विशिष्ट प्रयोजन के लिए विशिष्ट आत्माओं की विशिष्ट खोज

April 1998

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नवयुग-सृजन एक बड़ा काम है। उसके लिए सहयोगी तो गीध, गिलहरी भी हो सकते है, पर महत्वपूर्ण उत्तरदायित्वों को निभाने के लिए अंगद, हनुमान जैसे वानरों और नल-नील जैसे रीछों की आवश्यकता पड़ती है। गौ चराने, गेंद खेलने और गोवर्द्धन उठाने में लाठी का सहयोग देने के लिए तो ग्वाल-बाल भी अपनी उपयोगिता सिद्ध कर सके, किन्तु महाभारत जीतने में भीम, अर्जुन से ही काम चला। स्वतन्त्रता संग्राम के जीतने में भी सत्साहसियों की जेलयात्रा को ही सराहा जाएगा, पर नेहरू-पटेल जैसी हस्तियाँ आगे न आतीं, तो महान प्रयोजन कदाचित ही पूर्ण हो पाता। महान परिवर्तनों योगदान तो असंख्यों का रहा है, किन्तु उसका सूत्र-संचालन महामानव ही करते रहे है। छप्पर तो बाँस-बल्लियों पर भी खड़े रहते है, पर नदी या नाले का पुल बनाने में ऐसे मजबूत पाए लगाने पड़ते है, जो उस परिवहन का भार सह सके।

युगसृजन में सहयोगी कोई भी हो सकता है, पर उसका उत्तरदायित्व कंधों पर ओढ़ने वाले सृजनशिल्पियों को नल-नील जैसा प्रबुद्ध एवं परिपक्व होना चाहिए। ऐसी भूमिका निभा सकना हर किसी के वश की बात नहीं है। सिखाने-पढ़ाने से थोड़ा-सा काम तो चलता है, पर प्रखरता मौलिक एवं संस्कारगत होनी चाहिए। लोहे की मजबूती होनी चाहिए। लोहे की मजबूती उसकी संरचना में ही सन्निहित है। कारखानों में ढालने, खरादने का काम होता है, कृत्रिम लोहा नहीं बन सकता और न उसका स्थानापन्न किसी अन्य धातु को बनाया जा सकता है।

प्रशिक्षण, वातावरण एवं संपर्क का प्रभाव तो पड़ता है, पर महामानव इतने से ही नहीं बन जाते। उनके लिए संस्कारगत मौलिकता एवं संचित प्रखरता की भी आवश्यकता होती है। विश्वामित्र ने राम-लक्ष्मण को आग्रहपूर्वक माँगा था ओर उन्हें बला-अतिबला विद्याएँ सिखाकर महान परिवर्तन के लिए उपयुक्त क्षमता सम्पन्न बनाया था। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त, समर्थ रामदास ने शिवाजी, बुद्ध ने आनन्द, मत्स्येन्द्र ने गोरखनाथ, रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानन्द को बड़ी कठिनाई से ढूँढ़ा था। आगन्तुकों की भारी भीड़ में से इन सभी शक्ति सम्पन्नों को कोई काम का न लगा। बड़ी कठिनाई से ही वे अपने थोड़े से अनुयायी उत्तराधिकारी ढूँढ़ने से सफल हुए। विवेकानन्द ने निवेदिता से कहा था मुझे मात्र तुम्हारे लिए योरोप की यात्रा करनी पड़ी।

अवतार के समय देवता उसकी सहायता करने आते और देह धारण करते है। सामान्य मनुष्यों की मनःस्थिति नरपशुओं जैसी होती है, वे पेट और प्रजनन के लिए मरते-खपते है तथा लोभ-मोह अहंकार की लिप्साओं से बने कोल्हू में पिलते रहते है। यही उनकी प्रवृत्ति और नियति होती है। उनमें थोड़ा-सा उत्साह तो भरा जा सकता है और एक सीमा तक प्रगतिशील भी बनाया जा सकता है, किन्तु बहुत प्रयत्न करने पर भी वे देवभूमिका निभा सकने में सफल नहीं हो पाते। इसके लिए संचित संस्कारों की आवश्यकता है। खिलौने बालू के नहीं, चिकनी मिट्टी के बनते है। हथौड़े की चोट जंग लगे लोहे नहीं, फौलादी इस्पात ही सह पाते है।

युगसृजन के आरम्भिक चरण बालक स्तर के है, उनमें हर स्तर के व्यक्ति के लिए कुछ न कुछ कर सकने योग्य शत सूत्री कार्यक्रम बनाये गए है। गाँधीजी ने स्वतन्त्रता आन्दोलन को सर्वसुलभ बनाने की दृष्टि से नमक सत्याग्रह, विदेशी वस्त्र एवं शराब की दुकानों पर धरना, प्रतिबन्ध उल्लंघन जैसे कार्यक्रम बनाये थे। वे व्यापक भी हुए थे, इतने पर भी उस आन्दोलन का सूत्र संचालन कर सकने की क्षमता नेहरू, पटेल जैसे मुट्ठी भर लोगों में ही थी, स्पष्ट है कि यदि उच्चस्तरीय हस्तियाँ बागडोर न सँभालती, तो जेल आन्दोलन को उतनी जल्दी और उतनी आवश्यकता सफलता न मिल पाती, जैसी कि उसमें मिल सकी। महामानव ही किसी देश, समाज या युग की वास्तविक सम्पदा होते है। प्रखर व्यक्तियों का कुशल नेतृत्व ही उफनती नदी में नाव खेता और तूफानों से टकराते हुए जहाज को किनारे लगाता है।

युगसृजन के अनेक महत्वपूर्ण कामों में सबसे प्रमुख है उस प्रयोजन को पूरा कर सकने में समर्थ क्षमताओं को ढूँढ़ निकालना और उन्हें प्रशिक्षित परिपक्व करना। यह कार्य धीमी गति से तो अभियान के प्रथम दिन से ही चल रहा है, पर अब उसमें अधिक तीव्रता लाने की आवश्यकता पड़ रही है, क्योंकि उत्तरदायित्व क्रमशः अधिक भारी होते चले जा रहें है। सामान्य भारवहन सामान्य क्षमता के सहारे भी होता रहता है। जब-जब अधिक उठाना, अधिक होना एवं अधिक दौड़ता हो तो वाहन तथा साधन उसी स्तर के जुटाने होंगे। आरंभिक चरण में जाग्रत आत्माओं से भी काम चलता रहा है, पर अब अधिक क्षमता सम्पन्नों की आवश्यकता पड़ रही है। अस्तु ढूँढ़ने का प्रयास अधिक सुविस्तृत किया जा रहा है। उपयुक्त प्रतिभाओं से संपर्क साधना, उन्हें तत्पर तथा सक्षम बनाना एवं कार्यक्षेत्र में उत्तर सकने की सामर्थ्य से सुसम्पन्न करना ही इन दिनों मिशन की परोक्ष गतिविधियों का मूर्धन्य प्रयास है। प्रत्यक्ष कार्यक्रम तो पूर्ववत् है। व्यक्ति, परिवार और समाज के नवनिर्माण की जो रचनात्मक प्रवृत्तियाँ चल रही है, उनमें हेर फेर कुछ नहीं करना है। मात्र उनका स्तर एवं विस्तार ही बढ़ना है। प्रत्यक्ष क्रिया–कलापों में इतना अभिवर्द्धन होगा, किन्तु परोक्ष ढूँढ़ खोज के लिए उन प्रयासों पर विशेष ध्यान दिया जाएगा, जो समर्थ प्रतिभाओं को ढूँढ़ने और उछालने की सामयिक माँग पुरा कर सकें।

एक जैसी शक्ल-सूरत और समान परिस्थिति वाले व्यक्तियों के मध्य भी कई बार स्तर की दृष्टि से जमीन-आसमान जैसा अन्तर पाया जाता है यह उनकी उस आन्तरिक संरचना का होता है, जो जन्म-जन्मान्तरों के संचित संस्कारों से बनती है। यह सम्पदा किस के पास है, यह जाँचना, जन-जन की तलाशी लेने के समान है। तलाशी ऐसी भी नहीं जो चोरों, जमाखोरों के यहाँ पुलिस द्वारा छापा मारकर पकड़ने जा सकती है, पर अन्तर की प्रवृत्तियों जाँच-पड़ताल और खोजबीन करना कठिन है। लोग भीतर कुछ होते है और बाहर कुछ बनते रहते है। दंभ बहुत और तथ्य कम वाले बहरूपियों, अभिनेताओं और बाजीगरों से जन-समाज भर पड़ा है। इनकी गहराई में कैसे उतरा जाए? खारी जलराशि से भरे समुद्र में गहरी डुबकी मारकर मोतियों को किस तली-तलहटी में ढूँढ़ा जाए। उन क्षेत्रों में पाए जाने वाले मगरमच्छों से बचने और जूझने की कुशलता के बिना कोई गोताखोर सफल नहीं हो सकता। इस प्रयास में भी ऐसी ही तैयारी करनी पड़ रही है।

युगपरिवर्तन सृष्टि के इतिहास में अभूतपूर्व अवसर है। पिछले दिनों दुनिया बिखरी थी। स्थानीय समस्याओं के सामयिक समाधान करना ही तत्कालीन रहता था। रावण, कंस, दुर्योधन, आदि के अनाचार सीमित क्षेत्र में थोड़े-से व्यक्तियों के द्वारा होते थे। अधिक होने से उसके समाधान भी लंका युद्ध, महाभारत जैसे उपचारों से निकले और मुट्ठी भर प्रतिभाओं ने वे कार्य सम्पन्न कर दिए। वैसी स्थिति अब नहीं। दुनिया सिकुड़कर बहुत छोटी हो गई है। हवा का प्रभाव एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँचता है। 600 करोड़ मनुष्य अब एक-दूसरे को प्रकारान्तर से प्रभावित करते है।

इन विषम परिस्थितियों में बहुमुखी समस्याओं की जड़े लोकमानस में अत्यन्त गहराई में घुसी हुई होने के कारण युगपरिवर्तन अतीव कठिन है। गुण, कर्म, स्वभाव की लोकधारा को उलटना, समुद्र के खारी जल को हिमालय की सम्पदा बना देना कितना कठिन है, उसे हर कोई नहीं समझ सकता। उसे भुक्तभोगी बादल ही जानते है कि उसमें कितना साहस करने, कितना भर ढोने, कितना उड़ना और कितना त्याग करना पड़ता है। युग-परिवर्तन के भावी प्रयासों को लगभग इसी स्तर का माना जाना चाहिए।

युगसंधि में दुहरे उत्तरदायित्व जाग्रत आत्माओं को सँभालने पड़ेंगे। विनाशकारी परिस्थितियों से जूझना ओर विकास के सृजन-प्रयोजनों को सोचना। किसान और माली को भी यही करना पड़ता है। खरपतवार उखाड़ना, बेतुकी डालियों को काटना, पशु-पक्षियों से फसल को रखाना जैसी प्रतिरोध-सुरक्षा की जागरूकता दिखाने पर ही उनके पल्ले कुछ पड़ेगा, अन्यथा परिश्रम निरर्थक चले जाने की आशंका बनी रहेगी। उन्हें एक मोर्चा सृजन का भी सँभालना पड़ता है। बीज-बोना खाद देना, सिंचाई का प्रबन्ध करना रचनात्मक काम है। इसकी उपेक्षा की जाए, तो उत्पादन की आशा समाप्त होकर ही रहेगी। इसे दो मोर्चों पर दुधारी तलवार से लड़ने के समतुल्य माना जा सकता है। युगसंधि में जाग्रत आत्माओं को यही करना पड़ता है। समस्या 600 करोड़ मनुष्यों की है। वे एक स्थान पर नहीं समस्त भूमण्डल पर बिखरे हुए बसे है। अनेक भाषा बोलते है। अनेक धर्म सम्प्रदायों का अनुसरण करते है। शासन पद्धतियों और सामाजिक परम्पराओं में भिन्नता है। मनःस्थिति और परिस्थिति में भी भारी अन्तर है। इतना होते हुए भी उन सबसे संपर्क साधना है। युगचेतना से परिचित और प्रभावित करना है। इतना ही नहीं संपर्क-प्रशिक्षण और अनुरोध को इतना प्रभावी बनाना है, जिसके दबाव से लोग अपनी आदतों, इच्छाओं और गतिविधियों में अभीष्ट परिवर्तन कर सकने के लिए सहमत ही नहीं, तत्पर भी हो सके। यह कार्य कहने-सुनने में सरल प्रतीत हो सकता है, पर वस्तुतः उतना ही कठिन और जटिल हैं ऐसा उत्तरदायित्व उठाने वालों को कैसा होना चाहिए, उसका अनुमान लगाने पर यही कहना पड़ता है कि उनकी मजबूती घहराती नदियों पर मीलों लम्बे पुल का उस पर दौड़ने वाले वाहनों का बोझ उठा सकने वाले पायों जैसी होनी चाहिए।

आवश्यक नहीं कि हर व्यक्ति को समाज की संरचना के लिए आन्दोलन परक कार्य ही करना पड़े। वह क्षेत्र छोटा होता है और उसमें थोड़े-से व्यक्ति ही खप सकते है। सृजन प्रयोजन बहुत बड़ा है। उसके असंख्यों पक्ष है। उनमें से जो जिसे कर सके वह उसे सँभाले। कला, साहित्य, विज्ञान, उत्पादन, व्यवसाय, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे अनेकों क्षेत्र ऐसे है, जिनमें बिना अधिक जन संपर्क साधे भी अभीष्ट प्रयोजनों निरत रहा जा कसता है और आन्दोलनकारियों द्वारा भी अधिक महत्व का ऐसा कार्य किया जा सकता है, जो नवयुग की आवश्यकता में अपने ढंग से पूरा करने में असाधारण योगदान कर सके। युद्ध जीतने में सभी को तलवार नहीं चलानी पड़ती। वे लोग भी द्वितीय पंक्ति के सैनिक ही है, जो युद्धसामग्री बनाते अथवा सैनिकों पर पड़ने वाले खर्च को अपने परिश्रम से जुटाते है। आन्दोलनकारियों, प्रचारकों की तरह ही वे लोग भी उपयोगी है, जो उनके लिए साधन-सामग्री जुटाने अथवा कार्यक्षेत्र बनाने में तत्पर रहते है। ऐसे लोगों का घर रहकर काम करना भी परिव्राजकों की ही तरह महत्वपूर्ण कार्य है।

इतने पर भी एक आवश्यकता यथावत बनी हुई है, देव आत्माओं में पायी जाने वाली विशिष्टता का अवतरण। विशिष्ट समय पर ऐसी ही विशिष्ट आत्माओं का अवतरण होता है। वे जन्मजात रूप से ऐसी धातु के बने होते है कि सम्भव हो सके। अणुशक्ति उत्पन्न करने के लिए यूरेनियम जैसे रासायनिक पदार्थों की जरूरत पड़ती है। यह नकली नहीं बन सकता। सोने की अपनी मौलिक विशेषता है। स्वर्णकार उसे आभूषणों में गढ़ तो सकता है, पर कृत्रिम सोना अभी तक बनाया नहीं जा सका। यों नकली नग हो जेवरों में प्रयुक्त होते है, उनका निर्माण भी बहुत होता है, फिर भी असली मणि माणिक अभी भी विशेषता के कारण अपना मूल्य और महत्व यथास्थान बनाये हुए है। महामानवों की ढलाई, गढ़ाई के लिए शान्तिकुञ्ज की फैक्टरी अनवरत तत्परता के साथ लगी हुई है।

युगपरिवर्तन की इस ऐतिहासिक बेला में ऐसी देव-आत्माओं की विशिष्ट आवश्यकता अनुभव की जा रही है, जिनमें मौलिक प्रतिभा विद्यमान है। सामान्य स्तर की श्रेष्ठता हर मनुष्य में मौजूद है। उसे सीमित समय में, सीमित मात्रा में उभार सकना ही सम्भव हो सकता है। कम समय में, कम परिश्रम में जिन्हें महान उत्तरदायित्वों का वहन कर सकने के लिए उपयुक्त बनाया जा सके, ऐसी प्रतिभाएँ सर्वत्र उपलब्ध नहीं हो सकती और न उनसे उतने बड़े पुरुषार्थ की आशा की जा सकती है, जैसी कि इस विषम बेला में आवश्यकता पड़ रही है। इसके लिए विशेष रूप से खोजबीन करने की आवश्यकता पड़ेगी।

मोती पाये तो समुद्र में ही जाते है, पर उन्हें निकालने के लिए पनडुब्बी को गहरी डुबकी लगाने की और सुविस्तृत क्षेत्र की खोजबीन करनी होती है। मोती न तो इकट्ठे मिलते है ओर न किसी किनारे पर जमा रहते है। बहुमूल्य वस्तुएँ सदा से इसी प्रकार खोजी जाती रही है। प्रकृति के अन्तराल में बिजली, ईथर आदि तत्त्व आदि काल से भरे पड़ो थे, पर उनसे लाभान्वित हो सकना तभी सम्भव हुआ जब उन्हें खोजने के लिए वैज्ञानिकों ने असाधारण श्रम किया। जंगलों में बहुमूल्य जड़ी बूटियाँ पुरातनकाल में भी उगती थी और अब भी उनकी संजीवनी क्षमता यथावत मौजूद है। पर उन्हें हर कोई, हर जगह नहीं पा सकता। चरक ने दुर्गम स्थानों की यात्रा की और उस परिभ्रमण में वनस्पतियों के गुण धर्म खोजे। इस शोध का परिणाम ही चिकित्सा विज्ञान के रूप में सामने आया और उसका लाभ समुचित मानवजाति ने उठाया। चरक यदि वह प्रयास न करते तो बूटियाँ अपने स्थानों पर बनी रहती और रोगी अपनी जगह। उनका आपस में सम्बन्ध ही न बनता, तो दोनों ही घाटे में रहते। न जड़ी-बूटियाँ यश पातीं और न मनुष्यों को रोग-निवृत्त होने का अवसर मिलता।

अपने समय में एक बहुत बड़ा काम युगमानवों को खोज निकालना है। बड़े काम के लिए बड़ी हस्तियाँ ही चाहिए। उन्हें एक सीमा तक ही शिक्षा और परिस्थितियाँ विकसित कर सकती है। नेपोलियन और सिकन्दर किसी सैनिक संस्था द्वारा विनिर्मित नहीं किए जा सके। वशिष्ठ और विश्वामित्र किस आश्रम में, किस साधन के सहारे विनिर्मित किए जा सके, इसका पता लग नहीं पा रहा है। अंगद और हनुमान, भीम और अर्जुन, चाणक्य और कुमार जीव, बुद्ध और महावीर, गाँधी और पटेल, शिवाजी और प्रताप किस प्रकार तैयार किए जाएँ, उसका कोई उपाय अभी भी सूझ नहीं पड़ रहा है। ईसा जरथुस्त्र, अरस्तू और सुकरात, लिंकन और वाशिंगटन, विवेकानन्द और रामतीर्थ, गोविन्दसिंह, नानक और कबीर किस प्रकार तैयार किए जाएँ, इसका कोई मार्ग मिल नहीं रहा है॥ शतरूपा-उपलब्ध करने के लिए भारी लगता। अरविन्द और रमण, रामकृष्ण परमहंस और विरजानन्द जैसी हस्तियाँ हैं युगनिर्माण जैसे महाप्रयोजन सकती है। काम बड़ा है, तो उसके अनुरूप व्यक्तित्व भी चाहिए। यह आवश्यकता जब भी जितनी मात्रा में भी पूरी हुई, तब उसी अनुपात से व्यापक समस्याओं के समाधान सम्भव हुए है। जनसाधारण के लिए जो कर्तव्यपालन ही सम्भव होता। वे अपनी निज की समस्याओं को सुलझाने में ही अधिकाँश क्षमता खो बैठते है, जो बचती है उससे लोकमंगल का प्रयोजन एक सीमा तक ही पूरा कर पाते है। यों बूँद बूँद से भी बड़ा भरता है, पर उन बूँदों का संचय करने ओर उस संचय का सदुपयोग करने की प्रतिभा भी तो किसी में चाहिए।

नवनिर्माण में असंख्य दिशाधाराएँ है, विकृतियों से जूझने के लिए असंख्य मोर्चे है, पाटने के लिए अनेक खाई, खन्दक और बनने के लिए अनेकों पुल बाँध सामने है। इनके लिए जितनी साधन सामग्री चाहिए उससे अनेक गुनी आवश्यकता उन हस्तियों की है, जो मौलिक विशेषताओं से संचित सम्पदाओं की दृष्टि से सम्पन्न एवं समर्थ कहीं जा सके। उथले लोग गुब्बारे की तरह फूलते और बबूले की तरह फूटते रहते है।

युगसृजन के लिए सम्पदा, प्रतिभा, शिक्षा, श्रमशीलता जैसी विभूतियाँ प्रचुर परिमाण में चाहिए ही। पर उससे भी अधिक आवश्यकता उन देवात्माओं की है, जिनमें आन्तरिक वर्चस विपुल परिमाण में भरा पड़ा है। वर्चस ही आत्मबल है। ओजस्वी, मनस्वी, तेजस्वी व्यक्ति वही होते है, जिनमें इस आन्तरिक वैभव की, दैवी, अनुदान की समुचित मात्रा विद्यमान हो।

इस खोज को इन दिनों सबसे अधिक महत्व दिया जा रहा है। कठिन उत्तरदायित्व सामने है, उन्हें निभाने योग्य प्रतिभाओं के आगे आने और लाने की आवश्यकता ऐसी है, जिसे एक क्षण के लिए भी आगे नहीं टाला जा सकता।


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