को मकड़ी को तरह अपने बुने ताने-बाने को समेटकर अपने ही पेट में निगल लेते है। आत्मपरिवर्तन सामान्य लोगों के लिए निस्सन्देह अति कठिन है पर प्रज्ञापुरुष अपनी दैवी साहसिकता के सहारे उसे इतनी अच्छी तरह सम्पन्न कर लेते है कि साथियों को उसे दाँतों तले उँगली दबाकर आश्चर्यवत् पश्यति करिष्वदेन’ की पुनरावृत्ति खुली आँखों से देखनी पड़ती है।

दैवी-अनुग्रह का प्रथम चिन्ह यही है कि सामान्य से असामान्य की दिशा में छलाँग लगाये। संसार के ऐतिहासिक महामानवों में से प्रत्येक को महानता का पहला पाठ यही पढ़ना पड़ा है कि साथी-सम्बन्धियों के परामर्शों और अपने कुसंस्कारों की प्रत्यक्ष अवमानना करके ऐसा कदम उठाये जिसे अपने मतलब से मतलब रखने वाले-मोहान्ध में जकड़े हुए व्यक्ति अव्यावहारिक बताये और घाटे का सौदा ठहराए। प्रवाह में तो हाथी तक बहते चले जाते है। धारा को चीरकर उल्टा चलने का साहस मछली वर्ग के असाधारण शक्तिसम्पन्न प्राणियों में ही होता है। महानता का जन्म इसी स्तर की साहसिकता के साथ होता है। वे लोभ-मोह की महत्त्वाकाँक्षाओं के बन्धन काटते है और लिप्सा-लालसाओं को ताक पर रखकर आदर्शवादिता के मार्ग पर चलते है। पर आने वाली कठिनाइयों को जान-बूझकर स्वीकार-शिरोधार्य करते है।

देवमानव वे है जो आदर्शों के क्रियान्वयन की योजना बनाते और सुविधा की ललकलिप्सा को अस्वीकार करके युगधर्म के निर्वाह की काँटों भरी राह पर एकाकी चल पड़ते हैं यही साहसिकता उन्हें आत्मकल्याण और लोक-कल्याण के दुहरे प्रयोजन पूरे कराती हुई पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचते है। प्रज्ञावतार की प्रथम प्रेरणा प्रथम प्रक्रिया देवमानवों के उत्पादन की होती हैं। वे आत्म-परिवर्तन का अनुगमन की प्रेरणा देता है। अग्रगमन ही साहसिकता है। यह पराक्रम देवमानवों के भाग्य में ही बदा होता हैं समयानुसार अनुगमन तो असंख्यों करने लगते है। आँधी के साथ उड़ने वाले पत्ते तो अपना रुख बदलते ऊँचे उछलने नीचे गिरने की हलचलें सहज ही करते रहते है।

अवतार के अनुयायी आरम्भ में थोड़े ही होते है पीछे वह समुदाय बढ़ता चला जाता हैं राम के साथियों में सुग्रीव हनुमान जैसे कुछ ही साथी थे कृष्ण के प्रारम्भिक सहयोगी पाँच पाण्डव थे। बुद्ध की प्रथम दीक्षा में सात सम्मिलित हुए थे। ईसा के व्रतबद्ध शिष्य तेरह थे। अग्रगामियों के कंधों पर सेनापतियों जैसी योजना बनाने और व्यवस्था जुटाने का उत्तरदायित्व आता है। साधनों और सहयोगियों के अभाव में भी पर्वत उठाने और समुद्र लाँघने जैसे असम्भव दीखने वाले कार्यों के लिए आत्मबल और ईश्वरीय-सहयोग पर विश्वास करते हुए कटिबद्ध हो जाना यही सिद्ध करता है कि इन आत्माओं पर दैवी-आवेश अवतरित हो चला। कालान्तर में ऐसी ही आत्माओं को लोग अवतार या अवतार के उपकरण कहने लगते है। प्रथम चरण में ढलाई इन्हीं की होती है।

अवतार के द्वितीय चरण में अनेक व्यक्ति आदर्शवादी साहस का परिचय देते दिखाई पड़ते हैं कृपणों को उदारता अपनाते डरपोकों को साहस करते स्वार्थियों को परमार्थ अपनाते पतितों को आदर्श अपनाते देखकर यही सिद्ध होता है कि हवा का रुख बदला और मौसम पलटा। वर्षाऋतु आते ही सारा माहौल बदल जाता हैं आसमान में छाई धूल और धुन्ध को धकेलकर सुहावनी घटाएँ अपना अड्डा जमाती है। तवे जैसी जलती भूमि पर जल भरा दीखता है। हरियाली उगती और सोये मेढ़कों की आवाज हर दिशा में सुनाई पड़ती है। जबकि हर व्यक्ति स्वार्थसिद्धि के ताने बाने बुनने के अतिरिक्त और कुछ सोचने करने से आगे बढ़ ही न पाये तब कुछेक व्यक्तियों की परामर्श परायणता निस्सन्देह आश्चर्यवत् प्रतीत होती हैं और उसे किसी आवेश का चमत्कार कहा जाता है। आदर्शों को चर्चा का विशय और वाक् विलास का प्रसंग भर माना जाता हैं उन्हें प्रत्यक्ष अपनाया जाने लगे तो समझना चाहिए कि कही से कुछ विशिष्ट उतरा और महान उभरा है। अवतार की चेतना जन-समाज में घुल-मिले उत्कृष्ट तत्त्वों को ऐसे ही साधारण आचरण करने-उदारता का परिचय देने एवं ऐसा कर गुजरने के लिए उकसाती है जिसे अभिनन्दनीय और अनुकरणीय कहा जा सकें अवतारकाल में उन्हीं उदाहरणों की संख्या बढ़ती और परम्परा बनती चली जाती हैं।

प्रज्ञावतार की इस पुण्यवेला में इस स्तर की अनुकृतियाँ द्रुतगति से बढ़ रही है। भविष्य में उनका विस्तार और भी तेजी से होगा। युगनिर्माण परिवार में लाखों सदस्य अपना समयदान और अंशदान अन्तः प्रेरणा से अनुप्राणित होकर कर रहें है। उन बूँद-बूँद अनुदानों का समुच्चय नवयुग के अनुरूप वातावरण बनाता चला जा रहा है। जाग्रत आत्माओं को युगदेवता का आवाहन सर्वत्र भावश्रद्धा के साथ सुना गया हैं। आत्माहुतियाँ लेकर जीवनदानियों का एक समर्थ वर्ग शान्तिकुञ्ज पहुँचा है और सृजन प्रयोजन में अदम्य उत्साह के साथ जुट गया है।

प्रव्रज्या अभियान के विस्तार में ऐसे ही झरने झरते दृष्टिगोचर होते हैं वरिष्ठ कनिष्ठ और समयदानी वर्ग के परिव्राजकों के बादल जिस तरह उमड़ रहे है उनसे यह अनुमान लगाने में तनिक भी कठिनाई नहीं होती कि तवे-सी जलती धरती पर मखमली चादर बिछने और जीवनदायी हरीतिमा उगने में अब बहुत विलम्ब नहीं रह गया हैं

अपने देव-परिवार के परिजनों द्वारा नवसृजन के एक-से-एक बढ़कर उच्चस्तरीय आदर्श अनुदान उपस्थित करने में इन दिनों होड़ सी लग रही हैं गायत्री शक्तिपीठों के निर्माण में कितनों ने अपनी सामर्थ्य को लाँघते हुए कितने बढ़े-चढ़े अनुदान प्रस्तुत किए है इसका इतिहास अगले दिनों एक विशाल ग्रन्थ के रूप में सचित्र छपेगा। उसे पढ़ने वाले देखेंगे कि इस युगचुनौती को किस उच्चस्तरीय भावश्रद्धा के साथ स्वीकार किया गया और उस निर्माण में कितने साहस भरे त्याग-बलिदान का नियोजन किया गया। इतिहास के पृष्ठांकन पर महामानवों के त्याग-बलिदान चिरकाल से अनेकों पीढ़ियों को आदर्शवादी प्रेरणाएँ देते रहें है। उनसे अनुप्राणित होकर असंख्यों ने अपने जीवन की दिशाधारा बदली और अनुकरण की हिम्मत जुटाई है। अग्रगामी आदर्शवादी ही अन्तरिक्ष के ग्रह-तारकों की तरह धरती वालों को प्रकार देते और वस्तुस्थिति जताने से लेकर रास्ता दिखाने तक का महान प्रयोजन पूरा करते हैं।

मध्यकाल में यह परम्परा शिथिल ही नहीं लगभग समाप्त हो गई थी। साधु-ब्राह्मण तक धर्म-व्यवसायी बन गये थे। देश-भक्ति-लोकसेवा-जन-कल्याण का आचरण तो अनेकों ने ओढ़ा और वाक्शक्ति के आधार पर धुएं के बादल भी खड़े किए पर अपने निजी आवरण से ऐसी प्रेरणा प्रस्तुत न कर सके जिससे वे श्रद्धा के पात्र बनते और भावभरी प्रेरणा देकर दूसरों को अनुकरण के लिए सहमत करते। प्राचीनकाल में भारतीय देवमानवों की एक ही प्रमुख विशेषता थी कि वे उत्कृष्ट चिन्तन और पूरी तरह सँजोते थे। उनके क्रिया−कलाप साहसिक परमार्थ-प्रयोजनों से भरे रहते थे। त्याग-बलिदान को ही वैभव और वर्चस्व मानते थे। यह परम्परा नष्ट हुई और धर्म का स्वरूप बनकर रह गया। ऐसी दशा में विनिर्मित हुए वातावरण में महामानवों का उत्पादन बन्द हो जाना स्वाभाविक ही था। यही है वह महान क्षति जिसका दुष्परिणाम वर्तमान हेय परिस्थितियों और विकट विपत्तियों के रूप में अपनी पीढ़ी को भुगतान पड़ रहा है। युग बदलना है तो प्रवाह भी बदलेगा ही। महान व्यक्तियों का उत्पादन-सामान्य लोगों द्वारा आदर्शवादी क्रिया-कृत्यों का सम्पादन यह दोनों ही कार्य ऐसे है जिनसे निराशा भरी परिस्थितियों में भी आशा की चमक उत्पन्न होती है। सामान्य समझे जाने वाले लोगों की भी जब अन्तःप्रेरणा में प्रेरित होकर परमार्थ-प्रयोजनों के लिए कोई अभिनन्दनीय कार्य करने के लिए अनायास ही कटिबद्ध पाया जाए तो समझना चाहिए कि युगदेवता का चमत्कार सिर पर चढ़कर बोला।

युगसृजन के लिए प्रचुर साधनों की आवश्यकता पड़ेगी। कार्यक्षेत्र व्यापक है तक उससे सम्बद्ध असंख्य अन्य प्राणियों तक चली जाती हैं इतने बड़े क्षेत्र एवं वर्ग की स्थिति को नीचे से उठाकर ऊँची उछाल देना निस्सन्देह बहुत बड़ा कार्य हैं इसलिए श्रमबल मनोबल एवं साधनाबल की प्रचुर परिमाण में आवश्यकता पड़ेगी। इस आवश्यकता को न तो चन्दा संग्रह करके पूरा किया जा सकेगा और न शासन के लिए इतने बड़े लक्ष्य को पूरा करने की बात सोच सकना सम्भव होगा। इतनी बड़ी सम्पदा जन-जन के मन-मन में उभरने वाली भावश्रद्धा के कारण स्वेच्छा-समर्पित अनुदानों से ही सम्भव होगी।

युगचेतना की प्रेरणा हर जाग्रत आत्मा के लिए यह है कि वह न केवल जीवनक्रम का उत्कृष्ट बनाये वरन् युगसृजन के छुटपुट नहीं ऐसे अनुदान प्रस्तुत करे जिनकी स्मृति से इतिहास के पृष्ठों का धन्य बनने का अवसर मिले। दुष्टता और भ्रष्टता पिछले दिनों एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ लगाते रहे हैं। अब यह प्रतिस्पर्धा दूसरे स्तर की है। भीम ने ब्राह्मण के बालक को बचाने के लिए अपना प्राण देने को अधिकार माता तथा भाइयों से लड़ झगड़कर प्राप्त किया था। गुरु गोविन्द सिंह के बच्चों में से प्रथम बलिदान होने वाले बालक ने अपने सौभाग्य को उच्च स्वर से सराहा था। अब प्रतिस्पर्धाएँ इसी स्तर की चलेगी। कि असंख्यों को प्रेरणा देने वाले आदर्शवादी त्याग-बलिदान में कौन-कौन किस से आगे निकलता है। दंगल में कुश्ती पछाड़ने वाले पहलवान अपनी विजयध्वज उड़ाते हुए हाट-बाजारों में निकलते हैं आदर्शवादी अनुदान प्रस्तुत करने में किसने अपने कितने साथियों को पछाड़ा और अपनी आन्तरिक बलिष्ठता का कितना भारी प्रमाण प्रस्तुत किया यही प्रसंग लोग चर्चा का विशय बनेगा। इतिहास के पृष्ठ इन्हीं दिव्य-संस्मरणों से रंगे और लिखें जाएँगे। यही वह आधार है जिससे युगनिर्माण के लिए अभीष्ट शक्ति एवं सम्पदा प्रचुर परिमाण में सहज ही उपलब्ध होती चलेगा। अनुकरणीय आदर्श का ताँता लगते इन दिनों भी देखा जा सकता है।। अगले दिनों इस दिशा में और भी अधिक उत्साह उत्पन्न होगा। इसी को युग-अवतार का सामयिक एवं समर्थ अनुदान कहा जाएगा।


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