समाज को तोड़ दिया है बुद्धिमानों की मूर्खता ने

April 1997

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संसार में अनेक जाति के लोग पाये जाते हैं। उनकी आकृति में क्षेत्र के आधार पर कुछ अन्तर भी पाया जाता है। फिर भी उनका नाम एक ही रहता है। हाथी, घोड़ा, गधा, बैल आदि पशु और मोर, कबूतर, बतख, सारस आदि पशु-पक्षी संसार भर में एक ही नाम से जाने जाते हैं। साँप, बिच्छू, चींटी, दीमक आदि की भी अपनी-अपनी जातियाँ हैं। वे कहीं का भी अपनी-अपनी जातियाँ हैं। वे कहीं भी बसें, जानी एक ही नाम-रूप के अनुरूप जाएँगी। मनुष्य भी एक प्राणी है। वह संसार के किसी भी क्षेत्र में रहे, कोई भी भाषा बोले, चेहरे की आकृति में कुछ अन्तर भले ही हो पर वह माना मनुष्य ही जाएगा। मनुष्य की एक जाति है। उसके अंग-अवयव एक जैसे ही होते हैं। कहीं भी बसने वाला, चमड़ी के किसी भी रंग वाला होने पर भी उसकी जाति मनुष्य ही रहेगी।

जाति की एक पहचान यह भी है कि वह अपने ही वर्ग में सन्तानोत्पादन कर सकता है। जाति की भिन्नता होगी तो जोड़ा न मिलेगा। वे तो प्रणयकेलि करेंगे और न प्रजनन में समर्थ होंगे। मनुष्य-मनुष्य की यदि अनेक जातियाँ रही होतीं तो उनके भी प्रणय सम्बन्ध न बनते, प्रजनन में समर्थ न होते, पर ऐसा अन्तर कहीं भी देखा नहीं जाता। मनुष्य जाति के सभी प्राणी यत्किंचित् भिन्नता रहने पर भी यौनाचार करने और वंश वृद्धि कर सकने में समर्थ पाये जाते हैं। ऐसी दशा में उनकी जाति एक ही रहेगी।

भारत का जातिवाद अपने ढंग का विचित्र है। यहाँ पुरातनकाल में वर्ण भेद आरम्भ हुआ। तब उसका आधार कर्म-व्यवस्था था। शिक्षक, सैनिक, व्यवसायी, शिल्पी वर्गों में उनकी पहचान बनी थी। पर वह स्थायी नहीं अस्थायी थी। व्यवसाय बदलने की सदा से सबको छूट रही है। इस आधार पर कोई भी अपना वर्ण बदल लेता था। अभी भी यह व्यवसाय भेद वाला वर्गीकरण चलता है। उनके संगठन भी बनते हैं। किसान सभा, श्रमिक संघ, व्यापारी मण्डल, अध्यापक सभा, रिक्शा यूनियन आदि संगठनों के वे लोग सदस्य रहते हैं, जो उस व्यवसाय में सम्मिलित रहते हैं। व्यवसाय बदल जाने पर वर्ग भी बदल जाते हैं, जो आज अध्यापक है, कुछ समय बाद वह सेना पुलिस में भर्ती हो सकता है। इस प्रकार उसके वर्ग समयानुसार बदलते रहेंगे। इतने पर भी उसकी जाति मनुष्य ही रहेगी। यहाँ तक कि वंश परिवार भी यथावत् बना रहेगा। वर्ग या वर्ण जीवन में अनेक बार बदला जा सकता है। फिर भी मानवी स्नेह-सहयोग की दृष्टि से उनके बीच एकता ही बनी रहेगी। वोटर की एक ही जाति ही बनी रहेगी। वोटर की एक ही जाति है, भले ही वह किसी भी क्षेत्र में रहता हो, कोई भी व्यवसाय करता हो।

इस सीधे-सादे प्रश्न को मध्यकाल के अन्धकार युग ने बेतरह उलझा दिया है। जन्म के, वंश के आधार पर जातियाँ मानी जाने लगीं। बात यहाँ तक तक रहती तो भी काम चलता रहता, पर जब उनके बीच ऊँचा-नीच का भेदभाव आरम्भ हुआ तो अपने-पराये की आपाधापी भी चल पड़ी। जातियों में से उपजातियाँ निकलीं और छोटे समुदायों के रूप में देशवासी विभाजित हो गये। कुछ वर्ग अपने को वंश के आधार पर ऊँचा और दूसरों को नीचा मानने लगे। गुण, कर्म, स्वभाव के आधार पर वर्गीकरण हो भी सकता है, पर वंश के आधार पर यह विभाजन चल पड़े और ऊँचा-नीच की मान्यता बढ़े तो उसे आश्चर्य ही कहा जाएगा।

यह आश्चर्य इन दिनों तो परम्परा के रूप में परिपक्व होता चला जा रहा है। हर वर्ग के अनेकों वर्ग हैं और वे अपने को प्रथक जाति मानते हैं और ऊँच-नीच का भेदभाव बरतते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि वंशों में कितनी ही उपजातियाँ हैं। वे एक-दूसरे के साथ रोटी-बेटी तक का व्यवहार नहीं करतीं। अपने को उपजाति के सीमित दायरे में ही संकुचित करती हैं। सामाजिक उत्सव-आयोजनों में अपने ही वर्ग को एकत्रित किया जाता है। विवाहों में सम्मिलित होने वाले बाराती प्रायः उसी जाति के होते हैं। यह संकीर्णता व्यवसाय से लेकर राजनीति तक में घुसती चली गयी है। यहाँ तक कि वोट डालते समय तक देखा जाता है कि प्रतिनिधि अपनी जाति का है कि दूसरी जाति का। उसकी योग्यता, ईमानदारी पर कम और अपनी जाति वाला होने पर अधिक ध्यान दिया जाता है।

बड़ी कहलाने वाली जातियों की तरह यह बीमारी छोटी जातियों में भी फैली है। वे भी रोटी-बेटी का व्यवहार अपने ही छोटे दायरे में करते हैं। छूत-अछूत सभी इस दृष्टि से एक ही लकीर पर चल रहे हैं। अछूत छूतों से शिकायत करते हैं कि उनके साथ भेदभाव बरता जाता है। पर जब अछूत-अछूत के बीच वहीं वर्गभेद की, ऊँच-नीच की बात चलती है, तो और भी अधिक आश्चर्य होता है।

विभेद और विभाजन के इस कुप्रचलन से समूचे समाज को भारी क्षति पहुँची है। भाषावाद, प्रान्तवाद, सम्प्रदायवाद के कारण धड़ेबन्दी का कोढ़ पहले से ही चल रहा था। इसमें जाति-पाँति, ऊँच-नीच की खाज और जुड़ जाने से समाज में कुरूपता, विकृतता का दौर भी जुड़ गया है। कहने भर को हम भारतीय हैं, पर भावनात्मक विभेदों को देखते हुए यह लगता है कि एकता की शक्ति को हम खण्डित करते चले जा रहें हैं। नारंगी बाहर से एक फन दिखाई पड़ती है, पर उसका छिलका उतारने पर प्रकट होता है कि उसके भीतर कितने ही ऐसे खण्ड हैं जो एक-दूसरे से अपनी अलग पहचान बनाते हैं। यह दुखद दुर्भाग्य की स्थिति है। जो कमी रह गयी थी। उसे जातिवाद पूरा कर रहा है। संकीर्णता और कट्टरता का उभार बना रहने पर हम सब अनेक खण्डों में बँटते जा रहे हैं। ऐसी दशा में अमोघ समझी जाने वाली एकात्मता की शक्ति का अक्षुण्ण बने रहना कठिन है।

जातिगत आपा-धापी के साथ दूसरों को बिराना समझकर उनकी उपेक्षा करने का भी रिवाज बनता है। इस संकीर्णता के दूरगामी दुष्परिणाम होते हैं। व्यवसाय में, नौकरियों में चुनाव में अपने वर्ग को अधिक लाभ होने, अधिक सफलता मिलने के प्रयत्न चलते हैं। इसकी प्रतिक्रिया दूसरों पर होती है। वे भी जैसे की तैसा बरतने की नीति अपनाते हैं और खाई चौड़ी होती चली जाती है। आगे चलकर यही विष बेल लड़ाई, गवाही, मुकदमेबाजी आदि के रूप में चलती है। फिर न्याय-नीति की दृष्टि ओझल हो जाती है और जातिवाद, सम्प्रदायवाद और प्रान्तवाद की कट्टरता हर व्यवहार पर हावी होने लगती है। बात यहाँ तक बढ़ती है कि अपनी जाति का बहुमत बनाकर शासन-सत्ता पर अधिकार जमा लेने तक की योजनाएँ बनने लगती हैं। परिवार नियोजन के द्वारा जनसंख्या न बढ़ने देने के सर्वमान्य औचित्य की उपेक्षा की जाने लगती है कि हमारे वर्ग की अधिकाधिक सन्तानें हों, ताकि वोट बढ़ें, अपने प्रतिनिधि जीतें। उनके संरक्षण में अपने लोगों को अधिकाधिक लाभ मिले। स्पष्ट है कि वर्ग विशेष को अधिक लाभ मिलने लगेगा, उनका अनुचित लाभ मिलने लगेगा, उनका अनुचित पक्षपात क्रम चलेगा, तो उसकी प्रतिक्रिया होगी। ईंट का जवाब पत्थर से देने की बात सोची जाने लगेगी। फलतः कलह बढ़ेगा और ऐसे विग्रह खड़े होंगे, जिनसे निपटना कठिन हो जाएगा।

सभी जानते हैं कि मिलजुलकर रहने से संयुक्त शक्ति विकसित होती है और उसके बड़े-बड़े लाभ मिलते हैं। बुहारी की सींकें, कपड़े के धागे बिखर जाये तो उनकी उपयोगिता समाप्त हो जाएगी। संयुक्त शक्ति के रूप में विकसित हुए देश-जापान, इसराइल जैसे छोटे होने पर भी प्रगति पथ पर तेजी से अग्रसर होते हैं। बड़ी-बड़ी कठिनाइयों को पार कर लेते हैं। पर जहाँ बिखराव का बोलबाला होते हैं वहाँ सारी शक्ति आपसी लड़-झगड़ में ही समाप्त हो जाती है। ईर्ष्या-द्वेष का, आक्रमण-प्रतिशोध का, प्रतिशोध के प्रतिशोध का सिलसिला चलता ही रहता है और परिणति सबके लिए सब प्रकार अहितकर ही होती है।

अपने देश में जाति-पाँति के साथ विवाह-शादियों का भी उपक्रम जुड़ गया है। लोग अपनी-अपनी जातियों में ही लड़की-लड़कों का विवाह करना चाहते हैं। उपजातियों में, गोत्रों में बँटते-बँटते हर वर्ग का दायरा बहुत छोटा रह गया है। उतने ही दायरे में लड़की-लड़के ढूंढ़ने पर इच्छित स्तर के जोड़ नहीं मिलते। विवशता में उन्हीं लोगों में से वर-वधू का चुनाव करना पड़ता है। योग्यों की कीमत बढ़ जाती है। अयोग्यों में से ही किसी का चुनाव करना पड़ता है। इसीलिए देखा जाता है कि अयोग्य साथी ढूँढ़कर ही किसी प्रकार काम चलाना पड़ता है। यदि चुनाव का दायरा विशाल रहा होता तो

अपि पौरुषमादेयं शास्त्रं चेद्युक्तिबोधकम्। अन्यक्तवार्षमपि त्याज्यं, भाव्यं न्याय्यैकसेविना॥ -योगवसिष्ठ 2/18/2

दूर-दूर तक मारे फिरने की, खुशामद करने की, महँगा दहेज देने की आवश्यकता न पड़ती। पास-पड़ोस में ही अच्छे लड़के-लड़की मिल जाते। उनकी प्रकृति परम्परा के सम्बन्ध में भी आवश्यक जानकारी रहती और विवाह सफल होते रहते। पर जब उपजाति के फेर में दूर-दूर तक की भाग-दौड़ करनी पड़ती है, तो उस परिवार की स्थिति और लड़की-लड़के के स्वभाव की वास्तविक जानकारी नहीं हो पाती। अन्धा जुआ खेलना पड़ता है ओर उसमें कई बार अनुपयुक्तता भी हाथ लगती है। उपजातियों के फेर में विवाह-शादियों की समस्या पेचीदा होती जाती है। इसका समाधान सरल था। जाति भेद को आड़े न आने दिया जाता तो बिना बोली सरलतापूर्वक सस्ते में संबंध बन जाया करता। संकीर्णता के बन्धन भी शिथिल होते। आत्मभाव का दायरा बढ़ता।

अपने देश में पिछड़ापन भी वर्ण जाति के साथ जुड़ गया है। लोग ही पिछड़े नहीं रहते वरन् समुदाय भी जाति बन्धन में बँधे होने और वैसी ही रीति-रिवाज अपनाये रहने के लिए गई-गुजरी स्थिति में ही पड़े जनजातियों तथा अनुसूचित जातियों के पिछड़ेपन का यही प्रमुख कारण है कि वे गये-गुजरे स्तर का निर्वाह करने के लिए बाधित हो रही हैं। यदि उन्हें विकसित लोगों के साथ घुलने-मिलने का अवसर मिला होता तो एकता और समता की अभिवृद्धि हुई होती। कोई उन्नति-अवनति के दायरे में न बँटा होता। सभी लोग एक ही स्थिति में रहते हैं। इसके लिए भावनात्मक परिवर्तन करने होंगे। मान्यताएँ बदलनी पड़ेंगी और आदतों में सम्मिलित हो रही उन परम्पराओं में आमूल-चूल परिवर्तन करना पड़ेगा, जो अपने समाज को तथाकथित ऊँचे और नीचे माने जाने वाले लोगों को जाति के आधार पर ऊँचा-नीचा मानने के लिए उकसाती हैं।

इसे बुद्धिमानों की मूर्खता ही कहनी चाहिए, जिसने विभेद और विभाजन की दीवारें खड़ी कीं। इस भूल ने हिन्दू समाज के एक बहुत बड़े भाग को समतावादी धर्मों में सम्मिलित होने के लिए प्रोत्साहित किया है। यदि स्थिति यही रही तो हिन्दू धर्म की जाति-पाँति व्यवस्था को अन्यायमूलक मानकर और लोग भी उससे कटते-हटते चले जाएँगे। समझदारी इसी में है कि इस त्रासदी से बचने के लिए ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की भावना का विस्तार अधिकाधिक बड़े स्तर व मंच पर किया जाय, युग-निर्माण योजना यही कर रही है।


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