जीवन की राह ऐसे बदली

April 1997

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धन बढ़ने के साथ-साथ उनकी लोभवृत्ति और कंजूसी भी बढ़ती गयी। कहाँ से लाएँ, कितना कमाएँ और कैसे बचाएँ? इन्हीं प्रश्न-चिन्हों के चक्रव्यूह में उनका मन छटपटाता रहता पण्ढरपुर के पास पुरन्दरगढ़ में उनकी महलनुमा हवेली थी। उनके पिता वरदाप्प स्वयं एक समृद्ध एवं सुप्रसिद्ध व्यक्ति थे। पिता से उन्हें विरासत में अपार सम्पत्ति मिली थी। स्वयं वह भी कुशल व्यापारी थे। विजयनगर और गोलकुण्डा के राज्यों से हीरा, मोती, माणिक्य आदि बहुमूल्य रत्नों का व्यापार करके अपनी सम्पत्ति उन्होंने अनेकों गुना बढ़ा ली थी।

लेकिन धन की मादकता भी अजब है। वह जितना अधिक उपयोग में लाया जाता है, उतनी ही उसकी प्यास भी बढ़ती है और तो और उसके पाने का मद भी कुछ कम नहीं होता। अन्य नशीले पदार्थ तो बिना उपयोग के अपना असर नहीं दिखा पाते, किन्तु धन की तो बात ही निराली है, इसके मिलते ही मस्तिष्क के सारे स्नायु उत्तेजना से भर जाते हैं और अधिक की चाह में लोभ और कंजूसी भी बढ़ती जाती है। इन दोनों के प्रभाव से उदारता,दया, क्षमा आदि सद्गुणों का प्रायः लोप होने लगता है। उनके साथ भी कुछ ऐसा ही होने लगा। धन के ढेर के बढ़ने के साथ ही उनकी कृपणता भी बढ़ती गयी। एक पैसा भी किसी को देना उनके लिए प्राण देने से भी अधिक कष्टदायी हो गया। माँगने वाला उन्हें अपना शत्रु ही दिखाई पड़ता था।

परन्तु प्रकृति विकासधर्मी है। उसकी स्वाभाविक वृत्ति विकृति नहीं संस्कृति है। जीवन में विकृतियाँ आती अवश्य हैं, परन्तु वे स्वाभाविक नहीं हैं। सच तो यह है कि हम जब विकास को नकारते हैं, तभी विकृतियों से भर जाते हैं। प्रकृति तो हर-हमेशा घटनाओं-परिस्थितियों-व्यक्तियों का समायोजन विकृतियों के निवारण एवं संस्कृति को संवर्धित करने के लिए करती रहती है। उस दिन उनके साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। उनको इस कृपणता के कीचड़ से निकालने के लिए दयामय प्रभु स्वयं एक गरीब ब्राह्मण का वेश बनाकर एक दिन उनके यहाँ पहुँचे और बड़े ही विनम्र भाव से प्रार्थना की-ग्रामीणों के अपढ़ बच्चों को शिक्षित, संस्कारित करने के लिए मैं पाठशाला खोजना चाहता हूँ। आप सम्पन्न हैं। मेरी कुछ सहायता करें।

उन्होंने अपनी जान छुड़ाने के लिए कहा-आज तो भारी व्यस्तता है आप कल आइए। उन्हें क्या पता था कि यह ब्राह्मण कल सचमुच आ जाएगा। किन्तु जब वह दूसरे दिन फिर आ धमका तो उन्होंने उसे फिर से कल आने को कहा। इस प्रकार छह महीने बीत गए। वे रोज उसे कल आने को कहते और वह कल फिर आ जाता। आखिर एक दिन उन्हें उस पर क्रोध आ गया। इसी गुस्से में झल्लाकर उन्होंने एक दिन खोटे सिक्कों से भरी थैलियाँ उसके सामने पटक दीं और कहने लगे, इन थैलियों में जो तुम्हें पसन्द आए उसमें से एक सिक्का निकाल लो और दफा हो जाओ। ब्राह्मण ने थोड़ी देर अचरज से उनकी ओर देखा और थैलियों को बिना छुए ही वे चले गए।

वहाँ से ब्राह्मण देवता उनके घर जा पहुँचे। उनकी पत्नी से अपने उद्देश्य को बताते हुए सहायता की माँग की पत्नी उदार स्वभाव की थी। पति की अतिशय कंजूसी एवं लोभवृत्ति से उसे दुःख होता था। भगवान में उसका विश्वास था और परिव्राजकों, लोकसेवियों के प्रति उसकी भक्ति थी। परन्तु पतिदेव इतने कंजूस थे कि पत्नी के हाथ में एक पैसा भी नहीं रहने देते थे। लोकसेवी ब्राह्मण को उसने अपने पिता से प्राप्त नकफूल ही श्रीकृष्णपर्णमस्तु कहकर दे दिया।

उन्होंने तो समझा था कि दरिद्र ब्राह्मण से पिण्ड छूटा पर वह ब्राह्मण नकफूल देकर चार सौ मुहरें माँगने लगा। पत्नी का आभूषण पहचान कर उसे अपनी पत्नी पर बड़ा क्रोध आया। जिस ब्राह्मण ने उन्हें छह महीनों तक तंग किया, जिसे वे लगातार बहानेबाजी करके टरकाते रहे, उसे इतना कीमती आभूषण उसी के घर से मिल जाए, यह कोई साधारण बात न थी। किसी तरह गुस्सा दबाते हुए उन्होंने उसे यह कहकर विदा कर दिया-इसे मेरे पास रहने दीजिए, कलम आपको मुहरें दे दूँगा।

ब्राह्मण चले जाने पर आभूषण को तिजोरी में बन्द करके वे सीधे भागते हुए घर आए। तेजी से आने के कारण उनकी साँस फूल रही थी। अपने भावों को छुपाते हुए उन्होंने स्त्री से पूछा-तुम्हारा नकफूल कहाँ है, जिसे तुम सुबह तक पहने थीं। बेचारी स्त्री उसे क्या उत्तर देती? पति के क्रोधी स्वभाव को वह जानती थीं उसे चुप देखकर वह गरज उठे-अभी जाकर नकफूल दे नहीं तो जीते-जी तुझे पृथ्वी में गाड़ दूँगा।

अब स्त्री बेचारी क्या करे? आभूषण तो वह दान कर चुकी थी और पति से सच्ची बात कह नहीं सकती थी। भय के कारण रखा है और भागी’-भागी भीतर चली गयी। आत्महत्या कर लेने के अलावा उसे कोई दूसरा मार्ग नहीं सूझा। एक कटोरी में विष घोलकर उसने भगवान से प्रार्थना की-दयामय! मैंने तुम्हारी प्रसन्नता के लिए आभूषण ब्राह्मण को दिया था। प्रभु! मुझे जीवन का मोह नहीं है, जीवन जाता है तो जाए। हे अन्तर्यामिन! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हों तो मेरे पतिदेव की बुद्धि शुद्ध कर दो। अब से वे लोकसेवियों का सम्मान करें, उन्हें लोकहित के लिए दान दें और तुम्हारा स्मरण करें। मुझे मृत्यु का किंचित मात्र भी भय नहीं है। मैं तुम्हारे श्री चरणों में आ रही हूँ।

प्रार्थना करके जैसे ही उसने कटोरी मुख की ओर बढ़ाई, कोई वस्तु टप से उसमें आ गिरी। गिरने की आवाज से चौंक कर उसने देखा यह तो उसी का नकफूल है। बन्द कमरे में जहाँ एक पक्षी तक नहीं आ सकता, वहाँ नकफूल कहाँ से आ गिरा? भगवान की इस अलौकिक कृपा पर उसकी आँखें भर आयीं। भूमि पर मस्तक रखकर उसने प्रभु को प्रणाम किया।

इधर उसके पति खड़े-खड़े सोच रहे थे कि नकफूल तो वे दुकान की तिजोरी में बन्द करके आए हैं और चाभी भी उन्हें के पास है। स्त्री को डाँटने-फटकारने पर वे चिन्ता में थे कि सबेरे जब ब्राह्मण मुहरें लेने आएगा, तब उसे क्या उत्तर देना होगा? इतने में उनकी पत्नी ने नकफूल लाकर उनके हाथ पर रख दिया। थोड़ी देर पहले तिजोरी में बन्द किया गया आभूषण हाथ में रखा देखकर उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। नकफूल लेकर वे बिना कुछ कहे शीघ्रता से दुकान पर गए। वहाँ तिजोरी ठीक बन्द मिली। पर खोलने पर देखा कि आभूषण उसमें नहीं है। इस चमत्कार को देखकर उनके हृदय को धक्का लगा। उनकी बुद्धि का अँधेरा छट गया। मस्तक झुकाए वे घर आए और नकफूल पत्नी को देते हुए बड़ी गम्भीरता से बोले-लक्ष्मी! सच-सच बताओ कि क्या बात है। मैं आश्चर्य में पड़ गया हूँ। तुमने जिसे नकफूल दिया था, वे ब्राह्मण कौन हैं? तुम्हें यह फिर कैसे मिला?

पति के बदले भाव और कातर स्वर को सुनकर लक्ष्मी देवी ने सारी बातें सच-सच बता दीं। सारी बातें सुनकर उनकी आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे। वे हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगे-प्रभु! आपने मुझ अधम से लोकसेवी ब्राह्मण के रूप में याचना की और मैं आपको टालता रहा। मेरे लोभ, मेरे पाप न देखकर आपने मेरी पत्नी के प्राण बचाए। बड़ी देर तक वे जड़ की भाँति खड़े-खड़े पत्नी की ओर एकटक देखते रहे। इसके बाद उन्होंने उसी समय स्नान किया और पत्नी के साथ भगवान की पूजा की।

पूजा के पश्चात् वे खड़े ही हुए थे कि द्वार पर आहट हुई। मुड़कर देखने पर पता चला यति श्रेष्ठ स्वामी व्यासराय जी द्वार पर खड़े हैं। पति’-पत्नी दोनों उन्हें आदर-सत्कार से घर के अन्दर लाए। दिव्य-दृष्टा व्यासराय उन दोनों की भावनाओं से अवगत थे। वे उनको भावनाओं से अवगत थे। वे उनको सम्बोधित करते हुए बोले-श्रीनिवास! धन अमृत है और जहर भी। यदि श्रेष्ठ रीति से इसका अर्जन किया जाए, सत्प्रवृत्ति-सम्वर्धन एवं लोकहित के इसका व्यय हो, तो यह अमृत है। इससे व्यक्ति और समाज साजीवन पाता है। इसके विपरीत यदि लूट-खसोट, छल, बेईमानी से धन इकट्ठा किया जाए, वैभव के प्रदर्शन अथवा विलासिता के लिए इसका उपयोग हो अथवा फिर कृपण व्यक्ति इसका उपयोग ही न करे, तो यह विष है। इससे जहरीली भावनाएं ही पनपती हैं।

समझ गया यतीश्वर। श्रीनिवास एवं लक्ष्मी ने उन्हें माथा नवाते हुए कहा। दूसरे दिन उन्होंने अपना सारा धन गुरुकुल, चिकित्सालयों के लिए अर्पित कर दिया। लोकहितार्थ सारा धन अर्पित करके वे दोनों पति-पत्नी जन-जीवन में धार्मिक भावनाओं के प्रचार-प्रसार के लिए व्रती हो गए। सर्वथा अपरिग्रही होकर वे पण्ढरपुर पहुंचे। नाम कीर्तन-भगवद् कथा के माध्यम से वे जीवन जीने की कला का प्रशिक्षण देने लगे।

अपरिग्रह उनका व्रत बन गया। वे कहा करते थे-धन संग्रह एवं सुविधा संग्रह का मतलब है, स्वयं पर अविश्वास, भगवान पर अविश्वास एवं समाज पर अविश्वास। इन तीनों में से जिसको एक पर भी भरोसा है, तो वह संग्रह नहीं कर सकता। यदि उसे खुद पर भरोसा है, तो वह अर्जित धन को लोकहित में यह सोचते हुए व्यय करेगा, कि आवश्यकता पड़ने पर फिर कमा लेंगे। यदि प्रभु पर विश्वास है, तो उसका सतत् चिन्तन होगा, दयामय प्रभु। लोकहित में लगे मुझ सेवक का येगक्षेम वहन करेंगे और यदि समाज पर भरोसा है, तो अपनी उपार्जित सम्पत्ति को यह सोचते हुए व्यय करेगा, जिस समाज की सेवा में संलग्न हूँ, वह हमारे जीवन निर्वाह की व्यवस्था अवश्य करेगा। जिसे इन तीनों पर एक साथ भरोसा हो उसका कहना ही क्या?

धर्मतन्त्र से लोकशिक्षण के कार्य में इन्हें बड़े-बड़े कष्ट झेलने पड़े। थोड़े दिन पण्ढरपुर रहकर वे विजयनगर चले गए। वहाँ के नरेश श्री कृष्णदेव राय रत्नों के व्यापारी श्रीनिवास से पहले से परिचित थे। अब उन्हें भक्त के रूप में देखकर राजा को आश्चर्य भी हुआ और श्रद्धा भी। यदि श्रेष्ठ व्यासराय जी भी उन दिनों विजयनगर में ही रहते थे। महाराज कृष्णदेव भी इन्हीं के शिष्य थे।

स्वामी जी ने इन्हें भी अपना शिष्य बताया। गुरु ने इन्हें भी अपना शिष्य बताया। गुरु ने उनका नाम पुरन्दरदास रखा। अब तक लोगों ने उनका वैभव सम्पन्न जीवन देखा था। आज उनके अकिंचन जीवन देखकर हर किसी का मन उनके प्रति गहरी श्रद्धा एवं सम्मान से भर गया।

पुरन्दरदास जी में इतनी प्रगाढ़ भगवद्भक्ति थी कि इनके गुरुदेव व्यासराय जी ने स्वयं इनकी महिमा का गान किया था। साधना, स्वाध्याय, संयम, सेवा, आत्मजाग्रति के चारों आधार इनमें सम्यक् रूप से प्रतिष्ठित हुए थे। गुरुदेव ने इन्हें जनमानस के परिष्कार के लिए प्रेरित करते हुए कहा, यही सबसे श्रेष्ठ लोकसेवा है। यदि चिन्तन परिष्कृत होगा, तो कर्म भी सात्त्विक ही होंगे। गुरुकृपा से इनमें कवित्व शक्ति जाग्रत होंगे। गुरुकृपा से इनमें कवित्व शक्ति जाग्रत हुई थी। इनके पदों में लोकशिक्षा, वैराग्य, तत्वज्ञान और भगवद्भक्ति के गम्भीर भाव हैं। कर्नाटक संगीत के ये उद्धारक कहे जाते हैं। इनके कीर्तन के पद दक्षिण भारत में आज भी प्रिय हैं। कहा जाता है कि इन्होंने पौने पाँच लाख श्लोक बनाए थे।

लगभग चालीस वर्षों तक वे प्रव्रज्या करते हुए जन-जीवन में भाव-संवेदना एवं विचारशीलता का संचार करते रहे। अस्सी वर्ष की अवस्था में सं’.1562 विक्रमाब्द में वे भगवद्धाम पधारे। उनकी शिक्षा, उनके पद, उनके ग्रन्थ लोक-मंगलकारी हैं। कन्नड़ भाषा में उनका साहित्य भक्तों का प्रिय धन है। एक स्थान पर वे कहते हैं’-”इस संसार में प्रभु ही अनेक रूपों में लीला कर रहे हैं। उनके किसी भी रूप के प्रति न तो घृणा का भाव रखो, नहीं उपेक्षा का। न मालूम वे भक्तवत्सल किस रूप में कब तुम्हारी परीक्षा करना चाहते हैं। न जाने कब वे तुम्हारी परीक्षा सेवा लेना चाहते हों।”


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