प्रतिभा पाई नहीं कमायी जाती है।

April 1997

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आनुवंशिक कारण प्रतिभा एवं बौद्धिक क्षमताओं के लिए जिम्मेदार होते हैं, आनुवांशिकी का यह सिद्धान्त चिरकाल से मान्यता प्राप्त है। इसी आधार पर प्रतिभाओं की खेती करने-प्रखर बुद्धि सम्पन्न व्यक्तियों को जन्म देने के लिए भौतिक विज्ञान द्वारा विभिन्न प्रकार के प्रयोग-परीक्षण किए जा रहे हैं, टेस्ट ट्यूव बेबी जैसे कृत्रिम जेनेटिक इंजीनियरिंग के प्रयोगों द्वारा अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति हो सकेगी, यह सन्दिग्ध है, पर जो प्रयास वैज्ञानिकों द्वारा किए जा रहे हैं, उनके पीछे मूल प्रेरणा उपरोक्त मान्यता की हैं। पर प्रतिभाओं के अध्ययन से जो निष्कर्ष सामने आते हैं, उनसे पता चलता है आनुवांशिकी का सिद्धान्त अपने में परिपूर्ण नहीं है। एक सीमा तक उसमें सच्चाई का अंश है। प्रयास एवं पुरुषार्थ का महत्व आनुवंशिक कारणों से किसी भी प्रकार कम नहीं है, वरन्! उनसे अधिक ही है। इनका सुनियोजन भली-भाँति हो सके तो प्रचलित उस मान्यता को भी झुठलाया जा सकता है कि प्रतिभा जन्मजात प्राप्त होती है तथा पैतृक विशेषताएँ उसके लिए जिम्मेदार हैं।

प्रायः देखा यह जाता है कि जो बच्चे जन्म से ही मेधावी दिखाई पड़ते हैं, श्रम का पल्ला छोड़ बैठने पर उनकी वह विशेषता मारी जाती है। किसी भी क्षेत्र में अपने मानसिक अवसाद के कारण प्रवीणता हासिल नहीं कर पाते और प्राप्त जन्मजात प्रखरता का लाभ नहीं उठा पाते। इसके विपरीत जन्म से ही बुद्धि की दृष्टि से मन्द दिखाई पड़ते हुए भी कितने बालक अपने सतत् अध्यवसाय, प्रयत्न, पुरुषार्थ एवं मनोयोग द्वारा असाधारण प्रतिभा के धनी बन जाते हैं। यह चमत्कारिक परिणति वस्तुतः उन अनवरत प्रयत्नों की होती है, जिनका महत्व प्रायः नहीं समझा जाता अथवा समझते हुए भी जिनकी उपेक्षा की जाती है।

अपवादों की बात अलग है, अन्यथा सामान्य रूप से यह सिद्धान्त शत प्रतिशत सही है कि विशिष्ट स्तर की प्रतिभा अर्जित करने के लिए विशेष प्रकार का पुरुषार्थ करना पड़ता है। पैतृक विशेषताओं का हस्तान्तरण पीढ़ी दर पीढ़ी होता है, आनुवांशिकी का यह सिद्धान्त जितना सच है, उतना ही सत्य यह भी है कि अभीष्ट स्तर के प्रयास के बिना उन गुणों का विकास सम्भव नहीं है, जो पैतृक विरासत के रूप में जन्मजात मिलते हैं। मल्लशाला में जाए बिना-सतत् अभ्यास किए बिना कोई पहलवान कहाँ बनता है, चाहे वह जन्म से कितना ही स्वस्थ एवं नीरोग क्यों न हो। संगीत, गायन, वादन, कला, अभिनय आदि में दक्षता, विशिष्ट स्तर के अभ्यास के उपराँत ही आती है। बिना प्रयत्न एवं साधना के किसी ने इन क्षेत्रों में विशिष्टता हासिल कर ली हो, ऐसा न देखा गया और न ही सुना गया।

आगे बढ़ने, ऊँचे उठने, प्रगति करने का एक ही शाश्वत मूलमन्त्र है-प्रचण्ड पुरुषार्थ का अवलम्बन। संसार में जो जातियाँ एवं समाज समुन्नति के शिखर पर चढ़े हैं, उन्होंने इसी महामन्त्र को हृदयंगम किया, अपने व्यावहारिक जीवन का अंग बनाया। फलतः उनकी कार्यक्षमता बढ़ती तथा बुद्धि निखरती गयी। व्यक्तियों एवं जातियों दोनों ही के इतिहास इस बात के साक्षी हैं कि प्रचण्ड अध्यवसाय, कर्मठता का परिचय देकर बौद्धिक क्षमता पैनी की जा सकती तथा अवनति के गर्त से निकला जा सकता है। प्रख्यात है कि कालीदास जन्म से ही महा मूर्ख थे। पत्नी की प्रताड़ना ने उनके पुरुषार्थ को झकझोरा-प्रसुप्त आत्मविश्वास को जगाया। आत्म-विस्मृति के कूप-मण्डूक से निकलते तथा ज्ञान की अनन्य साधना का पल्ला पकड़ते ही संस्कृत के उद्भट विद्वान बन गए, उनकी कृतियाँ आज भी अनुपम, अतुलनीय तथा अमर बनी हुई हैं। विद्वान वोपदेव भी बचपन में मन्दबुद्धि है, पर अपने लगन एवं प्रयासों द्वारा उच्च कोटि के विचारक बने। उल्लेख मिलता है कि विश्वविख्यात वैज्ञानिक आइन्स्टीन बाल्यावस्था में मन्दबुद्धि थे। पर उनमें लगन, अध्ययन के प्रति अपूर्व रुचि थी। फलतः वे असाधारण प्रतिभा के धनी बने तथा भौतिक विज्ञान के आविष्कारों के क्षेत्र में वह कर गए, जिसका लोहा विश्व के मूर्धन्य भौतिकविद् भी मानते हैं। उनके सापेक्षवाद के सिद्धान्तों की यथार्थ व्याख्या-विवेचना करना कितना कठिन, कितना दुष्कर जान पड़ता है, यह भौतिक वेत्ता भली-भाँति जानते हैं।

प्रस्तुत पंक्तियों में आनुवंशिक विशेषताओं की महत्ता को नकारा नहीं जा रहा है, वरन् यह कहा जा रहा है कि व्यक्तिगत प्रयास एवं पुरुषार्थ का महत्व जन्मजात प्राप्त विशेषताओं से किसी भी प्रकार कम नहीं है। आकृति, रंग, रूप, कद आदि शारीरिक विशेषताएँ तो बहुत कुछ पैतृक गुणों के आधार पर विकसित होती हैं। पर प्रकृति को गढ़ने, बदलने एवं अभीष्ट स्तर का बनाने में मनुष्य पूर्णतया स्वतन्त्र है। एक सीमा तक ही पैतृक स्वतन्त्र है। एक सीमा तक ही पैतृक गुणों का उनमें योगदान होता है। प्रकृति के अंतर्गत आदतें, स्वभाव, संस्कार, बौद्धिक क्षमताएँ जैसे सभी व्यक्तित्व के महत्वपूर्ण घटक आ जाते हैं। उनका परिशोधन एवं विकास अपने स्वयं के बलबूते हर व्यक्ति कर सकने में पूर्णतया सक्षम है।

फिर कारण क्या है कि अधिकाँश व्यक्ति दीन-हीन बने, गयी गुजरी-स्थिति में दिन काटते हैं, मूढ़ताग्रस्त रहते तथा किसी भी क्षेत्र में प्रखरता का परिचय दे नहीं पाते? उनके लिए अपना जीवन शकट सन्तुलित रूप से खींचना भी क्योंकर कठिन पड़ता है? उत्तर स्पष्ट है-”अवसादग्रस्त रहने के कारण उनकी क्षमताएँ कठिन पड़ जाती है। बेकार पड़े रहने-उपयोग में न आने पर लोहे में जंग लग जाती है। ठीक यही हालत मानवी क्षमताओं की होती है। वे उपयोग में न आये तो अपनी विशेषताएँ खो बैठती हैं। शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक शक्तियाँ श्रमशीलता के आधार पर ही पैनी बनती हैं। निर्विवाद यह तथ्य स्वीकार करना होगा कि जिस जाति अथवा समाज में कर्मठता, तत्परता की मात्रा जितनी अधिक होगी वे उतनी ही अधिक प्रगति करेंगे। उनकी सम्पन्नता एवं बौद्धिक क्षमता दोनों ही द्रुतगति से बढ़ेंगी। इसके विपरीत मेधावी नस्ल होते हुए भी प्रमादग्रस्त हो जाने-कर्मठता का सम्बल छोड़ बैठने पर वह जाति अपनी जातीय विशेषता गवाँ बैठेगी। जातियों एवं समाज के उत्थान-पतन के इतिहास इस बात के साक्षी हैं। रोम, बेबोलियन, यूनानी, जर्मनी सभ्यता के अभ्युदय एवं अवसान की घटनाएँ अभी ताजी हैं। नाजियों को अपनी कौम पर गर्व था। अपनी नस्ल एवं रक्त को वे सर्वश्रेष्ठ मानते थे। हिटलर का ऐसा विश्वास था कि जर्मनों का रक्त में सम्मिश्रण होने से उनकी जातीय विशेषता समाप्त हो जाएगी। नस्लवाद को अतिशय महत्व एवं प्रश्रय उसने इसीलिए दिया। ऐसा ही कुछ विश्वास श्वेतों का है। फलतः रंगभेद का विकृत स्वरूप इस चरम बुद्धिवादी युग में दिखाई पड़ रहा है। पर यह सच्चाई किसी से छुपी नहीं रह गयी है कि अपनी प्रचण्ड कर्मठता का परिचय देकर पिछड़ी जातियाँ एवं समाज प्रगतिक्रम में निरन्तर आगे बढ़ते जा रहे हैं तथा उन्हें भी पीछे छोड़ते जा रहे हैं, जिन्हें अपनी नस्ल पर गर्व था।

प्रतिभा किसी बपौती नहीं वरन् पुरुषार्थ की चेरी है। वह प्रसाद बरतने पर खो सकती है और प्रयत्नों द्वारा बढ़ायी भी जा सकती है। अल्स्टर विश्वविद्यालय ने एक आश्चर्यजनक निष्कर्ष ‘डेलीमेल’ पत्रिका में प्रकाशित कराया है। रिपोर्ट संबद्ध विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान के प्रोफेसर रिचार्डलिन के शोध प्रबन्ध पर आधारित है। जिसमें उक्त प्रोफेसर ने कहा है कि जापानियों की प्रतिभा दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। विश्वभर में जापानी सबसे अधिक बुद्धिमान हैं। औसतन प्रति सौ में से एक जापानी की बुद्धिलब्धि (आई. क्यू.) 145 होती है, जबकि पश्चिम के अन्य प्रगतिशील देशों में उतनी बुद्धिलब्धि का एक मनुष्य प्रायः एक हजार मनुष्यों में से होता है। अर्थात् औसतन पश्चिम की तुलना में दस गुने अधिक प्रतिभाशाली जापान में हैं। डेलीमेल समाचार पत्र में यह भी लिखा है कि जापानी एवं अन्य एशियाई देशों के नागरिक पीढ़ी दर पीढ़ी अधिक बुद्धिमान होते जा रहे हैं और उसी अनुपात से आगे भी बढ़ रहे है। इसका कारण स्पष्ट करते हुए उन्होंने सम्भावना, व्यक्त की है कि जापानियों की कर्मठता, कार्यों के प्रति प्रगाढ़ दिलचस्पी तथा समय के सदुपयोग जैसे सद्गुणों से उनकी बौद्धिक प्रखरता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। कार्यों में तन्मयता एवं तत्परता से हस्तगत हुई प्रवीणता, दक्षता तथा मानसिक प्रखरता आनुवंशिक परतों तक को प्रभावित कर रही है, वह विशेषताएँ अपने साथ अतिरिक्त गुणों को साथ जोड़ती हुई, पीढ़ी हस्तान्तरित हो रही है।

उल्लेखनीय है कि तकनीकी क्षेत्र में जापान का लोहा संसार के सभी देश मानते हैं। रेडियो, टेलीविजन तथा इलेक्ट्रानिक्स के सभी आधुनिक सामान जितने बढ़िया, सस्ते तथा टिकाऊ जापान में बनते हैं उतने अन्यत्र नहीं। अपनी मेहनत, ईमानदारी तथा वफादारी के लिए जापानी विश्वविख्यात हैं। समय एवं श्रम को उन्होंने सबसे देवता माना है तथा उनकी उपासना से अदृश्य देवताओं के वरदान की तुलना में अधिक अनुदान पाया है।

एक ओर जापान की प्रगति की दास्तान सामने है, वहीं दूसरी ओर अपने देश की विपन्न, पिछड़ी स्थिति भी सामने है, जहाँ कि बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण बेरोजगारी दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। जो सरकारी अथवा गैरसरकारी सेवाओं में काम कर रहे हैं, उनकी कामचोरी, हड़ताल की दुष्प्रवृत्ति के कारण कितनी हानि उठानी पड़ती है, यह किसी से छुपा नहीं है। इसके कारण उत्पादन तो घटता ही है, मानसिक अवसाद के रहते धीरे-धीरे मस्तिष्क की उर्वरता भी समाप्त हो जाती है।

छुट्टियों के नाम पर समय-सम्पदा का कितना बड़ा भाग अधिकाँश कर्मचारी व्यर्थ गँवाते हैं, इसका एक रोचक आँकड़ा दिल्ली विश्वविद्यालय के ही दो अध्यापकों ने प्रस्तुत किया है। श्री ओ. पी. मित्तल तथा श्री आर. पी. मित्तल के अनुसार यदि दिल्ली विश्वविद्यालय का एक अध्यापक अपनी समस्त सुविधाओं का उपयोग करें तो वह 35 वर्ष की नौकरी में 28 वर्ष छुट्टियों में व्यतीत कर सकता है। शिक्षा ही नहीं अन्य सरकारी एवं गैरसरकारी संस्थानों में काम कर रहे कर्मचारियों की भी लगभग यही स्थिति है। हड़ताल आदि का व्यर्थ गया समय इसके अतिरिक्त है।

भौतिक समृद्धि अभीष्ट हो अथवा विशिष्ट स्तर की प्रतिभा, तो इसके लिए सर्वप्रथम उस मनोवृत्ति से छुटकारा पाना होगा जो व्यक्ति को आलस्य, प्रमाद के पाश में बाँधे रहती है, उसे चंगुल से निकलने नहीं देती।


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