धर्म का सही स्वरूप समझें, उसकी रक्षा करें

April 1997

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धर्म क्या? जीवन में इसे धारण करने का क्या उपाय हो सकता है, क्या किसी मत में दीक्षित हो जाना ही धार्मिक बनने की पहचान है? आये दिन इस प्रकार के प्रश्न उठते ही रहते हैं, जिन पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाना चाहिए। यों तो धर्म को इन दिनों मत-मतान्तरों से जोड़ दिया गया है; पर सच्चाई यह है कि वह बाहर की वस्तु नहीं, भीतर का विकास है। उसे समाज में नहीं, व्यक्ति के अन्तराल में ढूँढ़ा जाना चाहिए। जो बाहर है, वह तो रास्ता भर है। उसके सहारे मंजिल तक पहुँचना पड़ता है। आज मंजिल की उपेक्षा कर मार्ग को सर्वोपरि मान लिया गया, फलतः वह दिवास्वप्न बनकर रह गया है। राह की सुरम्यता में जब तक हम खोते रहेंगे, तब तक ऐसा ही होता रहेगा और वास्तविक लक्ष्य से हम दूर बने रहेंगे, जयशंकर प्रसाद के शब्दों में कहें, तो यही कहना पड़ेगा-

इस पथ का उद्देश्य नहीं है श्रान्ति-भवन में टिक रहना, किन्तु पहुँचना उस सीमा तक जिसके आगे राह नहीं।

यह राहहीन स्थिति वास्तव में उपलब्धि की ही अवस्था है। इसी के साथ मानवी अन्तःकरण में यथार्थ धर्म का उदय होता है। अतः यह कहना ठीक ही है कि धर्म व्यक्ति और समष्टि के बीच के तादात्म्य की फलश्रुति है, जबकि व्यक्ति और समाज के मध्य का संबंध सम्प्रदाय कहलाता है। धर्म और सम्प्रदायवाद में उतना ही अन्तर है, जितना जीवित और मृत में । जहाँ धर्म होगा, वहाँ सर्वत्र सुगंधि बिखरती रहेगी, जहाँ सम्प्रदायवाद होगा, वहाँ सड़न और दुर्गन्ध होगी। मृत काया से और क्या आशा की जा सकती है? वहाँ तो मनः-स्थिति बिगाड़ने वाली, अरुचि, उबकाई, घृणा-यही सब पनपेंगी। प्रफुल्लता-प्रसन्नता, करुणा-उदारता, सेवा-सहकारिता-यह तो जीवन की सहचरी और चैतन्यता की लक्षण हैं। अतः परम चैतन्य होना और धार्मिक होना और धार्मिक बनना-दोनों एक ही बात है। यह तभी संभव है, जब अवतरित हो। इससे कम में धर्म का विकास शक्य नहीं। यह न तो उपदेश है, न शास्त्र-ज्ञान वरन् इसको स्वयं में जीना और व्यवहार में उतारना पड़ता है। उपदेश और शास्त्रवचन तो इसे उद्बुद्ध करने के उपाय मात्र हैं। अस्तु, केवल उपदेशक और शास्त्रज्ञ होने के कारण ही किसी को धार्मिक नहीं कहा जा सकता। उसे विद्वान तो कह सकते हैं, पर ज्ञानवान नहीं-उसको तथ्यान्वेषी तो कहा जा सकता है, पर तत्वदर्शी नहीं और जो तत्वज्ञ नहीं, वह भला धर्मज्ञ कैसे हो सकता है?

इन दिनों की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि हम कलेवर को आत्मा मान बैठे हैं। जब काया आत्मा का स्थान ग्रहण कर ले, तो वैसी ही विसंगतियाँ धर्मक्षेत्र में पैदा होने लगती हैं, जैसी इन दिनों दृष्टिगोचर हो रही हैं। तब सम्प्रदाय ही धर्म कहलाने लगता है और इसके अनुयायी धार्मिक। जहाँ उल्टी गंगा बहेगी, वहाँ उल्टा क्रम भी चल पड़ेगा। फिर शान्ति नहीं, अस्थिरता का साम्राज्य होगा। वहाँ करुणा नहीं, कटुता दिखलाई देगी। पुण्य के स्थान पाप लेने लगेंगे। दया की जगह नृशंसता का बोलबाला होगा। प्रेम ईर्ष्या में परिवर्तित हो जाएँगे। सहयोग वृत्ति असहयोग जन्य बनने लगेगी। उदारता की जगह लोग संकीर्णता अपनाते देखे जाएँगे। परोपकार भाव तिरोहित हो जाएगा। दूसरों की सेवा की जगह लोग अपनी सेवा कराते दृष्टिगोचर होंगे। इच्छा-आकाँशा, आस्था, मान्यता, भावना, संवेदना, श्रद्धा-निष्ठा का सम्पूर्ण क्षेत्र इस मध्य इतना विकारग्रस्त हो जाता है कि कुछ अच्छा सोचते और अच्छा करते बन ही नहीं पड़ता। परिणाम यह होता है कि वातावरण बनने की बजाय बिगड़ने लगता है और जो केन्द्र धर्म-धारणा संचारित करने के लिए बनाये गये थे, वे कलह-कटुता के निमित्त बनने लगते हैं। धर्म-धारणा पीछे छूट जाती है और वहाँ से सम्प्रदायवाद का पृष्ठ पोषण होने लगता है, यह आज की स्थिति का विश्लेषण हुआ।

धर्म और सम्प्रदाय में यदि कोई अन्तर है, तो उसे उतना ही विशाल होना चाहिए, जितना कि आकाश और पाताल, कारण कि धर्म हमें उच्चादर्शों के प्रति श्रद्धावान बनाता है और इस बात की प्रेरणा देता है कि हमारा अन्तस्तल अहंकारपूर्ण नहीं, अहंशून्य होना चाहिए। जहाँ अहमन्यता होगी, विवाद और विग्रह वहीं पैदा होंगे। जहाँ सरलता होगी, वहाँ सात्विकता पनपेगी। सरल और सात्विक होना दैवी विभूतियाँ हैं। जो इन्हें जितने अंशों में धारण करता है, उनके बारे में यह कहा जा सकता है, कि वे उस अनुपात में धार्मिक हैं। इसलिए यह कहना अत्युक्तिपूर्ण न होगा कि धर्म हमें देवत्व की ओर ले चलता है, जबकि सम्प्रदाय अधोगामी बनाता है। कट्टरवाद, उग्रवाद-यह सभी सम्प्रदायवाद की देन हैं। साम्प्रदायिक होने का अर्थ है-कूपमण्डूक होना, अपने वर्ग एवं समूह की ही चिन्ता करना। अपने वर्ग एवं समूह की ही चिन्ता करना। इसके विपरीत धर्म हमें अधिक उदार बनाता तथा आत्मविस्तार का उपदेश देता है। ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ एवं ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’- यह इसी की शिक्षा है। इसलिए संसार में जितने धार्मिक पुरुष हुए हैं, वे किसी एक वर्ग अथवा समुदाय तक ही सीमाबद्ध होकर नहीं रह गये, कितने ही अन्य मतावलम्बियों को भी उनने ऊँचा उठाया और आगे बढ़ाया। सन्त कबीर यों जाति से मुस्लिम थे; पर उनके अनुगत शिष्यों में हिन्दू भी कोई कम नहीं थे, स्वयं उनके गुरु भी हिन्दू थे। मृत्यु के उपरान्त कबीर की अन्तिम क्रिया दोनों समुदायों ने अपनी-अपनी रीति से सम्पन्न की। बुद्ध भारतीय थे। उनने जिस मतवाद की शुरुआत की, तत्कालीन समय में उसे मानने वाले विश्व के अनेक देश और अगणित जातियाँ थीं। सबने भगवान बुद्ध का शिष्यत्व ग्रहण किया या यों कहें कि तथागत ने देश और जाति से ऊपर उठकर सभी को अपनाया था, बात एक ही होगी। यह सिर्फ कबीर और बुद्ध की बात नहीं, वरन् जितने भी धार्मिक पुरुष हुए हैं, सबने ऐसा ही किया। यह धर्म की विशेषता है।

सम्प्रदाय असहिष्णु होता है। वह उन्माद भड़काता और आतंक फैलाता है। जाति, भाषा, लिंग, क्षेत्र आदि के आधार पर विभेद करना-यह सम्प्रदाय का काम हैं। धर्म तो ईश्वर की तरह समद्रष्टा है। वह कहता है कि परमात्मा हम सबका रक्षक है। सम्प्रदाय का कहना है कि हम सबको परमात्मा की रक्षा करनी चाहिए। कहीं कोई शूद्र मन्दिर के ईश-विग्रह को अपवित्र न कर दे, कोई काफिर मस्जिद में न घुसे, किसी तनखैये का गुरुद्वारे में क्या काम! बस इसी ऊहापोह में अपना सम्पूर्ण जीवन बर्बाद कर लेते हैं। इसकी तुलना में यदि अपने अन्तःकरण के असंबंध में इस बात का ध्यान रखा जाय कि वहाँ किसी शूद्र तत्व का प्रवेश न हो, कोई नास्तिक उस क्षेत्र को श्रद्धाहीन न बना सके, तो सही अर्थों में हम अपनी आत्मा की, आत्मदेव की रक्षा कर सकेंगे। यदि ऐसा हो सका, तो यह सुनिश्चित है कि उक्त अन्तःकरण में उस दिव्य ज्योति का अवतरण होगा, जिसके कारण आत्मा धर्मात्मा और अन्ततः परमात्मा बनती है।

वास्तव में मन्दिर-मस्जिद के निर्माण क्यों किये जाते हैं? इसलिए कि कर सकें, भावश्रद्धा अभिव्यक्त करें और सिजदा कर सकें। धर्मतत्व के विकास के यह बाह्य उपचार हो सकते हैं, पर देखा यह जाता है कि नित्य नये-नये उपासना गृहों के सृजन के बाद भी सच्चे धार्मिक इक्के-दुक्के ही पैदा हो पाते हैं। अधिकाँश तो उन्हीं के झमेले में उलझ कर रह जाते हैं और निर्माण के पीछे का उद्देश्य ज्यों-का -त्यों धरा रह जाता है, इसका निराकरण एक ही प्रकार से हो सकता है कि मन्दिर-मस्जिद धरित्री पर ईंट-गारे के नहीं, हृदय-भूमि में भाव-संवेदनाओं के उपादान से विनिर्मित हो सकें और उनमें आस्था तथा श्रद्धा की देवी की प्रतिष्ठापना की जा सके। यथार्थ धर्म तभी विकसित हो सकेगा और ऐसे ही लोग वस्तुतः सच्चे धर्मप्राण कहला सकेंगे।

शास्त्र वचन है-

उत्तमो ब्रह्मसद्भावो ध्यानभावस्तु मध्यमः। स्तुतिर्जपाऽधमो भावो बहिः पूजाऽधमाधमा॥

अर्थात् बाह्माजा यह मूर्तिपूजा सबसे नीचे की अवस्था है। आगे बढ़ने, ऊँचा उठने का प्रयास करते समय मानसिक प्रार्थना साधना की दूसरी अवस्था है। सबसे उच्च अवस्था वह है, जब परमेश्वर का साक्षात्कार हो जाय।

उक्त कथन से भी यही विदित होता है कि मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर और गुरुद्वारे यह धर्मतत्व की उपलब्धि की दिशा में सबसे निचले सोपान हैं। जिस प्रकार बालक को चलना सिखाने के लिए तिपहिये गाड़ी का सहयोग देना पड़ता है, उसी स्तर की भूमिका उपासनागृह धर्मलाभ के इच्छुकों के लिए पूरी करते हैं। इससे आगे की प्रगति के लिए हमें दृढ़ इच्छाशक्ति पैदा करनी पड़ेगी और पुरुषार्थ करना पड़ेगा। यह असंभव भी नहीं, कारण कि धर्म के नाम पर संसार ने खून की जो नदियाँ बहायीं, मानव-हृदय की और किसी प्रेरणा ने वैसा नहीं किया। धर्म के नाम पर मनुष्यों ने जितने चिकित्सालय, धर्मशाला, अन्न-क्षेत्र, कुआँ, तालाब, स्कूल बनाये उतने और किसी प्रेरणा से नहीं। मनुष्य-हृदय की और कोई वृत्ति उसे सेवा कार्य के लिए प्रेरित नहीं कर पाती। धर्म के नाम पर आदमी जितना निष्ठुर हुआ है, वैसी निष्ठुरता पैदा करने की शक्ति और किसी में नहीं। ऐसे ही वास्तविक धर्म भावना व्यक्ति को जितना अधिक कोमल, सरल और निर्मल, निष्पाप बनाती है, उस क्षमता का अन्यत्र अभाव निकलता है कि सत्य का यदि सही-सही पल्ला थाम कर आगे बढ़ा जाय, तो इसमें इतना बल है कि वह हमें धर्म-लाभ कराकर ही छोड़ेगा। धर्म-लाभ एक ही सत्य के दो नाम हैं, कोई पृथक्-पृथक् वस्तु नहीं।

मनीषी का कथन है-”धर्म एवं हतो हन्ति धर्मों रक्षति रक्षतः” अर्थात् मरा हुआ धर्म मार डालता है, रक्षा किया हुआ धर्म रक्षा करता है। वर्तमान सामाजिक परिस्थिति को इस सत्य के प्रमाण रूप में देखा जा सकता है। इसमें दो मत नहीं कि आज राष्ट्र की जो दुर्गति हुई है, उसमें तथाकथित धर्म का भी बड़ा हाथ है। धर्म को खतरा अधर्म से नहीं, नकली धर्म से होता है। अधर्म तो प्रत्यक्ष है, उसमें दुराव-छुपाव जैसी कोई बात तो होती नहीं, अतः वहाँ सावधान और सतर्क होने के लिए काफी समय मिल जाता है, फलतः इसमें काफी समय मिल जाता है, फलतः इसमें उतनी हानि की सम्भावना नहीं रहती। खतरनाक वे हैं, जो धर्म की आड़ लेकर काम करते हैं, जो धर्म की आड़ लेकर काम करते हैं। कारण कि वहाँ असली आवरण में नकली व्यक्ति होता है। कोई अभिन्न मित्र यदि धोखा दे दे, तो क्षति की वहाँ अपार सम्भावना होती है; क्योंकि सखा होने के नाते सामने वाला उस पर आँख मूँद कर विश्वास करता है। यह प्रवंचना यदि दो कम परिचित व्यक्तियों के बीच हो, तो ठगने वाला अपनी चाल में पूरी तरह सफल नहीं हो पाता। कारण स्पष्ट है। धूर्त की लच्छेदार बातों में आकर व्यक्ति उस पर विश्वास तो कर लेता है, पर साथ ही एक प्रच्छन्न अविश्वास भी बनाये रखता है, इसलिए धोखा-धड़ी का मौका आने पर काफी हद तक वह अपने आप को बचा लेता है। अर्थशास्त्र की यह मान्य धारणा है कि असली सिक्कों को चलन से बाहर करने की सामर्थ्य केवल नकली सिक्कों में है। इसलिए जब नकली सिक्के बाजार में होते हैं, तो असली तिजोरियों में बन्द हो जाते हैं और नकली चलने लगते हैं।

धर्मक्षेत्र में यहीं हुआ। फलस्वरूप समाज की उन्नति की जगह उसका नैतिक अवमूल्यन होता चला गया, व्यक्ति दुर्गतिग्रस्त बन गये, न मन में संतोष, न जीवन में शान्ति, जिन्दगी नर्क तुल्य हो गई। इससे बचने का तरीका क्या है? ऋषि इसका भी उपाय बताते हैं-”तस्माद् धर्मों न हन्तव्यो मा नो हन्तव्यो मा नो धर्मों हतो वधीत्”। अर्थात् धर्म को नहीं मारना चाहिए, जिससे मरा हुआ धर्म हमको न मार सके। ऐसा तभी हो सकता है, जब हमारी अन्तरात्मा परमात्मा की अंशधर होने की बात हृदयंगम कर सके और उसकी गरिमा के अनुरूप क्रिया-कलाप अपनाये। इसी स्थिति में धर्म को जिया जा सकता है और धार्मिक बनने की राह पर चलते हुए अन्ततः उसकी उपलब्धि की जा सकती है।


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