धारावाहिक लेखमाला- - सावधान! मनुष्य के हमशक्ल तैयार होने जा रहे हैं।

April 1997

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अविकसित जीवों में नर और मादा का संयोग हुए बिना भी सन्तानोत्पत्ति का क्रम चलता रहता है। बहुत से पौधे ऐसे हैं जिनकी टहनियाँ काटकर जमीन में लगा दी जाएँ तो वे उगती हैं और स्वतन्त्र पेड़ का रूप ले लेती हैं। ईख इसी किस्म का पौधा है। गाजर का पौधा उगाने के प्रयोग भी वनस्पति वैज्ञानिक सफलतापूर्वक कर चुके हैं। हाइड्र् नामक एक सूक्ष्म प्राणी भी शरीर के गिरे टुकड़ों में से कई स्वतन्त्र हाइड्र् बनाने की सामर्थ्य रखता है। हर वनस्पति के भिन्न लिंगी पराग या बीज में उभयपक्षी लिंग भेद हों ही, आवश्यक नहीं।

यह सारी चर्चा यहाँ इसलिए छेड़ी गयी है कि इन दिनों अमैथुनी सृष्टि की चर्चा विज्ञान जगत में एक चटपटी खबर के रूप में हो रही है। ‘क्लोनिंग’ प्रक्रिया के माध्यम से बिना किसी प्रकार मैथुनी प्रक्रिया के एक जीव के जीवकोश से अन्यान्य कई हमशक्ल ‘क्लोन्स’ पैदा किये जाने का वर्णन समाचार-पत्रों में विस्तार से आ रहा है। सभी हतप्रभ हैं, भयभीत भी तथा विज्ञान के इस आविष्कार की चर्चा काफी मिर्च-मसालों के साथ सरगर्मी पर है। ‘मनुष्य द्वारा सृष्टि का सृजन’ शीर्षक से स्काटलैण्ड के वैज्ञानिक आयन हेल्मुट द्वारा वयस्क भेड़ के धन की कोशिका से ‘डाँली’-नामक एक भेड़ का प्रयोगशाला में बन जाना एवं अब उसका आठ माह तक स्वस्थ विकास होते हुए जीवित बने रहना यह खबर एक धमाके की तरह पूरे संसार में पिछले माह फैल गयी। बिना किसी शुक्राणु व डिम्ब के निषेचन के ‘मैमक्स’ संवर्ग की इस भेड़ के क्लोन ने जो कि हूबहू अपने स्त्रोत की हमशक्ल है, वैज्ञानिकों को सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या विज्ञान का यह आविष्कार मानव हित में है। अमैथुनी सृष्टि जिसे पार्थिनोजेनेसिस नाम दिया गया है, भी लागू होती है, यह प्रश्न सबके मन में उपज ही रहा था, कि मनुष्य के और भी समीप बन्दर समुदाय में से न्यूक्लियर ट्रांसप्लाण्ट प्रक्रिया के द्वारा एक बन्दर के भ्रूण से क्लोन पैदा करदो हमशक्ल बच्चे पैदा करके दिखा दिये गए। फरवरी 1997 में राँसलीन इंस्टीट्यूट स्काटलैंड के भेड़ वाले प्रयोग के बाद डॉन बुल्फ द्वारा आँटेगाँन (यू.एस.ए.) में यह प्रयोग विगत माह मार्च में सम्पन्न किया गया। इससे यह सम्भावना प्रबल हो गयी कि अब मानव की प्रतिकृति-क्लोन भी बन पाने में अधिक देरी नहीं है एवं जितने चाहें उतने हमशक्ल व्यक्ति अब किसी की भी जीवकोशिका की क्लोन बनाकर पैदा किये जा सकेंगे।

‘इकालेविन’ के उपन्यास ‘द बाँयज फ्राम व्राजील’ में हिटलर के क्लोन बनने का सनसनीखेज वर्णन था एवं कई बार लोगों को भय लगने लगता था कि कहीं यह हकीकत तो नहीं। हिटलर के क्लोन अनगिनत यदि किसी प्रयोगशाला में पैदा होने लगेंगे तो नाजीवाद-तानाशाही व द्वितीय विश्वयुद्ध की भयावह यादें पुनः लौट आयेंगी। अब स्काटलैंड व आँटेगाँन के आविष्कारों के बाद ‘जैवनैतिकी’ के प्रबल पक्षधरों ने कहना चालू कर दिया है कि वह दिन दूर नहीं जब शायद बिना किसी नारी गर्भाशय के मनुष्य के सही या गलत-देवदूत या शैतान जो भी रूप हों-उसके अनेकानेक हमशक्ल पैदा किये जा सकें। 1996 में ‘मेगन व माँर्गन’ नामक दो भेड़ों के क्लोन राँस्लीन इंस्टीट्यूट टीम द्वारा ही पैदा किये गए थे। तब वे भ्रूण से अण्डे व उनसे उत्पत्ति रूप में बनी अनुकृतियाँ थीं। ये अनुकृतियाँ पहले से जीवित भ्रूण के पृथक्-पृथक् कोशिकाओं से पैदा हुए अण्डे से बनी थीं। किन्तु अब! अब तो यह प्रक्रिया किसी भी जीवित मानव अथवा पूर्व से सुरक्षित रखे जीवकोष अथवा शरीर के किसी भी अंग से पार्थिनोजेनेसिस प्रक्रिया द्वारा सम्पन्न कर दिखाई जा सकती है। एल्डुअस हक्सले का ‘ब्रेव न्यूवर्ल्ड’ उपन्यास वास्तव में फिर हकीकत साबित हो सकता है।

विज्ञान जगत में यह जो कुछ भी हुआ है, यह कितना नैतिक है, कितना अनैतिक एवं इसके आविष्कार पक्ष पर क्या किस सीमा तक, कितना प्रतिबंध लगाया जाय, उनकी गहराई में जाने से पूर्व थोड़ा इस बारे में भारतीय संस्कृति का तत्वज्ञान, पौराणिक कथाओं का मिथकवाद क्या कहता है, यह देख लें। हिन्दूधर्म में ब्रह्म जो कि पुरुष हैं, के माध्यम से सन्तानोत्पत्ति एवं इस सृष्टि के उद्भव का प्रतिपादन है। जब सन्तान की उत्पत्ति के लिए स्त्री और पुरुष का समायोजन अनिवार्य है, तब अकेले ब्रह्माजी अमैथुनी सृष्टि उत्पन्न करने में किस प्रकार समर्थ हुए होंगे?

मार्कण्डेय पुराण में अनुसूया के तीन पुत्र चन्द्रमा, दत्तात्रेय, महर्षि दुर्वासा के जन्म का विवरण आता है। यह तीनों ही देवशक्तियों के अंशावतार थे। उनकी चेतना का सम्बन्ध ब्रह्मांड की अद्भुत शक्तियों के साथ था जबकि शरीर का निर्माण रासायनिक ढंग से हुआ था। कथा कुछ इस तरह की है-सती अनुसूया ने ऋतु स्नान किया। सौंदर्य की दृष्टि से वे अपरिमित रूप की धनी थीं। स्नान के बाद तो जैसे स्वयं कामदेव ही उनके शरीर में उतर आए। रजोदर्शन के उपरान्त पुष्पों का शृंगार किए अनुसूया को देखकर महर्षि अत्रि का मन कामोद्वेग से विचलित हो उठा। उत्पन्न विकार को व्यर्थ न जाने देने के लिए उनने तीन प्रकार के रसायन-सतोगुणी विष्णु का अंध, रजोगुणी ब्रह्म का अंश, तमोगुणी शिव का अंश तैयार किए। यह तीनों ही एक प्रकार से अण्ड थे किन्तु भ्रूण के विकास के लिए चूँकि उचित परिस्थितियों की आवश्यकता होती है, इन तीनों को उनने बाद में अनुसूया के गर्भ में बिना संभोग के प्रतिष्ठित कर दिया। कालान्तर में यही तीनों गर्भ चन्द्रमा, दत्तात्रेय, दुर्वासा के रूप में अपने-अपने रासायनिक गुणों के साथ दैवी गुण लेकर जन्मे। तीनों सन्तानों में क्रमशः विष्णु, ब्रह्म एवं महादेव के दैवी गुणों का बाहुल्य था। पर यहाँ भी अत्रिऋषि को, भले ही यह अमैथुनी सृजन करना पड़ा हो, आवश्यकता नारी गर्भाशय की इसीलिए पड़ी हो, आवश्यकता नारी गर्भाशय की इसीलिए पड़ी ताकि उन्हें परिवेश मिल सके, संस्कार माता आदि के मिल सकें।

एक और उदाहरण अमैथुनी सृजन का तामस मुनि की उत्पत्ति के रूप में मिलता है। उनमें शारीरिक दृष्टि से पशुओं के लक्षण थे, क्योंकि स्वराष्ट्र् नामक राजा के प्रभाव से हरिणी के गर्भ से वे उत्पन्न हुए थे। मानसिक दृष्टि से वे प्रकाण्ड पण्डित थे। नृपति स्वराष्ट्र् ने जिस शक्ति के प्रभाव से यह सृजन कार्य किया था, वह पंचाग्नि विद्या का गहन अध्ययन एवं तप के उपरान्त प्राप्त की गयी थी। रावण के साथ भी एक पौराणिक मिथक जुड़ा है। उसने मन्दोदरी के उदर से एक भ्रूण को जन्म दिलाया था, जो कि एक विलक्षण वैज्ञानिक प्रयोग था। प्रयोग में कुछ कमी मंत्रोच्चारण की रह जाने से उसने प्रयोग असफल मानते हुए उस भ्रूण को समुद्र में फिंकवा दिया था। इस भ्रूण की विलक्षणता यह थी कि उसमें लाखों वीर्यकोश एक साथ विकसित हो गए थे। अविकसित दबी स्थिति में भ्रूण में पनप रहे सजीव इस पिण्ड की गति यह हुई कि यह बहते-बहते पीपल की जड़ों में अटक गया। सम्मिलित भ्रूण छितर गया और वे सब पीपल का दूध चूस-चूस कर उसी तरह बढ़ने लगे जिस तरह एककोशीय जन्तु विकसित होता है। समुद्री आहार व किनारे के वनस्पतियों से पले इन एक लाख शिशुओं में से प्रथम बालक नारान्तक नाम से ख्याति को प्राप्त हुआ। शेष भाइयों को लेकर उसने ‘विहवाबल’ नामक राजधानी बनाकर स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया। सभी एक लाख भाई जुड़वा समान लगते थे। जीवनी-शक्ति की कमी से वे सभी अल्पायु में ही समाप्त हो गए व राज्य भी। किन्तु एक तथ्य इस मिथक से ज्ञात होता है कि आज वैज्ञानिक जो प्रयोग कर गाय, भेड़ व बन्दर के भ्रूण से अनेकों क्लोन तैयार करने के रूप में कर रहे हैं, वह ज्ञान आज से हजारों वर्षों पूर्व भी था। सृष्टि की संलग्न व्यवस्था के अंतर्गत न होने के कारण वह प्रयोग कभी विनाशकारी दिशा में सफल नहीं हो पाया। अध्यात्म रामायण बाल्मीकि रामायण में इस प्रसंग की चर्चा से पता चलता है कि विभिन्न युगों में विज्ञान प्रगति की चरम सीमा पर था।

भगवान राम अपने भाइयों सहित जिस प्रक्रिया के द्वारा जन्में थे, उसमें पिता का कोई भी अंश विद्यमान नहीं था। इतिहास प्रसिद्ध है कि जब दशरथजी की आयु ढलने लगी और उन्हें कोई सन्तान नहीं हुई तो उन्होंने गुरु वशिष्ठ के पास जाकर अपनी अन्तर्वेदना प्रकट की। वशिष्ठ ने तब शृंगी ऋषि को बुलाकर पुत्रेष्टि यज्ञ कराया। इस यज्ञ में चरु में देवशक्तियों का आह्वान कर उसे तीन रानियों में बाँट दिया गया। एक-एक भाग मिलने का कारण कौशल्या और कैकेयी को एक-एक तथा दो भाग मिलने के कारण सुमित्रा ने लक्ष्मण व शत्रुघ्न के रूप में दो बालकों को जन्म दिया। देवशक्तियाँ कृत्रिम गर्भाधान द्वारा मानव आकृतियों में लाई जा सकती हैं, यह इस घटनाक्रम से प्रमाणित होता है। कुमारी मरियम द्वारा ईसा को जन्म देना तथा कुन्ती द्वारा कर्ण सहित पाण्डवों को जन्म देना देवशक्तियों के तेज के प्रकटीकरण द्वारा ही सम्भव हुआ। कुन्ती व माद्री दोनों पाण्डु की पत्नियाँ थीं। कुन्ती ने प्राप्त वरदान द्वारा यम का आह्वान कर युधिष्ठिर, इन्द्र का आह्वान कर भीम को जन्म दिया। उसी ने पाण्डु के शापग्रस्त होने की स्थिति में सोम के अंश से माद्री को नकुल की प्राप्ति करायी थी। कुमारी अवस्था में जन्मे कर्ण सहित उपरोक्त सभी संततियाँ अमैथुनी सृष्टि का उदाहरण हैं। मात्र सहदेव ऐसे थे जो सहवास से जन्मे थे और वही ऐसे थे जिनमें देवतत्व का अंश कम एवं साँसारिकता का भाव अधिक था। पाण्डु की मृत्यु का कारण भी यही कामसेवन बना। हमारा सांस्कृतिक इतिहास ऐसी अनेकानेक घटनाओं से भरा पड़ा है जिनमें अमैथुनी प्रजनन द्वारा अनेकों महापुरुष, महाबली व आसुरी तत्व भी जन्मे। इससे यह ज्ञात होता है कि आज यदि ‘डाँली’ का जन्म होता है तो इस पर विस्मय करने की आवश्यकता नहीं, यह विज्ञान तो पूर्व में भी था। किन्तु यदि यह सही है कि इंसान का क्लोन बना पाना अब अधिक दूर की नहीं, कुछ ही पलक झपकने में बीत जाने वाले समय में होने वाली भवितव्यता है तो कुछ पक्ष आज की मानव जाति के स्वरूप को देखते हुए विचारणीय हैं।

परखनली में 1993 में हाँल एवं स्टिल मैन ने कृत्रिम रूप से कई जुड़वें बच्चे एक भ्रूण से कौरवों को पैदा करने की तरह उत्पन्न करने का प्रयास किया था। सभी असामान्य बनावट के व विकृत निकले व समाप्त हो गए। किन्तु उससे शोध की दिशा में एक रास्ता बना। बिना निषेचन के, बिना पुरुष की मदद से क्या महिला शिशु को जन्म दे सकती है अथवा क्या बिना नारी की मदद से पुरुष अपना हमशक्ल (क्लोन) तैयार कर सकता है, उस दिशा में 1993 से ही प्रयोग तेज गति पकड़ने लगे थे। डाँली का जन्म व आँटेगाँन में बन्दरों की जोड़ी का जन्म लेना उसी की परिणति है। किन्तु क्या यह मनुष्य के साथ सम्भव है एवं यदि है भी तो क्या अगणित प्रयासों के बाद कोई मनुष्य अपना वंश चलाने, समाज में आतंक फैलाने, कोई वाद पनपाने या पूरे विश्व पर कब्जा करने के लिए ऐसा सफल प्रयोग कर विनाशकारी परिणति को प्राप्त हो सकता है? यदि हाँ तो यह सृष्टि के लिए विज्ञान का सर्वाधिक घातक एवं अनैतिक कदम माना जाएगा। फिर कर्म सिद्धान्त का क्या होगा? कहा तो यह जाता रहा है एवं उसी पर पूरा अध्यात्म दर्शन गीता का ज्ञान टिका हुआ कि मनुष्य पिछले जन्मों में न जाने कितने पुण्य करता है, तब जाकर उसे मनुष्य योनि मिलती हैं। “मानुषात् हि श्रेष्ठतरं किंचित” सुरदुर्लभ मानुस तन पावा” की समस्त उक्तियाँ तब निरर्थक हो जाएँगी। तब चार्वाक एवं फ्रायड का भोगवाद का भी। कोई भी कह देगा कि आप अब वंश की कोई चिंता नहीं करें-बालक,जवान, बूढ़े जैसा कहें वैसे ही हम प्रयोगशाला से मँगाकर आपको दिलवा देंगे। यह तो एक अजीब नैतिक और सामाजिक संकट पैदा कर देगा। इसी मुद्दे पर आज हर उस देश में जहाँ ‘क्लोनिंग’ की प्रौद्योगिकी काफी विकसित है, अच्छी-खासी बहस चल रही हैं।

विदेश में यह बहस चल ही रही थी एवं प्रतिबंध लगाने के लिए बेल्जियम में एक प्रस्ताव पारित किया ही जा रहा था कि एक और खबर ऐसी आयी, जिसने सबको हिलाकर रख दिया। ‘सण्डे टाइम्स’ लन्दन में 9 मार्च को छपा कि बेल्जियम में ब्रुसेल्स के निकट वाँन हेलमाँण्ट अस्पताल के प्रमुख डॉ. रॉबर्ट शोयस्कान ने दुर्घटनावश कृत्रिम गर्भाशय के दौरान एक मानव प्रतिकृति तैयार कर दी थी जो कि इस समय चार वर्ष की हो चुकी, है। यह चार वर्षीय बालक बेल्जियम के किस स्थान में रह रहा है, यह भी एक जीवविज्ञानी मार्टिन निजेस के हवाले से छपा। उनका कहना था कि राबर्ट ने एक जमाए हुए उर्वरित अण्डे की सतह पर काँच की एक छड़ रगड़कर यह निर्माण किया था। अगले ही दिन डॉ. रॉबर्ट का खण्डन वाला बयान छपा एवं उनने कहा कि यह बालक आय. वी. एफ. पद्धति से उत्पन्न हुआ है एवं इसमें इसके पिता व माता दोनों के अंशों का उपयोग किया गया है। बालक क्लोन नहीं हैं, यह प्रमाणित कर दिया गया तब लोगों ने जाना कि यह एक शरारत भरा समाचार जानबूझ कर दिया गया था। कुछ भी हो एक खतरा तो सबके समझ जैव प्रौद्योगिकी ने पैदा कर ही दिया है कि कभी भी ऐसा भी कुछ घट सकता है।

विज्ञान एक दुमुँही तलवार भी बन सकता है एवं उपयोगी भी। यदि उसका सुनियोजित इस्तेमाल किया जाता है। आज जब मानव प्रतिकृतियों की चर्चा चल रही है एवं सभी कहते हैं कि भले ही भेड़ का क्लोन बनाने में 278 में से एक में सफलता मिली है, चोरी से मानव के लिए किए जा रहे प्रयासों को रोका नहीं जा सकता। भोगवादी देहात्मवादी मनुष्य इन प्रयासों को करता हो रहेगा, क्योंकि उसकी दृष्टि मात्र रसायनों से निर्मित काया पर है। विज्ञानविदों का कहना है कि यदि हमशक्ल तैयार हो भी जाय तो जरूरी नहीं कि वह वैसी ही बुद्धि, तीक्ष्ण मेधा, स्मृति, चरित्र व संस्कार लिए हुए हो। यह इसलिए कि जीन्स तो मात्र शरीर संरचना का निर्धारण करते हैं। संस्कार चिन्तन-चेतन एवं भावनात्मक आध्यात्मिक विकास के उपक्रमों से सम्पन्न हो पाते हैं। बुद्धिमान भावनाशील, राष्ट्रभक्त पिता का क्लोन भी वैसा ही निकलेगा जरूरी नहीं।

विज्ञान की इस विधा, जिसमें अनुकृतियाँ तैयार की जाती हैं, का यदि सदुपयोग हुआ एवं जेनेटिक्स के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने वाली उपचार प्रक्रिया के रूप में नियोजित हुआ, तो यह निश्चित ही युगान्तकारी खोज मानी जाएगी। हो सकता है इससे ऐसे मॉडल तैयार हो सकें, जिनमें जीव शरीर में मानव अंग पैदा किये जा सकें, जिनका प्रत्यारोपण आज एक बहुत बड़ी चिकित्सीय आवश्यकता बन गया है। न्यूक्लियर ट्रांस्फर के पूर्व यदि दानदाता की कोशिकाओं में टीश्यू कल्चर में ही वाँछित परिवर्तन कर दिए जाएँ तो हो सकता है, कैंसर, डायबिटीज, एथेटोस्क्लेटोसिस (जो हार्टडीजिज का मूल कारण है) का उपचार खोज लिया जाए। कई जीव-जन्तुओं में जेनेटिक्स के इसी स्तर के प्रयोग कर मनुष्य के लिए कई उपयोगी औषधियाँ उनके शरीर में तैयार कर चिकित्सा-जगत को प्रदान की जा सकती हैं। यह सब इस पर निर्भर करता है कि प्रयोक्ता की विवेक-बुद्धि मानव हित में कार्य कर रही हैं या नहीं।

मात्र रासायनिक परिवर्तन के लिए किये जा रहे भौतिक प्रयास चमत्कारी आनुवंशिकीय परम्पराएँ स्थापित नहीं कर सकते। समर्थ, सुयोग्य सुसन्तति के लिए हमें पुनः भारतरय अध्यात्म, संस्कृति के मार्गदर्शन की ओर जाना होगा। मनुष्य की अन्तश्चेतना स्वनिर्मित है। वह मनुष्य की अन्तश्चेतना स्वनिर्मित है। वह वंश परम्परा से नहीं, संचित संस्कारों और प्रस्तुत प्रयत्नों के आधार पर विकसित होती है। माँ व पिता का परिवार परिकर एवं वातावरण का, संस्कारों का इसमें विशेष योगदान होता है। जब तक गंभीरता से विचार-विमर्श कर सारे राष्ट्र के वैज्ञानिक एक साथ बैठकर इस पक्ष पर चिन्तन नहीं करेंगे, बताकर उसके साथ भेड़ के क्लोन बनाने जैसे हथकण्डे रचते रहेंगे एवं मनुष्य जाति का अस्तित्व खतरे में डाल देंगे। कम से कम भगवान को यह सब मंजूर नहीं है एवं वह ऐसा होने नहीं देगा।


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