युगशक्ति का अवतरण-नवयुग के अभ्युदय के लिए

April 1998

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स्थूल रूप से मनुष्य का जो स्वरूप दिखाई देता है, वह उसकी काया, बुद्धि, व्यवहार, श्रमशीलता, लगन और पुरुषार्थ का ही सम्मिश्रण है। इस बहिरंग स्वरूप के बल पर कितनी ही लौकिक सफलताएँ प्राप्त की जा सकती है। साधारण, सामान्य, दीन स्थिति से ऊपर उठकर असाधारण, असामान्य सम्पन्न स्थिति तक पहुँचने वाले व्यक्ति अपने श्रम, लगन, सूझ-बूझ और व्यावसायिक कौशल का ही प्रयोग करते है। अचर्चित और असाधारण वर्ग के लोग अपनी सेवा, लोकसाधना, प्रचार, जनसंपर्क और व्यवहार कुशलता के बल पर ख्याति अर्जित कर लेते है। दुर्बल से बलवान, अख्यात से विख्यात, मंदबुद्धि से बुद्धिमान, निर्धन से धनवान् आदि सफलताएँ बहिरंग सत्ता की ही उपलब्धियाँ कही जा सकती है।

मनुष्य की बहिरंग उपलब्धियाँ और सफलताएँ भी उल्लेखनीय व प्रशंसनीय है, परन्तु उन उपलब्धियों को जितने आसानी से प्राप्त किया जाता है। उतनी ही जल्दी व्यक्ति उन्हें गँवा भी देता हैं। अपने प्रयत्नों में जरा कही चूक हुई नहीं कि व्यक्ति उस स्तर से गिर पड़ता है। सरकस में तार चलने का खेल दिखाने वाले कलाकार बड़े अभ्यासपूर्वक यह सिद्धि प्राप्त करते है। फिर भी जरा-सी चूक उन्हें गिराने के लिए काफी होती है। इन उपलब्धियों में कही टिकाऊपन नहीं है।

आँतरिक दृष्टि से सफल और सशक्त व्यक्ति हर परिस्थिति में स्थिर दिखाई देते है और अपने उच्च प्रयोजनों में अनवरत संलग्न रहते है। मनुष्य की सामर्थ्य को जगाने और उसके सदुपयोग करने के विज्ञान के नाम ब्रह्मविद्या है। ब्रह्मविद्या के बल पर ही व्यक्ति आन्तरिक दृष्टि से वह ऊर्जा प्राप्त करता है, जिससे बड़े-बड़े कार्य सम्पन्न किए जाते है। ऊर्जा के बल पर किए गए कार्य टिकाऊ परिणाम भी उपलब्ध करते है और उनसे असंख्य आत्माओं सभी समुदायों और सभी वर्गों को लाभ भी पहुँचता है। वर्षा के दिनों में जब हर कही पानी उपलब्ध होता है। तो पोखर-तालाबों का उतना महत्व नहीं रहता। लेकिन गर्मी और सूखे के दिनों में जब पानी दुर्लभ हो जाता है तो वे पोखर-तालाब भी लगभग रीते जाते है। इसके विपरीत गंगा यमुना जैसी नदियाँ जो अक्षय जल-सम्पदा के भण्डार हिमालय से जुड़ी रहती है ऐसे समय में अपनी उपयोगिता सिद्ध करती है।

युगपरिवर्तन जैसा महत कार्य उन अन्तरंग सामर्थ्यवान व्यक्तियों के बल पर ही सम्भव है जिन्होंने ब्रह्मविद्या को अपने जीवन का आधार बनाया है तथा जिन्होंने अपना सम्बन्ध उस महाशक्ति से जोड़ा है जिसके बल पर इतने बड़े कार्य सम्पन्न हो सकते है। इस तरह के कार्यों सम्पन्न हो सकते है। इस तरह के कार्यों को संपादित करने के लिए ब्रह्मविद्या के बीज-सूत्र का नाम गायत्री है। गायत्री के एक-एक अक्षर में वह तत्त्वज्ञान सन्निहित है जिसकी व्याख्या में ब्रह्मविद्या का इतना व्यापक विस्तार हुआ है।

लौकिक पूँजी और भौतिक सामर्थ्य की अपने स्थान पर उपयोगिता है। पर उसे आधार मानकर नहीं चला जा सकता है। व्यापक परिवर्तन के महान उद्देश्य इन साधनों के बल पर सम्भव नहीं है। कई देशों में भौतिक साधनों और शक्तियों के द्वारा परिवर्तन के प्रयास हुए भी है। परन्तु उन्हें आँशिक ही सफलता मिल गई है। आँशिक सफलता भी बाहरी दबाव और दण्ड के भय से मिली अन्यथा जहाँ भी जब भी जिसे अवसर मिला वही हर किसी ने अपने उन स्वार्थों को पूरा करने में जरा-सी चूक नहीं आने दी जिन्हें सामाजिक या राष्ट्रीय अपराध घोषित किया गया। इसका एकमात्र कारण है व्यक्ति को प्रभावित करने निर्देशन देने और किसी दिशा में नियोजित करने के प्रयासों का अभाव।

यह प्रयास केवल आत्मशक्ति सम्पन्न व्यक्ति ही कुशलतापूर्वक कर सकते है। व्यक्ति वही कुछ नहीं है जो बाहर से दिखाई देता है। बल्कि उसकी मूलसत्ता तो उसकी चेतना है जहाँ आस्थाओं की जड़ें विद्यमान रहती है, निष्ठाओं से जड़ें, पोषण और अंकुरण को प्राप्त करती है। आस्थाओं का शोधन और निष्ठाओं का परिष्कार किए बिना सुधार के सभी प्रयास व्यर्थ जाते हैं।

आस्थाओं का परिष्कार ही नव-निर्माण का मूल आधार है और यह कार्य आत्मशक्ति सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा ही किया जाना सम्भव है। शरीरबल, बुद्धिबल, धनबल, मनोबल का अपना महत्व है, परन्तु उनके उपयोग की दिशा भी व्यक्ति की चेतना पर निर्भर करती है। व्यक्ति की चेतना यदि निकृष्ट स्तर की है तो वह इन बलों का प्रयोग कर अपना व समाज का भारी अहित ही करेगा बाहर से लाख प्रतिबन्ध लगाये जाने पर भी उसके प्रयासों को रोक पाना आसान नहीं होगा। यदि रोक भी दिया गया तो वह बल बिना उपयोग में आई संपत्ति की तरह व्यर्थ पड़ा रहेगा। इसके विपरीत यदि परिष्कृत चेतना द्वारा इन साधनों का उपयोग किया जाए तो उसके सभी पक्षों में सत्परिणाम प्रस्तुत हो सकते है।

आत्मशक्ति के द्वारा मनुष्य की व्यष्टिगत और समष्टिगत चेतना को परिष्कृत करके जिस नये युग के अवतरण की चर्चा इन पंक्तियों में की जा रही है उसे यदि एक सूत्र में व्याख्यायित किया जाना हो तो वह सूत्र होगा, मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण। इस लक्ष्य को प्राप्त करने स्वप्न को साकार करने का मार्गदर्शन गायत्री के प्रत्येक अक्षर में निहित है।

गायत्री को गुरुमन्त्र जाता हो गुरुतत्त्व द्वारा मिलने वाली श्रद्धा, प्रेरणा भाव-संवेदना एवं अनुशासन का प्रकाश गायत्री को गुरुमन्त्र कहा गया है। इसीलिए गायत्री को गुरुमन्त्र कहा गया है। कितने ही मंत्र है, वैदिक, पौराणिक, तांत्रिक।मन्त्रों की संख्या का ठीक-ठीक अनुमान भी लगा पाना सम्भव नहीं हैं ऐसी स्थिति में गायत्री को ही गुरुमन्त्र क्यों कहा गया? यह विचारणीय हो सकता हैं। भारतीय संस्कृति में गुरु की व्याख्या करते हुए उसके दो महत्वपूर्ण कार्य बताये गए हैं एक ज्ञानवर्धन और दूसरा-अशुभ निवारण गायत्री की शक्ति के भी दो पक्ष है पहला सृजनात्मक और दूसरा विध्वंसात्मक गायत्री की सृजनात्मक शक्ति को ब्रह्मविद्या कहा जाता है और ध्वंसात्मक शक्ति को ब्रह्मास्त्र। साधन की तुलना राजहंस से की जाती है जिस पर आरूढ़ गायत्री साधक का कल्याण करती है और दुखदायी विघ्नों का निवारण करती है।

इसी शक्ति की चर्चा जब युगशक्ति के अवतरण संदर्भ में की जाती है तो ’ परित्राणाय साधूनां’ और ’विनाशाय दुष्कृताम् की अवतार प्रतिज्ञा पूरी होती है। सृजन और ध्वंस एक सम्मिलित पूरक प्रक्रिया है। नया कुछ निर्माण करना हो तो पुराने को हटाना पड़ता है खेत में फसल उगानी हो तो पहले जमीन पर उगी हुई खरपतवार उखाड़नी पड़ती है कपड़े को रँगने के लिए पहले धुलाई कर उस पर जमा मैल साफ करना पड़ता है किसी भी क्षेत्र में निर्माणकार्य तभी पूरा होता है जब वहाँ उपस्थित कूड़ा-कबाड़ा गन्दगी मलीनता और कषाय-कल्मष हटाए जाएँ।

भारतीय शास्त्रों में जिन 24 अवतारों का उल्लेख आता है उनकी यही क्रियापद्धति रही। अधर्म का अनीति-आतंक का निवारण और धर्म-नीति-सत्प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन अभिवर्द्धन। इस संदर्भ में एक बात और उल्लेखनीय है- अवतारों की संख्या 24 ही क्यों गिनी जाती है? जबकि समय-समय पर कितनी ही विभूतियाँ अवतरित होती रहीं। इस संख्या में नाम या क्षेत्रविशेष का महत्व नहीं है। वस्तुतः संकेत युगशक्ति के रूप में अवतरित होती रहने वाली गायत्री महाशक्ति की ओर है, उसे नाम और रूप भले ही चाहे जो दिया जाता रहा हो।

गायत्री के 24 अक्षरों में वे सभी सिद्धान्त सूत्ररूप में सन्निहित हैं, जिनके आधार पर युगान्तरकारी परिवर्तन प्रस्तुत होते है। ईश्वरीय शक्ति का अवतरण-प्राकट्य हर ऐसे संधिकाल में होता है, जब परिवर्तन के अलावा कोई उपाय नहीं रह जाता। उसके स्वरूप और क्रिया−कलाप में हेर-फेर अवश्य होता रहता है। हिरण्याक्ष राक्षस जब धरती को समुद्र में ले जाकर छुप गया तो भगवान को वाराह का रूप धारण करना पड़ा। हिरण्यकश्यप को वरदान था कि वह न मनुष्य से मारा जा सकेगा और न पशु से, न घर में मारा जा सकेगा न बाहर, न मल्लयुद्ध में मारा जा सकेगा न शस्त्रयुद्ध में। इसलिए भगवान को मनुष्य और सिंह का सम्मिलित रूप धारण कर देहरी में नखों को शस्त्र की तरह उपयोग कर हिरण्यकश्यप का संहार करना पड़ा। इसी प्रकार आततायियों का संहार करने के लिए परशुराम, मर्यादा की स्थापना के लिए राम, योग का कर्मप्रधान रूप प्रस्तुत करने के लिए कृष्ण और बौद्धिक क्रान्ति के लिए बुद्ध रूप में अवतरित होना पड़ा। इस अवतरण प्रक्रिया में कहीं भी जड़ता नहीं है। अधर्म का विनाश और धर्म की स्थापना ही प्रधान लक्ष्य रहा है।

आज की परिस्थितियाँ भिन्न हैं। पहले असुरता सीधे आक्रमण करती थी और समाज-व्यवस्था को अस्त- व्यस्त, तहस-नहस करती थी। आज असुरता ने छद्म आक्रमण की नीति अपनाई है और वह जनमानस में विकृतियाँ उत्पन्न कर रही है। आदर्शों और मर्यादाओं की अवज्ञा इतने व्यापक स्तर पर होने लगी है कि उनके लिए कटिबद्ध व्यक्ति अपवाद बनते चले जा रहे है। ईश्वर के अस्तित्व को मानने और देवस्थानों पर प्रतिमा के सामने सिर झुकाने वालों का अभाव नहीं है, अभाव है उन व्यक्तियों का, जिन्हें सच्चे अर्थों में आस्तिक कहा जा सके। ईश्वर के अस्तित्व के अस्वीकार करने वाला उतना नास्तिक नहीं है, जितना कि उसे मानते हुए भी आदर्शों और मर्यादाओं की अवज्ञा करने वाला। फलतः इन दिनों चारों ओर जितने भी संकट, जितनी भी समस्याएँ दिखाई देती हैं, उनके मूल को खोजे तो विदित होगा कि आज का संकट आस्थाओं का संकट है।

इस बार नवयुग की, युग गायत्री की अवतरण प्रक्रिया भी असुरता के उन्मूलन और देवत्व के उदय के सनातन उद्देश्य से पूर्ण होगी। परिस्थितियों के अनुरूप उस चेतना के उदय हेतु प्रयासों अवांछनीयता, असुरता को निरन्तर करने का यह धर्मयुद्ध, धर्मक्षेत्र में -अन्तःकरण की गहराई में उतरकर लड़ा जाना है और जनमानस के परिष्कार द्वारा, आस्थाओं के परिशोधन द्वारा नवयुग के निर्माण में ग्वाल-बालों की-रीछ-वानरों की भूमिका निभाने के लिए हर जागरूक व्यक्ति को आगे आना है।

गायत्री तत्त्वज्ञान की जानकारी जन-जन तक पहुँचाना युगशक्ति के विस्तार का प्रथम चरण है। अब तक यह प्रयास लेखनी और वाणी द्वारा किया जाता रहा। व्यक्तिगत रूप से लाखों साधकों ने इस तत्त्वज्ञान को अपनाने में तत्परता दर्शायी और उसके अभीष्ट परिणाम भी उत्पन्न हुए। पिछले दिनों इन प्रयासों में सामूहिकता का समावेश किया गया, जिसे इस युग की नवीनता और विशेषता कहा जा सकता है। व्यक्तिगत सफलताएँ तो असंख्य है और उत्साहजनक भी, परन्तु महत्वपूर्ण-उल्लेखनीय सामूहिक प्रयासों को ही समझा जाना चाहिए। साधना स्वर्णजयंती वर्ष में एक लाख साधकों ने मिलकर प्रतिदिन 24 करोड़ गायत्री जाप का अभियान चलाया। यह इस युग का अद्वितीय और अपने आप में अकेला प्रयास था। युगसन्धि महापुरश्चरण अभियान जो 1979 में आरम्भ हुआ, वह तो और भी विलक्षण परिणामदायी है। इस अभियान का वातावरण पर, जन-मानस पर जो सूक्ष्म प्रभाव पड़ा है, उसका गम्भीरतापूर्वक विवेचना किया जाए, तो वह स्पष्टतः दिखाई पड़ सकता है। गायत्री यज्ञों दीपयज्ञों, अश्वमेधों के रूप में सामूहिक आयोजनों की जो अभियान श्रृंखला चल पड़ी है, वातावरण के निर्माण और सूक्ष्मजगत के परिवर्तन में उसका भी अपना विशिष्ट स्थान है।

यह सूक्ष्म परिवर्तन स्थूल आँखों से होते हुए नहीं दिखाई दे सकते। परिवर्तन-प्रक्रिया जब सम्पन्न हो चुकेगी, आसुरी शक्तियाँ निष्प्राण होकर निर्जीव हो जाएगी तथा दैवी-शक्तियाँ और दैवी-प्रवृत्तियाँ चारों ओर गतिमान दिखेगी, तब इन प्रयासों की उपलब्धियाँ आकलित्न की जा सकेगी। जिस प्रकार असुरता का प्रत्यक्ष आक्रमण नहीं दिखाई पड़ा, उसी प्रकार उसका उन्मूलन भी स्थूल दृष्टि से नहीं देखा जा सकेगा। लेकिन जो व्यक्ति युगशक्ति के अवतरण को पहचान रहे हैं और उसके प्रसार-विस्तार में लगे हुए हैं वे अपने आप को कृतकृत्य और धन्य अनुभव करेंगे।


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