महर्षि चरक की नैतिकता (Kahani)

April 1998

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औषधियों की खोजबीन में महर्षि चरक जंगलों में घूम रहें थे। एकाएक उनकी दृष्टि एक खेत में उग एक सुन्दर पुष्प पर पड़ी। इससे पहले उन्होंने सहस्रों पुष्पों के गुण-दोषों का अध्ययन-अनुसंधान किया था परन्तु यह तो कोई नया ही फूल था।

उनका मन पुष्प लेने के लिए उत्सुक था, किन्तु पैर आगे नहीं बढ़ रहे थे। समीप खड़े उनके शिष्य ने सादर कहा-गुरुदेव फूल ले आऊँ?"

“फूल तो चाहिए, लेकिन खेत के मालिक की अनुमति के बिना फूल तोड़ लेना तो चोरी मानी जाएगी।”

“गुरुदेव। कोई वस्तु किसी के काम की हो, तो उसकी बिना अनुमति के ले लेना चोरी हो सकती है, परन्तु यह तो पुष्प है फिर इसे लेने में क्या हर्ज है? फिर......?" महर्षि चरक ने बीच में ही पूछा।

शिष्य ने कहा-गुरुदेव आपको तो राजाज्ञा है कि आप कही से कोई भी वन-सम्पत्ति इच्छानुसार बिना किसी अनुमति के ले सकते है।”

“सौम्य। राजाज्ञा और नैतिकता में अन्तर हैं।”

“शिष्य ने उत्सुकतावश जानना चाहा-कैसा अन्तर?”

सुना-महर्षि ने समझाया। “यदि हम अपने आश्रितों की सम्पत्ति को स्वच्छंदता से व्यवहार में लाएँगे तो फिर लोगों में आदर्श कैसे जाग्रत होगा? लोकादर्श की जाग्रति के लिए नैतिकता श्रेष्ठ होने के साथ अनिवार्य भी है।

शिष्य को मूल्यों की महत्ता बताते हुए महर्षि चरक तीन कोस पैदल चलकर उस कृषक के निवासस्थान पर गए। उसकी अनुमति लेकर उन्होंने उस पुष्प को तोड़ लिया और अनुसंधान में संलग्न हो गए।


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