विवेक का वरदान

April 1997

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महाराज वीरभद्र रणबाँकुरे योद्धा होने के साथ विद्याप्रेमी भी थे। उनके दरबार में विविध विषयों के प्रख्यात विद्वान थे। साहित्य, दर्शन, ज्योतिष आदि अनेक गूढ़ विषयों पर सारगर्भित चर्चाएँ करने में उन्हें विशेष आनन्द प्राप्त होता था। एक बार उन्होंने अपने दरबार की विद्वान् मंडली के सामने एक प्रश्न रखा-”जब भाग्य पहले से ही निश्चित है तो मनुष्य के प्रयासों का क्या औचित्य है?” विद्वानों ने अपनी क्षमतानुसार प्रश्न का उत्तर देने की काफी कोशिश की, लेकिन राजा साहब को अपने सवाल का सन्तोषजनक समाधान न मिला।

उनके दरबार में चतुरसिंह नाम का एक व्यक्ति था। उसकी बुद्धि की तीव्रता के किस्से सब ओर कहे-सुने जाते थे। इन किस्सों में उसकी बुद्धि-कुशलता की जितनी झलक मिलती थी, उससे कहाँ अधिक उसकी कुटिल स्वार्थपरता झलकती थी। दरबार में महाराज द्वारा सवाल उछाए जाने पर उसे अपने बचपन के साथी विशाल का ध्यान आया। विशाल अध्ययनकाल में अपनी विलक्षण प्रतिभा से गुरुजनों को चकित कर देता था। उसकी मेधा जितनी तीव्र थी, भावनाएँ उतनी ही उदात्त थीं। इसी कारण अनेकों बार राजसेवा का प्रस्ताव मिलने पर भी उसने शिक्षा को अपना कार्यक्षेत्र चुना।

इन दिनों वह राजधानी से थोड़ी दूर एक अरण्य में अपने गुरुकुल का संचालन कर रहा था। चतुरसिंह ने सोचा यदि विशाल ने प्रश्न का सही समाधान कर दिया तो महाराज मुझसे प्रसन्न होंगे और यदि वह उत्तर देने में असफल रहा तो उसकी सारी ख्याति धूल में मिल जाएगी। एक तीर से दो शिकार कर देने की अपनी इस कूटनीतिक योजना वह मन ही मन मुस्कराया।

उसके मन में विशाल के प्रति गहरी ईर्ष्या थी।

गुरुकुल के दिनों में वही उसका एकमात्र प्रतिद्वन्द्वी था। अध्ययन में उसने कभी उसे आगे नहीं निकलने दिया। अतः ईर्ष्या बहुत पुराने समय से जल रही थी। हालाँकि विशाल के मन में चतुरसिंह के लिए किसी भी तरह का रोष अथवा ईर्ष्या का कोई चिन्ह न था।विशाल अपने हाल में मस्त था। उसे किसी तरह की कोई शिकायत न थी।

एक दिन मौका देखकर चतुरसिंह ने महाराज वीरभद्र से विशाल की विद्वत्ता का गुणगान कर दिया। महाराज ने उसे बुलाने की स्वीकृति दे दी। राजदरबार से आमंत्रण पाकर विशाल को हलकी-सी चिन्ता हुई। वह सोचने लगा कि महाराज ने उसे क्यों याद किया है। फिर भी उसे महाराज की नीति व न्याय पर पूरा भरोसा था।

ठीक समय पर वह उनके दरबार में उपस्थित हुआ और अपना परिचय दिया। महाराज वीरभद्र ने उसका उचित स्वागत किया तत्पश्चात् उन्होंने अपना प्रश्न विशाल के सामने दुहराया।

विशाल बोला,”श्रीमान! यहाँ कई श्रेष्ठ विद्वान उपस्थित हैं। मैं तो साधारण-सा शिक्षक हूँ। फिर भी अपनी अल्पबुद्धि से मैं आपके सवाल का उत्तर देने का प्रयास करूंगा। मेरी राय में मनुष्य भाग्य का क्रीतदास नहीं है। यदि सब कुछ पूर्व निश्चित हो तो मानव की समस्त गतिविधियाँ याँत्रिक हो जाएँगी। वह एक निरीह प्राणी से अधिक कुछ भी नहीं रह जाएगा। जबकि वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है।”

सभी विद्वान और महाराज वीरभद्र विशाल की बातें ध्यानपूर्वक सुन रहे थे। विशाल का कथन जारी था, “जीवन की अनेक दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के समय व्यक्ति के जीवन में जब कभी मानसिक संघर्ष की घड़ी आती है तो उस समय वह अपनी इच्छा और विवेक के अनुसार मार्ग चुनने को स्वतन्त्र होता है। यदि वह कुमार्ग को चुनता है, तो उसके दुष्परिणाम उसे भुगतने ही होंगे।”

अपनी बात कहते-कहते विशाल की वाणी ओजस्वी हो उठी। वह कह रहा था,”बुराई का एक अपनी आकर्षण होता है। विवेकी व्यक्ति उसके जाल में नहीं फँसता। वह सही निर्णय लेकर उन्नति पथ का राही बन जाता है। जबकि गलत रास्ता चुनने वाला पतन के गर्त में पहुँच जाता है और अपनी गलती छिपाने के लिए वह कहता है कि उसके भाग्य में बर्बाद होना ही लिखा था। श्रम, पुरुषार्थ, लगन व विवेक से किया गया कार्य सदैव मंगलकारी होता है।”

इतनी सुन्दर विवेचना सुनकर महाराज वीरभद्र का हृदय गदगद हो गया। उन्होंने अपने गले से मोतियों की माला उतार कर विशाल को भेंट कर दी। विशाल प्रसन्नतापूर्वक लौटा। उसकी पत्नी मोतियों की माला देखकर बहुत प्रसन्न हुई। लेकिन चतुरसिंह की ईर्ष्या की चिंगारी ज्वाला बनकर धधक उठी, उसके मन में छल-कपट की योजनाएँ घूमने लगीं।

एक रात वह चुपके से विशाल के घर में घुस गया। विशाल और उसकी पत्नी बरामदे में सोए हुए थे। उसने धीरे से साँकल खोली और अन्दर गया। उसे सामने एक छोटा-सा बक्सा दिखाई दिया। उसे लगा शायद वह मोतियों की माला इसी बक्से में होगी। उसने उसे ज्यों ही खोला उसकी पत्नी जाग गए। वे इतनी रात गए चतुरसिंह को अपने निवास पर देखकर हैरान रह गए।

विशाल ने पूछा “तुम इस समय में यहाँ क्या कर रहे थे? तुमने इस बक्से को क्यों खोला? लगता है तुम्हें बिच्छू ने काट लिया है। सोने से पूर्व मैंने यहाँ एक बिच्छू देखा था। मैंने सोचा था सुबह होने पर इसे जंगल में छोड़ दूँगा। यही सोचकर मैंने इसे बक्से में बन्द कर दिया था।”

चतुरसिंह के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। वह घबराकर विशाल के पैरों में गिर पड़ा और कहने लगा-”तुमने दरबार में ठीक ही कहा था, मनुष्य स्वयं अपने दुर्भाग्य का जनक होता है। मुझे मेरी दुष्टता का फल मिल गया। तुम मुझे क्षमा कर दो, अन्यथा मैं कहीं भी मुँह दिखाने लायक न रहूँगा।” उसकी आँखों से पश्चात्ताप के आँसू बह रहे थे।

विशाल ने कहा, “यदि तुम्हें मोतियों की माला की इतनी ही चाह थी तो तुम मुझसे कहकर देखते। मैं तुम्हें वह माला सहर्ष भेंट कर देता। विवेक के वरदान को ठुकराकर तुमने गलत मार्ग क्यों चुना?” चतुरसिंह बहुत शर्मिन्दा था। वह सिर नीचा किए अपने घर की ओर चल पड़ा। उसे मालूम हो गया था, मनुष्य अपने भाग्य का निर्माण विवेक के बलबूते ही कर पाता है।


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