बड़ी विलक्षण है स्रष्टा की अनुशासित विधि-व्यवस्था

April 1997

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सन्तुलन एवं सामंजस्य प्रकृति मूलभूत सिद्धान्त है। जड़ से चेतन तक सभी इस नियम से बँधे हैं। आपस में टकराव करने, अनुशासनहीनता बरतने एवं सन्तुलन के नियम में व्यवधान पैदा करने की किसी को कोई छूट नहीं है। क्योंकि पारस्परिक लयबद्धता ही प्राकृतिक विकास का आधार है। इसमें व्यतिक्रम आने का मतलब है-अशान्ति और उद्वेलन के भँवर में जीवन का फँस जाना। ऐसी परिस्थिति में सन्तुलन एवं सुव्यवस्था बनाए रखने के लिए प्रकृति अपना रोष प्रकट करती है। गुस्से में भरी माँ की तरह विघटन एवं आतंक फैलाने वाले अपने उत्पाती बच्चों को दण्डित करती है। उसके दण्ड से कोई नहीं बच पाता।

प्राकृतिक नियम व्यवस्था उसी तरह अनंतता में व्याप्त है, जिस प्रकार स्वयं ईश्वर का अस्तित्व है। इससे परे कोई नहीं है। ग्रह-नक्षत्र, निहारिकाएँ, आकाश-गंगा सभी उसके अनुशासन में बँधे हैं। प्राकृतिक नियमों के लिए सम्मिलित रूप से बताने के लिए एक बहु-प्रचलित शब्द है-’कालचक्र’। सामान्य जन-जीवन में यह शब्द बहुतायत में कहा-सुना जाता है। वैज्ञानिकों ने अपनी विज्ञान की भाषा में इसको भाँति-भाँति से परिभाषित किया है। ‘द एक्सीडेंटल यूनीवर्स’ में पी. सी. व्ही. डेविस ने दो तरह के प्राकृतिक समय का उल्लेख किया है, हब्बल समय और न्यूक्लियस समय। हब्बल समय द्वारा ब्रह्मांडीय परिवर्तन की नाप-जोख होती है। इसके उल्टे न्यूक्लियस समय परिवर्तन के छोटे-से-छोटे रूप को जाँचा-परखा जाता है।

मोटेतौर पर देखने में इन दोनों के बीच कोई सामंजस्य नहीं दिखाई देता। दोनों एक दूसरे से अलग नगज आते हैं। लेकिन वैज्ञानिकों के अनुसार इन दोनों के बीच का अनुपात 1040 है। भौतिक वेत्ता इसे स्थिराँक मानते हैं। गुरुत्वाकर्षण एवं वैद्युत चुम्बकीय मान भी इतना ही होता है। इसका भेद बताते हुए नोबुल पुरस्कार विजेता पाल दिराक ने लिखा था, कि इसका मतलब इतना ही है कि विराट और सूक्ष्म को एक ही प्रकृति नियन्त्रित करती है। बहुत बड़ा हो जाने और बहुत छोटे बन जाने से कोई प्रकृति के नियमों का अतिक्रमण नहीं कर सकता। यह स्थिराँक इसी की सूचना देता है। प्रख्यात ब्रिटिश अन्तरिक्ष शास्त्री जान ग्रिबीन ने इसे ‘द गोल्डी लाक्स इफेक्ट’ द्वारा वर्णन किया है। उनके अनुसार अँधेरा और प्रकाश, सत्य और असत्य, ज्ञान व अज्ञान के बीच भी प्रकृति का सन्तुलन सिद्धान्त निर्बाध रूप से कार्य करता है।

भले ही अलग-अलग वातावरण में जीवन का स्वरूप हमें अलग-अलग दिखाई दे। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है किसी को प्रकृति की नियम व्यवस्था से छुटकारा मिल गया। सभी उसके पारिस्थितिकी तंत्र से संचालित है। बाहरी अलगाव के बावजूद सभी एक-दूसरे से गहराई से जुड़े है। मौसम चक्र, ऋतु-परिवर्तन एक निश्चित समयावधि में होता है। उद्भिज से वृक्षों तक तथा कीड़े-मकोड़ों से मनुष्य तक सभी प्राकृतिक नियमों से संचालित एवं नियंत्रित है। किसी को भी इसमें व्यतिक्रम पैदा करने, व्यवधान डालने की कोई छूट नहीं। जिसने भी उत्पात मचाने की कोशिश की, वहीं कालचक्र की चपेट में आया।

विज्ञानवेत्ता एम. डेविस ने अपने शोध निबन्धों में ढाई से तीन करोड़ साल पहले हुए डायनोसौर के विनाश का वर्णन किया है। उनके अध्ययन के मुताबिक डायनोसौर की सब ओर आधिपत्य जमाने वाली प्रवृत्ति अपने समय में प्राकृतिक सन्तुलन के लिए खतरा बन गयी थी। पहले प्रकृति ने उन्हें सामान्य दण्ड देकर नियंत्रित करने की कोशिश की। जब वे अपनी आदत से बाज न आए तो सौर-परिवार के सदस्य प्लेटो के बाहर ‘ओर्ट क्लाउड’ का निर्माण हुआ। धूमकेतुओं से बने इस बादल के प्रभाव से भीमकाय महाबली डायनासोर्स की समूची प्रजाति समाप्त हो गयी।

वृक्ष’-वनस्पति, कीट-पतंग, जीव-जन्तु यहां तक कि मनुष्य इनमें से किसी की वृद्धि दर यदि अनियमित होने ले जाय, तो प्रकृति की दूसरी सन्तानों के लिए भारी खतरा हो जाएगा। माँ कभी लिए भारी खतरा हो जाएगा। माँ कभी नहीं चाहती कि उसकी एक सन्तान दूसरी का हक छीने। यदि वह प्रजाति प्रकृति के संकेतों को समझ कर स्वयं ही अपना नियंत्रण को समझ कर स्वयं ही अपना नियंत्रण नहीं कर लेती, तो उस पर प्रकृति का कुपित होना निश्चित है। बात सही भी है। अब पीपल के ही वृक्ष को ले लें, एक वृक्ष से अरबों की संख्या में बीज पैदा होते हैं, लेकिन सभी बीजों के विकास के लिए अनुकूलन कैसे सम्भव हो सकता है? यही परिस्थिति हर एक के लिए है। इसमें आयी अव्यवस्था भले थोड़े समय के लिए सृष्टि में संकट पैदा करती दिखाई दे, लेकिन महाशक्ति प्रकृति को उसे नियंत्रित करना कोई कठिन काम नहीं है।

इकोसिस्टम या पारिस्थितिकी तन्त्र हमेशा वितरण, संग्रहण और संगठन के बूते बनता है। व्यक्ति और समुदाय इसकी प्राकृतिक इकाई हैं। ‘द मैसेज ऑफ इकॉलाजी’ में सी. जे क्रेब्स इस इकाई को उसके चारों ओर के वातावरण तथा भूगोल के साथ प्रतिपादित करते हैं। उसके अनुसार किसी भी जीव को इस वातावरण से लाभान्वित होने का हक तो है। परन्तु उसे वातावरण को हानि पहुँचाने का हक नहीं है। जब किसी भी जीव की प्रजाति अपने किसी भी व्यवहार से प्राकृतिक वातावरण को नुकसान पहुँचाती है, तो उसे किसी न किसी तरह से प्रकृति स्वयं सन्तुलित एवं नियंत्रित करती हैं।

‘द रैबिट इन आस्ट्र्लिया’ नामक पुस्तक में के. मेयर्स ने खरगोशों पर रोचक वर्णन किया है। वर्ष 1858 में एच. एम. एस., लाइटनिंग मोलबोर्न आए। उस समय वह अपने साथ एक दर्जन यूरोपियन खरगोश ले आए थे। तीस साल में ये खरगोश 15 लाख वर्ग किलोमीटर में आग की तरह फैल गए। मरुस्थल से अल्पाइन घाटी तक तथा समुद्र तट से विस्तृत घास के मैदान तक इनका विस्तार हो गया। इनकी असाधारण वृद्धि का वातावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना था, सो पड़ा। आत्मनियंत्रण के अभाव में प्रकृति की प्रेरणा से ये खरगोश स्वयं ही किसी जहरीली घास को पाकर मौत का शिकार बन जाते हैं। इस प्राकृतिक नियंत्रण बन जाते हैं। इस प्राकृतिक नियंत्रण ने उनके ऊपर काफी कुछ अंकुश लगा दिया है।

हो भी क्यों न? प्रत्येक जाति की वृद्धि के लिए एक निश्चित क्षेत्र होता है। जब कभी ये जातियाँ अपने स्थान से बाहर भी अपना वर्चस्व कायम कर लेती है, तो प्रकृति या तो उन्हें आत्मनियंत्रण की प्रेरणा देती है, अथवा स्वयं ही उन्हें किसी न किसी तरीके से नियंत्रण में ला देती है। अमेरिकन वैज्ञानिकों ने जीवन के इस पहलू की वैज्ञानिक खोज-बीन की है और इसे इकोवेव कहा है। यही नहीं अमेरिका ने अपने देश की बढ़ती जनसंख्या के लिए एक कार्ययोजना बनायी है। 134 अरब डालर की इस योजना में विदेशी लोगों को प्रश्रय देने सम्बन्धी सभी पहलुओं पर विचार किया जा रहा है।

जनसंख्या वृद्धि दर पर अंकुश जीव-जंतुओं पर ही नहीं, वनस्पतियों पर भी लागू होता है। काफी पहले अमेरिका से आस्ट्रेलिया में ओपुन्सिया केक्टस लाया गया था। 1925 में यह क्वीन्सलैण्ड और विक्टोरिया के तकरीबन एक लाख वर्ग मील में बुरी तरह से फैल गया। इसके इस अमर्यादित फैलाव ने वहाँ दूसरे पौधों का जीना दूभर कर दिया। प्रकृति उसकी इस निरंकुशता को सहन नहीं कर पायी और कालान्तर में अनेक रोगों का शिकार होकर ओपुन्सिया केक्टस स्वयं ही हृस की ओर बढ़ता गया।

इस बारे में ध्यान रखने की चीज यह भी है कि जिस किसी स्थान विशेष में जीव अथवा पौधों की जो प्रजाति होती है, वहाँ उनके कुछ अन्य सहयोगी सदस्य होते हैं। सहयोग-सहकार की प्रेरणाएँ देने वाले प्रकृति के स्पन्दन उन्हें आपस में एक-दूसरे पर निर्भर करने के लिए प्रेरित करते हैं। इस क्रम में दोनों ही सदस्य एक दूसरे को नियन्त्रित रखते हैं। इसके अभाव में दोनों में से कोई अकेला थोड़े समय के लिए चाहे जितनी प्रगति कर ले, लेकिन बाद में उसे नष्ट होना ही पड़ता है। ओपुन्सिया केक्टस के साथ यही हुआ। अमेरिकन वातावरण में पक्षियों की एक विशेष प्रजाति उस पर अवलम्बित थी। बाहरी तौर पर तो वह केक्टस को नुकसान ही पहुँचाती थी। लेकिन यह नुकसान ही उसकी वृद्धि दर नियन्त्रित रखता था। इसके अभाव में अथवा पक्षियों को लाभ न देने की स्थिति में उसे नष्ट होना पड़ा।

प्रकृति सतत् हमें आत्मनियंत्रण एवं सहयोग-सहकार के लिए प्रेरित करती रहती है। एच. डब्लू हुक ने अपने शोध’-ग्रन्थ ‘लेमिंग माइग्रेशन’ में लेमिंग चूहे का ब्योरा दिया है। ये चूहे आर्कटिक टुण्ड्र में रहते हैं। वहाँ ये बर्फ की भीषण ठण्ड को झेल लेते हैं। जब इनकी संख्या बढ़ जाती है, तो पहाड़ों से होते हुए खेतों में घुस जाते हैं और काफी बड़ी मात्रा में फसलों को नुकसान पहुँचाते हैं। कुछ तो यहीं मर जाते हैं, जिससे उस क्षेत्र में पीलिया आदि अनेक बीमारी फैल जाती है। शेष सारे चूहे समुद्र में कूदकर अपनी जान देते हैं। पहाड़ों,ग्लेशियर आदि दुर्गम क्षेत्रों को पार करते हुए समुद्र में इनका सामूहिक आत्महत्या करना एक रहस्य बना हुआ है।

लेमिंग की जनसंख्या में विध्वंसक वृद्धि क्रम से होती है। शुरुआत में आर्कटिक क्षेत्र के प्रति पाँच एकड़ में एक चूहा होता है। बर्फ पिघलने के साथ ही ये बड़ी संख्या में वृद्धि करते हैं। तीन या चार सप्ताह में एक मादा आठ चूहों को जन्म देती है। ये नवजात चूहे एक माह के अन्दर ही वयस्क होकर प्रजनन शुरू कर देते हैं, इस तरह एक दो माह में प्रति एकड़ इनकी संख्या एक से बढ़कर बीस तक पहुँच जाती है। एक साल में उल्लू, लोमड़ी, गिद्ध आदि के शिकार हो जाने के बावजूद भी ये सौ की संख्या को पार कर जाते हैं। इनकी बढ़ी हुई संख्या को सन्तुलित करने के लिए प्रकृति इन्हें आत्महत्या करने को विवश करती है।

‘द आर्कटिक टुण्ड्र्’ में ए. एम. शुल्टज ने इन चूहों की जनसंख्या एवं व्यवहार पर विस्तार से प्रकाश डाला है। शुल्टज के अनुसार जनसंख्या में वृद्धि होते ही ये आपस में मारकाट प्रारम्भ कर देते हैं। वयस्क चूहे बच्चों को मार डालते हैं। प्रजनन के लिए भी उनमें होड़ लगती है। एक मादा चूहा अत्यधिक प्रजनन के कारण अपनी क्षमता को ही खो देती है। इनमें पारस्परिक संघर्ष भी भयंकर होता है। कमजोर व हारे हुए चूहे बहुतायत में इस स्थान से पलायन कर जाते हैं। जिससे पुनः साम्य उपस्थित हो जाता है।

प्रकृति अपने क्रिया-कलापों में संख्या की अतिशय वृद्धि को सदा से नियंत्रित करती आयी है। समुद्र में जब भी सिल्वर फिश, हेरिंग एलेवाइल्स जैसी मछलियों की संख्या में तेजी से वृद्धि होती है, उसके अगले चक्र में इनकी संख्या रहस्यमय ढंग से कम हो जाती है। पक्षियों और तितलियों में भी यह स्थिति देखने को मिलती है। बोल्टेरन सिद्धान्तानुसार परिस्थिति-तंत्र में हर जैविक घटक की महत्ता है। एक घटक में अनियंत्रित वृद्धि का तात्पर्य है-उससे सम्बन्धित अन्य जीवों में कमी होना, जिससे समूचा तंत्र असन्तुलित हो जाता है। इसी को ठीक करने के लिए यह व्यवस्था बनी हुई है।

समुद्र में एक तरह का भूरा शैवाल पाया जाता है। इसे केल्प कहते हैं। ये समूहबद्ध होकर समुद्र की लम्बी यात्रा करते हैं। इस तरह इनकी कालोनी की लम्बाई चालीस फीट तक हो जाती है। सूर्य का प्रकाश और हवा इनकी दुश्मन है। इसी वजह से ये सतह से काफी नीचे रहते हैं। इनकी संख्या में जब अनियंत्रित बढ़ोत्तरी होती है, तो गोलाकार व काँटेदार ‘सी-अर्चिन’ इन्हें खा जाता है और जब सी-अर्चिन अपनी जनसंख्या की मर्यादाओं को तोड़ता है, तो ‘सी-ओटर’ इसे अनुशासन सिखा देता है। ‘सी-ओटर’ जापान के कुरील द्वीप तथा ‘काम-चक्सर’ में पाया जाता है। इसका आमाशय कँटीले सी-अर्चिन को पचा डालता है। इसी प्रकार प्रकृति की अनुशासन व्यवस्था चलती रहती है।

ई. टी. गिलार्ड ‘ने लिविंग बर्ड्स ऑफ द वर्ल्ड’ नामक पुस्तक में उत्तरी अमेरिका के जंगलों में पाये जाने वाले पक्षियों का वर्णन किया है। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में वहाँ ये पक्षी प्रचुर संख्या में थे। एक दिन दोपहर को सौ वर्ग मील के दायरे में इन पक्षियों ने एक साथ अरबों की संख्या में अण्डे दिए। यह स्थान ग्रेट लेक्स के चारों ओर स्थित है। अण्डों के बोझ से वृक्षों की टहनियाँ टूट गयीं। यही नहीं यह स्थान अण्डों से उत्पन्न सल्फर गैस से इतना प्रदूषित हुआ कि करोड़ों-अरबों की संख्या में कबूतर मर गए। पक्षी वैज्ञानिक एलेक्जेंडर विल्सन ने लिखा है कि एक दिन में ही लगभग दो अरब पक्षियों को मरा देखा गया। यह घटना 1800 के आस’-पास की है। लेकिन एक ही शताब्दी के बाद भारी संख्या में अण्डा देने वाले पक्षियों की यह प्रजाति समाप्त प्राय हो गयी। इस प्रजाति का अन्तिम पक्षी 1 सितंबर, 1994 की सिंसीनेटी जुलोजिकल गार्डन में मर गया।

प्रकृति साम्य का सूत्र हाथी अच्छी तरह से समझते हैं। एक हाथी के लिए प्रतिदिन तीन सौ पौण्ड भोजन की आवश्यकता पड़ती है। इस दर से एक हाथी एक साल में 100 वर्ग मील का सफाया कर सकता है। ऐसी स्थिति में धरती में हाथी ही हाथी दिखाई देंगे, जंगलों का नामोनिशान तक मिट जाएगा। लेकिन समझदार हाथी ऐसा होने नहीं देते। वे जंगलों में चारों ओर घूमते रहते हैं तथा समय-समय पर स्थान भी बदलते हैं। यही नहीं अपनी प्रजनन दर को भी कम करके रखते हैं, जिससे हाथी और प्रकृति व्यवस्था के बीच सामंजस्य बना रहता है।

लेकिन इंसान को इतनी भी समझ नहीं है। अमेरिकन जैवविज्ञानी ए. एच. एर्लीक ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘द हृमेन पापुलेशन’ में इस बात का विस्तार से विवेचन किया है। उनके अनुसार सम्भवतः अपने बौद्धिक दर्प में आकर मानव ने प्रकृति की व्यवस्थाओं को चुनौती दे डाली है। अपने घमण्ड की मदहोशी में चूर होकर मनुष्य ने अपनी अनियंत्रित और उच्छृंखल इच्छाओं व वासनाओं से उसने जनसंख्या की स्थिति विस्फोटक कर दी है और भारी विश्व संकट पैदा कर दिया है। आज सारा विश्व जनसंख्या के गहरे कुचक्र में फँस गया है।

इस क्रम में हिन्दुस्तान सबसे आगे है। इसीलिए यहाँ विकास मात्र स्वप्न बनकर रह गया है। क्योंकि इतनी अधिक जनसंख्या को सर्वप्रथम रोटी, कपड़ा और मकान मुहैया करना पहली जरूरत है। जनसंख्या की बढ़ोत्तरी यदि ऐसे ही त्वरित गति से होती गयी तो आगे के कुछ ही सालों में आबादी करोड़ों की सीमा रेखा को पार कर अरबों में पहुँच जाएगी। सन् 1929 के बाद हर दशक में भारत की जनसंख्या तेजी से बढ़ती चली गयी है। 1989 से 19 के बीच के दशक में 16 करोड़ 80 लाख की वृद्धि हुई, जो फ्रांस और इटली की कुल आबादी से कहीं ज्यादा है। अपने देश की जनसंख्या और क्षेत्रफल के बीच काफी विसंगति है। देश की कुल जनसंख्या का 16 प्रतिशत है, जबकि इसका क्षेत्रफल का 2.4 फीसदी है।

जनसंख्या वृद्धि जो सन् 1989 से 19 में 2.13 थी, अब 2.3 हो गयी है। इतनी बड़ी जनसंख्या को भोजन मुहैया कराने के लिए यह आवश्यक है कि हमारा खाद्यान्न उत्पादन प्रतिवर्ष 54 लाख टन से भी अधिक बढ़े, जबकि वह औसतन केवल 40 लाख टन की दर से ही बढ़ पाता है। कमोवेश यह स्थिति केवल अपने देश की नहीं बल्कि सारे विश्व की है।

मर्यादाओं को तोड़ने का परिणाम है-जनसंख्या में बेतहाशा वृद्धि। परन्तु जीव-जन्तुओं, वृक्ष-वनस्पतियों पर अंकुश रखने वाली प्रकृति इंसान को भी छोड़ती नहीं है। वह अपनी क्षमताओं और उपलब्धियों पर कितना भी घमण्ड क्यों न करे, पर प्रकृति के कुपित होते ही उसका सारा घमण्ड धरा रह जाता है। एड्स नामक भयावह रोग इंसान के ऊपर प्रकृति का कोप ही है। जो उसने मानव को आत्म-नियंत्रण सिखाने के लिए किया है। यदि वह अपनी यौन उच्छृंखलताओं को नहीं त्यागता तो उसे एड्स रोगी बनकर तड़प-तड़प कर मरने के लिए उद्यत होना पड़ता है।

अंधविश्वास कहें या प्रकृति का अग्र रूप, बोस्निया का सामूहिक नर-संहार इसी संतुलन की ओर इंगित करता है। ‘डार्क नेचर’ नामक प्रसिद्ध पुस्तक में मनीषी लायल वाट्सन ने मनुष्य की हिंसा व आक्रामकता को लेमिंग चूहे की तरह दर्शाया है, जो स्वयं मार-काट करके अथवा फिर सामूहिक आत्महत्या करके मर जाते हैं। ‘टाइम’ के 16 मई, 1994 के अंक में नेन्सी जिब्स ने अफ्रीका में भयंकर हत्या का वर्णन किया है। नेन्सी का कहना है कि अफ्रीकी जनजातियाँ जब उग्र हो जाती है, तो कुछ भी कर गुजरते हैं। अपनी अन्ध-परम्परा के वशीभूत होकर वे अपनी ही जाति के लगभग 50 हजार लोगों की हत्या कर चुके है। इस प्रथा से पूरी जाति ही नष्ट होने के कगार पर है।

‘द वोयेज ऑफ द बीगल’ में चार्ल्स डार्विन ने प्रकृति की इसी नियम व्यवस्था का रोचक वर्णन किया है। डार्विन की मान्यता है कि शरीर की

प्रत्येक कोशिका से लेकर विराट-ब्रह्माण्ड तक सभी एक ही स्त्रोत से ऊर्जा पाते हैं। जीवन के प्रत्येक घटक के लिए आत्मनियंत्रण एवं दूसरे घटकों के साथ सामंजस्य प्रकृति का अनिवार्य अनुशासन है। इसी से लयबद्धता पैदा होती है और जीवन संगीत अपना उत्कृष्ट रूप पाता है।

डार्विन ने इस कृति में उल्लेख किया है कि मैंने ब्राजील के घने जंगलों में प्रथम दिन ही प्रकृति की इस अद्भुत व्यवस्था का अवलोकन किया। मानव बुद्धि इस तथ्य को हृदयंगम करे या न करे सृष्टि का हर घटक इसी चैतन्य ऊर्जा से अनुप्राणित और अनुबन्धित है। इकॉलाजी को समझने वाले इसी को ऊर्जा शृंखला के रूप में उद्घाटित करते हैं।

ब्रह्माण्ड में एक अणु का भी उतना महत्व है, जितना किसी नक्षत्र का। परमाणु के अन्दर परिक्रमा करने वाले इलेक्ट्रानों में भी व्यतिक्रम आ जावे तो तबाही मच जाती है। हर घटक चाहे वह इलेक्ट्रॉन हो या जीवाणु, पादप हो या फिर प्राणी, अपने नियमों, अनुशासन को पालन करते हुए चलते हैं। इसी तरह वातावरण व जीवन के बीच भी अंतर्संबंध में स्नेह-सूत्र जुड़े हुए है। इस व्यवस्था को तोड़ने वाला चाहे कोई भी हो, उसे दण्डित होना पड़ता है। ऐसे में मानव की मर्यादाहीनता, उच्छृंखलता को प्रकृति कैसे प्रश्रय दे सकती है। अच्छा है वह समय रहते चेत जाए। प्रकृति ने इसलिए उसे बुद्धि-विवेक का अनुदान दिया है, ताकि उसे आत्मनियंत्रण, आत्म-संयम तथा सहयोग, उदारता को अपनाने में कोई दिक्कत न हो। सृष्टि के सबसे बुद्धिमान प्राणी का गौरव इसी में है कि वह स्वयं मर्यादित रहे और दूसरे को मर्यादित रहने में सहयोग दे।


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