संसार के सभी विद्वान ज्योतिर्विद् और अतीन्द्रियद्रष्टा इस सम्बन्ध में एकमत है कि युगपरिवर्तन का समय आ पहुँचा। उनके अनुसार यह समय युगसंधि की वेला है ओर इन दिनों संसार में अधर्म, अशान्ति, अन्याय, अनीति तथा अराजकता का जो व्यापक बोलबाला दिखाई दे रहा है। उसके अनुसार परिस्थितियों की विषमता अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई है। ऐसे ही समय में धर्म की रक्षा और अधर्म का विध्वंस करने के लिये भगवान का अवतार लेने की शास्त्रीय मान्यता है। 'यदा यदा हि धर्मस्य' की प्रतिज्ञा के अनुसार ईश्वरीय सत्ता इस असंतुलन को संतुलन में बदलने के लिये कटिबद्ध है और संतुलन साधने के लिये सूक्ष्मजगत में उसी की प्रेरणा से परिवर्तनकारी हलचलें चल रही है।
युगपरिवर्तन के समय ईश्वरीय शक्ति के प्राकट्य और अवतरण की प्रक्रिया सृष्टिक्रम में सम्मिलित है। असंतुलन को संतुलन में बदलने के लिये अपनी प्रेरणा पुरुषार्थ प्रकट करने के लिये भगवान वचनबद्ध है। गीता में दिया गया उनका 'तदात्मानः सृजाम्यहम्' का आश्वासन ऐसे ही अवसरों पर प्रत्यक्षं
होता रहा है। आज की स्थितियाँ भी ऐसी है कि उनमें ईश्वरीय शक्ति के प्राकट्य की भगवान के अवतार की प्रतीक्षा की जा रही है। और सूक्ष्मदर्शी ईश्वरीय सत्ता की अवतरण प्रक्रिया को सम्पन्न होते देख रहे है।
ज्योतिषशास्त्र के अनुसार यह समय कलियुग के अंत तथा सतयुग के आरम्भ का है इसलिये भी इस समय को युगसंधि की वेला कहा है। यद्यपि कुछ रूढ़िवादी पंडितों का कथन है कि युग 4 लाख 32 हजार वर्ष का होता है। उनके अनुसार अभी एक चरण अर्थात् एक लाख आठ हजार वर्ष ही हुए है। इस हिसाब से तो अभी नया युग आने में 3 लाख 24 हजार वर्ष की देरी है। वस्तुतः यह प्रतिपादन भ्रामक है। शास्त्रों में कही भी ऐसा उल्लेख नहीं मिलता कि 4 लाख 32 हजार वर्ष का एक युग होता है सैकड़ों वर्षों तक धर्म शास्त्रों पर पंडितों और धर्मजीवियों का ही एकाधिकार रहने से इस सम्बन्ध में जनसाधारण भ्रान्त ही रहा और इतने लम्बे समय तक की युगगणना के कारण उसने न केवल मनोवैज्ञानिक दृष्टि से पतन की निराशा भरी, प्रेरणा दी वरन् श्रद्धालु भारतीय जनता को अच्छा हो या बुरा, भाग्यवाद से बंधे रहने के लिये विवश किया। इस मान्यता के कारण ही पुरुषार्थ और पराक्रम पर विश्वास करने वाले भारतीयों को अफीम की घूँट के समान इन अतिरंजित कल्पनाओं का भय दिखाकर अब तक बौद्धिक पराधीनता में जकड़े रखा गया। इस सम्बन्ध में ज्ञातव्य है कि जिन शास्त्रीय संदर्भों से युगगणना का यह अतिरंजित प्रतिपादन किया है वहाँ अर्थ को उलट पुलट कर तोड़ा मरोड़ा ही गया है। जिन सन्दर्भों को इस प्रतिपादन की पुष्टि के लिये प्रस्तुत किया गया है। वे वास्तव में ज्योतिष के ग्रन्थ है। वह प्रतिपादन गलत नहीं है। अन्यथा मूल शास्त्रीय वचन अपना विशिष्ट अर्थ रखते है। उनमें ग्रह नक्षत्रों की भिन्न भिन्न परिभ्रमण गति तथा ज्योतिषशास्त्र के अध्ययन में सुविधा की दृष्टि से ही यह युगगणना है।
जितने समय में सूर्य अपने ब्रह्माण्ड की एक परिक्रमा पूरी कर लेता है उसी अवधि को चार बड़े भागों में बाँटकर चार देवयुगों की मान्यता बनाई गई और 4 लाख 32 हजार वर्ष का एक देवयुग माना गया। प्रचलित युगगणना के साथ ताल मेल बिठाने के लिये छोटे युगों को अंतर्दशा की संज्ञा दे दी गई और उसी कारण वह भ्रम उत्पन्न हुआ, अन्यथा मनुस्मृति, लिंग पुराण प्रस्तुत की गई है वह सर्वथा भिन्न ही है। मनुस्मृति में कहा गया है-
ब््राह्मस्य तु क्षपाहस्य यत्प्रमाणं समासतः। एकैकषों युगानाँ तु क्रमषस्तत्रिबोधत॥
चत्वार्याहुः सहस्त्राणि वर्षाणाँ तत्कृतं युगम। तस्य तावच्छती संध्या संध्याँषष्च तथाविधः। इतरेशु ससंध्येशु च त्रिशु। एकापायेन वर्तन्ते सहस्त्राणि षतानि च-म्नु
अर्थात् -ब्रह्माजी के अहोरात्र में सृष्टि के पैदा होने और नाष होने में जो युग माने गये है वे इस प्रकार है चार हजार वर्ष और उतने ही शत अर्थात् चार सौ वर्ष की पूर्व संध्या और चार सौ वर्ष की उत्तर संध्या, इस प्रकार कुल 4800 वर्ष का सतयुग इसी प्रकार तीन हजार छह सौ वर्ष का त्रेता दो हजार चार सौ वर्ष का द्वापर और बारह सौ वर्ष का कलियुग।
हरिवंश पुराण के भविष्यपर्व में भी युगों का हिसाब इसी प्रकार बताया गया है, यथा
अहोरात्रं भजेत्सूर्यो मानवं लौकिकं परम्। तापुपदाय गणनाँ श्रृणु संख्याष्ष्च तथा नृप॥
त्रीणी वर्शसहस्त्राणि त्रेता स्यात्परिमाणतः। तस्याष्च त्रिषती संध्या सन्ध्याष्ष्च तथाविधः।
तथा वर्शसहस्त्रे द्वे द्वापरं परिर्कीितम्। तस्यापि द्विषती सन्ध्या सन्ध्याष्ष्च तथाविधः।
कलिर्वर्शसहस्त्रं च संख्यातोडत्र मनीशिभिः। तस्यापि षतिका सन्ध्या सन्ध्याँषष्चेव तद्विधः॥
अर्थात् हे अरिदंभ! मनुष्यलोक के दिन रात का जो विभाग बतलाया गया है उसके अनुसार युगों की गणना सुनिये चार हजार वर्षों का एक कृतयुग होता है और उसकी संध्या चार सौ वर्ष की तथा उतना ही संध्या भी तीन तीन सौ वर्ष का होता है द्वापर को दो हजार वर्ष कहा गया है। उसकी संध्या तथा संध्या दो दो सौ वर्ष के होते है। कलियुग को विद्वानों ने एक हजार वर्ष का बतलाया है और उसकी संध्या तथा संध्या भी सौ वर्ष के होते है। लिंग पुराण तथा श्रीमद्भागवत में भी इसी प्रकार की युगगणना मिलती है। भागवत् के तृतीय स्कन्ध में कहा गया है।
चत्वारि त्रीणि द्वे चैकं कृतादिशु यथाक्रमम्। संख्यातानि सहस्त्राणि द्विगुणानि षतानि च॥
अर्थात् चार तीन दो और एक ऐसे कृतादि युगों यथाक्रम द्विगुण सैकड़ों की संख्या बढ़ती है। आशय यही है कि कृतयुग के चार हजार वर्ष में आठ सौ वर्ष और जोड़कर 4800 वर्ष माने गये। इसी प्रकार शेष तीनों गुणों की कालावधि समझे जाय। कुछ स्थानों पर मनुष्यों के व्यवहार के लिये बारह वर्ष का एक युग भी माना गया है। जिसको एक हजार से गुणा कर देने पर देवयुग होता है जिसमें चारों महायुगों का समावेश हो जाता है। इस बारह वर्ष के देवयुग को फिर एक हजार के गुणा करने पर 1 करोड़ 20 लाख वर्ष का ब्रह्मा का एक दिन हो जाता है। जिसमें सृष्टि को उत्पत्ति और लय हो जाता है। भगवान श्री कृष्ण ने गीता में इसी युग की बात कहीं है।
सहस्त्रयुगपर्यन्तमहर्यदब्रहाणो विदुः। रात्रिं युगसहस्त्राँन्ताँ ते डहारात्राविदो जनाः॥ 8-17
अहोरात्र को तत्त्वतः जानने वाले पुरुष समझते है कि हजार महायुगों का समय ब्रह्मदेव का एक दिन होता है और ऐसे ही एक हजार युगों की उसकी रात्रि होती है। लोकमान्य तिलक ने इसका अर्थ स्पष्ट करते हुये लिखा है कि महाभारत, मनुस्मृति और यास्कनिरुक्त में इस युगगणना का स्पष्ट विवेचन आता है लोकमान्य तिलक के अनुसार “हमारा उत्तरायण देवताओं का दिन है और हमारा दक्षिणायन उनकी रात है। क्योंकि स्मृति ग्रन्थों और ज्योतिषशास्त्र की संहिताओं में भी उल्लेख मिलता है कि देवता मेरु पर्वत पर अर्थात् दो आयनों छह-छह मास का हमारा एक वर्ष देवताओं के एक दिन रात के बराबर और हमारे 360 देवताओं के 360 दिन रात अथवा एक वर्ष के बराबर होते है। कृत,त्रेता द्वापर और कलि ये चार युग माने गये है। युगों की कालगणना इस प्रकार है कि कृतयुग में चार हजार वर्ष, त्रेतायुग में तीन हजार द्वापर में दो हजार वर्ष और कलि में एक हजार वर्ष। परन्तु एक युग समाप्त होते ही दूसरा युग एकदम आरम्भ नहीं हो जाता बीच में दो युगों के संधिकाल में कुछ वर्ष बीत जाते है। इस प्रकार कृतयुग के आदि और अन्त में प्रत्येक ओर चार सौ वर्ष का त्रेतायुग के आगे और पीछे प्रत्येक ओर तीन सौ वर्ष का, द्वापर के पहले और बाद में प्रत्येक ओर दो सो वर्ष का तथा कलियुग के पूर्व और अनन्तर प्रत्येक ओर सौ वर्ष का सन्धिकाल होता है, सब मिलाकर चारों युगों का आदि अन्त सहित सन्धिकाल दो हजार वर्ष का होता है। ये दो हजार वर्ष और पहले बताये हुये सांख्य मतानुसार चारों युगों के दस हजार वर्ष मिलाकर कुल मिलाकर बारह हजार वर्ष होते है। गीता रहस्य भूमिका पृष्ठ 193
इन गणनाओं के अनुसार हिसाब फैलाने से पता चलता है कि वर्तमान समय संक्रमणकाल है। प्राचीन ग्रन्थों में हमारे इतिहास को पाँच कल्पों में बाँटा गया है। 1- महतकल्प 1 लाख 9 हजार 8 सौ वर्ष विक्रमीय पूर्व से आरम्भ होकर 85800 वर्ष तक। 2- हिरण्यगर्भकल्प 85800 विक्रमीय पूर्व से 61800 वर्ष तक। 3- ब्रह्मकल्प 60800 विक्रमीय पूर्व से 37800 वर्ष तक। 4- पाद्मकल्प 37800 विक्रम पूर्व से 13800 वर्ष पूर्व तक और 5- वाराहकल्प 13800 विक्रम पूर्व से आरम्भ होकर अब तक चल रहा है।
कलियुग संवत् की शोध के लिये राजा पुलकेशिन ने विद्वान ज्योतिषियों द्वारा गणना कराई थी। दक्षिण भारत के 'इहोल' नामक स्थान पर प्राप्त हुये एक शिलालेख में इसका उल्लेख मिलता है इससे यही सिद्ध होता है कि कल्कि का प्राकट्य इन्हीं दिनों होना चाहिये। पुरातन इतिहास शोध संस्थान मथुरा के शोधकर्ताओं ने भी इसी तथ्य की पुष्टि की और ज्योतिष के आधार पर यह सिद्ध किया कि इस समय ब्रह्मरात्रि का तमोमय सन्धिकाल है।”
इसी सन्धिकाल में असन्तुलन उत्पन्न होता है। दैवीशक्तियों पर आसुरी प्रवृत्तियों का संघात होता है तथा अनीतिमूलक अवांछनीयताएँ उत्पन्न होती है। नवनिर्माण की सृजन शक्तियाँ ऐसे ही अवसरों पर जन्म लिया करती है क्योंकि तप-साधना होने के कारण ऐसे समय विभिन्न अनयकारी परिस्थितियाँ उत्पन्न होती है। मनुष्यकृत संकटों ओर प्राकृतिक आपदाओं की वृद्धि जब चरम सीमा पर पहुँचने लगती है, तो उसी समय निर्माणकारी सत्ता अपने सहयोगियों के साथ अवतरित होती है और जहाँ एक ओर अधर्म अन्याय अनाचार बढ़ता है वहाँ ये शक्तियाँ धर्म संस्कृति सदाचार सद्गुण तथा सद्भावों को बढ़ाकर संसार में सुख शान्ति की स्थापना के लिये यत्नशील होती है।
संक्रमणवेला में किस प्रकार की परिस्थितियाँ बनती और कैसे घटनाक्रम घटित होते है, इसका उल्लेख महाभारत के वनपर्व में इस प्रकार आता है-
ततस्तुमुलसंधातेवर्तमानेयुगक्षये। द्विजातिपूर्वकोलोकः क्रमेणप्रभविश्यति।
ततः कालाँतरेडन्यस्मिन्पुनर्लोकविवृद्धये। भविश्यतिपुनदैवमनुकूलंयद्च्छया॥
यदासूर्यष्चंद्रश्रतथातिश्यबृहस्पती। एकराषौसमेश्यंतिप्रपत्स्यतितदाकृतम्।
क्लवर्शीचपर्यन्योनक्षत्राणि शुभनिच। प्रदाक्षिणाग्रहाष्चापिभविष्यं त्यनुलोमगाः। मंसुभिक्षमारोग्यंभविष्यतिनिरामयम्॥
अर्थात् जब एक युग समाप्त होकर दूसरे युग का प्रारम्भ होने को होता है, तब संसार में संघर्ष और तीव्र हलचल उत्पन्न हो जाती है जब चन्द्र, सूर्य बृहस्पति तथा पुष्पनक्षत्र एक राशि पर आयेंगे तब सतयुग का शुभारम्भ होगा।
इसके बाद शुभ नक्षत्रों की कृपा-वर्षा होती हैं। पदार्थों की वृद्धि से सुख-समृद्धि बढ़ती है। लोग स्वस्थ और प्रसन्न होने लगते है।
इस प्रकार का ग्रहयोग अभी कुछ वर्षों पहले ही आ चुका है। अन्यान्य गणनाओं के आधार पर भी यही सिद्ध होता है कि युगपरिवर्तन का ठीक यही समय है। ठीक इन्हीं दिनों युग बदलना चाहिये। अनय को निरस्त करने और सृजन को समुन्नत बनाने वाली दिव्यशक्तियों का प्रबल पुरुषार्थ इस सन्धि में प्रकट होगा जो सन् 1980 से 2000 तक के बीस वर्षों के बीच की उपलब्धि है।