झुकाव बढ़ रहा है आध्यात्मिक साम्यवाद की ओर

April 1997

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समाज के पुराने पड़ चुके ढाँचे में आज हर ओर दरारें दिखाई देती हैं। रीति-रिवाज, मान्यताएँ, प्रथा-परम्पराएँ सभी पुरानेपन को भारी टूट-फूट से गुजरना पड़ रहा है। यह इस बात की सूचना है कि पुराने के भीतर से नया प्रकट होने को है। अण्डे के भीतर से चूजा निकलने के पहले अण्डा हर तरफ से दरक जाता है। पुराने ढाँचे में आयी दरारें इस सत्य का संकेत हैं कि समाज, राष्ट्र, सम्पूर्ण विश्व के जर्जर हो चुके ढाँचे को, नया आकार मिलने वाला है। लेकिन अन्य बड़ी क्रान्तियों की भाँति यह महाक्रान्ति भी तभी सफल होगी जब नवयुग के समाज के अनुरूप जीवन-दर्शन को अपनाया जाएगा। मनीषी पाल रिकोयर ने ‘हिस्ट्री एण्ड दुथ’ में लिखा है कि समस्या मात्र इतिहास को दुहराने की नहीं है, बल्कि उसकी गहराई में जाकर निरन्तर नयी खोज करने की है। अपनाकर ही ऐसे समाज का निर्माण सम्भव है, जिसका व्यापक विस्तार समस्त विश्व को एक सूत्र में बाँधकर उसे स्वर्ण युगीन स्वरूप देगा।

भविष्य का समाज जिन गुणों से युक्त होना चाहिए, इसकी विस्तार से चर्चा दाना जोहर एवं इयान मार्शल ने अपनी पुस्तक ‘द क्वाँटम सोसाइटी’ में की है। आज सामाजिक, राजनैतिक और वित्तीय कारणों से हमारी पारस्परिक निर्भरता बढ़ती जा रही है। संसार के किसी एक कोने में होने वाले सूक्ष्म परिवर्तन से भी समस्त विश्व प्रभावित होता है। टोकियो के स्टाक बाजार में कोई परिवर्तन होता है, तो उसका प्रभाव लन्दन और न्यूयार्क में कुछ ही घण्टों में दिखाई देने लगता है। पैकिंग में होने वाली क्रान्ति यूरोप और अमेरिका में उम्मीदें जगा देती है। व्यक्तिगत कारखानों, यहाँ तक कि घरेलू उद्योगों में प्रयुक्त निर्माण विधियों का भी सीधा प्रभाव पृथ्वी के पर्यावरण पर पड़ता है। किसी एक व्यक्ति के पूर्णतया व्यक्तिगत कार्य का प्रभाव सम्पूर्ण समाज पर पड़े बिना नहीं रहता, यहाँ तक कि व्यक्ति स्वयं भी समाज में होने वाली गतिविधियों से प्रभावित होता रहता है।

यदि एक व्यक्ति के विवाह की परिणति तलाक में होती है, तो अन्यों के ऐसा करने की सम्भावना बढ़ जाती है। फलस्वरूप विशाल स्तर पर पारिवारिक ढाँचा गड़बड़ाने लगता है। परिवार समाज की इकाई है। इकाइयाँ टूटेंगी तो समाज कैसे बचेगा? यदि पत्नी पति से अथवा पति पत्नी से विश्वासघात करता है तो अन्यों में भी यह प्रवृत्ति पनपने लगती है। इसी प्रकार दूसरों की रुचियों, निर्णयों, समाज में घटित अपराधों, धार्मिक गतिविधियों, विभिन्न घटनाक्रमों का भी हमारी व्यक्तिगत रुचियों एवं निर्णयों पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। अत्यन्त विकसित संचार माध्यमों, कम्प्यूटरों से हमें अति शीघ्र समाज का रुझान ज्ञात हो जाता है। जिससे इस बात की सम्भावना बढ़ जाती है कि हम भी वैसा ही करेंगे।

मनोविज्ञानी राँस स्टेग्नर ने अपने अध्ययन ‘पर्सनालिटी एण्ड इट्स सोशल वैल्यू’ में इस बात का काफी खुलासा किया है। उनके अनुसार परिवर्तनों के दौर ने दुनिया को इस स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है कि हम सिर्फ अपने लिए नहीं जी सकते। क्योंकि परिस्थितियाँ एक बात हमें साफ तौर पर समझा रही हैं कि वर्तमान यान्त्रिक विचारों के अनुसार यदि हम सिर्फ अपनी रुचियों, अपने हितों को ध्यान में रखकर ही जीवन जीते हैं।, तो उसमें न तो समाज का हित है और न हमारा अपना। आज के परिवेश में स्वार्थपूर्ण जीवनशैली चहुँओर से होने वाले प्रहारों के समक्ष टिक नहीं सकती।

अति हर चीज की बुरी होती है। न तो व्यक्तिवाद की अति अच्छी और नहीं समूहवाद की अति से काम चलने वाला है। यों दोनों ही व्यवस्थाएँ व्यवस्था कम समस्या को ही अधिक जन्म देती है। राजतंत्र एवं तानाशाही के पतन यदि व्यक्तिवाद की अति की बुराई की कहानी कहते हैं तो रूस एवं पूर्व यूरोप में साम्यवाद का पतन समूहवाद की अति के दोषों की कथा सुनाते हैं। अब तो ब्रिटेन, स्वीडन तथा अन्य पश्चिमी यूरोपीय देशों में भी उदार समाजवाद के प्रति भी विशाल स्तर पर अभिरुचि घटी है। साठवें एवं आरम्भिक सत्तरहवें दशक में इज़राइल के किब्बट्ज आंदोलन के अधोपतन से सभी परिचित हैं। यही नहीं अमेरिका में लोकप्रिय अनेकों साम्यवादी आन्दोलनों से मोह भंग हुआ है। अब तो इक्कीसवीं सदी ऐसी किसी व्यवस्था की प्रतीक्षा में है-जो स्वार्थपरक व्यक्तिवाद तथा चरम समूहवाद के बीच की होगी। इसमें दोनों गुणों का उचित समन्वय होगा।

विचारक्रान्ति अभियान के सूत्र-संचालक पूज्यवर समय-समय पर ऐसी ही किसी व्यवस्था के बारे में भविष्य-वाणी करते रहे हैं। आध्यात्मिक साम्यवाद की वकालत पहले-पहले यहीं इसी युगतीर्थ से शुरू की गयी थी। आज समूचे विश्व के मनीषी, इसकी उपयोगिता एवं उपादेयता की जोर-शोर से चर्चा कर रहे हैं। उनका कहना है कि नित्य नए अनुभवों, प्रयोगों पर आधारित विभिन्न मतों, अनेक दृष्टिकोणों का सामना करना आज के समाज के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। आज सभी का मत है कि एक लीक पर चलने तथा किसी विषय पर एक ही दृष्टिकोण से विचारने की प्रवृत्ति में बदलाव लाना आवश्यक हो गया है।

एक दृष्टिकोण के स्थान पर विभिन्न दृष्टिकोणों का सम्मान करते हुए तथा अनेक तत्वों को ध्यान में रखकर नवीन कार्यशैली बनाने की प्रवृत्ति का विकास करना होगा। एक ही विचार-शैली के अंतर्गत कार्य करने की अपेक्षा सामूहिक दृष्टिकोणों, अनुभवों, विचारों के आधार पर सर्वश्रेष्ठ के चुनाव को महत्व एवं सम्मान मिलना अवश्यंभावी है। इससे प्रगति के नए द्वार खुलेंगे और क्रान्तिकारी परिणाम मिलते चले जाएँगे। विश्व समुदाय व्यवस्था के व्यक्तिवादी एवं समाजवादी सभी रूपों को देख-परख चुका है। हाँ आध्यात्मिक भावनाओं से सम्पन्न इन दोनों के एक समन्वित रूप की परख होना बाकी है। समय की स्वीकारोक्ति भी यही है।

सुविख्यात सामाजिक चिन्तक आन्द्रेत्रिदों ने अपनी पुस्तक ‘न्यू लेसन्स इन सोशल सिस्टम्स’ में इस सत्य का गहराई से विश्लेषण किया है। उनके अनुसार बुद्धि-प्रवण मानव में भावनाशीलता अंकुरित होने को है। लचीले तथा कम कट्टरवादी समाज की संरचना प्रारम्भ हो चुकी है। घरेलू तथा सामाजिक जीवन में पग-पग जटिलताओं, अनिश्चितताओं के बावजूद वहाँ कुछ नए होने की तैयारियाँ चल रही हैं। पारिवारिक, सामाजिक सम्बन्धों में तीव्रता से परिवर्तन हो रहा है।

नवीन पारिवारिक ढाँचा, नवीन तकनीकी व्यवस्था, नवीन सूचना स्त्रोत, नवीन व्यवसाय प्रणाली, सभी उदारता तथा लचीलेपन की माँग करते दिखाई देते हैं। यन्त्र की भाँति व्यक्तियों के निश्चित कार्य तथा कठोर प्रबन्धन के अंतर्गत विशाल मानव समुदाय की अपरिमित शक्तियों, योग्यताओं की न तो पहचान हो पाती है न ही उनका समुचित उपयोग एवं विकास सम्भव होता है। चमत्कारी परिणाम देने वाली असीमित कल्पनाओं, सम्भावनाओं को प्रतिबन्धित कर दिया जाता है। मनुष्य एक यन्त्र मात्र नहीं है। ईश्वर ने उसे एक ऐसा मस्तिष्क दिया है जो कठिन तक अनिश्चितताओं का सामना करके भी बड़ी से बड़ी अनबूझ पहेलियों का हल चुटकियों में निकाले में समर्थ है। ऐसे शानदार मस्तिष्क का समुचित उपयोग ऐसे-ऐसे सृजन करेगा, जो आज असम्भव तथा कल्पना से परे है।

वर्तमान सामाजिक, राजनैतिक ढाँचे में परम्परा-विरासत अथवा बाह्य शक्तियों के आधार पर थोपी गयी व्यवस्था सभी को माननी पड़ती है। ऐसी प्रबन्ध व्यवस्था को अब लोग बिना प्रश्न किए स्वीकार नहीं कर सकते। इस असहनीय स्थिति को ठुकराकर ऐसी नयी व्यवस्था का बनना स्वाभाविक हो गया है, जिसके अंतर्गत आम मनुष्य के चिन्तन, व्यवहार के आधार पर निर्णय लिए जाएंगे। सँपूर्ण व्यवस्था-तंत्र अन्तरात्मा की आवाज पर टिका रहेगा।

औद्योगिक सभ्यता द्वारा उत्पन्न पर्यावरण प्रदूषण पृथ्वी के लिए विकराल समस्या बन चुका है। मनुष्य भी उसी प्रकृति में रहता है। प्रकृति की रक्षा किए बिना मानव को विकास एवं रक्षा सम्भव नहीं। आध्यात्मिक साम्यवाद के अंतर्गत भविष्य में एक ऐसी सामाजिक भावना का विकास होगा, जो मानव को प्रगति और प्राकृतिक संरक्षण दोनों के बीच पूर्ण सामंजस्य स्थापित करेगी।

जीवन में पूर्ण शान्ति और आनन्द का समावेश करने लिए समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना जरूरी है। उपभोगवाद तथा सीमित स्वार्थ के मध्य तालमेल बिठाया जा सके, भविष्य में ऐसी व्यवस्था बनेगी। इस क्रम में सामाजिक दृष्टिकोण में मीमाँसा का सहारा लिया जाएगा। अर्थात् लिए आवश्यक होगा कि समाज किसलिए है? उसके उद्देश्य और दिशाएँ क्या है? अपने प्रत्येक चिंतन और क्रिया-कलाप का विश्लेषण करते रहने की प्रेरणा देने के लिए ही अध्यात्म की संरचना की गयी है। एक आध्यात्मिक व्यक्ति अथवा संगठन जाति, धर्म व देश की सीमाओं से ऊपर होता है। आध्यात्मिक साम्यवाद की समस्वरता को साधकर भावी विश्व स्वयमेव ही एक सूत्र में बँधता चला जाएगा।

पुरातन विज्ञान और पारस्परिक स्थापित धर्म, ब्रह्माण्ड के इतिहास और विशेषताओं तथा मनुष्य के गुणों, प्रवृत्तियों को भली प्रकार जानने में समर्थ नहीं है। इस पर विडम्बना यह है कि विज्ञान व धर्म दोनों ही एक दूसरे के कट्टर विरोधी की भूमिका में है। दोनों ही अब तक एक दूसरे की सार्थकता पर प्रहार करते आए हैं।

इस किंकर्तव्यविमूढ़ता से उबारने के लिए ब्रह्मवर्चस से प्रतिपादित वैज्ञानिक अध्यात्म की दिशा-विश्वमानस को दोनों के ही समन्वित रूप की सार्थकता समझाएगी। यहाँ हर किसी को यह जान लेना चाहिए कि ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान कोई संस्था नहीं बल्कि दिशा है। यहाँ से प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष मार्गदर्शन लेकर भविष्य में अनेकों संस्थाएँ खड़ी होंगी, अनेकों मनीषी, वैज्ञानिक स्वयं को नवसृजन के लिए सर्वतोभावेन समर्पित करेंगे और तब वैज्ञानिक अध्यात्म के अनेकों पहलुओं पर शोध का ताँता लग जाएगा। ऐसा सिलसिला चल पड़ेगा जो उपलब्धियों के अर्जन के साथ उनके उपयोग की कला भी सिखाएगा।

आध्यात्मिक साम्यवाद की व्यवस्था के अंतर्गत समाज की नैतिक एवं आध्यात्मिक जड़ों के विषय में पूर्ण-रूपेण सही जानकारी प्राप्त करने हेतु अनेकों प्रयास किए जाएँगे। इन प्रयासों के द्वारा विज्ञान द्वारा प्रदत्त जानकारियों का विरोध होने की अपेक्षा उनका भली प्रकार उपयोग एवं विकास हो सकेगा। यान्त्रिक विज्ञान अथवा वैज्ञानिक भौतिकवाद के द्वारा यह कार्य सम्भव नहीं था। ये बात बीसवीं सदी के इन अंतिम वर्षों में सभी की समझ में आ चुकी हैं और अब विज्ञान का अध्यात्म के प्रति झुकाव इक्कीसवीं सदी के आते-आते स्पष्ट होने लगा है।

उपरोक्त गुणों से युक्त समाज निश्चित रूप से मानव की उज्ज्वल भवितव्यता को साकार करेगा। इसमें रहने वाले लोगों को जीवन के प्रत्येक पहलू की पूर्ण जानकारी होगी। मनुष्य से एवं मनुष्य का प्रकृति से कैसा सम्बन्ध होना चाहिए, राजनैतिक तथा नैतिक निर्णय किस प्रकार लिए जाएँ, शहरी व्यवस्था कैसी हो, बच्चों को कैसी शिक्षा दी जाए, उद्योग-व्यवसायों का कुशल प्रबन्धन कैसे हो तथा जीवन के मौलिक सिद्धान्त तथा लक्ष्य क्या हैं? आदि सभी कुछ आध्यात्मिक साम्यवादी प्रणाली में पूरी तरह से स्पष्ट होगा। इक्कीसवीं सदी का आगमन मानव के लिए ऐसे ही बीसवीं सदी के इन बचे हुए दो-चार वर्षों में होने वाली टूट-फूट से न तो घबराना चाहिए और न ही निराश होना चाहिए। हालाँकि आगामी पाँच-छह वर्ष भारी उथल-पुथल के हैं। लेकिन यह उथल-पुथल प्रसव पीड़ा की है, जो नए समाज के जन्म का कारण बनेगी। इन वर्षों में हमें आने वाले नवयुग के स्वागत की तैयारी प्राणपण से करनी चाहिए।


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