श्रम-साधना का सम्मान

April 1997

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

दीनू काका! महाराज की सवारी आ रही है-तुम भी तैयार हो जाओ........ बूढ़ा दीनू एक बड़ी-सी काष्ठ पट्टिका पर झुका का झुका ही रहा-हाँ, हूँ करके उसने शायद यह जताने की कोशिश की कि वह सामने खड़े अपने पड़ोसी की बात सुन रहा है। लेकिन चटाई से उठा नहीं।

दीनू का घर कच्ची मिट्टी सामने चबूतरा था। चबूतरे के नीचे एक ओर गाय बँधी थी। जो मजे से जुगाली कर रही थी। पास के खूँटै से बँधा उसका बछड़ा अपनी माँ की ओर कौतुक से देखे जा रहा था। चबूतरे के ऊपर चटाई बिछाए बैठा हुआ दीनू अपने काम की धुन में था। रोज सुबह से कार्य शुरू कर देना उसका अनिवार्य नियम बन गया था। काम करते हुए वह अपनी धुन में ऐसा खो जाता कि खाने-पीने की सुध तक बिसर जाती। ऐसे में उसे किसी की टोका-टाकी एकदम भली न लगती थी।

अपने काम के लिए उसी दूर-दूर तक प्रसिद्धि थी। अपने महीन औजारों से जब वह लकड़ी पर लता-वल्लरियाँ, पेड़-पौधे, देवी-देवताओं के विग्रह उकेरता तो देखने वाले दाँतों तले उँगलियाँ दबा लेते। उसके हस्तशिल्प की प्रशंसा से स्वयं सम्राट हर्षवर्धन भी परिचित थे।

इस समय भी जबकि सम्राट की सवारी उसके गाँव से होकर गुजरने वाली थी-वह अपने काम में तल्लीन था।

इस समय भी जबकि सम्राट की सवारी उसके गाँव से होकर गुजरने वाली थी-वह अपने काम में तल्लीन था।

दीनू काका, राजा के हाथी के साथ दो सौ बड़े हाथी पीछे-पीछे चलते हैं। सभी के गले में सोने की भारी-भारी जंजीरें और घंटियाँ झूलती हैं। मालूम है काका, अपने राजा के पास बहुत सोना है, हीरे-मोतियों, कीमती जवाहरातों की भी कमी नहीं।

सोने की बात क्या करता है रे? असली चीज है राजा की परदुःख-कातरता। सुना नहीं, पिछले साल कुम्भ में अपना सब कुछ दुःखी-गरीबों के लिए दे डाला। गरीबों के लिए रोजी-रोजगार, छोटे−छोटे उद्योग-धन्धे, पाठशालाएँ, चिकित्सालय सब कुछ उसी के तो करवाए हुए हैं। दूसरों का दुःख उसको सहन नहीं होता, तभी तो उसने अपने तन के कपड़े तक दे डाले। तब बहिन ने उसे कपड़े दिये।

एक बात है काका, राज आ रहा है, लेकिन हमें जरा भी डर नहीं लग रहा। गाँव के लोग कुछ भेंट-पूजा चढ़ाना चाहते थे, ताकि उसका भली प्रकार स्वागत हो सके, परन्तु राजा के आदमियों ने मना कर दिया वे कहने लगे-आपको ऐसे करने से राजा को बुरा लगेगा।

दीनू ने ये सारी बातें शायद ही सुनी हों, वह शिवजी की जटा-जूट के ऊपर चन्द्रमा उकेरने में ऐसा मगन था कि लगता था जरा-सा भी इधर-उधर करने से शायद चन्द्रमा की चमक फीकी हो जाएगी। उसे भान हो रहा था कि वह नकली नहीं असली चन्द्रमा बना रहा है। फिर अभी तो उसे शिव की जटाओं से निकलती हुई गंगा के प्रवाह को दिशा देनी है। प्रवाह गड़बड़ाया, तो सारी मेहनत उसी के साथ बह जाएगी।

तभी गाँव की सीमा पर नक्कारा बजने की आवाज गूँजी। पड़ोसी उत्सुकता से आकुल होकर उधर ही बढ़ गया। दीनू को वे तुमुल वाद्य ध्वनियाँ भी नहीं सुनायी दी। वह इन सबसे बेखबर अपने काम में लगा रहा।

पूर्ण निश्चिन्तता एवं पूरे मनोयोग से वह अपना काम करता था। उसे चिन्ता हो भी तो किस बात की। परम्परागत व्यवसाय उसके परिवार के भरण-पोषण के लिए पर्याप्त था। अन्न-वस्त्र की कठिनाई उसे कभी आयी ही नहीं। घर आए अतिथियों की सेवा करना वह अपना धर्म समझता था। तन-मन की स्वस्थता उसे सहज प्राप्त थी। कच्चे चबूतरे पर चटाई बिछाकर जब एक बार वह लकड़ी के टुकड़े में अपनी कला के प्राण डालना शुरू करता, तो विभिन्न आकृतियों एवं देव-विग्रहों को सजीव बनाए बिना न रहता। बड़े इत्मीनान एवं अपूर्व धीरज ने उसकी कला को सफलता के चरम बिन्दु तक पहुँचा दिया था। उन दिनों भारत की वास्तु, स्थापत्य, शिल्प तथा अन्य कलाएँ श्रम के इसी मार्ग से गुजरती थीं।

सम्राट हर्षवर्धन की सवारी निकट आ पहुँची थीं। सारा रास्ता दर्शनार्थियों की भीड़ से भर चुका था। चारों ओर उत्साह युक्त कोलाहल, उल्लासमय जय-जय की ध्वनि एवं विभिन्न वाद्यों की गूँज वातावरण को उद्वेलित कर रहे थे।

बड़े अचरज की बात थी कि बूढ़ा दीनू जैसे आज अंध, बधिर बन गया था। सम्राट अपने दल-बल के साथ गुजर गए-उसे मालूम ही न पड़ा। सैकड़ों सजे-धजे हाथियों की गर्जना एवं घण्ट-निनाद ने धरती-अम्बर को महागूँज से भर दिया। दर्शनार्थियों के पैरों और सिपाहियों के घोड़ों की टापों से उड़ी धूल से सूर्य धूमिल पड़ गया। लेकिन दीनू की श्रम समाधि न भंग हुई तो नहीं भंग हुई।

सम्राट के सैनिकों ने इसे दीनू के काम की तल्लीनता नहीं, जान-बूझ कर की गयी अवहेलना समझा और इसी के अपराध में उसे पकड़ लिया।

पकड़े जाने पर वह जोर से चौंक उठा। उसने अचकचाई नजरों से सैनिकों की ओर देखा। तनिक हकलाते हुए अचरज भरे स्वरों में वह बोल- मैंने तो कुछ नहीं किया-भरोसा न हो तो मुखिया से पूछ लो। बाद में जब लोगों ने उसे बताया तो उसे भी अनुभव हुआ कि अपराध तो हुआ ही है। राजा की सवारी कब निकली, यह वह जान ही न सका-राजा की अगवानी नहीं कर सका। उससे सामान्य शिष्टाचार का निर्वाह तक न हुआ। यह सोचकर उसे आत्मग्लानि हो आयी।

गाँव से थोड़ी दूर पर सम्राट का शिविर लगा था। संध्या को उसे वहीं उपस्थित किया गया।

सम्राट हर्षवर्धन उस वृद्ध व्यक्ति को अपने सामने खड़ा देखकर पूछने लगे-”कहो, क्या कष्ट है?”

एक पल के लिए वह सम्राट को ताकता ही रह गया। महाराज हर्ष के मुखमण्डल पर तेजस्विता की प्रखरता के साथ सौम्य भावों का अपूर्व सामंजस्य था। उनके स्वरों में उसे ऐसा लगा-मानो भरपूर ममत्व और मनुष्य के प्रति करुणा की अजस्र निर्झरिणी प्रवाहित हो रही है। उस भव्य व्यक्तित्व के सम्मुख वह सिर्फ विनत होकर रह गया।

दण्डनायक ने बड़े अदब के साथ उसका अपराध कह सुनाया-

सम्राट! इसने धृष्टता की है, महाराजाधिराज की शान में गुस्ताखी की है। इसने राजकीय मर्यादाओं की अवहेलना की है।

क्या किया है इस निरीह वृद्ध ने? हर्षवर्धन का स्वर नम्र ही बना रहा। जैसे उन्होंने अपने दण्डनायक की बातों पर ध्यान दिया ही नहीं।

सम्राट की सवारी जब इसके दरवाजे के सामने से होकर गुजर रही थी-उस समय भी यह खड़ा न हुआ। इसने महाराज की अभ्यर्थना नहीं की। अगवानी और स्वागत-सत्कार की बात तो दूर-इस आदमी ने अपनी आँखें तक नहीं उठाईं। अतः अब अभियुक्त के रूप में श्रीमान के समक्ष उपस्थित है।

महाराज हर्ष हल्के से हँस पड़े। कहने लगे-इस सौम्य वृद्ध पर तुम्हारा यह अभियोग उचित नहीं मालूम पड़ता। बल्कि तुम्हारी यह भाषा तो जैसे हम लोगों का ही उपहास करती है। तुम जिसे स्वागत-अगवानी, राजकीय सम्मान-मर्यादा कहते हो, बहुत सम्भव है, इस साधारणजन को उसका कोई बोध ही न हो।

फिर वे वृद्ध दीनू को सम्बोधित कर कहने लगे-क्यों भाई! डरो नहीं। तुम्हीं बताओ, क्या तुमसे कोई अपराध हुआ है।

महाराजाधिराज! अपराध तो हुआ ही है-अभी जो कहा गया-वह सच है।

क्या सच है? तुम क्या कहना चाहते हो? क्या तुमको मैंने कोई हानि पहुँचाई है? क्या तुम्हें मेरी किसी नीति से विरोध है? यदि ऐसा कुछ है तो निर्भीक होकर साफ-साफ कहो। हर्षवर्धन को अपने विरोधी भी प्रिय हैं। हो सकता है तुम्हारे ग्राम का राजकर्मचारियों ने कोई अहित कर डाला हो। राजा को चिन्ता हुई कि कहीं यह राज्य द्वारा या किसी राज्याधिकारी द्वारा सताया हुआ तो नहीं है।

महाराज, मैं सुखी हूँ-आपकी छत्र -छाया में हमारा पूरा गाँव प्रसन्न है। मुझसे अपराध बन पड़ा है, पर महाराज मैंने यह जानबूझकर नहीं किया। दीनू का स्वर बहुत साफ था।

सम्राट का संकेत पाकर, दण्डनायक विवरण देने लगा-श्रीमान् पूरी राजकीय यात्रा इसके दरवाजे के सामने से होकर निकल गई, लेकिन इसने सिर तक न उठाया। ऐसा अंधा-बहरा बनकर बैठा रहा-मानो इसके आँख-कान हो ही नहीं।

अरे! यह भी कोई अपराध है। उस वृद्ध को सम्बोधित करते हुए वे कहने लगे-तुम्हारे जैसे वृद्ध हर्षवर्धन के स्वागत में खड़े रहें, इसका कोई औचित्य नहीं। क्यों काका! उस समय तुम क्या कर रहे थे, बताओगे? सम्राट के स्वर में स्नेह था।

महाराज! मैं काष्ठ पट्टिका में शिव का चित्र उकेर रहा था। भूल गया कि आपका आगमन हो रहा है।

ओह! तो यह बोलो कि तुम शिल्पकार हो। इस राज्य बोलो कि तुम शिल्पकार हो। इस राज्य के कलाकार हो और इस दर्जे के कलाकार हो कि काम की तन्मयता में तुम्हें बहिर्जगत भूल जाता है। बाहर की हलचलें तुम्हारा ध्यान भंग कर पातीं। श्रम-साधना की यही तो खासियत है और तुम उससे भूषित हो।

सम्राट! आप मुझे जो भी दण्ड दें मेरे सिर माथे होगा। अपनी कला तो कुछ नहीं आपके सुराज की ही देन है।

लेकिन रुको, सुराज्य का निर्माण तो तुम जैसे श्रमसाधक ही करते हैं। श्रम साधने से ही राज्य में श्री-समृद्धि, शक्ति-समृद्धि एवं शान्ति आती है। हमें खेद है कि अपनी इस वृद्धावस्था में भी तुम इतना कठिन परिश्रम करते हो। क्या नाम है आपका?

दीनू! बड़े ही संकोच से उसने अपने नाम के दो शब्दों का उच्चारण किया।

ओह! तो आप हैं शिल्पी दीनू! आर्य अपराध तो आपसे नहीं राज-कर्मचारियों से हुआ है।

महाराज के इस कथन से सभी अचरज में थे। लेकिन महाराज कहे जा रहे-सम्राट की मर्यादा से श्रम की मर्यादा कहीं अधिक है। सम्राट राज्य का सेवक और रक्षक भर है, लेकिन श्रम साधक उसका निर्माता है।

फिर वे प्रधानामात्य की ओर देखकर बोले-महामंत्री! आर्य दीनू को राज्य की ओर से यथेष्ट भूमि पुरस्कार में दी जाय। इन्होंने जीवन भर कठोर श्रम किया है। अब अपने जीवन की संध्या में इनकी व्यवस्था करना राज्य का दायित्व है।

महाराज मैं धन्य हो गया। वह जमीन में पा चुका। मेरी प्रार्थना है कि उस भूमि में गायों के लिए चरागाह बना दिया जाय।

क्यों, तुम्हें भूमि नहीं चाहिए? महामंत्री को अचरज हों रहा था। नहीं श्रीमान, दीनू अपने बच्चों को श्रम की पूँजी देकर जाएगा। इसी से उनकी रोटी चलती रहेगी। मेरे बाबू कहते थे कि पसीने की बूँदों से भगवान प्रसन्न होते हैं। पसीने का अन्न ही अमृत है। मेरे बच्चे यही सीखें-यही मेरी अभिलाषा है। दीनू की आँखों में श्रम की गरिमा का तेज था।

युगान्ते प्रचलेद् मेरुः, कल्पान्ते सप्तसागराः। साधवाः प्रतिप्रर्न्नधद्, न चलन्ति कदाचन्॥ -चाणक्य 13/19

युग के अन्त के मरु और कल्प के अन्त में सातों समुद्र चले जाते हैं किन्तु सन्त पुरुष स्वीकृत सिद्धान्त से कभी विचलित नहीं होते॥

महाराज हर्ष प्रसन्न हो उठे। उन्होंने स्वयं खड़े होकर दीनू को विदा किया। वह श्रम की मर्यादा का खड़े होकर सम्मान कर रहे थे।

आधी घड़ी भर बाद दीनू पगडंडी पर धीमी गति से चला जा रहा था। ऊपर तारों का मध्यम प्रकाश था, नीचे अंधकार की घनी कालिमा थी, लेकिन दीनू के हृदय में श्रम-साधना की पुलकन एवं पूर्ण सन्तुष्टि का प्रखर आलोक था। उसकी आँखों में श्रम की मर्यादा एवं गरिमा के दीप जल रहे थे। क्योंकि आज वह इसी के कारण सम्राट द्वारा सम्मानित हुआ था। उसने निश्चय कर लिया था-वह अपने घर को ही नहीं, पूरे गाँव, समूचे समाज को श्रम की मर्यादा सिखाएगा। इस सोच ने उसके पैरों की गति तेज कर दी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118