भावभरी पुकार को सुनता है भगवान

April 1997

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परिस्थितियों के प्रबल थपेड़े, समय के विकट झंझावात अक्सर इन्सानी पुरुषार्थ को चकनाचूर कर देते हैं। उसके अरमानों का घोंसला तिनके-तिनके होकर हवा में बिखर जाता है। ऐसे में थका-टूटा-निराश जीवन सहारा ढूँढ़ता है। लेकिन दुनिया तो उसका साथ देती है, जो सफलता के शिखर पर विराजमान है। दीन-दयनीय तो इस संसार में प्रायः दुत्कारे और ठुकराए ही जाते हैं। उन्हें तो परम प्रेमास्पद प्रभु ही अपनाते हैं। एक नारायण ही हैं जो अपने चिरआत्मीय सखा नर के प्रति पल-पल अपना प्यार उँड़ेलते रहते हैं। उसके हृदय से पुकार उठते ही वे दौड़ पड़ते हैं। उनकी अपरिमित शक्ति जीवन के अंधेरों को छिन्न-भिन्न करने में जुट जाती है। लेकिन ऐसा होता तभी है जब हम भावनाओं की गहराई से पुकारें। यह भाव-भरी पुकार ही प्रार्थना है।

गज-ग्राह की कहानियाँ, द्रौपदी की आर्त पुकार की बातें हम बचपन से कहते-सुनते आए है। हमारी आस्था, श्रद्धा एवं विश्वास का ये आधार भी रही हैं। लेकिन इनमें कोई वैज्ञानिकता है, इस ओर हमारा ध्यान कम ही गया है। बुद्धिपरायण पश्चिमी दुनिया ने अभी कुछ दिनों पहले प्रार्थना के वैज्ञानिक पहलुओं पर ढूँढ़-खोज की गहरी कोशिश की है। प्रार्थना से होने वाले चमत्कारी परिवर्तनों का बारीकी से विश्लेषण किया है। इन्हीं में से एक है। राबर्ट. ए. शुल्लर, जिन्होंने अपनी पुस्तक ‘द वर्ल्डज ग्रेटेस्ट कम वेकर्स’ में इसमें निहित सत्य को कई उदाहरणों के माध्यम से प्रतिपादित जार्ज कार्बर का है, जो दक्षिण अमेरिका में मिसौरी के ग्रामीण अंचल में एक गुलाम नीग्रो परिवार में जन्मे। बचपन से ही माँ-बाप का साया उनके सिर से उठ गया था। दक्षिण अमेरिका में चल रहे गृह-युद्ध के दिनों में एक नीग्रो गुलाम बालक के उत्कर्ष की कोई सम्भावना न थी। लेकिन प्रार्थना असम्भव को सम्भव करती है। यह पंक्ति उसके हृदय में विद्युत रेखा की तरह रह-रह कर कौंध उठती थी। अश्वेत समुदाय दुःख-दर्द भी उसके हृदय को कचोट रहा था। उनके उत्थान का अदम्य संकल्प बाल-हृदय में उभर आया। उसने सोचा भले ही हमारे हाथों में जरा-सी ताकत हो, लेकिन हमारे परम प्रेमी प्रभु तो सर्वसमर्थ हैं। उसने कहीं से हेनरी डेविड थोरी की एक उक्ति सुन रखी थी कि यदि कोई लोकहित की दिशा में दृढ़ता से अग्रसर होता है व आदर्शवादी जीवन को जीने का साहस करता है, तो उसे देर-सबेर अप्रत्याशित सफलता अवश्य मिलता है। क्योंकि हर अच्छे काम के प्रेरक स्वयं परमात्मा हैं और उनकी शक्ति श्रेष्ठ कार्यों में सतत् क्रियाशील रहती है।

बालक कार्बर को दृढ़ विश्वास था कि अश्वेत का उत्थान होगा। असहाय, उपेक्षित एवं अशिक्षित बालक अपनी भगवत्प्रार्थना के बल-बूते अपने आदर्शों को रूप देने में जुट गया। गरीबी, अपने ही लोगों द्वारा उपेक्षा, उपहास एवं समाज द्वारा तिरस्कार के बावजूद कार्बर ने ओवा स्टेट के कृषि कालेज से डिग्री हासिल कर ली और अलवामा के स्केगी इन्स्टीट्यूट में नौकरी करने लगा। वनस्पति विज्ञान के प्रोफेसर के रूप में उनकी ख्याति दिनों दिन बढ़ने लगी। समस्या के समान के नए-नए तरीकों को खोज निकालने में उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक जा पहुँची। अपनी प्रयोगशाला को उन्होंने ‘प्रभु की लघु कार्यशाला’ नाम दिया। यहाँ वे घण्टों कृषि सम्बन्धी प्रयोग करते। मकसद एक ही था-संघर्षरत अश्वेत किसानों की मदद करना था। एक बड़ी समस्या थी कपास की खेती का विकल्प तैयार करना, जिससे भूमि नवीकृत हो सके। साथ ही कपास को नुकसान पहुँचाने वाले कीट से भी राहत मिल सके।

समस्या के समाधान के लिए वे अपनी प्रयोगशाला गए और भावों की गहराइयों में उन्होंने प्रभु से समाधान सुझाने के लिए प्रार्थना की। प्रार्थना के क्षणों में उन्हें मूँगफली की खेती का सुझाव मिला। साथ ही मूँगफली के अलग-अलग तकरीबन तीन सौ उत्पाद उनकी अंतःदृष्टि में चमकने लग। इन्हें तैयार करने के संकेत भी उभरे। प्रार्थना के क्षणों पाए इस समाधान के बारे में जब उन्होंने किसानों से बात की, तो उन्होंने साफ इन्कार कर दिया। क्योंकि उनमें से कोई इसके सीमित उपयोग के कारण स्वीकार करने के लिए तैयार ही न था। लेकिन जब उन्होंने इसके अलग-अलग तीन सौ उत्पादों की चर्चा की और प्रयोगशाला में तैयार किए गए इसके नमूनों को दिखाया तो सबके सब हैरान रह गए।

इतनी शीघ्र और इतनी सारी चीजों की खोज-पूरा देश चमत्कृत हो उठा। पर वे शान्त मन से प्रभु कृपा के समक्ष नत-मस्तक थे। उन्हें ईसा की वह वाणी याद थी कि प्रभु कृपा हो तो एक लम्बा-तगड़ा ऊँट भी सुई के छेद से गुजर सकता है। उन्हें गोरे लोगों की काँग्रेस कमेटी में अपने उत्पादों को सिद्ध करने का आमन्त्रण मिला। जब उन्होंने काँग्रेस कमेटी में मुख्य कक्ष में प्रवेश किया, तो सभी लोग इस बात के लिए हैरान थे कि यह तो एक गुलाम नीग्रो है। अतः उन्हें बोलने के लिए सिर्फ दस मिनट ही दिए गए, जबकि उन्हें अपने नमूने खोलने में ही इससे दुगुना समय लगने वाला था। जैसे जादूगर टोप से खरगोश एवं कबूतर निकालता है उसी तरह कार्बर मूँगफली से बने तेल, काफी, दूध,आटा, व्यंजन निकालते व समझाते जा रहे थे। उन्हें अब तक दो घण्टे से भी अधिक बीत चुके थे। सभी लोग उनकी बात के प्रत्येक शब्द को गौर से सुने जा रहे थे। उनकी बातों से प्रभावित अनेकों गणमान्य लोग उनके संकल्प को पूरा करने के लिए सहयोग हेतु प्रस्तुत हुए। कार्बर प्रार्थना की संजीवनी के बल पर अश्वेतों के कल्याण के लिए जीवन भर संलग्न रहे और उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की।

प्रार्थना असम्भव को सम्भव कैसे बनाती है? इसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण डोनाल्ड मैकेंजी ने अपने अध्ययन ‘प्रेयर एण्ड इट्स सीक्रेट’ में प्रस्तुत किया है। उनका कहना कि भावों के केन्द्र में जाकर मनुष्य सहज ही विश्व-चेतना समस्त प्रकार की शक्तियों, सब तरह के ज्ञान का आगार है। इसके संपर्क में आते ही ऊर्जा, उल्लास, शक्ति अपने आप ही मानवी अस्तित्व में भर अपने आप ही मानवी अस्तित्व में भर जाती है। अनन्त ज्ञानमय इस महत् चेतना का स्पर्श उसमें सूझ एवं समाधानों को भी स्फुरित करता है। हालाँकि मनोवैज्ञानिक डोनाल्ड मैंकेंजी अपने विश्लेषण में प्रार्थना के लिए कुछ आवश्यक शर्तों का भी उल्लेख करते हैं। उनके अनुसार यथार्थ प्रार्थना तभी सम्भव है जब हमारा पुरुषार्थ चरम बिन्दु पर जा पहुँचा हो और हम अहं वृत्ति से सर्वथा मुक्त हों। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि प्रार्थना न तो आलसियों के लिए है और न अहंकारियों के लिए।

क्योंकि अपने पुरुषार्थ के चरम बिन्दु पर पहुँचकर ही हम अपनी चेतना के चरम शिखर पर पहुँच पाते हैं। लेकिन के चरम शिखर पर पहुँच पाते हैं। लेकिन यह चरम बिन्दु मानवीय चेतना का चरम बिन्दु होता है। इसके आगे ईश्वरीय चेतना का दायरा है, जिससे एकाकार होने में हमारा अपना अहंकार बाधक बनता है। अपनी चेतना के चरम बिन्दु पर पहुँचने के साथ ही यदि हम अपनी अहं-वृत्ति से छुटकारा पा लें, तो फिर ईश्वरीय चेतना से धुलने-मिलने में कोई बाधा नहीं। ऐसे में ईश्वरीय शक्तियों का सहज प्रवाह इन्सानी अस्तित्व से होकर बहने लगता है। ईश्वर की अनन्त शक्तियों के सामने सारे अवरोध, विघ्न-बाधाएँ तुच्छ और मिथ्या सिद्ध होती हैं।

लाखों श्रोताओं की चहेती एवं ग्रैमी पुरस्कार विजेता गायिका ग्लोरिया गेदर ने अपने जीवन में कुछ ऐसी ही ईश्वर-निष्ठा जगायी। वह अपने पति के साथ मिलकर लगभग 200 गीत लिख चुकी हैं। उनके तीस से अधिक एलबम लाखों-करोड़ों दिलों की धड़कन बने हुए है। 60 लाख से अधिक संगीत गोष्ठियों में उनका कोकिल स्वर गूँज चुका है। फिर भी उनका कहना है कि वह एक गायिका नहीं है। क्योंकि गायिकी के क्षेत्र में अपनी असमर्थता से परिचित है। उन्होंने सालों साल अपने गले की असमर्थता भागों है। न जाने कितनी बार वह उपेक्षा, अवहेलना एवं उपहास की पात्र बनी है।

सब प्रकार से थक-हारकर उन्होंने इयामय प्रभु की शरण ली। रात के अँधेरे में वह अकेले बैठकर रो-रोकर प्रार्थना करती। प्रभु तू सर्व-समर्थ है। घनी अँधेरी रात की तरह मेरा अपना जीवन भी अँधेरे से भरा है। अन्तर्यामिन! मैं गाना चाहती हूँ। तेरी शक्ति को अपने कण्ठ से अभिव्यक्त करना चाहती हूँ। इसी तन्मयता में दिन गुजरते रहे और एक क्षण वह भी आया जब उसकी भर्राई आवाज सुरीलेपन में बदल गयी। उसके विस्मय का ठिकाना न रहा। कार्यक्रमों की भरी माँग आने लगी। प्रभु के प्रति कृतज्ञ होकर उससे अपने प्रत्येक कार्यक्रम से पूर्व अपने विचार प्रस्तुत करने का क्रम शुरू किया।

प्रत्येक संगीत गोष्ठी से पूर्व कुछ मिनट ग्लोरिया के हृदयस्पर्शी संदेश के लिए रखे जाते। जिसमें वह अपनी प्रार्थना के अनुभूत क्षणों को भवस्पर्शी ढंग से सुनाती। अधिकाँश लोगों के लिए संध्या सुनाती। अधिकाँश लोगों के लिए संध्या कार्यक्रमों के ये नीरव क्षण एक विशेषता बन गए। ग्लोरिया प्रभु से वार्ता के अपने अनुभव लोगों को बताती। उसका विश्वास था कि ये अनुभव दूसरों के विचार बदल सकते हैं। गायन के कार्यक्रम में अपनी त्रुटियों के लिए वह प्रभु से प्रार्थना करती। उसके भावों का सार यही होता कि वह वहाँ अपने बारे में कुछ सिद्ध करने के लिए नहीं है और अपनी अपूर्णताओं के बावजूद यदि वह कुछ अच्छा कर सकती है तो यह प्रभु की कृपा से होता है। इस तरह के ईश्वरीय अवलम्बन का अद्भुत परिणाम यह होता हक उसे हर पल यही अनुभव होता कि परमात्मा की चेतना उसके माध्यम से क्रियाशील है। वह अपने को भगवत् चेतना से तरंगित अनुभव करती। यह अनुभव जहाँ उसके उल्लास को बढ़ाता वहीं उसके प्रत्येक कार्य को और अधिक परिमार्जित व प्रखर बना देता।

इस तरह प्रभु का समर्थ अवलम्बन न केवल मानव की क्षुद्रता को पूर्ण करता है। बल्कि उसके कार्यों को अधिक सौंदर्यशाली बना देता है। भगवान के स्पर्श से मनुष्य की कमियाँ विशेषताओं में बदल जाती है। खरोंचें सुन्दर कृति का रूप ले लेती हैं और त्रुटियाँ विस्मय का स्त्रोत बनने लगती है।

जहाँ मनुष्य की अपनी शक्ति चुक जाती है, जब बाहर से कोई आशा की किरण नहीं दिखाई देती, ऐसे अंधकार भरे क्षणों में ईश्वरीय हस्तक्षेप असम्भव को भी सम्भव बना देता है। असाध्य रोग को ठीक कर देता है व जर्जर काया में भी नए प्राण फूँक देता है। प्रार्थना द्वारा हम उस ऊर्जा शक्ति एवं जीवन के आदि स्त्रोत से जुड़ जाते हैं व उसकी कृपा को चमत्कार के रूप में अनुभव करते हैं। ऐसा ही एक उदाहरण डॉ. क्रिस नियर्ज का है, जिनका मस्तिष्क एक दुर्घटना में चूर-चूर हो गया था।

घटना 1963 की है, तब मात्र चौदह वर्षीय क्रिस अपने मित्र जान के साथ दक्षिण कैलीफोर्निया में भ्रमण के लिए गए थे। आधा घण्टा साइकिल भ्रमण का आनन्द लेते हुए दोनों थक-हारकर एक नदी के किनारे एक चट्टान के सहारे आराम करने बैठे गए। दोनों बातचीत में मस्त थे। अचानक एक दहाड़ती आवाज ने उनका ध्यान बँटाया। ऊपर से चार फुट व्यास का एक बड़ा पत्थर उनकी ओर तेजी से लुढ़कता हुआ आ रहा था। क्रिस जान को बचाने के लिए एक तरफ खींच रहा था कि पत्थर ने क्रिस के सिर पर टक्कर मारकर उसे चट्टान पर दे पटका। क्रिस के सिर से खून का फव्वारा फूट पड़ा। दर्द के मारे वह चिल्ला रहा था। किसी तरह क्रिस को अस्पताल पहुँचाया गया। रिपोर्ट के अनुसार मस्तिष्क बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया था। चिकित्सक क्रिस के जीवन की सम्भावना से निराश थे। उन्हें उसके बचने की कोई आशा न थी। रात भर क्रिस का जीवन बचना कठिन लग रहा था। चिकित्सक इस बात के लिए भी परेशान थे कि यदि तरह वह बच भी गया, तो स्नायुओं के क्षतिग्रस्त होने से कहीं वह मानसिक विकलाँग अथवा फिर दृष्टिहीन न हो जाय।

लेकिन उसके माँ-बाप को प्रार्थना की शक्ति पर विश्वास था। डॉक्टर ने सुझाया कि प्रार्थना करनी ही है तो बालक की मृत्यु की करें, क्योंकि बालक यदि जीवित रहा तो जीवन भर एक बोझ बनकर रहेगा। चिकित्सक के निराश भरे सुझाव की परवाह किए बिना माँ-बाप ने सभी शुभचिन्तकों, मित्रों, कुटुम्बियों को फोन द्वारा सूचित किया। निश्चित समय पर एक साथ सभी ने क्रिस के स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना की। सभी के हृदय भाव-विह्वल थे। उनकी अन्तर्चेतना प्रभु के विश्वास से पूरित थी। क्रिस रात भर ठीक रहा। आप्रेशन के तीन दिन बाद वह उठा। चारों ओर ट्यूब ही ट्यूब लगे थे। मस्तिष्क से द्रव्य निकालने के लिए’-वह मधुमेह से पीड़ित भी था।

डॉक्टरों को यह देखकर अचरज लग रहा था कि दुर्घटना के बाद या आप्रेशन के दौरान उसका डायबिटीज किसी तरह आड़े नहीं आया। यह भी अजूबा था कि अगले सप्ताह उसकी शर्करा की मात्रा संचालन में कोई दिक्कत नहीं हुई। प्रत्येक दिन क्रिस की स्थिति में तीव्रता से सुधार हो रहा था। अस्पताल से निकलने के बाद मनोवैज्ञानिकों ने उसका बुद्धि-परीक्षण किया। उसका आई. क्यू. राष्ट्र के ऊपरी दो प्रतिशत व्यक्तियों में था। छह सप्ताह बाद वह पूरी तरह स्वस्थ हो गया। अपना काम अपने हाथों से करने लगा।

ऐसा ही एक किस्सा अमेरिका के जेनवर कस्बे के संगीत समारोह की शान मार्गी किंग नामक महिला का है। मात्र 14 साल की उम्र में उसकी गर्दन के हिस्से में काफी ज्यादा उभार-सा हो आया। डाक्टरी जाँच करने पर मालूम पड़ा कि यह हाडकिन्ज रोग है। रिपोर्ट के मुताबिक वह छह माह से अधिक जीवित न रह सकेगी। माँ-बाप कुछ कर नहीं सकते थे। डाक्टरी स्तर पर कोई विकल्प नहीं था। नियमित उपचार करने से मार्गी के जीवन में कुछ दिन अवश्य जुड़ सकते थे। संकट से उबरने का कोई सहारा न रहा तो भगवान की सहायता माँगी गयी। प्रार्थना का सहारा लिया गया। जो भी परिचित, शुभचिन्तक थे, वे सभी प्रार्थना के शुभ कार्य में जुट गए। इनको दृढ़ निश्चय था कि प्रार्थना के सहारे कुछ भी हो सकता है।

प्रभु अपने को पुकारने वालों को कभी निराश नहीं करते। दो-दिन बाद से ही एक्सरे-फिल्म में प्रार्थना का चमत्कार स्पष्ट होने लगा। एक्सरे रिपोर्ट असम्भव को सम्भव होता बता रही थी। काफी बड़ा ट्यूमर दिन-प्रतिदिन छोटा पड़ रहा था, प्रार्थना के काम में प्रतिदिन तन्मयता आती गयी। अन्ततः एक्सरे रिपोर्ट में रोग का कोई नामोनिशान न था। असाध्य मरणासन्न स्थिति, सुधरे स्वास्थ्य में तब्दील हो रही थी। प्रार्थना गले के स्वास्थ्य में ही कारगर नहीं हुई बल्कि प्रभु के अनुदान से मार्गी की आवाज भी काफी सुरीली हो गयी। उसकी संगीत साधना के फलस्वरूप सन् 1963 में वहाँ का सर्वश्रेष्ठ गायकी का पुरस्कार भी उसे मिला।

प्रार्थना की शक्ति के चमत्कारी प्रभाव का एक अन्य उदाहरण हैं, ‘सेण्ट ज्यूड चिल्ड्र्न्स रिसर्च हास्पिटल मेम्फिस टेनेसे’ के संस्थापक डेनी थेमस। अपने व्यावसायिक जीवन के शुरुआती दिनों में वे घाटे दर घाटे से गुजर रहे थे। उनका दिवाला निकल चुका था। ऋण के बोझ से डेनी का समूचा अस्तित्व दबा हुआ था। वह अपने जीवन के विकटतम क्षणों से गुजर रहे थे। टेट्र्यट के एक व्यक्ति ने उन्हें प्रार्थना की शक्ति का अवलम्बन लेने का सुझाव दिया। डेनी ने कर्ज से उबरने व जीवन में खुशहाली व सफलता के लिए प्रभु से प्रार्थना का नियमित क्रम शुरू किया।

अधिक समय नहीं बीता था कि अनवरत सफलता के सुअवसरों का दौर शुरू हो गया। अब वह ऋण भार से मुक्त हो रहे थे। मध्यम सुरक्षा जीवन में पूर्ण सफलता का आश्वासन दे रही थी। ईश्वरीय सहायता के प्रति कृतज्ञता भाव से उन्होंने बच्चों की सहायता के विचार से एक रिसर्च अस्पताल की स्थापना की। वहाँ चल रहे शोध प्रयासों से बच्चों के जीवन में उजाला आने लगा। इसी के साथ ही वे प्रार्थना से होने वाले दैनिक चमत्कारों का प्रचार देश भर में करने लगे।

कतिपय बुद्धिपरायण व्यक्ति प्रार्थना की शक्ति में विश्वास जैसा लगता है। लेकिन सच तो यह है। कि प्रार्थना न तो अंधविश्वास है और नहीं यह अवैज्ञानिक प्रक्रिया है। हाँ इतना जरूर है, प्रार्थना सफल उसी की होती है, जो प्रार्थना करने योग्य हो। आलसी, अहंकारी, दुष्प्रवृत्तियों में रस लेने वाले कुमार्गगामी व्यक्ति भावभरी प्रार्थना नहीं कर पाते। इसका मतलब यह नहीं है कि प्रभु इनसे प्यार नहीं करते। वे इनकी नहीं सुनना चाहते। बल्कि ये व्यक्ति ही अपने दुर्गुणों के चक्रव्यूह में फँसकर भगवान से विमुख हो बैठे हैं।

दुर्गुणी व्यक्ति अपने में पवित्र एवं भावमय मनः स्थिति को नहीं खोज पाता, जहाँ प्रार्थना अंकुरित होती है। ऐसी अन्तर्चेतना के निर्माण के लिए स्वयं को पवित्र, द्वेषमुक्त बनाना पड़ता है। पवित्र हृदय ही भावों के महासागर का रूप लेता है। पवित्र भावनाओं की तरंगें प्रभु की चेतना को पल भर में स्पर्श कर लेती हैं। इसका यह स्पर्श मनुष्य की चेतना से तुरन्त जोड़ देता है। फिर तो एक अद्भुत प्रवाह, एक अलौकिक शक्ति हमारे अस्तित्व में प्रवाहित होने लगती है। इस महाशक्ति के लिए कुछ भी असम्भव नहीं। जो कार्य हमें कठिन व दुष्कर मालूम होते हैं। प्रभु की शक्ति के लिए वे सर्वथा सहज हैं।

सामान्यक्रम में हम संकटों के घिर कर ही भावप्रवण बनते हैं। यही कारण है प्रार्थना के चमत्कार भी हमें ऐसी ही परिस्थितियों में देखने को मिलते हैं। लेकिन यदि हम अपने अन्तर्भावों को पवित्र बनाते जाएँ, स्वयं को अहंवृत्ति एवं पारस्परिक द्वेष से मुक्त रखें तो हर पल हमारे जीवन में प्रार्थना के चमत्कार घट सकते हैं। यही नहीं हमारा जीवन एक के बाद एक चेतना के उच्चस्तरीय स्तरों पर आरुढ़ हो सकता है।

प्रार्थना सिर्फ संकटापन्न स्थिति का निराकरण नहीं है। साधना, तपस्या, उपासना की अनूठी विधि भी है। ईसा, सन्त पाल, सन्त आइन्स्टाइन सभी प्रार्थना के बल पर ही सिद्ध महापुरुष बने थे। दादू, रज्जब, नानक, कबीर, रैदास जैसे सन्तों का तो जैसे यह जीवन का आधार ही था। वे इसी प्राण वायु के बल पर ही जीते थे। ध्यान रहे प्रार्थना किसी जीते थे। ध्यान रहे प्रार्थना किसी भिक्षावृत्ति अथवा याचना का पर्याय नहीं है। यह तो प्रभु से मिलन की भावभरी पुकार है। हृदय इस प्रकार के उठते ही परम कारुणिक प्रभु भक्त से मिलने के लिए, उसके कष्ट को दूर करने के लिए आकुल-आतुर हो उठते हैं। उनका स्पर्श हमें खाली संकटों से ही नहीं मुक्त करता, अनेकों दुर्लभ ईश्वरीय विभूतियाँ भी दे डालता है।


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