जीवन के संघर्ष और आँधियों से दुःखी एक नाविक जहाज से उतरकर बाहर आया। समुद्र के मध्य अडिग और अविचलित चट्टान की स्वच्छता को देखकर उसके कुछ शान्ति मिली। उसने देखा समुद्र की उत्ताल तरंगें चारों ओर से उस चट्टान पर निरन्तर आघात कर रही है, तो भी चट्टान के मन में न रोष है और न विद्वेष। संकटपूर्ण जीवन पाकर भी उसे कोई ऊब और उत्तेजन नहीं है।
यह देखकर नाविक का हृदय श्रद्धा से भर गया। उसने चट्टान से पूछा-तुम पर चारों ओर से आघात हो रहे है, फिर भी तुम निराश नहीं हो।” तब चट्टान की आत्मा धीरे से बोली- ‘‘तात। निराश और दोनों एक ही वस्तु के उभयनिष्ठ हैं, हम निराश हो गए होते तो एक क्षण ही सही, दूर आये अतिथियों को विश्राम देने,उनका स्वागत करने से वंचित रह जाते।” नाविक का मन नई प्रेरणा से भर गया,जीवन में कितने संघर्ष आये, अब मैं चट्टान की तरह जिऊंगा,ताकि हमारी न सही,भावी पीढ़ी और मानवता के आदर्शों की रक्षा तो हो सके।
चीन के राजा क्वांग ने शुनशूआओ को तीन बार अपना प्रधानमन्त्री बनाया और तीन बार हटाया। इस पर न तो वे कभी प्रसन्न हुए न कभी खिन्न! विद्वान किनबू ने उनकी इस स्थिरता का कारण पूछा! शुनशूआओ बोले -” जब मुझे मन्त्री बनने को कहा गया तो मैंने सोचा अस्वीकार करना ठीक नहीं, जब निकाला गया तो सोचा मेरी उपयोगिता नहीं तो चिपका क्यों रहूँ? मन्त्री पद ने मुझे न कुछ दिया और न उसके छिनने पर मेरा कुछ गया और वह सम्मान जो मुझे मिला था वह पद का था तो मुझे उससे क्या लेना-देना यदि मेरा था तो पद के रहने, न रहने में न्यूनता या वृद्धि होने वाली नहीं थी।”
विवेकपूर्ण विचार द्वारा प्रत्येक परिस्थिति में सुखी और सन्तुष्ट रहा जा सकता है।