वेदों का प्राकट्य-कालः एक अनुसंधान

April 1997

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आर्य जाति के विश्वास के अनुसार वेद मनुष्यकृत न होकर अपौरुषेय और अनादि हैं। ईश्वर और प्रकृति के समान वे भी नित्य हैं। प्रलय होने पर भी उनका अन्त नहीं हो जाता। षड्दर्शनों में साँख्यदर्शन सृष्टिकर्ता के रूप में ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता। पर उसके पास मत में भी वेद स्वतः प्रमाण है। वेद की प्रामाणिकता के प्रतिपादन के लिए किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह अपने आप में ही प्रमाण है। उसे न मनुष्य ने बनाया है और न किसी मुक्त पुरुष ने। वह अनादि तथा अनन्त है। योगदर्शन ईश्वर में विश्वास रखता है और ईश्वर के समान वेद को भी अनादि मानता है। मीमाँसा दर्शन में शब्द को नित्य प्रतिपादित किया गया है, क्योंकि शब्द नित्य है। वे ईश्वर के निःश्वास रूप हैं। श्वास-प्रश्वास की क्रिया सब प्राणियों में स्वाभाविक रूप वेद ईश्वर के समान ही अनादि व नित्य है। वेदान्त दर्शन को भी यही मत अभीष्ट है। उसके अनुसार भी वेद ‘महान् भूत’ (ब्रह्म) के निःश्वसित हैं। ब्रह्म वेद की योनि (कारण) अवश्य है, पर वेद उसकी कृति नहीं है। वेद तो ब्रह्म के ऐसे श्वास-प्रश्वास के समान हैं, जो स्वाभाविक रूप से निःसरित होते रहते हैं। इसीलिए सृष्टि तथा प्रलय दोनों अवस्थाओं में वे बने रहते हैं। न उनका कभी प्रारम्भ होता है और न अन्त। वैशेषिक दर्शन में वेदों को ‘पौरुषेय’ माना गया है, पर उसके अनुसार पौरुषेय का अभिप्राय ईश्वरकृत है। वेद मनुष्यकृत न होकर परमपूज्य ईश्वर की कृति हैं। जगत का कर्त्ता परमेश्वर नित्य, आप्त और सर्वज्ञ है। साथ ही वह करुणा का आगार भी है। इस कारण सृष्टि की उत्पत्ति मनुष्यों के कल्याण के लिए वेदों का भी उपदेश कराता है। वेद उसी ज्ञान का नाम है या वेदों में वही ज्ञान विद्यमान है, जिसका उपदेश मनुष्यों के हित कल्याण व मार्ग-प्रदर्शन के लिए ईश्वर द्वारा किया जाता है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार वेद ईश्वर के वचन है, क्योंकि वे ईश्वर की कृति हैं, अतः वे प्रमाण रूप है।

जो विचारक वेद को अपौषेय एवं अनादि मानते हैं या जो उन्हें ईश्वर की ऐसी कृति प्रतिपादित करते हैं जिसका महाप्रलय द्वारा भी अन्त नहीं होता, जो ‘नित्य’ है, उनकी दृष्टि में वेदों के रचना-काल सम्बन्ध में विचार-विमर्श करना ही निरर्थक है। जब उनकी रचना मनुष्यों द्वारा कभी की ही नहीं गई, तो उनका रचनाकाल के विषय में विचार करने का लाभ ही क्या है। वैदिक सूक्तों एवं मन्त्रों के साथ जिन ऋषियों के नाम दिये गये हैं, वे उनके कर्त्ता व रचयिता न होकर,’दृष्टा’ मात्र थे। ऋषि शब्द की व्युत्पत्ति ही यह कही गई है-’ऋषेर्ज्ञानार्थत्वाद् मन्त्रं दृष्टवन्तः’ मन्त्रों के द्रष्टा होने के कारण ही वे ऋषि कहाते हैं।

जो विचारक वेद को अपौरुषेय एवं अनादि मानते हैं या जो उन्हें ईश्वर की ऐसी कृति प्रतिपादित करते हैं जिसका महाप्रलय द्वारा भी अन्त नहीं होता, जो ‘नित्य’ है, उनकी दृष्टि में वेदों के रचना-काल सम्बन्ध में विचार-विमर्श करना ही निरर्थक है। जब उनकी रचना मनुष्यों द्वारा कभी की ही नहीं गई, तो उनके रचनाकाल के विषय में विचार करने का लाभ ही क्या है। वैदिक सूक्तों एवं मन्त्रों के साथ जिन ऋषियों के नाम दिये गये हैं, वे उनके कर्त्ता व रचयिता न होकर, ‘दृष्टा’ मात्र थे। ऋषि शब्द की व्युत्पत्ति ही यह कही गई है-’ऋषेर्ज्ञानार्थत्वाद् मन्त्रं दृष्टवन्तः’ मन्त्रों के दृष्टा होने के कारण ही वे ऋषि कहाते हैं।

इसके विपरीत आधुनिक पाश्चात्य विद्वान वेदों को मनुष्यकृत मानते हैं और वैदिक वेदों को मनुष्यकृत मानते हैं और वैदिक ऋषियों को मन्त्रों का सृजेता समझते हैं। उनके अनुसार वेदों की रचना किसी एक व्यक्ति द्वारा किसी एक समय में न की जाकर बहुत से व्यक्तियों (ऋषियों) द्वारा विविध समयों में की गई थी। ऋग्वेद अन्य तीन वेदों की तुलना में अधिक प्राचीन है और इस वेद के भी कतिपय मण्डल व सूक्त ऐसे हैं, जिनकी अन्य मण्डलों की तुलना में अधिक बाद के समय में रचना हुई थी। इस मत के लिए वे जहाँ वेदमन्त्रों में निर्दिष्ट ऐतिहासिक घटनाओं को आधार बनाते हैं, वहाँ साथ ही भाषा शास्त्र की दृष्टि से भी इस मत का प्रतिपादन किया जाता है। वेद के सम्बन्ध में कौन-सा मत सही है, इसका निर्णय कर सकना हमारे लिए सम्भव नहीं है।

वेदों के रचनाकाल के सम्बन्ध में पाश्चात्य विद्वानों का मत भिन्न-भिन्न है। उन्नीसवीं सदी के मध्य भाग में प्रो. मैक्समूलर ने यह विचार प्रकट किया था, कि ऋग्वेद की रचना 1200 ईस्वी पूर्व के लगभग हुई थी। छठी सदी ई.पू. में महात्मा बुद्ध ने याज्ञिक कर्मकाण्ड के विरुद्ध आवाज उठायी थी। उसके समय याज्ञिक विधि-विधानों का भली-भाँति विकास हो चुका था और यज्ञों का प्रतिपादन करने वाले ब्राह्मण ग्रन्थों तथा श्रोत-सूत्रों की भी रचना हो चुकी थी। सम्पूर्ण वैदिक साहित्य इस समय विद्यमान था। इस वैदिक साहित्य के विविध भागों-सूत्रग्रन्थों, ब्राह्मणों और संहिताओं के निर्माण के लिए यदि दो-दो सौ वर्षों का समय लगा हो, तो ऋग्वेद की रचना मैक्समूलर के अनुसार 1200 ई. पूर्व के लगभग ही होनी चाहिए। प्रो. मैक्समूलर ने अपने मत की पुष्टि में कोई प्रमाण नहीं दिये थे। उन्होंने केवल एक कल्पना ही प्रस्तुत की थी। पर बहुत से पाश्चात्य विद्वान चिरकाल तक उनके मत को स्वीकार्य समझते रहे। बाद में कोई बीस वर्ष पश्चात् प्रो. मैसमूलर ने स्वयं यह सम्भावना प्रकट की कि ऋग्वेद की रचना का काल 3000 ई. पूर्व तक भी हो सकता है।

प्रो. मैक्समूलर के बाद विल्सन, कीथ, कोलबुक और मैकडानल्ड आदि पाश्चात्य विद्वानों ने भी वेदों के रचनाकाल की अपने-अपने चिन्तन अनुसार व्याख्या करने का प्रयत्न किया। उन्होंने भी किसी वैज्ञानिक या युक्तियुक्त आधार पर अपने मत प्रकट नहीं किये, अपितु प्रायः कलपना व अनुमान का ही आश्रय लिया। तुर्की के बोगज कोई नामक स्थान पर प्राप्त एक उत्कीर्ण लेख में इन्द्रमित्रावरुणो और नास्तयौ का उल्लेख है, जो वैदिक देवता है। इस लेख को 1400 ई. पूर्व का माना जाता है। 18वीं से 12वीं दी ई. पू. तक बैबिलोनिया में जिस जाति का शासन था वह शूरिअ (सूर्य) और मर्य्त (मरुत) की उपासिका थी। इसी प्रकार के अन्य अनेक तथ्यों का पता लगने पर पाश्चात्य विद्वानों के लिए यह आवश्यक हो गया, कि वे वैदिक संहिताओं के रचनाकाल को 1200 ई. पूर्व से अधिक पुराना प्रतिपादित करें। विंटरनिट्ज ने वेदों के कतिपय भागों को 2500 ई. पूर्व के लगभग तक पुराना माना और जैकोबी ने 4500 ई. पूर्व के लगभग का।

भारतीय विद्वानों के मन्तव्य पर आधुनिक युग के भारतीय विद्वानों ने वेदों के निर्माणकाल का जिस ढंग से निरूपण किया है, यह अधिक महत्वपूर्ण तथा युक्तिसंगत है। ज्योतिष तथा भूगर्भ-शास्त्र आदि विज्ञानों का सहारा लेकर इन विद्वानों ने वैदिक साहित्य के रचनाकाल को पाश्चात्य विद्वानों द्वारा प्रतिपादित समय से बहुत अधिक पुराना माना है। ज्योतिष की गणना के आधार पर श्री शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने शतपथ ब्राह्मण का रचनाकाल 3000 ई. पूर्व के लगभग में प्रतिपादित किया है। इसके लिए उन्होंने शतपथ ब्राह्मण की ये कण्डिकाएँ प्रस्तुत की हैं-”एकं द्वे त्रीणि चत्वारीति वाड्अन्यानि नक्षत्राण्यभैता एव भूयिष्ठा यत्कृतिकास्तदभूयानमे वैतदुपैति तस्मात् कृत्तिकास्वादधीतः एता ह वै प्राच्यै दिशो न च्यवन्तें। सर्वाणि ह वाड्अन्यानि नक्षत्राणि प्राच्यै दिशश्यामेवास्यैः नद्दिश्याहितौ भवतस्तस्मात् कृत्तिका स्वादधीत।”

इन कण्डिकाओं में यह कहा गया है कि कृतिका नक्षत्र का उदय ठीक पूर्व दिशा से होता है। यह नक्षत्र पूर्व दिशा से हटकर उदय होते हैं, पूर्व दिशा से विचलित होते हैं। शतपथ के इस कथन से यह सूचित होता है कि इस ब्राह्मण ग्रंथि की रचना उस समय में हुई थी, जबकि कृतिका नक्षत्र का उदय ठीक पूर्व दिशा में हुआ करता था। पर वर्तमान समय में कृतिका नक्षत्र ठीक पूर्व दिशा में उदित नहीं होता। वह कुछ उत्तर की ओर हटकर उदय होता है। दीक्षितजी ने ज्योतिष की गणना द्वारा यह प्रदर्शित किया है, कि वह समय जबकि कृतिका का उदय ठीक पूर्व दिशा में हुआ करता है, अब से 5000 वर्ष के लगभग पहले था। इसलिए शतपथ ब्राह्मण की रचना के समय को 3000 ई. पू. के लगभग मानना उचित होगा। ऋग्वेद का काल इससे भी पहले होगा।

वेदों के काल-निर्णय के सम्बन्ध में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने जिन युक्तियों व प्रमाणों का सहारा लिया है, वे भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उन्होंने अनेक वैदिक सूक्तों के आधार पर यह प्रतिपादित किया है, कि ऋग्वेद के समय में सूर्य के मृग शिरा नक्षत्र में उदय होने पर उत्तरायण एवं नववर्ष का प्रारम्भ होता था। ज्योतिष की गणना के अनुसार ऐसा समय 4280 ई. पू. में था और तभी ऋग्वेद के बहुसंख्यक सूक्तों की रचना हुई थी।

श्री अविनाश चन्द्र दास ने वेदों के काल के निर्णय के लिए भूगर्भ-शास्त्र का आश्रय लिया है। उनके अनुसार ऋग्वेद की रचना के समय में आर्य लोग

वेदों का रचनाकाल एक तालिका

पाश्चात्य विद्वान् वेद का जो काल मानते हैं, वह निम्न तालिका से प्रकट हैं-

1-मैक्समूलर 1200 से 2500 वर्ष ईसा पूर्व

2-मैकडानल 1200 से 2000 वर्ष ईसा पूर्व

3-कीथ 1200 वर्ष ईसा पूर्व

4-वूहृर 1500 वर्ष ईसा पूर्व

5-हाँग 2000 वर्ष ईसा पूर्व

6-हृटनी 2000 वर्ष ईसा पूर्व

7-विल्सन 2000 वर्ष ईसा पूर्व

8-ग्रिफिथ 2000 वर्ष ईसा पूर्व

9-थ्योडोर 2000 वर्ष ईसा पूर्व

10-विण्टरनिट्ज 2500 वर्ष ईसा पूर्व

11-जैकोबी 3000 से 4000 वर्ष ईसा पूर्व

भारतीय विद्वान वेद के काल को पाश्चात्य विद्वानों की अपेक्षा अधिक ले जाते हैं, जैसा कि निम्न तालिका से स्पष्ट है-

1-शंकर बालकृष्ण दीक्षित 3000 वर्ष ईसा पूर्व

2-लोकमान्य तिलक 6000 से 10000 वर्ष ईसा पूर्व

3-सम्पूर्णानन्द 18000 से 30000 वर्ष ईसा पूर्व

4-अविनाशचन्द्र दास 25000 से 50000 वर्ष ईसा पूर्व

5-देवेन्द्रनाथ मुखेपाध्यायऊपरोक्त अनुसार

सप्तसिन्धु देश में निवास करते थे और इस देश के पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण में समुद्र था। सप्तसिन्धु देश की अन्यतम नदी सरस्वती उस समय पर्वत से निकलकर समुद्र में जा मिलती थी। वर्तमान समय में सरस्वती नदी में जल नहीं है और जिस मार्ग से वह पहले बहा करती थी, वह राजस्थान का मरुस्थल है, किसी प्राचीन समय में वहाँ समुद्र था और सरस्वती नदी वहीं सिंधु सागर में जा मिलती थी।

ऋग्वेद में गंगा और यमुना का तो उल्लेख है, पर उनके पूर्व की नदियों तथा उत्तरी भारत के मगध, अंग, बंग आदि प्राच्य जनपदों का इस वेद में उल्लेख नहीं है। ऋग्वेद के एक मंत्र से पूर्व (पूर्वी) और अपर (पश्चिम) समुद्रों की सत्ता सूचित होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि ऋग्वेद के समय में आर्य लोग जिस सप्तसिन्धु देश में निवास करते थे, उत्तर, दक्षिण, पूर्व तथा पश्चिम में वह समुद्रों से घिरा हुआ था। पूर्वी समुद्र से बंगाल की खाड़ी का आशय नहीं लिया जा सकता, क्योंकि ऋग्वेद में न पूर्वी जनपदों का उल्लेख है और न गण्डक, सरयू आदि पूर्वी नदियों का। इसी प्रकार दक्षिण भारत की भी किसी नदी, पर्वत या जनपद का उल्लेख ऋग्वेद में नहीं है। यह सम्भव भी नहीं था, क्योंकि उस समय यह क्षेत्र समुद्र से आवृत्त था। ऋग्वेद द्वारा सप्तसिन्धु देश के विषय में जो सूचनाएँ प्राप्त होती हैं, वे भूगर्भशास्त्र द्वारा भी प्रमाणित हैं। इस विज्ञान द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है, किसी प्राचीनकाल में भारत की भौगोलिक दशा वर्तमान से बहुत भिन्न भी। उस समय राजस्थान और पूर्वी भारत के प्रदेशों के स्थानों पर समुद्र था और एक अन्य समुद्र पामीर की पर्वतमाला के उत्तर में (आधुनिक तुर्किस्तान ओर मंगोलिया के क्षेत्र में ) भी विद्यमान था। ऋग्वेद की रचना इन्हीं भौगोलिक दशाओं के समय में हुई थी। भूगर्भशास्त्र के अनुसार ये भौगोलिक दशाएँ 25,000 वर्ष हो चुके है, यह मानना युक्तिसंगत होगा।

आधुनिक विद्वानों के मत में चारों वेद एक ही समय में नहीं बने थे। विविध ऋषियों द्वारा समय-समय पर जिन मन्त्रों व सूक्तों की रचना होती रही, उन्हें बाद में महर्षि वेदव्यास ने संहिताओं के रूप में संकलित कर दिया। पर यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि वेदव्यास के समय तक वैदिक मन्त्रों की रचना पूर्ण हो चुकी थी और उनके बाद किसी छंदोवद्ध सूक्ति को वैदिक ऋचा या मन्त्र की स्थिति प्राप्त नहीं हुई।

प्राचीन भारतीय अनुश्रुति के अनुसार वेदव्यास महाभारत के समय में हुए थे और सम्भवतः परीक्षित जनमेजय के समय तक जीवित रहे थे। इस दशा में वेदों की रचना महाभारत के समय 3102 ई. पूर्व या 1406 ई. पू. तक पूरी हो चुकी थी, यह स्वीकार करना होगा। इस प्रसंग में यह निर्देश कर देना भी आवश्यक है कि नृतत्वशास्त्र और इतिहास के क्षेत्र में जो नई खोजें पिछले वर्षों में हुई है।, उनके द्वारा मानव सभ्यता के आदि युग का समय बहुत प्राचीन प्रमाणित होता जा रहा है। साथ ही वैदिक युग को भी अधिक प्राचीन प्रतिपादित करने की प्रवृत्ति अब बढ़ रही है।

वेद अपौरुषेय वाणी हैं। समग्र रूप में वे संभवतः काफी समय बाद क्रमबद्ध रूप में सबके समक्ष आए हों किन्तु इतना सुनिश्चित है कि उनका सृजन देववाणी का सुन-सुनकर, स्मरण कर-सत्य की अनुभूति कर उसका महिमा गान करने के साथ काल-गति के साथ होता रहा है। अतः इनके समग्र प्राकट्यकाल पर मतवैभिन्य हो सकता है, किन्तु विश्व संस्कृति-धर्म के मूलभूत आधार के रूप में ये चिरपुरातन हैं एवं इन्हीं के प्राकट्य के साथ धरती हैं एवं इन्हीं के प्राकट्य के साथ धरती पर साँस्कृतिक दृष्टि से विकसित मानव का विकास हुआ, इस तथ्य को स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं। ज्ञान-विज्ञान के भाण्डागार हमारी वैदिक सम्पदा को महर्षि दयानन्द के बाद परमपूज्य गुरुदेव एवं शक्तिस्वरूपा माताजी द्वारा सरल भाष्य के माध्यम से जन सुलभ कराया गया है, यह संस्कृति की सबसे बड़ी सेवा है। यही नहीं यह ज्ञान अब विद्यालयों में पूरे भारतवर्ष ही नहीं विश्व के हर व्यक्ति के घरों में पहुँचना आरम्भ हो गया है, तो यह मानना चाहिए कि वह समय निकट है जब मनुष्य अपनी गौरव-गरिमा भरे अतीत को, भारत जगद्गुरु के पद को पुनः प्राप्त कर लेगा। इस भवितव्यता को एक सुनिश्चित संभावना मानना चाहिए।


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