लोभ हमें अंधा करता है।

April 1997

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उसके आँखें भले ही न थीं, लेकिन आवाज काफी सुरीली थी। लोग उसके गीतों को मुग्ध होकर सुनते थे। उसने भी काफी पद, दोहे, चौपाइयाँ, भजन आदि याद कर रखें थे। जिस किसी बस्ती में वह जाता, आस-पास भीड़ जमा हो जाती। सभी उसे आदर से अन्धे बाबा कहकर पुकारते।

प्रतिदिन उसके लिए किसी न किसी घर से खाना आ जाता था। वह हमेशा गाँव से थोड़ी दूर बगीचे में बने मन्दिर में रहता था। बाहर के यात्री भी बगीचे में आते, बाबाजी के दर्शन करते और कुछ प्रसाद-दक्षिणा आदि दे जाते।

धीरे-धीरे बाबा के पास काफी रुपए इकट्ठे होने लगे। अब वह खाली समय में बार-बार उन्हें गिनता रहता। उसके मन में अब लोभ अंकुरित होने लगा था। उसे बराबर यही लगता रहता कि ये रुपए और ज्यादा कैसे बढ़ें? उसने रुपयों से गिन्नियाँ खरीद लीं और उन्हें एक थैली में डालकर अपनी कमर में बाँध लिया। सोते-जगते, उठते-बैठते हर समय उसका मन गिन्नियों में उलझा रहता। कहीं कोई इन्हें चुरा न ले जाय, इस चिन्ता में उसकी सारी प्रसन्नता काफूर हो गयी।

अन्धे बाबा के पास गिन्नियाँ हैं, यह बात कुछ ठगों को पता चल गयी। उन्होंने तत्काल बगीचे में आकर बाबा के दर्शन किए। प्रणाम के अनन्तर उन्होंने कहा-हम बहुत बड़े जौहरी हैं और तीर्थयात्रा पर निकले हैं। आज का दिन धन्य है जो आप जैसे सन्त-पुरुषों के दर्शन हुए। आप आज हमारे यहाँ प्रसाद ग्रहण कीजिए। उन्होंने बड़े प्रेम से बाबा को भोजन कराया और दक्षिणा में एक सोने का सिक्का बाबा को भेंट किया।

सोने के सिक्के की खनकदार आवाज सुनते ही बाबा का मन ललचा उठा। अन्धा होने के बावजूद बाबा सिक्कों को उनकी खनक से पहचान लेते थे। उनका मन खुशी से फूला न समा रहा था।

ये ठग तीन दिन वहाँ ठहरे और प्रतिदिन बाबा को बढ़िया जायकेदार भोजन कराने के साथ सोने का एक-एक सिक्का भेंट किया। तीसरे दिन ठगों ने जाने की तैयारी की और बाबा से बोले-महात्मा जी! आपके दर्शन करके हमें बहुत आनन्द प्राप्त हुआ। इसीलिए हम यहाँ तीन दिन रुके रहे। आगे हमें अनेक-तीर्थ स्थानों पर जाना है। पर हमें एक कठिनाई का सामना करना पड़ेगा।

बाबा ने पूछा-वह क्या कठिनाई है? उन्होंने कहा-महाराज, हमने ऐसा निर्णय ले रखा है कि हर रोज किसी न किसी सन्त-महात्मा को भोजन करवाकर तथा उन्हें स्वर्ण मुद्रा दक्षिणा में देकर ही अन्न-जल ग्रहण करेंगे, लेकिन प्रतिदिन यात्रा करते हुए सच्चे साधु का मिलना बेहद कठिन है। अतः हमें अपनी प्रतिज्ञानुसार अक्सर कभी एक दिन, कभी दो दिन व्रत करना पड़ता है। यदि आप तीर्थयात्रा में हमारे साथ चलें तो हमें प्रतिदिन आपके दर्शनों का लाभ मिलता रहेगा और नियम की पूर्ति भी होती रहेगी।

इस प्रकार का प्रस्ताव सुनकर अन्धे बाबा बड़े प्रसन्न हुए। वे मन ही मन सोचने लगे कि मेरे लिए यह बड़ा सुअवसर है। प्रतिदिन भोजन के बाद एक स्वर्ण मुद्रा भी दक्षिणा में मिल जाएगी और तीर्थयात्रा भी हो जाएगी। उन्होंने तुरन्त स्वीकृति दे दी और कहा ऐसा पवित्र कार्य तो तुम जैसे भाग्यशाली पुरुष ही सकते हैं, अन्यथा मुझ जैसे सूरदास को भला कौन तीर्थयात्रा करवाएगा।

बस देरी क्या थी? उन ठगों को तो यही इन्तजार था। उन सबने रथ तैयार करवाया और अन्धे साधु को बिठाकर वहाँ से रवाना हो गए। दो-तीन दिनों में उन्होंने काफी लम्बा रास्ता पार कर लिया और प्रतिदिन बाबाजी को भोजन करवाकर एक-एक सिक्का भेंट से बहुत प्रसन्न थे। उनको ठगों पर कोई शक नहीं हुआ।

एक दिन यात्रा करते हुए बहुत घना जंगल आया। ठगों ने अवसर देखकर कहा-बाबाजी, यह बड़ा बीहड़ जंगल है। पर्वतों व घाटियों में होता हुआ यह रास्ता बहुत घुमावदार है। यहाँ से एक सीधी-पगडण्डी गाँव को जाती है। वहाँ हमें आज रात तक पहुँचना है। किन्तु इस पगडण्डी से रथ पार नहीं हो सकता। रथ तो चक्कर काट कर ही गाँव पहुँचेगा। आप भी ऊबड़-खाबड़ रास्तों में रथ पर परेशान हो जाएँगे। यह पगडण्डी इतनी समतल है कि आप लाठी के सहारे चलते हुए भी एक घण्टे में पहुँच जाएँगे। शाम को हम सब मिल जाएंगे, अन्यथा आप को अधिक कष्ट होगा।

बाबा की समझ में यह बात आ गयी। वह रथ से उतर गया। ठगों ने कहा-बाबाजी, जोखिम वाली कोई भी वस्तु आप साथ मत रखिएगा। जंगल का मामला है, क्या मालूम कोई चोर-उचक्का मिल जाए। बाबा ने अपनी कमर से बँधी सिक्कों वाली थैली खेलकर रथ में रख दी बाबा के मन ठगों के प्रति पूरा विश्वास जम चुका था। ठगों का काम बन गया। सारा धन उनके कब्जे में आ गया। चलते-चलते उन्होंने फिर बाबा से कहा, सम्भल कर चलते रहिएगा।

अन्धा बाबा लाठी के सहारे अकेला चल पड़ा। कुछ दूर आगे बढ़ने पर एक व्यक्ति ने बाबा को दूर आगे बढ़ने पर एक व्यक्ति ने बाबा को दूर से देखा और आवाज लगाई-बाबा, इधर कहाँ जा रहे हो? यह मार्ग नहीं है। आगे खाई है। आप गिर जाओगे। ठहरो, आगे मत बढ़ो। बाबा ने सोचा-अवश्य कोई धूर्त व्यक्ति है, जो मुझे गुमराह करना चाहता है। उन्हें ठगों द्वारा कही बात याद आयी, क्या मालूम रास्ते में कोई चोर-उचक्का मिल जाए। उस राहगीर ने ज्यों-ज्यों बाबा को रोकना चाहा, त्यों-त्यों बाबा ने तेजी से आगे कदम बढ़ाए। बाबा ने उसकी एक नहीं सुनी। परिणाम यह हुआ कि बाबा एक गहरे गड्ढे में जा गिरे। राहगीर ने दौड़कर उन्हें जैसे-तैसे ऊपर निकाला। बाबा के सिर पर गहरा जख्म था, राहगीर की बातों-”आँखों से नहीं, आदमी लोभ से अन्धा हो जाता है। लोभ ने मेरे मन की रोशनी समाप्त कर दी।”

उन्होंने राहगीर को सम्बोधित करते हुए कहा-”भाई तुम्हें जो मिले उसे मेरी कहानी सुनाते हुए कहना, कोई किसी को नहीं ठगता। आदमी खुद ही अपने लोभ से ठगा जाता है। लोभ मनुष्य का सब कुछ यहाँ तक कि प्राणों का भी हरण कर लेता है।” अपनी बात पूरी करते-करते अन्धे बाबा के प्राण पखेरू उड़ गए। राहगीर उनकी बातों को सोचते हुए थके पाँवों से आगे बढ़ चला।

उन्होंने राहगीर को सम्बोधित करते हुए कहा-”भाई तुम्हें जो मिले उसे मेरी कहानी सुनाते हुए कहना, कोई किसी को नहीं ठगता। आदमी खुद ही अपने लोभ से ठगा जाता है। लोभ मनुष्य का सब कुछ यहाँ तक कि प्राणों का भी हरण कर लेता है।” अपनी बात पूरी करते-करते अन्धे बाबा के प्राण पखेरू उड़ गए। राहगीर उनकी बातों को सोचते हुए थके पाँवों से आगे बढ़ चला।


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